आज घर के पिछवाड़े लगभग पांच सौ वर्गफीट के किचन गार्डन में तीन बाय तीन फिट का एक गड्ढ़ा बना दिया है मरास के लिए। फल व सब्जी के छिलके जो पहले कूड़े के ढेर में चले जाते थे अब हम उसे मरास में डालेंगे। बीच-बीच में पलटते रहने से यह जैविक खाद बनेगी और घर के गमलों व किचन गार्डन के काम आयेगी। गढ़वाली भाषा में ‘मरास’ गोबर के ढेर को कहते हैं। घरों में ढोर-डंगरों के मल को एक नियत स्थान पर ढेर बनाकर रखा जाता है और सड़ने पर उसे खाद के रूप में इस्तेमाल करते हैं। मरास संभवतः ‘मरा’ व ‘अंश’ शब्दों से मिलकर बना होगा। जो कि पहले मराशं, फिर मराश और अब मरास कहकर उच्चारित हो रहा है। कभी-कभी मरास शब्द का प्रयोग केवल एक ढेर के लिए भी होता है। यथा; ‘तै थैंं खाणै पूरी मरास छैन्दि...।’ ‘अफु मरास कर पसर्यूं अर हैका पर हुकम चलौणू....।’(विस्तार में तो गढ़वाली भाषा के महारथी रमाकांत बेंजवाल जी ही बता सकते हैं।)
मरास की बात चली तो बचपन की याद आ गयी। गांव के हमारे छः वास(तीन बौण्ड/पाण्डा और तीन ओबरे) वाले घर में मेरा व मेरे चाचा जी का परिवार रहता था। तीन बौण्ड(ऊपर के कमरों) के आगे पूरी लम्बाई में ग्रिल से बन्द बरामदा था और उसके आगे पूरी लम्बाई में ही लगभग डेढ़ फीट चौड़ा पत्थरों की स्लेट का छज्जा। आंगन में उतरने के लिए सीढ़ी दोनों परिवारों की एक ही थी। आंगन के खूंटों पर दोनो परिवारों की कम से कम दो भैंसें व उनके बछड़े तथा बैल बन्धे रहते थे, यानि कि कम से कम सात-आठ पशु। दोनों परिवार अपने-अपने पशुओं का गोबर उठाते और अपनी-अपनी मरास में डाल देते। लगभग डेढ़ सौ घन फीट क्षमता वाला हमारी मरास का गड्ढा छ महीने में तो भर ही जाता था। क्योंकि डंगरों द्वारा खाने से छोड़े गये घास व पुआल के अलावा डंगरों के नीचे बिछाया गया तुंगला व अन्य घास के पत्तों के साथ घर के फल सब्जियों के छिलके और घर के आंगन में पेड़-पौधों से झड़े हुय पत्ते काफी हो जाते थे। हर ढाई-तीन महीने बाद माँ कहती कि ‘जा, मरास पलट दे!’ अर्थात फावड़े से ऊपर का गोबर नीचे और नीचे का ऊपर कर दे, ताकि वह भली-भांति सड़ जाय। तो मैं अक्सर टाल जाता था। भला-बुरा कहते हुये माँ फिर स्वयं ही पलटने लग जाती।
मरास को पलटते रहने की अहमियत तब पता नहीं थी। मेरी माँ निपट अनपढ़ थी परन्तु कृषिकार्य की समझ उसकी बहुत विकसित थी। कौन सा बीज किस खेत में और कब बोना चाहिए वह भली-भंाति जानती थी। कौन से पौधे की कलम कब, कैसे और कहाँ लगाना है वह जानती थी। आज घर में बेटा व बहू पन्तनगर कृषि विश्वविद्यालय से कृषि में स्नातक/परास्नातक अवश्य हैं परन्तु किचन गार्डन तो छोड़िए उन्हें अपनी नौकरियों के चलते गमलों को देखने तक की फुरसत नहीं है।
बैसाख, जेठ में जहाँ अरबी, अदरक व हल्दी के खेतों में गोबर डाला जाता वहीं मंगसीर में गेहूं बोने के बाद गोबर अवश्य डालते। गांव के सभी काम सामुदायिकता की भावना से होते थे इसलिए खेतों में गोबर भी औरतें मिल-जुलकर ही डालती थी। पुरुष फावड़े से खोदकर गोबर झालों(रिंगाल के बड़े टोकरों) में भरता और औरतंें सिर पर रखकर कई-कई फेरों में गोबर को खेतों तक पहुँचाती। औरतों का झुण्ड गोबर के भारी-भारी टोकरे सिर पर होने के बावजूद हँसते-बातें करते हुये घर से खेत के बीच का फासला तय करती और खिलखिलाते व ठिठोली करते हुये वापस लौटती। खेतों में गोबर डालने की इस प्रक्रिया को गढ़वाली भाषा में ‘मळवार्त’ कहा जाता और मळवार्त के दिन इन मेहनतकश औरतों को दोपहर का भोजन, शाम को चाय के साथ घी का हलुवा या आलू-प्याज की पकोड़ी और रात को लबा-लब घी के साथ गरमा-गरम लड़बड़ी दाल भात।
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