Friday, January 27, 2012

भोजपुरी लोकगीतों में कजली

                                            श्री उदय नारायण सिंह, एम0 ए0
 बसंत पञ्चमी पर विशेष
               भोजपुरी भाषा-भाषी क्षेत्र की जनता, विशेष रूप से स्त्रियाँ, सावन मास में झूला लगाती है और अधिकतर रात के समय इसी झूले पर झूलते हुए कजली गाती है. मिर्जापुर, काशी आदि कुछ स्थानों पर झूला झूलने की विशेष प्रथा है.  इस अवसर पर प्रकृति का चित्रण करने वाले अनेक गीत प्रचलित है. रात में काले बादलों को देख कर एक सखी अपनी दूसरी सखी से कहती है:
" सखि हो काली बदरिया रात 
 देखत निक लागे ए हरी 
 गड़ गड़ गरजै, चम चम चमकै, 
 सखि हो झम झम बरसै  न  "
            सावन की बहार देखने के लिए एक सहेली अपनी दूसरी सखि से बगीचे में चलने के लिए कहती है : 
चिड़िया चली चल बगइचा, देखन सावन की बहार, देखन फूलों की बहार -
सावन में फूले बेइला चमेली, भादों में कचनार --चिड़िया चली चल....."  
   एक सखि जिसका प्रियतम कहीं बाहर गया हुआ है, अपनी विरह-व्यथा दूसरी सखि से कहती है  
सखि हो कड़ा बड़ा जल बरिसे  राजा कत भींगत होइए ना, राजा कत.."
              इस पर दूसरी सखि कह रही है :
      " बड़े साहब के नोकर चाकर, छोटे साहब के यार,
       छूटी पावेंगे ले संवलिया, तब तोरे जेवना जेवेंगे."
 (तुम्हारे प्रियतम बड़े साहब की नौकरी करते हैं और छोटे साहब के दोस्त हैं. जब उन्हें छुट्टी मिलेगी तो आकर तुम्हारी तैयार की गयी रसोई का आस्वादन करेंगे)
             एक दूसरे गीत में एक स्त्री का प्रियतम उसके लिए नथिया (नाक का एक आभूषण) लाने की प्रतिज्ञा कर विदेश चला गया है. इसी बीच सावन का महीना आ जाता  है. वह स्त्री अपनी मनोदशा का वर्णन इस प्रकार करती है:
      "नथिया का कारन हरि, मोरे उतरि गईले पार 
      रतियाँ सेजिया ही अकेली दिनवां बतियों ना सोहाई. 
      एकत राति हो बड़ी है, दूसरे सैयां बिछूड़ी, 
      तीसरे सावन के महीनवां झम झमकावै बदरी. " 
        सावन का महीना आ जाने से उस स्त्री को न तो दिन में अच्छा लगता है और न रात ही को. एक अन्य युवती सावन में अपने आँगन में वर्षा होते देख कर कहती है:
"बड़े बड़े बूनवारे बरिसेला सावनवां 
अरे केहू ना कहेला, हमरा, हरि के आवनवां रे."
       प्रस्तुत गीत में सावनवां और सावनवां का कितना सुन्दर तुक मिलाया गया है. युवती आगे कहती है कि जो व्यक्ति मेरे प्रियतम के आने का समाचार सुनाएगा उसे मै अपनी बाहं का स्वर्ण कंगन दे दूँगी: 
    जे मोरा कहिहें रे हरि के आवनवां रे- ओके देवो हाथ के कंगनवा रे."
       एक स्त्री अपने नैहर में है सावन मॉस आ जाने पर वह अपने प्रियतम के घर जाने के लिए घर के एक वयोवृद्ध व्यक्ति से गंवना करने के लिए कहती है. यथा:
        "हरि हरि बाबा के सगरवा मोरवा बोले ए हरि,
       मोरवा के बोलिया सुनि के जीयरा उचटले- 
        हरि हरि कहद बाबा हमरो गवनवां ए हरी." 
             इस पर लड़की से उसके घर के अभिभावक कहते हैं:
  असों के सवनवां बेटी खेलिल कजरिया - 
हरि हरि आगे अगहन, करवो तोर गवनवां ए हरी."
             इस पर लड़की कहती है: 
आगि लागो बाबा आगे के अगहनवां हरि हरि समई बीतेला नईहरवा ए हरी."
