सजग बहुत थे सपनों को लेकर
बहुत सोचा करते थे अक्सर
अपनी जिन्दगी और अपने बारे में,
सोचा न हो कभी तुम्हारे बारे में
ऐसा तो हुआ नहीं कभी।
तलाशा करते थे चाहत लिये
हर नगर, हर डगर, हर शहर।
कभी मिले भी, कभी दिखे भी तो
अपूर्ण ! आधे अधूरे !!
भटकते रहे जब तक कि
हुयी नहीं तलाश पूरी मेरी,
तुम्हें देखने के बाद लगा मगर
व्यर्थ नहीं रहा प्रयास मेरा
विफल नहीं हुयी साधना मेरी।
परन्तु-
मन के एकान्त कोने से एक प्रश्न
सिर उठाकर पूछता जरूर है कि
तुम भी सोचते हो ऐसा ही, या
यह भ्रम है ? मेरा ही पागलपन है ??
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एकांगी प्रेमानुभूति का स्पंदित प्रश्न। सुन्दर।
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