Saturday, May 09, 2020

580वीं जयन्ती पर विशेष

प्रातः स्मरणीय वीर शिरोमणी महाराणा प्रताप
(मई 09, 1540 - जनवरी 19, 1597)

        दो दिन उदयपुर के दर्शनीय स्थलों के दर्शन के बाद नाथद्वारा में कुछ समय बिताया। नाथद्वारा से हल्दीघाटी की दूरी मात्र 17 कि0मी0 है किन्तु सीधी बस सेवा नहीं है। यह बस स्टैण्ड पर देर तक खड़े रहने के बाद ही मालूम
हुयी। एक ऑटो किया ढाई सौ रुपये में, इस समझौते के साथ कि हम दोनों के अतिरिक्त जो भी सवारी मिलेगी उनका भाड़ा भी ऑटो वाला रख सकता है। तो ऑटो चालक बीच-बीच में मुख्य सड़क से हटकर गांवों के बीच से ऑटो चलाकर ले गया। गावों के बीच से गुजरते हुये लग रहा था जैसेे शिवालिक पहाड़ियों की तलहटी पर बसे गावों के बीच से ही गुजर रहे हों। बिल्कुल वही वनस्पति, वही भूगोल, वही पथरीली मिट्टी और वैसे ही घर। आगे बनास नदी दिखाई पड़ी तो रूककर बनास के साफ निर्मल पानी में हाथ मुंह धोया। पूरा मेवाड़ ही वैसे महाराणा प्रताप की धरती कहलाती है किंतु हल्दीघाटी के आस-पास आज भी चेतक के टापों की आवाज गूंजती सी लगती है। कुछ आगे चलकर ऑटो चालक बताता है कि बालची गांव में यह चेतक स्थल है। उसे रोका, सड़क के दांयी ओर एक छोटे से मैदान में चेतक की स्मृति में सीमेंट का चबूतरा बनवाया गया है। उस पर हल्दीघाटी युद्ध का संक्षिप्त विवरण तथा चेतक के विषय में लिखा गया है। इसी स्थल पर प्रताप को युद्ध भूमि से सुरक्षित निकालकर 18 जून 1576 को चेतक ने अंतिम सांस ली थी। संसार में शायद ही किसी पशु को उसकी स्वामीभक्ति व वीरता के लिए चेतक जैसा सम्मान मिला हो।
        मार्ग के चारों ओर हरा-भरा मिश्रित जंगल है, पूरा क्षेत्र रमणीकता लिये हुये। सड़क आगे पहाड़ी के बीचों-बीच है। सड़क के दोनों ओर नयी कटिंग की गयी लगी। मैंने ऑटो रोका, उतर कर नाखूनों द्वारा मिट्टी खुरची तो अन्दर मिट्टी पीलापन लिये हुये थी, हल्दी जैसी। दूसरी जगह पर भी खुरचा तो फिर वही रंग। ऑटो वाला मुझे देखकर बोला, ‘‘साहब, खमणौर गांव की पूरी मिट्टी का रंग ही हल्दी जैसा है तभी तो इसे हल्दीघाटी कहा जाता है। ऑटो हल्दीघाटी में महाराणा प्रताप संग्रहालय जाकर रुका। जहां पर पहले से दो बसें, कुछ छोटी गाड़ियां और तीन-चार ऑटो खड़े थे। एक छोटी पहाड़ी के ढलान के मध्य जमीन काटकर विशाल महाराणा प्रताप राष्ट्रीय संग्रहालय बनवाया गया है जो वर्ष 1997 में प्रारम्भ होकर वर्ष 2006 में सम्पन्न हुआ। संग्रहालय की बाहरी दीवार व प्रवेश द्वार वास्तुकला का अद्भुत नमूना है। दीवार पर एक ओर हल्दीघाटी युद्ध और दूसरी ओर