Wednesday, December 12, 2012

कुमाऊँ - देहरादून, रामनगर से रानीखेत

देहरादून  - किसकी नजर लग गयी इस सुन्दरता को 
यात्रा संस्मरण          
         मौसम विभाग भविष्यवाणी कर चुका था कि इस वर्ष मानसून देर से आएगा. फिर कुछ दिनों बाद मौसम विभाग ने पुनः घोषणा की कि मानसून भटक चुका है और अब और देर से आएगा. दून घाटी में बारिस प्रायः मई के दूसरे, कभी तीसरे हफ्ते तक हो जाती है पर इस बार मई पूरा सूखा बीता ही और जून के दो हफ्ते भी बारिस के इन्तजार में बीत गए. ऊपर से बिजली कटौती अलग से. इतनी गर्मी पहले कभी देहरादून में झेली हो याद नहीं. पत्नी बिमला और बेटी नन्दा दोनों जोर दे रहे थे कि चलो कहीं चलते हैं पहाड़ों में. मैंने कहा हमारा बेटा भी तो सहारनपुर की गर्मी झेल रहा है, तो ? बेटे को फोन किया तो उसे छुट्टी नहीं मिली और फिर कुमाऊँ चलने का मन बनाया. मेरी माँ जब तक जीवित रही तब तक उसके पास गाँव चले जाते थे. किन्तु पिछले साल कैंसर ग्रस्त होने के कारण यहीं मेरे पास ही उसकी मृत्यु हो गयी तो अब गाँव के बन्द पड़े घर में जाने का मन नहीं करता. उत्तराखण्ड राज्य बनने के बाद देहरादून राजधानी बनी तो इस शहर का अमन चैन ही समाप्त हो गया. बदलाव लोगों के आचार व्यवहार में तो आया ही किन्तु मौसम के मिजाज में भी बदलाव आ गया. देहरादून बदलाव के इन हालातों को प्रसिद्द जनकवि चन्दन सिंह नेगी जी से अधिक सुन्दर शब्दों में कौन बयां कर सकता है.
ये कैसी राजधानी है! ये कैसी राजधानी है!!  हवा में जहर घुलता औ' जहरीला सा पानी है !!!

कहाँ तो साँझ होते ही शहर में नींद सोती थी, कहाँ अब 'शाम होती है' ये कहना बेमानी है !!
मुखौटों का शहर है ये ज़रा बच के निकलना तुम, बुढ़ापा बाल रंगता है ये कैसी जवानी है !!
शहर में पेड़ लीची के बहुत सहमे हुए से हैं, सुना है एक 'बिल्डर' को दुनिया नयी बसानी है !!
न चावल है, न चूना है, न बागों में बहारें है, वो देहरादून तो गम है फ़क़त रश्मे निभानी है !!
महानगरी 'कल्चर' ने बदल डाला सबकुछ, इक घण्टाघर पुराना है औ' कुछ यादें पुरानी है !! 

ये कैसी राजधानी है .......!
चिलचिलाती धुप में माँ गिरिजा देवी के दर्शनार्थ भक्तों की भीड़ 
                   देहरादून से 18 जून को ही मुंह अँधेरे निकल पड़े, हरिद्वार, नजीबाबाद, काशीपुर होते हुए लगभग 240 कि०मी० दूरी तय कर रामनगर पहुंचे. फुटहिल्स में बसा लीची और आम के बगीचों के लिए प्रसिद्द यह नगर जिला नैनीताल की तहसील है और विश्व विख्यात टाइगर प्रोजक्ट जिम कार्बेट नैशनल पार्क के लिए प्रवेश द्वार भी. रामनगर से एक सड़क पूरब में काला ढून्गी होते हुए हल्द्वानी/नैनीताल को है. उत्तर में रानीखेत व धूमाकोट को चली जाती है तो पश्चिम में कालागढ़ होते हुए कोटद्वार को. रामनगर रेललाइन से भी जुड़ा हुआ है. रामनगर से ही पौड़ी व अल्मोड़ा के पहाड़ी क्षेत्रों के लिए फल, सब्जी, अनाज आदि सप्लाई होता है. रामनगर मैं सन 2006 में भी आया था किन्तु तब मेरे साथ चालक स्थानीय था इसलिए कुछ ढूँढने में दिक्कत नहीं हुयी. किन्तु आज चालक राणा जी इस क्षेत्र से अन्जान थे इसलिए नाश्ता करने के लिए सही होटल की तलाश की जा रही थी. सुबह के दस बज चुके और अभी तक नाश्ता भी नहीं कर पाए थे. कुमाऊँ मंडल विकास निगम का पर्यटन आवास गृह दिखाई दिया. जाकर फटाफट परांठे तैयार करवाए और दही के साथ दो-दो परांठे हम चारों ने ले लिए. गाड़ी में पेट्रोल चेक किया और निश्चिन्त होकर आगे बढ़ गए.
भीषण गर्मी में कोसी में नहाते माँ गिरिजा देवी के भक्त 

