Wednesday, April 11, 2012

शौर्य व स्वाभिमान के पर्याय थे महाराणा प्रताप-(2)

यात्रा संस्मरण (पिछले अंक से जारी .......)
प्रताप की कृपाण  के वार से बचता हुआ मान सिंह
                     फरवरी 28, 1572  को गोगून्दा में महाराणा उदय सिंह की मृत्यु हुयी, दाहसंस्कार के समय सभी पुत्र उपस्थित थे, किन्तु जगमाल नहीं था. मेवाड़ की परंपरा थी कि राज्य का उत्तराधिकारी दाहसंस्कार में शामिल नहीं होता था. पूछने पर दूसरे पुत्र सगर ने बताया कि महाराणा ने जगमाल को राजा बनाने का ऐलान किया है. प्रताप सबसे बड़ी महारानी के ज्येष्ठ पुत्र थे. किन्तु महाराणा उदय सिंह युवा रानी भट्याणी  के मोह में पड़कर उसके पुत्र जगमाल को राजा बनाना चाहते थे. सभी सरदार व सामंत सुनकर हतप्रभ रह गए. सरदार अक्षयराज सोनगरा ने रावत कृष्णदास व रावत सांगा के सामने रोष व्यक्त किया. सभी सरदारों ने मिलकर जगमाल को गद्दी से उतारकर प्रताप को गद्दी पर बिठाया. जगमाल यह अपमान बर्दाश्त न कर सका और मुगलों की सेना में शामिल हो गया. गोगून्दा में गद्दी पर बैठने के बाद प्रताप कुम्भलगढ़ आ गए जहाँ उनका विधिवत राजतिलक हुआ.(समुद्रतल से 1100 मीटर ऊँचाई पर स्थित यह विशाल किला चौदवीं शताब्दी में राणा कुम्भा द्वारा बनवाया गया था.)
शक्ति सिंह, झालामान व भामा शाह - प्रताप स्मारक, हल्दीघाटी.
                  आज सैकड़ों वर्ष बाद भी प्रताप की ख्याति पूरे विश्व में है  उसका कारण है भारतवर्ष के तत्कालीन सबसे ताकतवर साम्राज्य से लोहा लेना, उसके विरुद्ध डट कर  मुकाबला करना. ऐसे समय में जब भारतीय उप महाद्वीप में प्रायः सभी छोटी-बड़ी रियासतों के बुर्ज पर मुग़ल सल्तनत की पताका लहरा रही थी या जलालुद्दीन अकबर की विध्वंसकारी नीति के तहत विरोध करने वाली रियासत/राज्य को नेस्तनाबूद किया जाता था.  उस समय प्रताप का अकबर के सामने सर न झुकाने का प्रण और अंतिम सांस तक अपने स्वाभिमान व स्वतंत्रता की रक्षा करना, ऐसी बातें हैं जो प्रताप को महान बनाती है.           