चेतक व विलाप करते प्रताप का चित्र उकेरा गया है। प्रवेशद्वार के भीतर और संग्रहालय के बाहर महाराणा प्रताप की युद्ध भूमि के विभिन्न मुद्रायें और हकीम खान सूूर, झाला मान व राणा पुन्जा की विशाल आदमकद कांस्य प्रतिमायें है। संग्रहालय में प्रवेश करने के बाद भीतर हल्दीघाटी क्षेत्र का एक बड़ा मॉडल (भूस्थलाकृति) देखते हैं जिसे कांच के एक बड़े बक्से के अन्दर रखा गया है। दीवारों पर प्रताप की वीरता को बयां करती अनेक पोर्ट्रेट हैं।
संग्रहालय दर्शन के बाद हमें एक घुप्प अंधेरे कमरे में प्रवेश किया। यह ‘‘लाइट एण्ड साउण्ड’’ इफेक्ट देने का प्रयास था। शुरु में चेतक के दौड़ने की आवाजें सुनाई दी फिर युद्ध भूमि से दूर उसके गिरने की मुद्रा में वह दिखाई दिया और पास ही शोकमग्न महाराणा प्रताप। धीरे धीरे आंखें अंधेरे में देखने की अभ्यस्त हो गयी। पास ही पन्ना धाय को महाराणा उदय सिंह को बचाने और बदले में अपने पुत्र को बलिदान करते हुए दिखाया गया है। वास्तव में यह एक खुली जगह है जिसे चारों ओर से ढका गया था। दूसरी ओर से बाहर निकले तो यह द्वार एक तालाब के पास निकला। वहीं पर प्रताप व हल्दीघाटी से सम्बन्धित भिन्न-भिन्न प्रकार की सामग्री बिक्री केन्द्र है। लकड़ी व धातु का चेतक, राज चिह्न भाला, ढाल व तलवार आदि आदि, किन्तु सभी कुछ प्रतापमय। पास ही भील-भिलनियों की दिनचर्या दिखाने हेतु मिट्टी व प्लास्टर ऑफ पेरिस के हल, बैल, कृषक हथियार ढालते स्त्री पुरुष आदि-आदि। वहीं कैन्टीन से चाय पीने के बाद पास चल रहे कोल्हू तथा उस जुते बैल को गौर से देखा। जगह जगह बिजली पहुंचने व मशीनें लगने के कारण अब कोल्हू या रहट देखने को कम ही मिलते हैं। पर यहां पर अभी भी सरसों की पिराई कोल्हू से ही की जा रही थी।
        संग्रहालय से बाहर निकला तो जिस पहाड़ी पर यह संग्रहालय बना हुआ है उसकी पर्वत श्रेणियों को खमणौर की पहाड़ियां कहा जाता है। संग्रहालय का विस्तार निरन्तर चोटी की ओर किया जा रहा है। जिज्ञासावश उधर बढा। इस ऊंचाई से तो हल्दीघाटी का सौन्दर्य और भी मंत्रमुग्ध कर रहा था। चारों ओर हरियाली और मन्द-मन्द बासन्ती हवायें चल रही थी, मदहोशी का आलम था। प्रेम के बीज ऐसे ही मौसम में अंकुरित व प्रस्फुटित होते हैं। एक राजस्थानी लोकगीत याद आ गयाः
‘‘उड़ ज्या रे काग गिगन का वासी खबर तो ल्याव म्हारी गोरी की
नांव नहीं जांणू मै गावं नहीं जांणू सूरत न जांणू थारी गोरी की
नांव बतास्यां  गांव बतास्यां  सूरत बतास्यां  म्हारी गोरी की
लांबा लांबा केस मिरग का सा नेतर चाल चलै ठुकराण्यां की।’’  