                      रामनगर से धीरे धीरे हम चढ़ाई चढ़ते हैं. और फिर घने पेड़ों के बीच समतल भूभाग से गुजर रही साफ़ सुथरी सड़क पर गाड़ी सरपट दौड़ती जाती है. कोसी नदी के दायें तट पर यह ढिकुली क्षेत्र कभी बसासत वाला भूभाग था. कुछ लोग इसे महाभारत कालीन विराट नगरी मानते हैं, जहाँ पर पाण्डव अज्ञातवास के दौरान रहे. कुछ इसे कत्यूरों की राजधानी भी मानते हैं. कुछ विद्वान जन अल्मोड़ा में चन्द शासनकाल के दौरान ढिकुली को शीतकालीन राजधानी मानते हैं. क्षेत्र में देखे जाने वाले प्राचीन खंडहर की ईंटें और समय समय पर प्राप्त होने वाली मूर्तियाँ इस ओर इशारा भी करती है. वर्तमान में जिम कार्बेट नैशनल पार्क के निकट होने के कारण ढिकुली एक महत्वपूर्ण क्षेत्र है जहाँ पर अनेक होटल, रिसोर्ट आदि बन गए हैं. यहाँ पर आबादी ठीक-ठाक होने के कारण एक इंटर कालेज है और बिजली, पानी के आफिस आदि अन्य आवश्यक जन सुविधाएँ भी. तथा काफी संख्या में बाग़ बगीचे भी हैं. ढिकुली से मात्र तीन कि०मी० आगे रानीखेत मार्ग पर (रामनगर से 11 कि०मी०) कोसी नदी के बीचों-बीच है जनआस्था का केन्द्र माँ गर्जिया देवी का मन्दिर. पौराणिक ग्रंथों के अनुसार राजा दक्ष प्रजापति की पुत्री सती का विवाह हुआ था भगवान शिव के साथ. राजा दक्ष द्वारा आयोजित यज्ञ में अपने पति शंकर को न बुलाये जाने पर सती रुष्ट हो गयी और अपमानित महसूस कर यज्ञ के हवन कुण्ड में ही अपने प्राणों की आहुति दे दी. जिससे क्षुब्ध होकर भगवान शंकर ने तांडव नृत्य करते हुए संहार किया था. फिर सती ने गिरिराज हिमालय की पुत्री के रूप में जन्म लिया. गिरिराज की पुत्री होने के कारण वह गौरा या गिरिजा भी. इनके नाम से ही यह मन्दिर है यह कोसी नदी के बीचों बीच. किन्तु यह गिरिजा जी इस क्षेत्र में गर्जिया देवी नाम से ज्यादा विख्यात है. ऐसा माना जाता है कि माँ के इस मन्दिर में प्रायः शेर आया करते हैं (जो कि गिरिजा की सवारी भी है) और गर्जना करते हैं जिससे इस मन्दिर का नाम गर्जिया देवी पड़ गया.                        उत्तर-दक्षिण बह रही कोसी नदी के मध्य एक समकोण त्रिभुज की आकृति से मिलता जुलता चालीस-पैंतालीस फीट ऊंचा टीला खड़ा है, जो कि मिट्टी, बजरी व छोटे-छोटे गोल पत्थरों के मिश्रण से बना हुआ है। जिसकी टेकरी पर निर्मित है एक छोटा सा मन्दिर. इस समकोण त्रिभुजनुमा टीले के कर्ण पर ऊपर चढ़ने के लिए सीढियां बना दी गयी है. किवदंती है कि यह टीला कहीं ऊपर कोसी नदी का कोई हिस्सा टूटकर यहाँ तक आया. परन्तु देखकर ऐसा नहीं लगता. यह अवश्य हो सकता है कि कभी यह टीला कोसी नदी का बायाँ या संभवतः दायाँ किनारा रहा होगा और किसी बरसात में नदी के कटाव के कारण यह भूभाग अलग हो गया और नदी के बहाव के कारण हर साल यह दोनों ओर से कटने लगा, जब तक कि इसके चारों ओर एक मजबूत 'फ्लड प्रोटेक्सन वाल' नहीं बनाई गयी. यह तो निश्चित है कि टीले का यह स्वरुप दस-बीस वर्षों में नहीं अपितु सैकड़ों वर्षों में तैयार हुआ होगा. यह जनआस्था का केंद्र कब बना यह ठीक-ठीक ज्ञात नहीं है किन्तु यह माना जाता है कि रानीखेत से रामनगर आने जाने वाले लोग जब टीले के इस स्वरुप से आकृषित होकर टीले पर जाते थे तो चारों ओर घने जंगल और टीले के दोनों और नदी की जलधाराएं देखकर अभिभूत होते थे। जो शनै-शनै आस्था में परिवर्तित होने लगी।  