शेषनाग का शांयकालीन दृश्य |
शेषनाग से गुफा की और आते यात्री |
महागुनुष टॉप से आगे बढ़ते यात्री |
है. बारिस के बाद भुरभुरी काली मिटटी वाला रास्ता अत्यंत फिसलन भरा हो जाता है. यात्री हाथ में पकड़ी छड़ी या जमीन में गड़े पत्थरों के सहारे आगे बढ़ते हैं. फिर भी कुछ लोग फिसलकर चोटिल हो रहे थे. तो कहीं बच्चे व युवा काफी नीचे तक फिसल कर ठहाका मार रहे थे. कहीं-कहीं पर सेना के जवान सहारा देकर यात्रियों को आगे बढ़ने का हौसला देते. यात्रा मार्ग के दोनों ओर पहाड़ियों की चोटी पर जगह-जगह पर तैनात जवान हाथ हिलाकर अभिवादन करते. मन में उन जवानों के प्रति आदर का भाव स्वाभाविक है कि हमारी निर्बाध यात्रा के लिए किन कठिन परिस्थितियों में ये घर परिवार से दूर एकाकी जीवन जी रहे हैं.
शेषनाग से मात्र तीन मील की दूरी पर इस पूरी यात्रा मार्ग का सबसे अधिक (14500 फीट) ऊँचाई वाला स्थल है एम.जी. टॉप अर्थात महागुनुष टॉप, जो महागणेश का अपभ्रन्श है. सेना के जवानो द्वारा यात्रियों को जलजीरा पिलाया जा रहा था और चलते रहने की विनती की जा रही थी, जिससे उन्हें ओक्सिजन की कमी से कोई तकलीफ न हो. इच्छा थी कि महागुनुष टॉप पर थोड़ी देर बैठकर नज़ारे देखते, फोटोग्राफी करते. परन्तु बारिस
और कुहरे ने हताश किया. हाँ, हवा काफी तेज थी. यहाँ से आगे का मार्ग उतराई वाला है. पाबिलाल में एक श्रृद्धालु द्वारा लंगर की व्यवस्था की गयी थी. बर्तन भांडे सभी बर्फ के ढेर के ऊपर रखे हुए थे, वे भी क्या करते चारों और बर्फ ही बर्फ. भीड़ अधिक थी, बिना कुछ लिए ही बर्फ पर चलते हुए आगे बढ़ जाते हैं. दो-ढाई बना पुल पार करने के बाद चढ़ाई शुरू होती है. सात-आठ माह यह क्षेत्र बर्फ से ढका रहता है और पूरा वृक्ष विहीन किलोमीटर उतराई के बाद पोषपत्री पहुँचते हैं. शिव शक्ति दिल्ली द्वारा यहाँ एक विशाल लंगर का आयोजन
किया गया था. लंगर में भोजन के साथ लगभग सभी प्रकार के स्वादिष्ट व्यंजन. इस पैदल मार्ग पर यह अकेला विशाल लंगर है. सभी तृप्त होकर आगे बढ़ रहे थे. इस दुर्गम स्थल और मीलों लम्बे पैदल मार्ग पर घोड़े खच्चरों द्वारा इतनी अधिक व्यवस्था. ऐसे शिव भक्तों के प्रति श्रृद्धा स्वयमेव ही उमड़ पड़ती है, हजारों यात्री प्रतिदिन खा पीकर आगे बढ़ रहे हैं. क्या रिश्ता है
पोषपत्री में वर्णित लंगर का दृश्य |
पोषपत्री से तीनेक (तथा शेषनाग से बारह) किलोमीटर दूरी पर कई जलधाराओं से युक्त एक समतल भूभाग दिखाई देता है, पञ्चतरणी. मान्यता है कि भगवान शंकर ने यहीं पर अपनी जटा जूट निचोड़ी थी जिससे पांच जलधाराएँ बहने लगी. पाँचों धाराएँ मिलकर पञ्चतरणी नदी बनाती है जो दो किलोमीटर आगे अमरनाथ से आने वाली अमरावती से मिलकर सिन्धु नदी बन जाती है. (ब्लोगर्स कृपया ध्यान दें, सिंध और सिन्धु दो अलग अलग नदियाँ है. सिंध नदी का उद्गम स्थल मानसरोवर झील है और सिन्धु का यह पञ्चतरणी क्षेत्र) यहाँ पञ्चतरणी नदी के दायें तट पर एक हेलीपैड हैं, जो पहलगाम व बालटाल से हेलीकाप्टर सेवा से जुड़ा है और आगे गुफा तक छ किलोमीटर का रास्ता यात्री पैदल ही तय करते हैं.