लेकिन वीरों की धरती मेवाड़ में श्रृगांर रस के लिये स्थान कहाँ। यहां खड़े होकर हम मेवाड़ की तत्कालीन परिस्थितियों की कल्पना भली भांति कर सकते हैं। हल्दीघाटी का इतिहास बहुत विस्तार लिये हुए है। महाराणा प्रताप की वीरता ने ही हल्दीघाटी क्षेत्र को अमर कर दिया। 18 जून 1576 को अकबर की विशाल सेना और महाराणा की छोटी सेना के मध्य लड़ा गया युद्ध जिसमें प्रताप हारकर भी विजयी हुए, जिसने उनकी कीर्ति को सारे विश्व में फैला दिया, वह हल्दीघाटी और प्रताप इतिहास ही नहीं प्रत्येक हिन्दुस्तानी के सीने में अंकित है। आज चार सौ साल से ज्यादा समय हो गया है किंतु आज भी मेवाड़ में लोग प्रताप की सौगन्ध लेते हैं।
हल्दीघाटी युद्ध में सेनानियों की कुल संख्या के बारे में अलग-अलग आंकड़े हैं। किन्तु अकबर की सेना के साथ चल रहे इतिहासकार अल बदायुनी ने मुगलों की सेना की संख्या पांच हजार व महाराणा की सेना की संख्या तीन हजार बताई है। अकबर की सेना में जहां हल्का आधुनिक तोपखाना था वहीं राणा के सैनिकों के मुख्य हथियार भाले, छोटी तलवारें, धनुष वाण व गोफन (गुलेल) थे। यह अद्भुत संयोग था कि मान सिंह की सेना के अग्रिम दल में जगन्नाथ के नेतृत्व में राजपूत सैनिक थे तो वहीं महाराणा के अग्रिम दल में हकीम खां सूर के नेतृत्व में मुसलमान पठान सैनिक।
       हल्दीघाटी युद्ध में प्रताप को यद्यपि युद्ध का मैदान छोड़कर जाना पड़ा परन्तु विजय अकबर की भी नहीं हुयी। उसके बाद अकबर की सेना और प्रताप के बीच यु़द्ध अनवरत चलता रहा। ......
इतिहास जहां पर मौन हो जाता है वहां यह भी हकीकत है कि चारणों ने ही भूतकाल को जीवित रखा। चारण गीतों में राजाओं महाराजाओं के अनेक किस्से मिलते हैं। चारणों की वीरगाथाओं में ही यह भी मिलता है कि निरन्तर युद्ध पर युद्ध और हार पर हार से प्रताप तिलमिला गए। हर वक्त डर रहता था कि वे स्वयं या राजपरिवार का कोई सदस्य मुगलों के हाथ न पडे। वे कभी पर्वतों की गुफाओं में पत्थरों पर सोकर रातें गुजारते तो कभी पेड़ों पर बैठे-बैठे दिन काटते। जंगली फलों पर गुजारा करते। कई बार शत्रुओं से बचने के लिए उन्हें मामूली भोजन छोड़कर भी भागना पड़ता। केवल इस संकल्प के लिए कि तुर्कों के सामने सिर नहीं झुकायेंगे। किन्तु एक बार उनकी प्रतिज्ञा टूटने लगी, वे झुकने लगे। हुआ यह कि महारानी और युवरानी ने घास के बीज के आटे से रोटी बनाई थी। बच्चों को एक-एक रोटी दी गई कि वे आधी अभी खा लें और आधी बाद में। प्रताप किनारे बैठे किसी गहन सोच में थे कि उनकी पौत्री की दारुण पुकार उन्हें सुनाई दी। वास्तव में एक जंगली बिल्ली उसके हिस्से की रोटी झपट्टा मारकर ले गई थी। महाराणा तिलमिला गए। एक घास की रोटी के लिए राजपरिवार की कन्या की हृदयभेदी चीत्कार ! युद्ध भूमि में सगे क्या, पुत्र की वीरगति पर भी जो प्रताप कभी विचलित नहीं हुए, वह राजकुमारी की चीख से तिलमिला गए, आंखों में आँसू आ गये। युद्ध भूमि में सगे क्या, पुत्र की वीरगति पर भी जो प्रताप कभी विचलित नहीं हुए, वह राजकुमारी की चीख से तिलमिला गए, आंखों में आँसू आ गये। उन्होंने तुरंत अकबर को संधि पत्र लिखा।
          अकबर पत्र पाकर बहुत खुश हुआ। पत्र बीकानेर रियासत के राजा के भाई पृथ्वीराज को दिखाया जो अकबर के दरबार में राजकवि था। पृथ्वीराज राजपूतों की आखिरी आशा और वीर महाराणा की वह चिट्ठी देखकर अत्यन्त दुखी हुआ। किंतु प्रत्यक्ष में कहा कि ‘मुझे विश्वास नहीं है कि यह चिट्ठी प्रताप की है। मुगल साम्राज्य मिलने पर भी प्रताप कभी सिर नहीं झुकाएगा। मैं स्वयं ही पता कर लेता हूं।’ पृथ्वीराज महान कवि थे, अतः घुमा फिराकर यह पत्र लिखा-
‘अकबर समद अथाह, तिहं डूबा हिंदू तुरक,
मेवाड़ तिड़ मांह, पोयण फूल प्रताप सी। अकबरिये इकबार,......
(अर्थात अकबर रूपी समुद्र में हिन्दू तुर्क डूब गए हैं, परन्तु मेवाड़ के राणा प्रताप उसमें कमल की तरह खिले हुए हैं। अकबर ने सबको पराजित किया किन्तु चेतक घोड़े पर सवार प्रताप अभी अपराजित है। अकबर के अंधेरे में सब हिन्दू ढक गये हैं किन्तु दुनिया का दाता राणा अभी उजाले में खड़ा है। हे हिन्दुओं के राजा प्रताप, हिन्दुओं की लाज रख। अपनी प्रतिज्ञा के पूर्ण होने के लिए कष्ट सह। चित्तौड़ चंपा का फूल है और प्रताप उसकी सुगंध। अकबर उस पर बैठ नहीं सकता, यदि प्रताप अकबर को अपना बादशाह माने तो भगवान कश्यप का पुत्र सूरज पश्चिम में उदय होगा। हे एकलिंग महादेव के पुजारी प्रताप, वह लिख दो कि मैं वीर बनके रहूंगा या तलवार से अपने को काट डालूंगा)

