Wednesday, October 30, 2019

तुम छली निकले सुरेन्द्र भाई!

Me & Surendra Pundir
       सुरेन्द्र भाई ने मुझे आश्वासन दिया था कि ‘तुम्हें ‘जॉर्ज एवरेस्ट’ घुमाने की जिम्मेदारी मेरी है।’’ यह आश्वासन महीने-दो महीने पहले नहीं बल्कि तीन-चार साल पहले दिया था। जब भी मिलते, कहते-‘बस गुरूजी, अगले हफ्ते चलेंगे।’ और उनका वह अगला हफ्ता आया भी नहीं कि वे हमसे बहुत दूर चल दिये।
         सोमवार इक्कीस अक्टूबर सुबह प्रवीण भट्ट जी का फोन आया कि ‘‘सुरेन्द्र पुण्डीर हमें छोड़कर चले गये हैं’’ तो कानों पर विश्वास ही नहीं हुआ। एक बार फिर पूछा तो प्रवीण भट्ट जी ने बताया कि ‘मसूरी में घटना घटी और बारह बजे लगभग हरिद्वार के लिए अन्तिम यात्रा निकलेगी।’ फिर भी पुष्टि करने के लिए रमाकान्त बेंजवाल जी और शशी भूषण बडोनी जी को फोन मिलाया। सोशल मीडिया पर भी यह खबर फ्लैश हो गयी तो दिल पर पत्थर रखकर मानना पड़ा कि सुरेन्द्र भाई अब हमारे बीच नहीं है। हरिद्वार खड़कड़ी घाट पर अन्तिम संस्कार में शामिल होने के लिए रमाकान्त बंेजवाल जी और मैं समय पर पहुँच गये थे। मसूरी से उनके परिजन उनका शव लेकर पहुँचे और अन्तिम स्नान के लिए नीचे रखा तो देखा कि सुरेन्द्र भाई अर्थी पर शान्त लेटे थे। सोचने लगा कि काश! कोई चमत्कर होता और सुरेन्द्र भाई उठकर अपने चिरपरिचित अन्दाज में कह उठते ‘और गुरूजी, आ गये?’ परन्तु वे तो अनन्त यात्रा पर जा चुके थे। 
Hand Writing of Surendra Pundir
         सुरेन्द्र भाई से परिचय लगभग ढाई दशक पुराना है, जब मैं रचनाकारों से ‘बारामासा’ के लिए रचना भेजने का आग्रह करता था। तब मोबाइल क्या लैण्ड लाईन फोन ही कम लोगों के पास थे। पूरा संवाद चिट्ठी से ही चलता था। सन् 1996 के आसपास उनकी पहली किताब आयी ‘जौनपुर के लोकदेवता’। पुस्तक पढ़कर जौनपुर के स्थानीय देवताओं के बारे में कितना जाना कह नहीं सकते किन्तु क्लीन सेव्ड गोरा चौड़ा मुखड़ा, माथे से पीछे की ओर सीधे संवारे गये काले घने लम्बे बाल और कभी सिर पर जौनपुरी टोपी, चेहरे पर हर समय निश्चल हंसी, कन्धे पर खादी का झोला, एक आम पहाड़ी कद और व्यवहार में बिल्कुल सरलता देखकर हमारे मन में सुरेन्द्र भाई की छवि ही एक लोकदेवता की बन गयी। सन् 1997 की ही बात होगी जब पर्वतीय ईप्टा के मसूरी प्रभारी सतीश कुमार जी के बुलावे पर एक दिन हम चार लोग- निरंजन सुयाल, जगदम्बा प्रसाद मैठाणी, मोहन बंगाणी और मैं मसूरी पहुंचे तो वहाँ अपनी सदाबहार मुस्कान के साथ उपस्थित सुरेन्द्र भाई के गले लगते हुये निरंजन सुयाल कह ही बैठे ‘मसूरी के लोकदेवता जी’! कैसे हैं आप? तो मैं मुस्कराए बिना न रह सका। पर्वतीय ईप्टा के कार्यक्रम के बीच वहीं गढ़वाल टेरेस में उस दिन सुरेन्द्र भाई की एक मार्मिक कविता ‘किड़ू’ सुनने का सौभाग्य भी मिला।
