Monday, April 16, 2012

शौर्य व स्वाभिमान के पर्याय थे महाराणा प्रताप-(3)

महाराणा प्रताप      छाया - साभार गूगल
यात्रा संस्मरण (पिछले अंक से जारी.....)
                      अकबर को उम्मीद थी कि हल्दीघाटी में प्रताप पर जीत आसानी से मिल जाएगी किन्तु विशाल सेना  व अस्त्र-शस्त्र होते हुए भी  मुगलों को मुंह की खानी पड़ी. असफल होने पर अकबर के अहं को बड़ा धक्का लगा. मान सिंह के लौट जाने के बाद अकबर ने अपने विश्वसनीय क़ुतुबुद्दीन मोहम्मद खां को आदेश दिया कि वे प्रताप को कैद करें या मार डालें. किन्तु प्रताप ने पर्वतीय क्षेत्र में जिस प्रकार अपनी स्थिति मजबूत कर ली थी उससे क़ुतुबुद्दीन को भी पराजित होकर लौटना पड़ा. हल्दीघाटी युद्ध के बाद कोल्यारी गाँव के निकट कमलनाथ पर्वत पर स्थित आवरगढ़ में प्रताप ने अस्थाई राजधानी बनाई. (आज भी यहाँ पर खंडहर दिखाई देते हैं) प्रताप ने गोगुन्दा पर पुनः अपना अधिकार कायम किया और कून्पावत को वहां का शासक तैनात कर लिया. गोगुन्दा के पास रणेराव के तालाब पर राणा ने सैनिक छावनी बनाई जहाँ से मैदानी भागों में भेजकर मुग़ल सैनिकों की चौकियों को ध्वस्त कर सैनिकों को मार भगाया. फिर कुम्भलगढ़ किले को ठिकाना बनाकर किले को मजबूती दी तथा मेहता नरबद को किलेदार नियुक्त किया. तीन महीनों से अधिक समय तक प्रताप निरंतर डूंगरपुर, बांसवाडा, सिरोही, जालोर, मारवाड़, बूंदी, ईडर अदि के शासकों से सम्बन्ध कायम करते रहे व उन्हें मुगलों के विरोध के लिए प्रेरित करते रहे. मारवाड़ के राव चन्द्रसेन, ईडर के नारायणदास और सिरोही के राव सुरताण और बूंदी के राव दूदा  ने भी मुग़ल विरोधी अभियान में प्रताप का साथ दिया. हिन्दू राजा ही नहीं अपितु मुस्लिम शासक भी प्रताप के साथ खड़े  हुए. जालौर का नवाब ताजखां अरावली पहाड़ी के दोनों ओर लूटपाट व फसाद कर अकबर के स्थानीय सामंतों को तंग करने लगा था. प्रताप ने मेवाड़ में स्पष्ट आदेश कर दिया था कि कोई भी किसान खेती कर शाही थानेदारों को लगान न दें. जिससे काफी
प्रताप के विश्वासनीय भामाशाह
कृषक मेवाड़ छोड़कर चले गए और शाही सेना भूखों मरने लगी.
                      प्रताप और मेवाड़ अकबर के लिए नाक का सवाल हो गया था. 12 अक्टूबर 1576 को अजमेर से प्रस्थान से पूर्व उसने प्रताप के सहयोगी शासकों को समाप्त करने के लिए तरसुन खां, राम सिंह, सैयद हासिम बरहा, क़ुतुबुद्दीन मोहम्मद खां,  कुल्तज खां, आसफ खां, भगवान दास आदि के नेतृत्व में अलग अलग सेनाएं भेजी. और अकबर स्वयं माण्डलगढ़, देवलगढ़, मदरिया होते हुए मोही पहुंचा. राणा को सूचना मिलने पर वे ईडर के दक्षिणी क्षेत्र में जा डटे. नारायण दास व प्रताप ने मुगलों का डट कर मुकाबला किया और उमरखां और हसनबहादुर को मार गिराया. अंततः लम्बे युद्ध के बाद 23 फरबरी 1577 को मुग़ल सेना ने ईडर पर जीत हासिल कर दी. अकबर ने सैकड़ों घुड़सवारों को प्रत्येक थाने पर नियुक्त कर लिया और स्वयं हल्दीघाटी होते हुए उदयपुर पहुंचा. हजारों सैनिकों, घुड़सवारों को दर्जनों सेनानायकों के साथ जगह-जगह भेजा कि प्रताप को जैसे भी हो पकड़ा जाये. दो महीने तक अकबर उदयपुर में जमा रहा किन्तु राणा न पकड़ा गया न मारा ही गया. हाँ, प्रताप के अनेक सहयोगी शासकों को हराने या मारने में मुग़ल सेना कामयाब जरूर हुयी.  इस बीच राणा ने मुग़ल सैनिको को मार भगा कर गोगुन्दा पर पुनः विजय प्राप्त कर ली. हताश होकर 12 मई 1577 को अकबर वापस फतेहपुर सीकरी लौट आया. अकबर के लौटते ही राणा ने उदयपुर को छोड़कर सभी रियासतों  को पुनः जीत लिया.