पञ्चतरणी में हजारों यात्री रुकने की व्यवस्था है. लंगर भी तीन-चार ठीकठाक हैं. लगातार होती बारिस और पहाड़ों से पिघलकर आती बर्फ से पानी ही पानी हो जाता है. इसलिए मुख्य जलधारा के अतिरिक्त जो हिस्सा सूखा होना चाहिए था वहां भी सूखा मार्ग नहीं मिलता है और हम पानी में ही चल कर छप-छप की आवाज के साथ पञ्चतरणी में प्रवेश करते हैं. ठौरठिकाना तलाशने के बाद सामान रखकर, यशपाल को आराम करता छोड़कर बाहर निकलता हूँ. सैटलाइट फोन के एस. टी. डी. बूथ पर जाकर घर फोन करना चाहता हूँ परन्तु मिलता नहीं. फिर एक आरती में शामिल होता हूँ. बारिस थम गयी है किन्तु ठीक अँधेरा होने से पहले आकाश में काले बादल छाये देखकर चारों ओर ऊंची-ऊंची निर्जन व हिमाच्छादित पहाड़ियों से घिरी इस घाटी में मन अन्जान आशंका से व्याकुल हो उठता है. सोचने लगा ऐसा ही निर्जन व एकांत ने हिमालयी कवि चन्द्र कुंवर बर्त्वाल की कविताओं के लिए भाव भूमि का काम किया होगा; 'यम' शीर्षक कविता से ये पंक्तियाँ उनकी बानगी है -
दूर से पञ्च तरणी का मनमोहक दृश्य |
कितना एकांत यहाँ पर है, मै इसी कुञ्ज में दूर्वा पर- लेटूंगा आज शांत होकर जीवन भर चल चल अब थककर !
ये पद लो गिरि पर सदा चढ़ें चोटी से घाटी में उतरे, ये पद अब विश्राम मांगते अब इस हरी-भरी धरती में आ !
अपने उद्गम को लौट रही अब बहना छोड़ नदी मेरी, छोटे से अणु में डूब रही अब जीवन की पृथ्वी मेरी !
आँखों में सुख से पिघल पिघल ओंठों में स्मितियां भरता, मेरा जीवन धीरे-धीरे इस सुन्दर घाटी में भरता !
रोचक विवरण है\ शायद मेरे बस मे नही इस यात्रा को करना। कभी वहाँ की यात्रा की नही लेकिन आपकी पिछली पोस्ट भी समय निकाल कर पढूँगी फिर पूरी यात्रा का आनन्द आयेगा।
ReplyDeletebahut khoob.. sundar prastuti. padte hue laga jaise mai bhi darshan kar raha hu.....
ReplyDeleteरोचक और मनभावन वर्णन के लिए बधाई.
ReplyDeleteआपकी रोचक वर्णन शैली से यात्रा का पूरा सुख मिल गया .....
ReplyDeleteबहुत सुन्दर यात्रा ब्रतांत| ऐसा लगता है जैसे साथ-साथ चल रहे है| बर्त्वाल जी की कविता की लाइनें पढ़वाने के लिए धन्यवाद|
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर चित्रमय प्रस्तुति होती है आपकी,
ReplyDeleteसच में मन बाग बाग हो गय, आगे का इंतजार है,
आभार- विवेक जैन vivj2000.blogspot.com
बहुत खूबसूरत वर्णन श्रीमान....!!!..घर बैठे..दर्शन हुए ..इन धामों के....रोचक और अद्भुत शैली ...!!धन्यवाद्..!!
ReplyDeleteसुबीर जी मैं तो भूल ही गया था कि तीसरी किश्त के आगे भी पढना है। अब मैने फ़ालो कर लिया है।
ReplyDeleteयात्रा में आगे बढते हैं।
जय भोले भंडारी की।