Friday, May 01, 2020

जन जन के ईष्ट देवता मदननेगी

(मदननेगी मेले पर विशेष)

चन्द्रभाट चाँदनी का नाती बघेरा बाघनी का नाती
सोन का कलश लोहा का दरवाजा
पापा पुमराज का नाती गज गंभीर का नाती
पाट को पटुड़ी नीती भोज का राजा
गंगा को बग्यूं राजौं लगे दोष
पैलु थौळू देला राज का रौतेला
तब थौळू देला धारकोटा नेगी..............।
इन्हीं शब्दों के साथ नेल्डा (धारमंडल) के आवजी एलमदास मदननेगी लोकदेवता का द्यौ सिंगार (महिमा मण्डन/आह्वाहन) करते थे।

देवभूमि उत्तराखंड में प्रायः प्रत्येक धार प्रत्येक खाल में एक लोक देवता है। आस्था इतनी कि कहीं पर मन्दिर और कहीं प्रतीक रूप में पत्थरों का ढेर और उस पर झण्डा गड़ा हुआ। लोकदेवता की प्रसिद्धि समय के अन्तराल व भक्तों की संख्या पर निर्भर करती है। श्री मदननेगी का मन्दिर उन्हीं के नाम से चल रहे मदननेगी कस्बे में स्थापित है।

 टिहरी-प्रतापनगर पैदल मार्ग पर टिहरी शहर से छः मील दूरी पर भिलंगना की उपत्यका में बसा हुआ है मदननेगी।(टिहरी शहर जो अब विशाल झील में जलमग्न हो गया है) उत्तर में सात हजार फीट से अधिक ऊंचाई वाला खैट-पीढ़ी-प्रतापनगर पर्वत पूरब पश्चिम फैला हुआ है और उसी के लम्बवत छोटी पहाड़ी के मध्य स्थित है मदननेगी। (गढवाली लोकगीतों व जागरों में खैट को आछरियों का निवास माना जाता है तो पीढ़ी को भराड़ियों का) इस पहाड़ी के बिल्कुल समानान्तर पूरब में एक गाड(पहाड़ी नदी) है। लगभग दस कि0मी0 लम्बाई वाली यह गाड भिलंगना नदी में समाहित होने से पूर्व पूरे दस गांवों को धन-धान्य से पूर्ण करता है।


मदननेगी का कहीं लिखित इतिहास नहीं मिलता परन्तु लोकधारणा है कि मदननेगी जीतू बगड़वाल के मामा थे।(यह अलग बात है कि कहीं जीतू बगड़वाल को ही मदननेगी का मामा माना जाता है) जीतू अपने मामा मदननेगी के साथ बैलों की जोड़ी खरीदने माळ (बैलों की मण्डी) गये और वापसी में दुर्भाग्यवश दोबाटा पडियारगावं व रामपुर गांव के बीच की भागीरथी नदी पार करते हुये पांव फिसला और वहीं जलसमाधि ले ली। तब वे मात्र 30 वर्ष के एक अविवाहित युवक थे। कहीं यह गाथा भी प्रचलित है कि धुनारों ने कह दिया था हम आप लोगों को नदी पार करा देते हैं पर शुल्क देना पड़ेगा। तो मदन नेगी ने मना कर दिया कि हम स्वयं ही पार कर लेंगे, पर होनी को कुछ और ही मंजूर था। कहा जाता है कि धुनार पेशेवर तैराक होते थे और वे किसी व्यक्ति या सामान को नदी पार कराने के एवज में शुल्क लेते थे। यही उनका आजीविका का साधन था। (मदन नेगी के बहने की तिथि संभवतः बैशाख महीने की बीस गते रही होगी क्योंकि मदननेगी का मेला प्रतिवर्ष उनकी याद में इस तिथि को ही लगता है)

गढ़वाली लोक गाथाओं के युगपुरुष जीतू मूलतः भागीरथी नदी के बायें तट पर स्थित बगूड़ी गांव के निवासी थे। जीतू गढ़वाल राजा मानशाह के सामन्त थे, जिनका शासनकाल सन् 1547-1608 ई0 रहा। लोकगाथाओं व लोकगीतों में जीतू का वर्णन है कि खैट की आछरियों (अपसराओं) द्वारा जीतू का अपहरण छः गते आषाढ़ को
किया गया जब वे अपने खेतों को रोपाई के लिये तैयार कर रहे थे। खेत के मध्य ही धरती फटी और जीतू बैलों सहित धरती की गोद में समा गया। यह विडम्बना ही कही जायेगी कि मामा मदननेगी व भांजे जीतू की मृत्यु जल में डूबकर ही हुयी।