सन 1941 से रानीखेत निवासी रामकृष्ण पांडे विधिवत रूप से इस टीले पर बने मन्दिर में पूजा आराधना करने लगे और धीरे धीरे मन्दिर व देवी माँ की ख्याति दूर दूर तक फैलने लगी.तब से पांडे जी के वंशज ही इस मन्दिर के पुजारी नियुक्त हैं. आज मन्दिर जाने के लिए टीले पर सीढियां बनी हुयी है, कोसी नदी पर पुल तथा नदी के दायें तट पर एक विशाल धर्मशाला और एक बाजार भी बन गया है. प्रतिदिन सैकड़ों तीर्थयात्री देवी के दर्शनार्थ आते हैं. कुमाऊँ की सीमा उत्तर में गिरिराज हिमालय, पूरब में विशाल काली
माँ गिरिजा की शरण में मै और मेरा परिवार 
नदी द्वारा सुरक्षित है तो दक्षिण-पश्चिमी सीमा माँ गिरिजा और दक्षिण-पूर्वी सीमा माँ पूर्णागिरी देवी द्वारा सुरक्षित है.
                       माँ गिरिजा देवी को प्रणाम कर कोसी नदी की विपरीत दिशा में दायें तट के साथ-साथ चढ़ाई चढ़ते हुए इस मार्ग पर आगे बढ़ते हैं. घने जंगलों के बीच से गुजरते हुए अच्छा लगता है किन्तु आबादी विहीन होने के कारण एक सूनापन खलता है. सोरल में कुछ देर सुस्ता कर व चाय पीकर फिर आगे चलने के लिए तैयार हो जाते हैं. यहाँ टोटम, खायोधार गाँव में आबादी थोड़ी बहुत दिखती है. रास्ता निरंतर चढ़ाई वाला है और सोचता हूँ ब्रिटिश साम्राज्य द्वारा जब 1869 में रानीखेत में रेजिमेंट का हेडक्वार्टर बनाया गया होगा तो इस मार्ग की स्थिति कैसी रही होगी.   
                                                                                                                                  क्रमशः .............   

3 comments:

  1. सुबीर जी,
    बहुत बहुत धन्यवाद आपका जो आपने मुझे याद रखा, इधर वक़्त ही कुछ ऐसा बीता कि ब्लॉग तो क्या मेल भी जरा कम ही देख पता था। खैर अब कुछ दिनों के लिए थोड़ा खाली रहूँगा इसलिए सोचा कि कुछ ब्लॉग ही लिखा जाये। आप जैसे ज्ञानी का सानिध्य तो मिलेगा। आपके यात्रा वृतांत ने बचपन की यादें ताज़ा कर दीं। मेरा बचपन देहरादून में ही बीता पर अब ये वो शहर नहीं रहा। वक्त है, क्या कर सकते हैं।
    एक बार फिर आपका बहुत बहुत धन्यवाद,
    सादर,
    विवेक जैन

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  2. ऐसा लगता है कि यह संस्मरण पहले भी पढ़ चुके हैं।

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  3. सच कहा देहरा दून बहुत बदल गया..बहुत सुन्दर यात्रा वृतांत..आभार

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