            चित्तौडगढ़ में असफल होने पर अकबर ने प्रताप के पास अपने राजदूत कई बार इस आशय से भेजे कि वे अकबर की अधीनता स्वीकार कर लें जिससे रक्तपात से बचा जा सके. किन्तु अकबर ने चित्तौडगढ़ किले को  हथियाने के बाद किले को नष्ट किया व सैनिकों के साथ साथ निर्दोष व निहत्थे नागरिकों को जिस क्रूरता से मरवाया उससे प्रताप व उनके सहयोगियों के मन में अकबर के प्रति अत्यन्त घृणा पैदा हो गयी थी. सब तरफ से असफल होने पर अकबर ने प्रताप को उन्ही के गढ़ में घेरने की योजना बनाई. मार्च 1576 को अकबर अजमेर पहुँचा. मेवाड़ पर आक्रमण के लिए आमेर के कुंवर मान सिंह को सेनापति बनाया गया. मान सिंह यद्यपि योग्य, बुद्धिमान, साहसी व वीर था किन्तु गैर मुस्लिम मान सिंह की सेनापति के रूप में नियुक्ति के पीछे अकबर की कूटनीति थी  कि एक  राजपूत के विरुद्ध राजपूत भेजने से प्रताप ज्यादा समय तक अपने को नहीं रोक पायेगा और आमने सामने की लड़ाई में अकबर की विशाल सेना के समक्ष प्रताप मारा जाएगा या कैद कर लिया जायेगा. मान सिंह की नियुक्ति से अकबर के मुस्लिम सेनापतियों में नाराजगी होगी, अकबर यह भली भांति जानता था. इसीलिए अकबर ने यह घोषणा फतेहपुर सीकरी के बजाय अजमेर से की. विशाल सेना के साथ मान सिंह अप्रैल 03, 1576  को अजमेर से चला, लेकिन मांडलगढ़ पहुंचकर दो माह तक रुका रहा. कि सेना पूरी तरह पहुँच जाय और आवागमन के मार्ग सुरक्षित हो जाय. दूसरी यह उम्मीद थी कि हो सकता है विशाल शाही सेना को देखकर प्रताप की ओर से संधि का ही प्रस्ताव आ जाय. मान सिंह के मांडलगढ़   पहुँचने का समाचार सुनकर प्रताप भी कुम्भलगढ़ से गोगूंदा आ गए. सभी सामंतो व सरदारों के साथ परामर्श कर यह तय हुआ कि मान सिंह का
चेतक स्मारक - बालची, हल्दीघाटी 
मुकाबला मांडलगढ़ में नहीं अपितु पहाड़ों की  ओट से छुपकर ही किया जाय. क्योंकि मांडलगढ़  सीधे अजमेर मार्ग पर है जहाँ से और भी शाही सेना पहुँच सकती है. (एक दिन मान सिंह अपने थोड़े से सैनिको के साथ शिकार पर गया. प्रताप को खबर मिली तो कुछ सरदार मान सिंह को वहीँ घेर कर मारने की सोचने लगे. किन्तु सादड़ी के सरदार झालामान ने कहा कि शत्रु को धोखे से मारना क्षत्रियों की परंपरा नहीं है जिससे प्रताप भी सहमत थे)                                           
                       28 जून 1576 (संभवतः 18 जून) को हल्दीघाटी युद्ध में शाही सेना और प्रताप की सेना में घमासान युद्ध हुआ. शाही सेना में जहां हल्का आधुनिक तोपखाना था वहीँ राणा की सैनिकों के मुख्य हथियार भाले, छोटी तलवारें, धनुष वाण व गोफन (गुलेल) थे. यह अद्भुत संयोग था कि शाही सेना के अग्रिम दल में जगन्नाथ के नेतृत्व में राजपूत सैनिक थे. वहीँ महाराणा के अग्रिम दल में हकीमखां सूर के नेतृत्व में मुसलमान पठान सैनिक थे. महाराणा की सेना ने जहां मोर्चा संभाला था वह सामरिक दृष्टि से उपयुक्त था. वहां तक पहुँचने के लिए दो मील का पहाड़ी तंग रास्ता पार करना होता था जिससे एक बार में एक घुड़सवार बड़ी कठिनाई से निकल सकता था. चारों ओर की पहाड़ियों पर ऐसी घेरेबंदी की जा सकती थी कि मुट्ठी भर सैनिक ही सैकड़ों सैनिकों के आक्रमण को रोकने में समर्थ थे. आसपास के जंगलों से प्रताप के सैनिक भली भांति परिचत थे. अपरिचित शत्रु सैनिक रास्ता भटकने पर या तो जान गँवा देते या भूखों मरते. प्रताप की सेना की एक विशेषता यह भी रही कि उन्होंने मुग़ल सेना को बादशाह बाग़ से निकलकर रक्त तलाई के मैदान तक आने को वाध्य किया. 
