Wednesday, July 29, 2020

उफ, ये देहरादून की बारिस !

वर्षा ऋतु में पच्चीस-तीस साल पहले के देहरादून की बारिस के कुछ किस्से भुलाये नहीं भूलते।


1.    विभागीय मुख्यालय- लखनऊ से रोकड़िया के. बी. श्रीवास्तव देहरादून आये थे। हमारा ऑफिस तब बसन्त विहार में था। के. बी. बाबू को शाम जनता एक्सप्रेस से लौटना था। दिन भर साथ ही ऑफिस में रहे, शाम को घर लौटते समय मैंने कहा मैं आपको स्टेशन छोड़ देता हूँ। सोचा अनुराग नर्सरी के आसपास चाय पीते हुये चलेंगे पर ऑफिस से निकले ही थे कि आशमान झमाझम बरसने लगा। इसलिए चाय का बिचार त्यागकर चलते रहे। कांवली रोड वाले बिन्दाल पुल पर पहुँचे तो पुल डूब चुका था (तब पुराना पुल संकरा और नीचे था)। गोबिन्दगढ़ से जाना चाहा पर वहाँ भी सड़कों पर पानी लबालब भरा था। वापस बल्लीवाला चौक, बल्लूपुर चौक, चकरॉता रोड, तिलक रोड, भण्डारी चौक होते हुये रेलवे स्टेशन पहुँचे तो ट्रेन प्लेटफार्म पर लग चुकी थी। बारिस में सड़क के अदृश्य गड्ढों से ही नहीं सामने वाले की रफ ड्राईविंग से भी स्कूटर चलाते हुये बचकर चलना होता है। बारिस इतनी तेज थी कि अण्डरगारमेण्ट्स तक में से भी पानी इतना बह रहा था जैसे नदी में डुबकी मारकर बाहर निकलने पर।

2.    एक बार मेरे दोनों बच्चों को बुखार आ गया। शायद छः-सात साल के रहे होंगे। दिन चढ़ने पर बुखार तेज होता गया था। मैंने श्रीमती जी को और बच्चों को स्कूटर पर बिठाया और डॉक्टर दिखाने को निकला। समय थोड़ा गलत चुन लिया था, दिन के डेढ़-पौने दो बजे होंगें। एक डॉक्टर के पास गया पर वे उठने की तैयारी में थे और ‘शाम को आना’ कहकर निकल गये। दूसरे और फिर तीसरे के पास, पर सभी ने शाम को दिखाने को कहा। मैंने श्रीमती जी को कहा ‘अब आ गये हैं तो फिर शाम को दिखाकर ही जायेंगे। लिहाजा समय काटने के लिए पिक्चर ही देख लेते हैं, दो से पाँच का शो।’ वह राजी हो गयी। हम चकरॉता रोड पर नटराज सिनेमा चले गये।
          पिक्चर खत्म होकर बाहर निकले तो बाहर आशमान झमाझम बरस रहा था। नटराज वाला चौकीदार शो शुरू होने पर चैनल बन्द कर देता है पर बारिस रुकने के इन्तजार में हमारे जैसे चार-छः और लोग भी चैनल के बाहर खड़े थे। हॉल के बरामदे का प्रोजक्शन मुश्किल से एक-डेढ़ फीट ही बाहर होगा जिससे हम उस तेज बारिस में कमर से नीचे भीग ही रहे थे। पौन घण्टा रुकने के बाद भी बारिस नहीं रुकी तो मैंने स्कूटर स्टार्ट किया, पर बुरी
तरह भीगने के कारण डॉक्टर के पास जाने की हमारी स्थिति नहीं थी इसलिए सीधे घर आ गये। यह सोचकर कि डॉक्टर को कल दिखा देंगे। रात खाना खाते समय देखा तो बच्चों का बुखार पूरी तरह गायब था।

 
3.    मेरे बच्चे तब डालनवाला के एक प्राईवेट स्कूल में पढ़ते थे और बस से आते-जाते थे। आशमान में बदरा घिर आये थे। बाजार से लौट रहा था तो सोचा बच्चे भीग न जायें क्यों न मैं ही उन्हें लेते चला जाऊं। पर तेज बारिस में मैं ही नहीं बच्चे भी बुरी तरह भीग गये। आराघर चौक पहुँचा तो देखा कि आठ-नौ साल के कुछ स्कूली बच्चे उस बारिस में नहर से लगी सड़क पर अपने बस्ते बहा रहे थे और नहीं बहने पर किक मार रहे थे।                                                                                            
(पुराने लोगों को पता है कि आराघर चौक में पहले एक बहुत बड़ा पिलखन का पेड़ था और सड़क दो हिस्सों में बंटी थी। पिलखन के पेड़ की सीध में धर्मपुर की ओर अर्थात आज की सड़क के बीचों-बीच दस-बारह दुकानों का एक छोटा सा बाजार भी था। जिसमें गढ़वाल ऑप्टिकल्स, शराब का ठेका और उसकी बगल में मच्छी की पकौड़ी बनाने वाले की व अन्य दुकानें थी। तब देहरादून की नहरें आज की तरह भूमिगत नहीं थी। ई. सी. रोड और बलवीर रोड का पानी जब बाजार के पीछे वाली पतली सड़क पर बहता था तो काफी बहाव हो जाता था। भारी बस्ते तो नहीं पर जूते-चप्पल आसानी से बह जाते थे।)