Tuesday, November 21, 2017

नौ बैणी आछरी बारा बैणी भराड़ी (1)....

        भावविभोर करती पंक्तियां  नौ बैणी आछरी बारा बैणी भराड़ी...... ‘ उत्तराखण्ड युवा सिने अवार्ड-2013’, दिल्ली में पाण्डवा ग्रुप की ओर से ‘पम्मी नवल’ द्वारा गाये गये सुमधुर गीत की है। गीत में नौ बैणी (बहिनेंद्) आछरियों और बारह बैणी भराड़ियों से उत्तराखण्डी जनता की कुशलता की कामना की गयी है। आछरी, भराड़ियों, मांतरियों के बारे में हम बचपन से ही सुनते आ रहे थे। कोई बन-ठन कर कहीं जा रहा हो तो लोग मजाक में कह देते थे ‘ध्यान से जाना, कहीं आछरी न हर लें...’ । सुनते थे कि आछरी, भराड़ी सम्मोहित कर प्राण हरती है परन्तु प्रसन्न होने पर वरदान भी देती है। गढ़वाली लोकगाथाओं के नायक जीतू बगड़वाल और लाल सिंह कैन्तुरा पर आछरियां आसक्त हुयी और  सशरीर हर ले गई। आछरी अर्थात अप्सरा, परी, divine girl आदि। जौनसार-बावर, रवांई-बंगाण व फूलों की घाटी आदि अनेक निर्जन व रमणीक जगहों पर आछरी, भराड़ियों का निवास माना जाता है। टिहरी में आज भी मुखेम आदि अनेकांे धार पर आछरियों का निवास है माना जाता है, जिसमें खैटपर्वत प्रमुख है। इसीलिये ऊँचाई व निर्जन स्थान पर स्थित खैटपर्वत को नाम दिया गया है ‘परियों का देश’।
            भूत, हन्त्या और देवता तथा जादू-टोने का असर साक्षात देखने की मेरी बड़ी प्रबल इच्छा हमेशा रही है। परन्तु इस मामले में मैं भाग्यशाली नहीं हूँ। दो बार ऐसा भी हुआ कि मेरे साथ चलने वाले व्यक्ति को भूत ने दर्शन दिये और मुझे ठंेगा दिखा दिया। काला जादू के लिये विख्यात बंगाल के लोगों के साथ मैं युवावस्था में पूरे आठ-नौ साल रहा, परन्तु काले जादू का करिश्मा कभी नहीं देख पाया। देहरादून के जौनसार में ही चार साल तक सीजनल कैम्प करते आये हैं, परन्तु जादू-टोने से भेड़ बनाये जाने के लिये खामखाह बदनाम जौनसार में किसी ने भी मुझे भेड़ नहीं बनाया। भूत-प्रेत, जादू-टोना, आछरी-मांतरी न देख पाने की कसक कहीं मेरे साथ ही न खत्म हो, इसलिये मैंने एक उम्मीद के साथ आछरियों के देश जाने का फैसला लिया।
‘परियों के देश’ खैटपर्वत पर श्रीमद्भागवत कथा व शिवपुराण के आयोजन की सूचना मिली तो मैं आदतन अकेले ही चल पड़ा। देहरादून से ऋषिकेश, टिहरी होते हुये पीपलडाली तक बस से। पीपलडाली में सयोंगवश अपने पुरोहित पं0 परमानन्द भट्ट जी मिल गये जो मुझे अपनी मोटर साईकिल से पन्द्रह किलोमीटर दूर धारमण्डल पट्टी के भटवाड़ा गांव तक छोड़ आये। खैट जाने के लिये भले ही अन्य गांवों से भी रास्ते हैं परन्तु मैं भटवाड़ा से ही खैटपर्वत पर चढ़ने की योजना बना चुका था। भटवाड़ा के पूर्व प्रधान श्री शान्ति प्रसाद डंगवाल जी से फोन पर दो दिन पहले ही भतीजे बलवन्त ने बात करवा दी थी। भटवाड़ा पहुँचने पर जब डंगवाल जी ने फोन नहीं उठाया तो शंका हुयी कि वे कहीं चले न गये हांे। हमारे पुरोहित भट्ट जी ने सड़क पर जहाँ छोड़ा था वहाँ सड़क