                       पहल प्रताप ने की. सबसे पहले मेवाड़ की पताका लेकर एक हाथी हल्दीघाटी से निकला. उसके पीछे हकीमखां सूर के नेतृत्व में राणा का अग्रिम दल तथा फिर राणा व मुख्य सेना. राणा के पास वही अरबी नस्ल का सुन्दर व ऊंची कद काठी का सफ़ेद घोड़ा चेतक था जो उनके साथ कई युद्धभूमि में वीरतापूर्वक रह चुका था. तुरही की तूती, नगाड़ों की नाद और चारणों के वीर रस के गीतों ने सैनिकों का उत्साह दुगुना कर दिया. दोपहर तक दोनों ओर से डटकर मुकाबला हुआ. सैयद हाशिम के नेतृत्व में 80 वीर तथा जगन्नाथ व आसफ खां के नेतृत्व में आया दल राणा के सैनिकों ने मार भगाया. एक पहर से अधिक समय बीत चुका था. युद्ध में प्रताप का मुख्य लक्ष्य मान सिंह को मार गिराना था. मुग़ल सैनिकों को मार गिरते हुए प्रताप मान सिंह की ओर बढा. प्रताप ने चेतक से मान सिंह की ओर ऊंची छलांग लगवाकर कहा "मान सिंह ! तुझसे जहाँ तक हो सके बहादुरी दिखा, प्रताप आ गया."  किन्तु मान सिंह ने फुर्ती से झुककर अपनी जान बचा ली और प्रताप का शक्तिशाली बरछा महावत के शरीर को फाड़ता हुआ हौदे में जा लगा. चेतक के दोनों पैर मान सिंह के हाथी के सर पर लगे परन्तु हाथी के सूंड पर जो तलवार बंधी थी उससे चेतक का पिछला एक पैर कट गया. प्रताप तब यह नहीं देख पाए थे. मान सिंह पर हमला होते देख मुग़ल सेना ने बहलोल खां के नेतृत्व में प्रताप को चारों ओर से घेरकर हमला बोल दिया. प्रताप के एक ही वार से बहलोल खां की गर्दन रणभूमि में जा गिरी तथा वीरतापूर्वक मुग़ल सेना का कत्लेआम करते रहे. इधर चेतक अपने तीन पैरों पर ही खड़े होकर शिद्दत के साथ प्रताप का साथ दे रहा था और उधर प्रताप बुरी तरह घायल होने के बावजूद युद्धभूमि में डटे हुए थे. जनश्रुति है कि चेतक ज्यादा ही लड़खड़ाने लगा था और घायल प्रताप शाही सेना से बुरी तरह घिर गए थे. ऐसे समय में बड़ी सादड़ी के सरदार झाला मान ने मेवाड़ के सच्चे सपूत होने का परिचय देते हुए प्रताप से मेवाड़ के राजचिन्ह बलपूर्वक लेकर स्वयं धारण कर लिया और उन्हें वहां से चले जाने को विवश कर दिया. झाला मान वीरतापूर्वक लड़ते हुए मुग़ल सेना को युद्धभूमि से काफी दूर तक धकेलते हुए  ले गए और वीरगति को प्राप्त हुए.  (हल्दीघाटी का मानातालाब आज उस वीर की शहादत याद दिलाता है.)  उधर पैर कटने के बावजूद स्वामिभक्त चेतक घायल महाराणा को दो मील दूर बलीचा गाँव के पास ले आया. जहाँ पर चेतक ने कूदकर इक्कीस फिट चौड़ी खाई पार की और मृत्यु वरण कर इतिहास में अमर हो गया. कहते हैं मुगलों की सेना में शामिल प्रताप का भाई जगमाल, जो शक्ति सिंह के नाम से जाना जाता था, यह सब देख रहा था. चेतक की स्वामीभक्ति से उतना प्रभावित हुआ कि वह अपने को धिक्कारने लगा 'चेतक एक पशु होकर भी मेवाड़ की रक्षा के लिए इतना समर्पित और मै....?' वह प्रताप के पीछे भागा, चेतक की मौत जहाँ हुयी वहां प्रताप के गले मिलकर रोया, प्रताप को अपना घोड़ा देकर उनसे मेवाड़ की रक्षा हेतु बचकर निकल भागने को कहा और स्वयं अंतिम सांस तक मुग़ल  सिफहियों को रोके रखा.