कुछ लोग श्री मदननेगी का पैतृक गांव धारमण्डल के पटूड़ी मानते हैं किन्तु सान्दणा के स्व. जितार सिंह रावत जोर देकर कहते थे कि मदननेगी मूलतः सान्दणा के निवासी थे, उनकी अगली पीढ़ी पटूड़ी बस गयी और फिर कालान्तर में उनके वंशज धारकोट और कफलोग चले गये। बहरहाल, सान्दणा व धारकोट गांव के पुराने संबन्ध आज भी है। वर्षों से पुरोहिताई कार्य कर रहे जलवाल गांव के स्व. भोलादत्त जुयाल का कहते थे कि पहले सान्दणा गांव के निवासियों द्वारा मदननेगी में त्रिशाली (प्रत्येक तीसरे वर्ष) जात्रा दी जाती थी। सान्दणा, खोला व जलवाल गांव के बाशिन्दे कोई भी शुभकार्य प्रारम्भ करने से पूर्व आज भी मदननेगी के नाम रोट-भेंट अवश्य करते हैं। लेकिन वास्तविकता यह भी है कि मदननेगी धारमण्डल पट्टी के बीस-पच्चीस गांवों में ही नहीं टिहरी नगर वासियों, रैका, अठूर, सारज्यूला व खासपट्टी के अनेक गांवों में श्रृद्धा भाव से पूजे जाते हैं। श्री मदननेगी मेले में प्रतिवर्ष अपार भीड़ का उमड़ना भी इसकी पुष्टि करता है।

मंदिर की स्थापना के विषय में लोगों का मानना यह है कि अकाल मृत्यु के पश्चात् मदननेगी ने गढ़वाल के राजा  को सपने में दर्शन दिये और कहा कि ’’मेरा स्मारक ऐसे स्थान पर बनाया जाय जहां से मैं अपना गांव और पतित पावनी मां भागीरथी के दर्शन कर सकूँ।’(भागीरथी व भिलंगना के तट पर टिहरी तो सन् 1815 के बाद बसना शुरु हुआ) महाराजा द्वारा मन्दिर निर्माण के आदेश दे दिये गये। गढ़वाल के महाराजा पर मदननेगी के प्रभाव से सन्देह होता है कि संभवतः मदननेगी राजदरबार में किसी महत्वपूर्ण पद पर आसीन रहे हों। परन्तु लोकगाथाओं
में जीतू के समान  मदननेगी को स्थान नहीं मिला है। मदननेगी लोकदेवता के रुप में स्थापित हो चुके थे, जन आस्था को देखते हुये और मदननेगी के आकर्षण के कारण उन्होंने मन्दिर बनवाने व प्रतिवर्ष मेले की व्यवस्था के लिये राजकोष से धन मुहैया कराना स्वीकार किया होगा। तब मेला 20 से 25 गते बैशाख तक चलता था। धीरे धीरे राजदरबार की ओर से मेले के लिए सहायता मिलनी बन्द हुयी तो मेला बन्द हो गया।

महाराजा कीर्तिशाह (शासनकाल सन् 1886-1913)द्वारा रैका की कोलगढ़ व बनाली गावं की भूमि पर अपने पिता महाराजा प्रतापशाह की याद में जब प्रतापनगर बसाया गया तो मदननेगी का महत्व और भी बढ गया। लगभग 2000 मीटर ऊँचाई पर स्थित होने के कारण प्रतापनगर को रियासत की ग्रीष्मकालीन राजधानी के रुप में विकसित किया गया। साथ ही टिहरी से प्रतापनगर तक लगभग बारह मील लम्बा और दस-बारह फिट चौड़ा सम्पर्क मार्ग भी बना। प्रत्येक वर्ष मई माह में राजा व राजपरिवार, मंत्रीगण तथा मुख्य कारिन्दों सहित प्रतापनगर चले जाते थे। बड़े बुजुर्ग बताते हैं कि राजा, राजपरिवार के सदस्य व दासियों को भी पालकियों पर ढोया जाता था। जिसके लिये तब बेगार प्रथा प्रचलन में थी। यह हो सकता है कि टिहरी के बाद पहला पड़ाव पांच मील दूरी पर मदननेगी में पड़ता होगा, सभी लोग यहां पर कुछ देर सुस्ताकर टिहरी का विहगंम दृश्य देखकर ही आगे बढते होंगे।

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