Sunday, November 26, 2017

नौ बैणी आछरी बारा बैणी भराड़ी..(2)


 खैट जाने के लिये उनके यहाँ से निकले तो थोड़ी चढ़ाई के बाद रास्ते में लगभग तीन सौ मीटर दूरी तक सिंचाई नहर की पटरी पर साथ चले। सिंचाई नहर पक्की थी, परन्तु उस पर रुके हुये पानी में गांव वालों ने भीमल की टहनियों को मुठ्ठियां बनाकर भिगोने डाल रखी थी जो पत्थरों से दबा रखी थी, ताकि पानी में डूबी रहे। पुरानी सेळू  (सन) नहर के बाहर फेंकी हुयी थी, जिससे यह तो स्पष्ठ था कि सन का उपयोग अब गांव के लोग नहीं करते हैं। भीमल की टहनियों से पूरी नहर भरी हुयी थी, मैने ऐसा पहली बार देखा। हमारे गांव में तो पास की गाड में ही भीमल की मुठ्ठियां भिगोने डाली जाती थी। कुछ समय तक पानी में रहने के बाद भीमल की छाल आसानी से उतर जाती है और उसे कूट कर सफेद सन तैयार हो जाती है। इस सन से कृषि व घरेलू उपयोग में आने वाली रस्सियां आदि बनायी जाती थी। 
 

छाल उतर जाने के बाद भीमल की सूखी लकड़ी चूल्हे में खाना पकाते समय गीली व कच्ची जलावन लकड़ी सुलगाने के काम आती। इस तरह चारे के रूप में भीमल के पत्तियों के अतिरिक्त उसकी टहनियों की छाल व लकड़ी भी बहुत उपयोगी होती है। साथ चल रहे अंकित को मैंने पूछा कि ‘तुम्हारे गांव वाले सन को इस प्रकार क्यों फेंक देते हैं?’ तो उसका जवाब था कि ‘अब गांव में कोई खेती करने को राजी नहीं है इसलिये रस्सी, दौंळी  , दांऊं, मुशके, चारपाई की रस्सियां आदि की जरूरत ही नहीं पड़ती है और बुनने वाले भी तो अब रहे कहाँ.....।’  यह कहते वक्त पलायन के कारण बंजर खेतों और उजाड़ गांवों को देखकर उपजी पीड़ा अंकित के चेहरे पर स्पष्ठ झलक रही थी। 

नहर पार करते ही रास्ता तीखी चढ़ाई वाला था। पहाड़ों में हर मौसम में दिन के दो बजे बाद से ही हवा चलनी शुरू हो जाती है और हम लोग तो भटवाड़ा से ही चार बजे के बाद निकले थे। ज्यों-ज्यों ऊपर चढ़ते गये पसीना खूब बहने लगा, भीतर बनियान गीली हो गयी यहाँ तक कि बाहर पहनी हुयी टी शर्ट भी। परन्तु माथे पर चू रही पसीना गालों तक आने से पहले ही सूख जाता, मानो हवा ने कसम ली हो कि मैं गालों को नहीं भीगने दूंगी। 