                 इतिहासकार अल बदायुनी ने लिखा है कि शाही सेना पहले हमले में ही भाग निकली थी और बनास नदी को पार कर पांच-छः कोस तक भागती रही. 'अकबरनामा' में अबुल फजल ने लिखा है कि यह राणा की जीत थी. किन्तु एकाएक खबर फैली कि बादशाह स्वयं आ पहुंचा हैं. इससे शाही सेना की हिम्मत बढ़ गयी और राणा की सेना बिखर गयी. दोपहर तक चले इस युद्ध में लगभग पांच सौ सिपाही युद्धभूमि में मारे गए. जिनमे 128 मुसलमान व 300 हिन्दू और 300 से अधिक मुसलमान घायल हुए. 
                   इतिहासकार मानते हैं कि महाराणा प्रताप से इस युद्ध में कुछ चूक हुयी है. पहली यह कि राणा को
चेतक गाथा -बालची, हल्दीघाटी 
चाहिए था कि अपनी सेना को इस प्रकार अलग अलग स्थानों पर तैनात करते कि शत्रु घाटी में आने के लालच में फंस जाता और उसका संहार करते. दूसरी, मुग़ल सेना के पीछे हटने पर राणा को पूरी सेना लेकर मैदान में नहीं दौड़ जाना चाहिए था. तीसरे, युद्ध के बाद राणा अपनी सेना पर व्यवस्था बनाने में नाकाम रहे. फिर भी राणा अपनी  बुद्धि व विवेक का संतुलन बनाये रखकर और युद्धभूमि से दूर भागकर मेवाड़ की अधिक सेवा कर सके अन्यथा पकड़े या मारे जाने पर मेवाड़ की पताका उसी दिन धूल में मिल जाती. हल्दीघाटी का युद्ध समाप्त हुआ किन्तु संघर्ष नहीं. प्रताप का यश इतना फैला कि भारत के हर प्रदेश में लोग हल्दीघाटी के किस्से कहानियां बड़े चाव से सुनते और सुनाते. ये किस्से स्वतंत्रता के लिए जगह जगह लड़ रहे सैनिकों में जोश भर देते. प्रताप सकुशल कोल्यारी पहुंचे जहाँ उन्होंने घायलों के उपचार की व्यवस्था की. इस युद्ध ने प्रताप को हताशा के अँधेरी खाईयों में नहीं धकेला अपितु उनके इरादों को और भी मजबूती दी. एक शक्तिशाली सम्राट के विरुद्ध युद्ध करने और एक सीमा तक विजयी होने से उनके अन्दर आत्मविश्वास भर गया. उन्होंने इस संग्राम को जारी रखने और मुगलों के चुंगल से मेवाड़ के क्षेत्रों को वापस  छीनने का संकल्प लिया. प्रताप ने निश्चय किया कि भविष्य में वह मुगलों पर खुले मैदान में सामने से आक्रमण नहीं करेंगे. वह इस प्रदेश की भौगोलिक बनावट व उसके निवासियों के अनुकूल गुरिल्ला युद्ध जारी  रखेंगे.  
                                                                                                                अगले अंक में जारी  -------
(सामग्री स्रोत साभार- Manorama Yearbook1988&2009, युगपुरुष महाराणा प्रताप-मोहन श्रीमाली व एस० पी० जैन, Mewar & Welcome to Rajsthan-  Rajsthan Tourism's Magazines तथा रजवाड़ा -देवेश दास आदि  पुस्तक)

3 comments:

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