चित्र - साभार गूगल |
गढ़वाली लोककथा
गढ़वाल के गावों में लोग एक अस्थाई निवास बनाते रहे हैं-जिसे छानी कहा जाता है. कभी मौसम से अनुकूलन के लिए, कभी खेती बाड़ी बढ़ाने के लिए तो कभी ताजगी (Outing) के लिए ही . गांव यदि ऊँचाई वाले स्थान में हो तो छानियां घाटी में बनाई जाती, घाटी में हो तो छानियां ऊंची जगह पर और यदि गांव ठीक जगह पर हो तो गांव से ही दूर बनाई जाती. परन्तु प्रायः गांव की सीमा के भीतर ही.सौ-डेढ़ सौ साल पुरानी बात है. थपेली भी एक ऐसा ही गांव था. उसकी छानियां गांव की पूरब दिशा में लगभग तीन मील दूरी पर थी.गांव के आसपास सिंचाई वाले खेत थे और छानियों के आसपास असिंचित भूमि, जो की सिंचित भूमि से कहीं अधिक थी. जगह पर्याप्त थी, अतः छानियां दूर-दूर थी. गांव वालों ने अपनी छानियों के आसपास खूब पेड़ पौधे लगा दिए थे. जेठ महीना समाप्त होते-होते, जब सिंचाई वाले खेतों में धान की बुवाई कर ली जाती तो परिवार के कुछ सदस्य गाय, भैंस व अनाज आदि लेकर अपनी-अपनी छानियों के लिए प्रस्थान कर जाते और कुछ सदस्य गांव में ही रह जाते. पूरी बरसात छानियों में रहते. खाली जगहों पर पेड़-पौधे लगाते, सब्जियां उगाते, मोटा अनाज खेतों में बोते- जिसमे अच्छी बारिस होने पर खूब फसलें लहलहाती और घास चारा पर्याप्त मात्रा में होने से घी-दूध की मौज रहती.
ब्राह्मण को पातड़ा दिखाकर, दिन वार निकलवाकर हर साल की तरह रायमल भी अपनी गाय भैंसों को लेकर जेठ के आखरी सप्ताह में छानी चला गया. रायमल के परिवार में कुल दो ही सदस्य थे वह और उसकी माँ. माँ बताती है कि सात औलाद जन्मी थी पर चार ही बची- तीन बेटियां और आखरी औलाद रायमल. बेटियां बड़ी थी तीनो की शादी हो गयी. शादी तो रायमल की भी हुयी थी परन्तु शादी के दो साल तक कोई संतान न होने पर पत्नी रुष्ट होकर मायके चली गयी, तो फिर लौटकर नहीं आयी. जाने क्या कमी थी. कई बार खबर भिजवाई किन्तु वह नहीं लौटी तो नहीं. मिन्नतें करने वह गया नहीं, मर्द जो ठहरा. 'औरत तो पैर की जूती होती है' गांव के बड़े-बूढों ने उसे यही समझा रखा था. रायमल डील-डौल से तो ठीक-ठाक था किन्तु था वह भी निपट गंवार. पिछले साल पिता भी गुजर गए. अब रह गए वह और माँ. वह अकेले ही छानी चला गया. गांव में माँ रह गयी, क्योंकि गांव में मकान व शेष सम्पति की चौकीदारी भी जरूरी थी. फिर गांव के बुजुर्ग लोग भी तो गांव में ही रहते थे.
रायमल हफ्ते दस-दिन में गांव आता और माँ की खोज खबर कर शाम को छानी लौट जाता. इधर सबने गौर किया कि छानी में लोग जहाँ मोटे, तगड़े होते हैं, रायमल दिनोदिन कमजोर होता जा रहा था. सब उसे दुबला दुबला कहने लगे. माँ को चिंता हुयी. जानना चाहा तो रायमल हर बार टाल जाता. बल्कि गांव वालों की तर्ज पर माँ भी उसे अब प्यार से दुबली कहकर पुकारने लगी और वह गांव में 'दुबली' नाम से ही जाना जाने लगा. एक दिन माँ ने अपनी कसम देकर उससे उगलवा ही दिया तो माँ सुनकर दंग रह गयी. दुबली ने बताया कि उसकी छानी में रोज शाम को एक भूत आता है. वह जो जो करता है भूत उसकी नक़ल करता है. मसलन वह भैंस दुहता है तो भूत बगल में बैठकर भैंस दुहने का उपक्रम करता है, रोटी बेलता है तो भूत भी रोटी बेलने का उपक्रम करता है, शरीर पर तेल मालिश करता है तो भूत भी वही करता है. वह भूत से डरता नहीं है और न ही भूत उसे कोई नुकसान पहुंचाता है. लेकिन वह फिर भी सूख रहा है, पता नहीं क्यों. माँ ने दुबली को चुपचाप कुछ समझाया और निश्चित हो लौट जाने को कहा.