लगभग डेढ़ किलोमीटर निरन्तर चढ़ने के बाद एक जगह पर हम थोड़ा सुस्ताने बैठ गये तो मैंने अंकित से पूछा कि ‘क्या यही एक दुर्गम रास्ता है इस गांव से खैट जाने के लिये ?’  तो उसने जवाब दिया कि ‘नहीं, यह खैट
जाने का रास्ता नहीं बल्कि मवेशियों के चलने का रास्ता है। सही रास्ता तो गांव के पूर्वी किनारे से है और हम गांव के पश्चिमी छोर से चढ़ रहे हैं। आप सड़क से आधा किलोमीटर ऊपर प्रधान जी के घर तक पहले ही चढ़ चुके थे, ऐसे में नीचे उतरते और फिर उस पार जाकर चढ़ते तो बुद्धिमता नहीं होती। हाँ, वापसी में जरूर हम उसी रास्ते से आयेंगे। अब तो हम उस रास्ते के मिलान पर पहुँचने ही वाले हैं।’ तीव्र ढलान के साथ-साथ रास्ता पथरीला व संकरा भी था जिससे शरीर का सन्तुलन बनाने के साथ-साथ सारा ध्यान अपने पैरों की तरफ ही रखना पड़ रहा था। चलते-चलते अचानक जब कपड़े कभी कंटीली झाड़ियांे में उलझ जाते तो लगता जैसे कोई पीछे खींच रहा है, कोई मुझे रोकना चाह रहा है। भटवाड़ा के आसपास भीमल, डैंकण, तुंगला आदि पेड़ों के साथ-साथ आड़ू, चुलू आदि अनेक फलदार पेड़ दिखाई दिये वहीं इस ऊँचाई पर चीड़ के पेड़ ही बहुतायत में हैं। एक जगह थोड़ा रुका तो सामने चट्टान पर दौड़ते हुये दो हिरण दिखे। भोजन की तलाश में थे या खतरे की आशंका से भाग रहे थे, कह नहीं सकता। मन ही मन सोचा, इस जंगल में यदि हिरण हैं तो बाघ भी अवश्य होंगे। अतः अकेले यात्री के लिये यह मार्ग सुरक्षित नहीं है। 

खैट जाने वाले मुख्य मार्ग पर पहुँचे तो मन को सकून मिला। घने पेड़ों के बीच एक सीमेण्ट की बेंच लगी थी। अंकित ने बताया कि ‘मुख्य मार्ग पर इस प्रकार की पूरी सात बेंच है। जो कि लगभग पच्चीस साल पहले ग्राम प्रधान भटवाड़ा के सहयोग से वन विभाग द्वारा बनवायी गयी थी।’  मैंने उसे छेड़ने के अन्दाज में कहा कि ‘तब तो तुम पैदा भी नहीं होंगे फिर तब तुम यह सब कैसे जानते हो?’ ‘गांव के बड़े-बूढ़ों से यह बात सुनी है’, उसका जवाब था। इस जगह से बांज, मोरू, बुरांस, तूण, ग्वीर्याळ आदि के पेड़ मिलने शुरू हो गये थे। 

आगे चढ़ते हुये हम पहाड़ी की गर्दननुमा उस जगह पर पहुँचे जिसे स्थानीय लोग ‘रागस खाल’ नाम से जानते हैं। रागस खाल की आकृति कुछ-कुछ ऊंट की गर्दन जैसी है। भूविज्ञान में इस प्रकार की जगह को अभिनति आकार (Synclinal Structure) कहते हैं। इसके दक्षिण-पूरब में पहाड़ी पर सिर की ओर खैट पर्वत स्थित है और उत्तर-पश्चिम अर्थात पूंछ की ओर पीड़ी-प्रतापनगर की पहाड़ी है। इस जगह से पश्चिम में भटवाड़ा आदि गांवों का ही नहीं बल्कि पूरब में ढुंगमन्दार के अनेक गांवों का विहगंम दृश्य दिखायी दे रहा था। बीचों-बीच बह रही सुनेरी गाड के दोनो ओर हरी-भरी खेती व बड़े-बड़े गांव मन मोह रहे थे। जब सड़कें व संचार साधन नहीं थे तब ऐसे ही दूर किसी पहाड़ी के पीछे बसे गांव में ब्याही गयी बेटी मायके में रह रहे माँ-बाप, भाई-बहिनों की याद में व्याकुल होकर गाती होगी;

‘उड़ी जा कागा बादळू  बीच, मेरू रैबार ली जा मेरी माँजी मां....
 
सामने झाड़ियों पर रंगीन कपडो के टुकड़े बँधे दिखे और पास ही कुछ चूड़ियां भी। अंकित ने बताया कि इस मार्ग पर यह पहला थान (देवस्थल) है आछरी का। यहां पर पीढ़ी से खैट के लिये प्रस्तावित पाईप लाईन बिछी देखी, परन्तु योजना अभी अधूरी पड़ी है।

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