Friday, April 18, 2014

रेणुका जी से परशुराम कुण्ड तक (2)

 पिछले अंक से जारी..........
ब्रहमपुत्र की धरती पर
              गोहाटी तक ब्रोडगेज लाईन की लम्बी यात्रा के बाद ट्रेन बदलते हैं और प्रारम्भ होती है मीटर गेज लाईन पर एक उबाऊ, थकानपूर्ण और असमाप्य सी लगती यात्रा। दिल्ली से गोहाटी तक की लगभग 45 घण्टे की यात्रा में एक रफ्तार है और भीड़भाड़ भी। परन्तु गोहाटी से आगे पूरब की ओर बढने पर लगता है कि हम किसी अज्ञात प्रदेश की ओर बढ रहे हैं। यात्रियों की संख्या भी अपेक्षाकृत कम ही रह जाती है और भाषा बिल्कुल अजनबी सी, असमिया, नागा, बंग्ला, सिलेटी, मणिपुरी आदि। मीटर गेज पर एक तो ट्रेन की सुस्त रफ्तार और भीतर डिब्बे में घुटन भरा सा वातावरण। बाहर छोटे-छोटे स्टेशन पीछे छूटते जाते हैं- नारंगी, हौजाई, लंका आदि, आदि। ट्रेन में हॉकरों का चढना उतरना इस उबाऊपन में और भी खलता है। लगभग छः घण्टे के सफर के उपरान्त गाड़ी में कुछ हलचल होती है तभी जान पड़ता है कि लमडिगं स्टेशन आ गया। लमडिगं से ही असम की बैराक वैली के लिए एक मीटर गेज लाइन अलग कट जाती है जो कि त्रिपुरा, मणिपुर व मिजोरम राज्यों को जोड़ती है। (असम प्राकृतिक रूप से दो भागों में बंटा है - ब्रहमपुत्र वैली और बैराक/बराक वैली) बीस-पच्चीस मिनट बाद लम्बी व्हिसिल के साथ गाड़ी आगे बढ़ती है तो डिब्बों में गिनती की सवारी रह जाती है। खालीपन और भी काटने लगता है। असम और बंगाल में (सिलीगुड़ी के बाहरी भाग - न्यू जलपाइगुड़ी स्टेशन पार करते ही)  गौर करने लायक है जल आप्लावित भूमि में घास-फूस  व बांस से बने घरों के गांव। कहीं लकड़ी के आधार पर ही पूरा घर बनाकर और चौखटों के अन्दर बांस की खपचियां फंसा कर बाहर भीतर मिट्टी अथवा रेत सीमेण्ट का प्लास्टर किया जाता है। बांस से ही कई तरह के घरेलू सामान और चारपाईयां आदि तैयार की जाती है अर्थात् बांस यहां के जीवन का अभिन्न अंग है। प्रायः घरों के आस-पास पोखर या तालाब दिखाई देते हैं और आंगन व पिछवाड़े में केले के झुरमुट। (बाढ़ के दौरान असमिया लोग केले के तनों को ही आपस में बांधकर नाव के रूप में इस्तेमाल करते हैं) लोग प्रायः घर के आंगन या पिछवाड़े नारियल, सुपारी के पेड़ लगाते हैं और उन्हीं पेड़ों से लिपटी होती है पान की लताएं। (सुपारी को स्थानीय भाषा में तामूल कहा जाता है, जो कि संस्कृत शब्द ताम्बूल का अपभ्रंश है) असमिया लोगों के घर जाने पर वे सर्वप्रथम मेहमान को पान, ताम्बूल ही पेश करते है। प्रत्येक घर में पान-तामूल रखने का पीतल का ‘सोराइ’ बर्तन होता है।
खेतों में धान ही बोया जाता है। जुताई बैलों या भैंसों द्वारा ही की जाती है। तालाब पोखरों में बंसी (कांटा) फंसाकर मच्छियां मारना यहां आम ग्रामीणों की दिनचर्या है। मच्छी भात असम बंगाल का प्रिय भोजन है। दालें शायद ही कहीं बोयी जाती हों। हाँ, मुस्लिम बाहुल्य नौगावं जिले में सब्जी की पैदावार अच्छी है। वर्षा की अधिकता के कारण गन्ना व गेहूं पूर्वोत्तर भारत में बोया नहीं जाता है। हिन्दी भाषी राज्यों के लोग यहां प्रायः मजाक में कहते भी हैं कि ”पूर्वोत्तर के लोगों ने आटे और चीनी के पेड़ नहीं देखे है।“
लमडिंग से दो घण्टे के सफर के बाद स्टेशन पड़ता है दीमापुर। भाबर क्षेत्र दीमापुर नागालैण्ड का एकमात्र रेलवे स्टेशन है। आजादी के बाद नागालैण्ड अशान्त राज्य रहा। कहां कब क्या घट जाये, हमेशा ही आशंका बनी रहती है। एक अलगाव नागाओं के मन में जो शुरू से पनप रहा था इतने लम्बे अरसे बाद भी दूर नहीं किया जा सका। शायद इसी अलगाव के कारण गोहाटी से आगे पटना, दिल्ली आदि शहरों की ओर बढ़ने पर कुछ नागा कहते भी हैं कि ”इण्डिया जा रहे है“।
दीमापुर से अगला स्टेशन आमगुड़ी है। जोरहाट की सवारी यहां उतर जाती है । आमगुड़ी के बाद ट्रेन सोनारी, नाजिरा, लखुवा, सफेकटी, नामरूप आदि पड़ावों से गुजरती है। (नाजिरा व लखुवा की पहचान ओ0एन0जी0सी0 के ऑयलफील्ड के रूप में भी है) 