Jaunpuri Lady : Photo by - Surendra Pundir
          श्रीमती तारा देवी और श्री महेन्द्र सिंह पुण्डीर के घर जुलाई 04, 1956 को जन्मे सुरेन्द्र पुण्डीर जौनपुरी भाषा, जौनपुरी संस्कृति और जौनपुरी साहित्य के एक सच्चे प्रतिनिधि थे। ‘वे जौनपुर के थे’ कहने से अधिक प्रासंगिक होगा यह कहना कि जौनपुर उनके भीतर बसता था। एक दिन रौ में बहते हुये उन्होंने बताया कि वे मूलतः जौनपुर के नहीं बल्कि टिहरी गढ़वाल, कीर्तिनगर विकासखण्ड के अन्तर्गत लोस्तू बडियारगढ़ पट्टी में तल्ली रिंगोली गांव के हैं। उनके पिताजी रोजगार के सिलसिले में मसूरी आये, रोजगार मिला और जौनपुर के लगड़ासू गांव में शादी कर हमेशा के लिए मसूरी के होकर ही रह गये।
         मसूरी में लण्ढ़ौर कैण्ट के मलिंगार लॉज में रहकर सुरेन्द्र भाई की परवरिश व शिक्षा-दीक्षा हुयी। परिवार के भरण पोषण के लिए कुछ रोजगार जरूरी था। पिताजी के गुजर जाने के बाद परिवार की आर्थिक स्थिति कमजोर होने के कारण चार भाईयों में सबसे बड़े सुरेन्द्र भाई ने पढ़ाई के साथ-साथ पहाड़, विशेषकर जौनपुर के हस्तशिल्प, यथा टोपी, मफलर, स्वैटर आदि की दुकान खोली। मसूरी पर्यटक केन्द्र होने के कारण ही नहीं अपितु सुरेन्द्र भाई के व्यवहार कुशल होने के कारण दुकान खूब चल पड़ी। शिक्षा के प्रति समर्पित थे ही इसलिए संघर्ष के साथ-साथ उन्होंने एम. ए.(हिन्दी) की डिग्री भी ली। लेखन का शौक उन्हें पत्रकारिता की ओर ले आया जबकि साहित्य के प्रति रुचि होने के कारण लेख, फीचर, कविता आदि भी निरन्तर लिखते रहे। गढ़वाल के बावन गढ़ों में से एक ‘विराल्टा गढ़’ जैसे अनेक जगहों के बारे में मैं सुरेन्द्र भाई के लेखों से ही जान पाया। प्रवक्ता पद पर तैनाती के दौरान वे राजकीय इण्टर कॉलेज, घोड़ाखुरी (जौनपुर) में तैनात रहे किन्तु दुर्भाग्य से वर्ष अक्टूबर 2004 के शासनादेश के दायरे में आने और नौकरी की अवधि कम होने के कारण पेन्शन से वंचित रह गये। नौकरी पर रहे तो अपने तैनाती स्थल घोड़ाखुरी के इतिहास, भूगोल की रोचक, सुन्दर व प्रभावशाली जानकारी अपनी लेखनी द्वारा उन्होंने ही दी, इतनी कि हर पाठक के मन में घोड़ाखुरी देखने की इच्छा जाग गयी।
L to R : Surendra Pundir, N.K.Hatwal, Me & S.N.Badoni
       अमर उजाला व मसूरी टाईम्स जैसे समाचार पत्रों से ही नहीं अपितु अलीक, सिद्ध, पहाड़ आदि अनेक संस्थाओं से वे सीधे जुड़े हुये थे। उनका किसी पत्र या संस्था से जुड़ना नाममात्र जुड़ना नहीं होता था बल्कि अपने कन्धो पर वे पूरी जिम्मेदारी लेते थे। मासिक पत्रिका ‘लोकगंगा’ के प्रकाशक/सम्पादक श्री योगेश चन्द्र बहुगुणा जी के अस्वस्थ होने के कारण आजकल वे लोकगंगा के नये अंक के प्रकाशन के लिए दिन रात एक किये हुये थे। दायां हाथ कुहनी से नीचे पोलियों ग्रस्त होने के साथ-साथ परिवार की आर्थिक तंगी भी उनकी रचनाशीलता में कभी बाधा नहीं बनी और न उन्होंने कभी यह कमियां उजागर होने दी। वे निरन्तर सृजनरत रहे।