प्रताप के लिए हथियार तैयार करते भील
                       दोबारा शर्मनाक हार के बाद अकबर ने फिर कुंवर मान सिंह, राजा भगवंतदास, सैयद कासिम, सैयद हाशिम, सैयदराजू, असद तुर्कमान, पायंदखां आदि वीर व स्वामिभक्त नायकों के साथ मीर बक्शी शाहबाजखां के नेतृत्व में एक विशाल सेना 15 अक्टूबर 1577 मेवाड़ भेजी. जिन्होंने  मेवाड़ के सैनिकों से थाने छीनकर अपने सैनिक तैनात कर दिए. भोमट के घने जंगलों व गोगुन्दा क्षेत्र में चारों ओर हजारों मुग़ल सैनिक छा गए. कुम्भलगढ़ को घेरकर संघर्ष के बाद 03 अप्रैल 1578 को मुगलों ने किले पर अधिकार कर लिया. किन्तु राणा पहले ही खजाना व रसद लेकर ससैन्य निकल गया था. जिससे मुगलों को अत्यंत निराशा हुयी. लगभग आठ महीने तक शाहबाजखां मेवाड़ में रहा और पचास से अधिक थानों पर अपने सैनिक तैनात किये किन्तु प्रताप को न पाकर वह वापस लौट गया. विषम व विकट परिस्थितियों  के कारण मुगलों की सेना को राणा की सेना की अपेक्षा जान-माल की अधिक हानि हुयी. मुगलों के लौटते ही प्रताप ने सभी थानों पर अपना अधिकार कर लिया. प्रताप के मंत्री भामाशाह व उनके भाई ताराचंद ने मालवा जाकर शाही सेना से मारकाट कर पच्चीस लाख व दो हजार अशर्फियाँ इकट्ठी की जो उन्होंने राणा को समर्पित की. प्राप्त धन से राणा ने सैनिक शक्ति बढाई. राणा ने अब मेवाड़ के दक्षिण पश्चिम के छप्पन भूभाग को अपना केंद्र बनाया. क्योंकि यह क्षेत्र कृषि व व्यापार की दृष्टि से उत्तम ही नहीं अपितु सामरिक दृष्टि से भी ज्यादा सुरक्षित था.
         
बादशाह अकबर  छाया-साभार गूगल 
                  मेवाड़ के समाचार जब अकबर को मिले तो प्रताप के दमन के लिए विपुल धनराशी देकर शाहबाजखां को पंजाब से अजमेर भेजा. जहाँ से वह दोबारा 15 दिसम्बर 1578 को शेख तिमूरबख्शी, मुहम्मद हुसैन, मीरजादा, गाजीखां, अलीखां आदि सेनानायकों को लेकर विशाल सेना सहित मेवाड़ पहुंचा. राणा फिर भी मुग़ल सेना के  हाथ नहीं आया अपितु राणा का  गुरिल्ला युद्ध जारी रहा. राजपूतों व भीलों के अचानक आक्रमण से त्रस्त होकर शाहबाजखां 1579 मध्य में वापस लौट गया. राणा ने स्वभूमिध्वंस नीति अपनाकर मुग़ल थानों के आसपास की भूमि पर किसानों को अन्न उगाने के लिए मना कर दिया. जिससे मुग़ल सैनिक भूखों मरने लगे. छापामार युद्ध के कारण सूरत के बंदरगाह से फारस की खाड़ी व यूरोप में होने वाला मुगलों का व्यापार ठप पड़ने लगा. लूटे हुए धन से राणा की स्थिति मजबूत होती गयी और वह शाही थानों को एक के बाद एक नष्ट करने लगा.
                    मेवाड़ व प्रताप अकबर के लिए साम्राज्य की प्रतिष्ठा का सवाल बन गया. मेवाड़ पर काफी हद तक प्रताप का अधिपत्य होने व व्यापार ठप होने से अकबर ने को 9 नवम्बर 1579 को शाहबाजखां को तीसरी बार मेवाड़ भेजा. परन्तु हर बार की तरह वह थानों चौकियों पर मुग़ल सैनिकों को तैनात करने व जगह जगह लूटपाट करने के अलावा कुछ न कर सका. प्रताप अविजेय ही रहा और हताश होकर शाहबाजखां मई 1580 को वापस लौट गया. बार बार असफल होने के बावजूद मेवाड़ पर आधिपत्य का सपना पूरा करने के लिए अकबर ने एक बार 1580 अंत में अब्दुर्ररहीम खानखाना तथा दिसम्बर 1584 में जगन्नाथ कछ्वावा को मेवाड़ भेजा. किन्तु वे भी असफल रहे. मेवाड़ पर बार-बार आक्रमण से मुगलों को जन-धन की भारी हानि उठानी पड़ी, जिससे अकबर ने अप्रत्यक्ष रूप में प्रताप से पराजय मान ली व मेवाड़ को अपने हाल पर छोड़ते हुए सन 1585  के बाद सभी सैनिक अभियान बंद कर दिए. अकबर पश्चिमोत्तर की समस्या से उलझ गया और विशाल मुग़ल सेना लेकर वह तेरह वर्षों तक लाहोर में ही रहा. जिससे प्रताप इन वर्षों में अपने राज्याभिषेक के समय प्राप्त मेवाड़ के सभी क्षेत्रों को पुनः मुगलों से वापस जीतने में सफल हो सका.
                                                                                                                           शेष अगले अंक में......... 
(सामग्री स्रोत साभार- युगपुरुष महाराणा प्रताप-मोहन श्रीमाली व एस० पी० जैन, Mewar & Welcome to Rajsthan-  Rajsthan Tourism's Magazines तथा रजवाड़ा -देवेश दास आदि  पुस्तक)

21 comments:

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