शाम को दुबली छानी लौट आया. रोज की तरह वह जो जो करता रहा भूत भी वही उपक्रम दोहराता. खाना खाने के बाद दुबली ने तेल की कटोरी निकाली और भूत के आगे भी एक कटोरी खिसका दी- जिसमे माँ द्वारा दिया गया लीसा भरा था, फिर दुबली शरीर पर मालिश करने लगा. वह तेल मलता रहा और भूत लीसा. फिर दुबली ने रुई से शरीर को पोंछा और भूत के आगे माँ द्वारा दी हुयी कपास रख दी. भूत कपास से शरीर पोंछने लगा जो हाथ में कम आयी शरीर पर अधिक चिपक गयी. फिर दुबली चीड़ के जलते छिलके से अपना शरीर गौर से देखने लगा, भूत ने भी वही किया तो उसके शरीर पर लगा लीसा और कपास आग पकड़ गया. भूत चिल्लाते हुए बाहर की ओर भागा और दहाड़ मार कर रोया कि दुबली ने मुझे फूक दिया, दुबली ने मुझे फूक दिया. नीरव अँधेरी रात में घाटियों से टकराती हुयी भूत की दहाड़ें सबने सुनी परन्तु उसके बाद भूत कभी लौटकर नहीं आया. आज सौ-डेढ़ सौ साल बीत जाने के बाद भी लोग जब कभी अपनी छानियों में रहते है तो भूत की चीत्कार रात को कभी-कभार सुनाई देती है. भूत उस इलाके में आज 'दुबली का भूत' नाम से जाना जाता है.
सुबीर जी,..आज के इस युग में भी ग्रामीण लोग भूत प्रेत,टोना,टोटका
ReplyDeleteको मानते,झाड फूक बदस्तूर आज भी जारी है,..कब स्म्झ्गें लोग,ये तो पता नही नजाने कितने लोग भूत-प्रेत के चक्कर में जान गवां रहे है.
रोचक कहानी,.....
फालोवर बन गया हूँ आप भी बने मुझे खुशी होगी,....
NEW POST...फिर से आई होली...
NEW POST फुहार...डिस्को रंग...
धन्यवाद धीरेन्द्र जी, आभार ! मै तो पहले ही आपका समर्थक हूँ तहे दिल से. आपकी रचनाएँ गंभीरता से पढता आया हूँ हमेशा और कभी कभार टिपण्णी भी अवश्य की है.
Deleteहोली की अनेकानेक शुभकामनाएं.
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♥ होली ऐसी खेलिए, प्रेम पाए विस्तार ! ♥
♥ मरुथल मन में बह उठे… मृदु शीतल जल-धार !! ♥
आपको सपरिवार
होली की हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं !
- राजेन्द्र स्वर्णकार
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हमारे पहाड़ में इस तरह की कई कहानियां हैं। कलबिस्ट के तो अब मंदिर भी बन चुके हैं।
ReplyDeleteहोली की हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं|
रोमांचक लगा पढ़ना !
ReplyDeleteआपको और आपके समस्त पारिवारिकजनो को भी होली के पावन पर्व की मंगलमय कामनाये, सुबीर जी !
Maa se yah kahani bachpan mein suni thi..aaj taaji ho chali..
ReplyDeletebachpan mein aisi kahani sundar dar ke sath khoob maja bhi aata thai..
bahut sundar pratuti ...
Kruti To Unicode and Chanakya Converter
ReplyDeletehttps://doc-14-0s-docs.googleusercontent.com/docs/securesc/ha0ro937gcuc7l7deffksulhg5h7mbp1/snvssvmf70e3c7f5t85bt1uncp6d6kb2/1331798400000/11317408320647673552/*/
Sorry, this link is invalid
ReplyDeletevalid link is-
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ReplyDeleteहम्म!! रोचक...
ReplyDeleteरोचक प्रस्तुति...
ReplyDeleteक्या बात है रावत जी...रोचक जानकारी. मेरे एक दोस्त है महिपाल सिंह रावत(ग्राम: पड़िया, रैका) उन्होने एक दिन मुझे ये कहानी सुनाई थी.
ReplyDeleteक्या बात है रावत जी...रोचक जानकारी. मेरे एक दोस्त है महिपाल सिंह रावत(ग्राम: पड़िया, रैका) उन्होने एक दिन मुझे ये कहानी सुनाई थी.
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