        पृथ्वीराज की इस कविता ने दस हजार सैनिकों का काम किया। प्रताप रोमांच से भर उठा और प्रताप ने उत्तर में लिख भेजा।
तुरुक कहां सो मुख पतों, इन तणसुं इकलिंग
उसै जासु ऊगसी, प्राची बीच पतंग,........
(अर्थात भगवान एकलिंग जी के नाम से सौगंध खाता हूं कि मैं हमेशा अकबर को तुर्क नाम से ही पुकारुंगा। जिस दिशा में सूरज हमेशा से उगता आया है वह उसी दिशा में उगता रहेगा। वीर पृथ्वीराज, सहर्ष मूंछों पर ताव दो, प्रताप की तलवार यवनों के सिरों पर ही होगी)
        मेवाड़ की धरती प्रताप के ऐसे वीरता पूर्ण किस्सों से भरी पड़ी है। खमणौर की पहाड़ियों की सोंधी खुशबू देर तक
अपने हृदय मे भरकर चाहते हुए भी वापसी के लिए निकल पड़ा। इस आशा के साथ कि अगली बार पर्याप्त समय लेकर आऊंगा और आहड़, गोगूंदा, मांडलगढ़, कुम्भलगढ़, भोमट आदि स्थानों को अवश्य देखूंगा। वापसी में एक बार फिर चेतक स्मारक पर उतरकर उस वीर पशु को श्रद्धांजलि दी।
                                                                                   (उदयपुर, हल्दीघाटी व चित्तौड़गढ यात्रा संस्मरण का एक अंश)

No comments:

Post a Comment