          सावन आने पर अनार, बेला, कचनार आदि फूल फूलते हैं. एक स्त्री अपने प्रियतम की उपमा फूल से देते हुए इस प्रकार कहती है:
         "   हरि हरि सइयां अनारे के फूल देखत निक लागे ए हरी. "
        "   हरि हरि सोव सवती के साथ बलमु कुम्भिलाने ए हरी.""
                उक्त स्त्री को इस बात का भय है कि यदि मेरे प्रियतम सौत के साथ रात व्यतीत करेंगे तो वे कुम्हिला जायेंगे. प्रस्तुत चित्र में कितनी कोमल भावना का चित्रण किया गया है. 
      सावन में काले बादलों के छा जाने और बरसते देख एक युवती उसे "वैरिन" की उपमा देती है:
    घेरी घेरी आवे पिया कारी बदरिया दैवा बरसे हो बड़े बूँद. 
                                                                   बदरिया बैरिन हो. 
  सब लोग भीजें घर अपने मोर पिया भीजै हो परदेस.
                                                                 बदरिया बैरिन हो."   
         एक विरहिणी के ह्रदय में एक और तो प्रियतम से मिलने की इच्छा है और दूसरी और उसकी अनमोल साड़ी के भीजने की. उसके मस्तिष्क में जो घात-प्रतिघात चल रहा है उसका बड़ा ही सजीव वर्णन एक लोकगीत में किया गया है. यथा:
               "   बूंदन  भीजै   मोरी   सारी  मै  कैसे  आऊँ   बालमा.    
               एक तो मेह झमाझम बरसै,   दूजै पवन झकझोर.
               आऊँ तो भीजै मोरी सुरंग चुन्दरिया, नाहित छूटत सनेह.
               सनेह से चुनरी होइहैं बहुवारी, चुनरी से नहीं सनेह.""
                   इन गीतों में न केवल वर्षा का ही वर्णन मिलता है, वरन हमें उक्त क्षेत्र के सामाजिक एवं आर्थिक जीवन की भी झांकी मिलती है. वर्षा के महीनों में भोजपुरी क्षेत्र में गाई जाने वाली कजली में ह्रदय-स्पर्शी आल्हादकतत्व है.
                                                                          
                                             हिंदी साहित्य सम्मलेन, प्रयाग की "   सम्मलेन पत्रिका - लोक संस्कृति अंक " से साभार 
 


 

6 comments:

  1. भोजपुरी लोकगीतो की कजरी का रसास्वादन कराने के लिए आभार..बसंत अपंचमी की शुभकामनाए..

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  2. वसंत पंचमी और सावन कैसा मेल .........!

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  3. bahut sundar sir....kafi kuch sikhane ko mila....

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  4. बहुत खूबसूरत, बधाई.

    कृपया मेरे ब्लॉग"meri kavitayen" पर भी पधारें, अपनी राय दें, आभारी होऊंगा.

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  5. bahut hi sundar hrday vihamgam prastuti...
    lok geet sangeet mujhe bhi bahut bhaata hai...bhopal mein bhi har varsh aayojit rokrang dekhne jarur jaati hun.....thoda bahut likhne ki koshish kar rahi hun, poora hone par blog par post karungi..
    ..lok sanskriti ki sundar prastuti hetu aabhar!

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  6. Thanks for finally writing about > "भोजपुरी लोकगीतों में कजली" < Loved it!

    Also visit my web page; free music downloads (twitter.com)

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