चाय के बगीचों के बीच से ट्रेन का छुक-छुक होकर गुजरना मन को रोमांचित करता है। मध्य हिमालय में ऊँचे पहाड़ों पर फैले हैं अनगिनत बुग्याल। जहां कठिन यात्रा के बाद ही पहुंचा जा सकता है। लेकिन असम में दूर-दूर तक फैले ‘ड्रेस्ड ' चाय बागान बुग्यालों का सा भ्रम करा देते हैं। लगता है ऊषा मंगेशकर की सुमधुर आवाज में असमियां गीत यहीं कहीं गूंज रहा है-
"हे अखम देकोर बागीचा रे सुवाली, झुमुर-झुमुर नाचे क्वरूं धेमाली,
हे लछमी न ह्वै मोरे नाम समेली, बीरबलेर बेटी मोर नाम समेली.....‘‘

(असम देश के बगीचे में मैं एक लड़की उधम मचा रही हूं अरे! मैं लक्ष्मी नहीं, मेरा नाम चमेली है। बीरवल की बेटी मैं चमेली हूँ )
असमिया भाषा की विशेषता यह भी है कि ‘च’ का उच्चारण ‘स’ और ‘स’ का उच्चारण ‘ह’ के रूप में होता है यथा- चाय का साय, सागर का हागर आदि। (वैसे टिहरी गढ़वाल के लम्बगावं क्षेत्र में कहीं-कहीं ‘स’ को ‘ह’ उच्चारित किया जाता है, ) गढ़वाल के लोक वाद्य यन्त्रों में जिस प्रकार ‘मोछंग’ को एक विशिष्ठ स्थान प्राप्त है वहीं असमिया गीतों में प्रायः मोछंग की कर्णप्रिय धुन अवश्य सुनाई देती है। कुमाऊंनियों की भांति असमिया व अरूणाचल की कुछ जनजातियों के लोग भी बात करते समय ‘हूं’ की जगह सांस भीतर खींचकर ‘‘होय’’ कहते हैं। वहीं असमियां भाषा में श्रीनगर, पौड़ी के आसपास बोले जाने वाली गढ़वाली की भांति ही ध्वनि में ‘अ’ का उच्चारण संवृत्त व वृत्तमुखी, अर्थात ‘ओ’ की भांति होता है, जैसे घर का घौर, बडा का बौडा, आदि। और असमियां में महन्त का मोहन्त, बगाईगावं का बोगाइगावं आदि।   
       नामरूप फर्टिलाइजर्स कार्पोरेशन आवॅ इण्डिया के लिये विख्यात है। गोहाटी से चौदह घण्टे की उबाऊ यात्रा के बाद हम पहुंचते हैं मात्र पांच सौ किलोमीटर दूर अपने पड़ाव नहरकटिया। नहरकटिया बूरी डिहींग नदी के बायें तट पर बसा हुआ डिब्रूगढ का तहसील हेडक्वार्टर है। ट्रेन निरन्तर पूरब ढुलियाजान व तिनसुखिया की ओर बढती है। ढुलियाजान में इण्डियन ऑयल कार्पोरेशन का बड़ा प्रतिष्ठान है और तिनसुखिया ऊपरी असम का सबसे बड़ा व्यापारिक केन्द्र है। 

                                                                                                               अगले अंक में जारी.........

1 comment:

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