किनारे दो दुकानंे थी। एक पर सिलाई मशीन रखी हुयी थी, परन्तु वहाँ पर कोई था नहीं। मशीन पर फंसे कपड़े को देखकर स्पष्ठ था कि अभी-अभी ही कोई काम अधूरा छोड़कर कहीं गया होगा। बगल की दुकान में एक महिला बैठकर मैगी खा रही थी, लंच के रूप में या भूख लगने पर, कह नहीं सकता। वैसे भी गावों में अधिकांश लोग अब भूड़ी-पकोड़ी बनाने के झंझट में नहीं पड़ते, झट से मैगी का पैकेट मंगाया, खोला और गैस के चूल्हे पर दो मिनट में मैगी तैयार। न ज्यादा खटराग, न मेहनत और न धुआं ही। हमारी चाची-ताई, माँ-दादी का जमाना कितना मुश्किल भरा था कि दोपहर/अपरान्ह में भूख लगने पर आस-पास के खेतों, सग्वाड़े से राई, मूली, अरबी, चौलाई आदि के पत्ते नोचते या घर में रखे चार आलू-प्याज काटते और लकड़ी के चूल्हे पर जतन से पकाकर भूख शान्त करते। हालांकि घर से उठा कमबख्त धुआं गांव भर में ढिण्डोरा पीट देता कि देखो फलां के यहाँ भरी दोपहर खाना पक रहा है। कैसी आग लगी इनके पेट को। और धुएं को देखकर तो कोई न कोई चटोरा खाने के लालच में ऐन वक्त पर पहुँच भी जाता।          
             मैगी खाने वाली इस महिला से पूछा तो उसने मैगी का कौर मुहँ में रखते हुये बैठे-बैठे वहीं से डंगवाल जी के घर का रास्ता समझा दिया। कुछ चढा़ई चढ़ने के बाद मैं एक बड़े से पेड़ के नीचे स्थित पनधारे पर पहुँचा तो वहाँ सुस्ता रही व गप्पें लड़ा रही महिलाओं, जो शायद मनरेगा में कार्य करती होंगी से मैंने डंगवाल जी के घर का रास्ता फिर पूछा क्योंकि उस जगह से दो रास्ते अलग-अलग दिशाओं को जा रहे थे। रास्ता उन्होंने बता दिया परन्तु साथ ही जोड़ दिया कि उनके घर में एक कुत्ता भी है। कहावत है कि ‘अपने यहाँ के भूत और परायी जगह के कुत्तों से आदमी डरता ही है।’ कुत्ते से मुझे डर लगता है कहने पर उनमें से एक औरत ने डंगवाल जी की पत्नी को नाम लेकर पुकारा, जब उस ओर से कोई जवाब नहीं आया तो एक अधेड़ उम्र की औरत ने पुकारने वाली को ही निर्देश दिया कि ‘तू ही जा, इनको वहाँ तक छोड़ आ।’  मैंने उनका धन्यवाद किया। परन्तु मैंने गौर किया कि उन्होंने मेरा परिचय तक नहीं पूछा। तो क्या मेरा गढ़वाली बोलना ही पर्याप्त था या टी. वी., मोबाईल फोन व सोशल मीडिया वाले इस जमाने में किसी से जुड़ने और हालचाल जानने की आत्मीयता ही खत्म हो गयी? डंगवाल जी घर पर ही मिले, उन्होंने बताया कि बिजली न होने के कारण मोबाईल चार्ज नहीं हो पाया इसलिये फोन बन्द है। पूरी आत्मीयता के साथ उन्होंने अपने घर पर बिठाया और चाय-पानी पिलाकर वायदे के अनुसार विशेष हिदायत के साथ एक लड़का मेरे साथ भेज दिया। अंकित नाम के इस लड़के ने गाईड तथा पोर्टर ही नहीं सुरक्षाकर्मी की भूमिका भी निभाई। 
                                                                                                       क्रमशः अगले अंक में.............


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