आज सुबह रेडियो पर एक गीत सुन रहा था। गीत का मुखड़ा है;
‘‘बूझ मेरा क्या नांम रे, नदी किनारे गांव रे।
पीपल झूमे मोरे आंगना, ठण्डी-ठण्डी छांव रे।.........’’
गीत गुरूदत्त के प्रोडक्शन में बनी, राजखोसला द्वारा निर्देशित और देव साहब, वहीदा रहमान व शकीला द्वारा अभिनीत फिल्म ‘सी आई डी’ का है। यह गीत मजरूह सुल्तानपुरी द्वारा लिखा गया, ओ. पी. नैयर साहब केे संगीत निर्देशन में तैयार किया गया है और सुरीली आवाज है शमशाद बेगम की। गीत भीतर तक झकझोर गया। हर शब्द मन में गहरे उतर गये। तपती दोपहरी में जैसे भटकती हुयी बदलियां बरस जाये। मन के किसी कोने फिर तो मिट्टी की सोंधी गंध, पीपल की ठण्डी बयार और नदी की कलकल ध्वनि का प्रभाव छाने लगा। महानगरों में पली-बढ़ी युवा पीढ़ी इस गीत के मायने शायद ही जान पाये। युवा पीढ़ी ही क्यों वे भी तो कहाँ जान पाते हैं जोे गांव के होते हुये भी गांव का सुख नहीं उठा पाये। और जो हम इस गीत का अर्थ जान पा रहे हैं, समझ रहे हैं वे भी तो मन मसोस कर रह रहे हैं। जी चाहता है सारे बन्धन तोड़कर लौट जायें अपने गांव। शहर की छाया से दूर, शहरी व्याधियों से मुक्त अपने गांव। वहाँ जहाँ बस गांव हो, खेत-खलिहान हो, पानी से भरी नहरें हों, चारों ओर हरियाली हो, खेतों में खुशहाली हो, पक्षियों का कोलाहल हो, बहते झरने हों और अपने लोग हों। बस।
परन्तु दूसरे ही पल सोचता हूँ क्या सचमुच हम गांव में रह सकेेंगे। गांव में रहने लायक साहस जुटा सकेंगे कभी। नहीं शायद। सच! सुविधाओं के किस कदर दास बन गये हम। कितने लाचार हैं हम। कितने बेवश। बहुत सुविधाभोगी भी तो जो हो गये हैं हम। काश !!...........
‘‘बूझ मेरा क्या नांम रे, नदी किनारे गांव रे।
पीपल झूमे मोरे आंगना, ठण्डी-ठण्डी छांव रे।.........’’
गीत गुरूदत्त के प्रोडक्शन में बनी, राजखोसला द्वारा निर्देशित और देव साहब, वहीदा रहमान व शकीला द्वारा अभिनीत फिल्म ‘सी आई डी’ का है। यह गीत मजरूह सुल्तानपुरी द्वारा लिखा गया, ओ. पी. नैयर साहब केे संगीत निर्देशन में तैयार किया गया है और सुरीली आवाज है शमशाद बेगम की। गीत भीतर तक झकझोर गया। हर शब्द मन में गहरे उतर गये। तपती दोपहरी में जैसे भटकती हुयी बदलियां बरस जाये। मन के किसी कोने फिर तो मिट्टी की सोंधी गंध, पीपल की ठण्डी बयार और नदी की कलकल ध्वनि का प्रभाव छाने लगा। महानगरों में पली-बढ़ी युवा पीढ़ी इस गीत के मायने शायद ही जान पाये। युवा पीढ़ी ही क्यों वे भी तो कहाँ जान पाते हैं जोे गांव के होते हुये भी गांव का सुख नहीं उठा पाये। और जो हम इस गीत का अर्थ जान पा रहे हैं, समझ रहे हैं वे भी तो मन मसोस कर रह रहे हैं। जी चाहता है सारे बन्धन तोड़कर लौट जायें अपने गांव। शहर की छाया से दूर, शहरी व्याधियों से मुक्त अपने गांव। वहाँ जहाँ बस गांव हो, खेत-खलिहान हो, पानी से भरी नहरें हों, चारों ओर हरियाली हो, खेतों में खुशहाली हो, पक्षियों का कोलाहल हो, बहते झरने हों और अपने लोग हों। बस।
परन्तु दूसरे ही पल सोचता हूँ क्या सचमुच हम गांव में रह सकेेंगे। गांव में रहने लायक साहस जुटा सकेंगे कभी। नहीं शायद। सच! सुविधाओं के किस कदर दास बन गये हम। कितने लाचार हैं हम। कितने बेवश। बहुत सुविधाभोगी भी तो जो हो गये हैं हम। काश !!...........