           साहित्यिक कार्यक्रम कहीं पर भी हो अपनी जौनपुरी टोपी और मनमोहक मुस्कान के साथ सुरेन्द्र भाई वहाँ उपस्थित मिलते। सोशल मीडिया और इधर-उधर प्रकाशित होती उनकी कविता की गहराई से मैं बहुत प्रभावित था। एक दिन बातों-बातों में मैने जिक्र किया ‘भाई, आपकी कविताएं जगह-जगह प्रकाशित भी खूब होती रहती है इसलिए कि उनमें दम है। सभी रचनाएं एक संग्रह में आ जायेगी तो अच्छा ही होगा?’ कहने लगे ‘गुरूजी, मेरे पास पाँच सौ से अधिक कविताएं है, एक संग्रह जरूर प्रकाशित करूंगा। परन्तु इतनी जल्दी क्या है?’ और आज अचानक जब वे चले गये तो तब लगा कि जल्दी थी सुरेन्द्र भाई।
Surendra Pundir, Me & Yogesh Ch. Bahuguna
         सृजन-साहित्य से जुड़ा उत्तराखण्ड का हर शख्स सुरेन्द्र भाई से परिचित है और उनके निर्विवाद व्यक्तित्व से प्रभावित भी। उनकी स्निग्ध हंसी ही ऐसी थी कि हर कोई उनसे जुड़ना चाहता। मसूरी तो उनका घर ही था। सत्य प्रसाद रतूड़ी, रामस्वरूप सिंह रौंछेला, रस्किन बॉण्ड, स्टीव आल्टर, हरिदत्त भट्ट ‘शैलेश’, गणेश शैली आदि सभी से उनकी घनिष्ठता रही। उत्तराखण्ड में लोकप्रियता के मामले में कह सकते हैं कि वे बी. मोहन नेगी जी के समान ही सबके चहेते रहे हैं।
       ‘जौनपुर के लोक देवता’, ‘जौनपुर के तीज त्यौहार’ ‘मसूरी के शहीद’, ‘जौनपुर: सांस्कृतिक एवं राजनीतिक इतिहास’ तथा ‘जौनपुर की लोक कथाएं’ उनकी प्रकाशित रचनाएं हैं। रचनाओं के कई-कई संस्करण प्रकाशित होना सुरेन्द्र भाई की लेखकीय क्षमता के परिचायक है। ‘मसूरी के शहीद’ के बारे में एक दिन बता रहे थे कि लगभग हर साल इस पुस्तक का एक संस्करण खप जाता है। ‘जौनपुर के लोक देवता’ का अंग्रेजी अनुवाद ‘गॉड्स ऑव जौनपुर’ अलग से प्रकाशित हुआ है। ‘यमुना घाटी के लोकगीत’ और ‘उत्तराखण्ड जन आंदोलन के नायक’ पुस्तकें उनकी प्रकाशनाधीन हैं।
         सुरेन्द्र भाई, विश्वास नहीं हो रहा है कि आज तुम हमारे बीच नहीं हो। सदमे से उबरने में समय लगेगा। किन्तु हर सभा समारोहों में, साहित्यिक हलचलों में तुम्हारी कमी बहुत खलेगी भाई। तुम हमेशा याद आओगे भाई।

1 comment:

  1. वरिष्ठ साहित्यकार, पत्रकार एवं संस्कृति प्रेमी पुण्डीर जी को श्रद्धाजंलि, पुण्डीर जी का अचानक चले जाना मेरे कविमन को व्यथित कर गया। पुण्डीर जी हमारे मन में सदा बसे रहेगें।

    जगमोहन सिंह जयाड़ा जिज्ञासू

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