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महाराणा प्रताप की विशाल कांस्य प्रतिमा - मोती मगरी, उदयपुर |
उत्तराखण्ड आन्दोलन के दौरान बालाघाट (म० प्र०) से भाई आनन्द बिल्थरे जी ने प्रकाशनार्थ एक कविता प्रेषित की थी;
" पहाड़ पुत्रों !/ अगर सचमुच ही / उत्तराखण्ड चाहते हो तो / प्रताप बनना
सीखो / पत्तल पर खाओ /धरती पर सोओ /अकबर मान सिंह के / भय उत्कोच से बचो /
अगर तुम इतना कर सको / तो शक्ति, झाला, भामाशाह जैसे / कई तुम्हारे पीछे /
कतार बान्धे खड़े होंगे /....." कविता एक चुनौती थी, एक आह्वाहन.
कविता प्रकाशित की गयी. मैंने कविता पोस्टर भी तैयार किया. नहीं जानता
कितने प्रताप तैयार हुए. किन्तु प्रताप, शक्ति, झाला मानसिंह व भामाशाह
जैसे इन ऐतिहासिक नायकों के बारे में जानने की उत्कंठा अवश्य जाग्रत हुयी.
ह्रदय उस वीर महाराणा प्रताप की धरती की माटी को माथे से लगाने के लिए लालायित
हो उठा. अवसर मिला और मैंने पत्नी के साथ मेवाड़ के लिए प्रस्थान किया.सुबह सात बजे ही उदयपुर पहुँच गए. छोटी-छोटी रियासतों, छोटे-छोटे रजवाड़ों में बंटा राजस्थान अपनी राजपूतानी
शान के लिए विख्यात है. जब-जब
आक्रमणकारियों ने राजस्थान के किसी भी भूभाग को हस्तगत करने की कोशीश की
या तो उन्हें पराजय का मुंह देखना पड़ा या फिर बहुत कड़ा संघर्ष- जिसमे
उन्हें भारी जन-धन की हानि उठानी पड़ी. और वे लम्बे समय तक उस पर अपना
अधिकार बनाये रखने में कभी सफल नहीं हो पाए. होटल लिया और फ्रेश होने के बाद वर्षों से हिंदी साहित्य के ध्वजवाहक उदयपुर निवासी भाई दर्शन सिंह रावत जी को फोन किया. निश्छल और सरल ह्रदय के रावत जी तुरंत भागे हुए आ गए. रविवार का दिन था और उन्होंने पूरा दिन हमारे नाम कर दिया. "...मेवाड़ घूमना था तो पहले चित्तौड़गढ़ से शुरुआत करनी चाहिए थी. परन्तु जब आ ही गए तो उदयपुर से ही शुरू किया जा सकता है..." ऐसा उन्होंने कहा. दिन भर उदयपुर के पिछोला झील, फतहसागर, नेहरुपार्क, मोतीमगरी, सहेलियों की बाड़ी, भारतीय लोक कला मंडल आदि लगभग सभी ऐतिहासिक व दर्शनीय स्थलों की सैर करते रहे.एक ज्ञानी पुरुष साथ थे वे भूगोल ही नहीं इतिहास की बारीकियां भी समझाते रहे. शाम को हिरणमगरी में उनके ही आवास पर उनके साथ भोजन लेकर उनका धन्यवाद करते हुए विदा ली. दूसरे दिन हम पति-पत्नी ही टैक्सी लेकर जग मंदिर, नीमचमाता मंदिर, सज्जनगढ़ आदि जगहों पर घूमते रहे. और तीसरे दिन चल पड़े नाथद्वारा.
उदयपुर से लगभग 44 कि०मी० उत्तर में अहमदाबाद-अजमेर राष्ट्रीय राजमार्ग पर नाथद्वारा एक छोटा सा क़स्बा है. विख्यात श्रीनाथजी मंदिर राजस्थान के धनी मंदिरों में शुमार है. यहाँ पर विष्णु व कृष्ण की पूजा समभाव से की जाती है. ऐसा माना जाता है कि औरंगजेब ने अपने साम्राज्य के अन्दर समस्त मंदिरों को नष्ट करने का फरमान सुनाया. तब मेवाड़ के महाराणा ने कृष्ण जन्मभूमि मथुरा से श्रीनाथजी नाम से एक मूर्ती लाकर सन 1691 में यहाँ मंदिर का निर्माण करवाया. ताकि भगवान के अस्तित्व को औरंगजेब की कुदृष्टि से बचाया जा सके. (दन्त कथा यह भी है कि महाराणा मथुरा से मूर्ती लेकर जब यहाँ से गुजर रहे थे तो रथ का पहिया लालबाग के निकट स्थित सिहड़ नामक गाँव में कीचड में धंस गया. जिससे भक्तों में यह विश्वास हुआ कि भगवान यहीं पर निवास करना चाहते हैं) नाथद्वारा में समस्त व्यापार श्रीनाथ जी के इर्द गिर्द है - भक्ति संगीत युक्त वीडिओ व ऑडियो सी डी, पोर्ट्रेट, चांदी व धातु से बनी मूर्तियाँ, मालाएं आदि सभी कुछ.
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मोतीमगरी से फतह सागर झील - उदयप |
राजनीतिक आधार पर आज राजस्थान भले ही बत्तीस जिलों में विभक्त हो किन्तु उसकी भौगोलिकता, वानस्पतिकता व पर्यावरणीय विभिन्नता के आधार पर उसे मुख्यतः छः भागों में बांटा जा सकता है. पश्चिमी उष्ण (रेगिस्तानी) क्षेत्र, समशीतोष्ण क्षेत्र, दक्षिण-पूर्वी क्षेत्र, पूर्वी क्षेत्र, चम्बल के दर्रे वाला क्षेत्र तथा अरावली क्षेत्र. राजस्थान के दक्षिण मध्य में अरावली पहाड़ियों से घिरा अधिकांश भूभाग मेवाड़ की भूमि ही है. छोटी बड़ी अनेक पहाड़ियों से घिरा हुआ, सुन्दर नीली झीलों व संकरे दर्रों का नाम ही मेवाड़
नहीं अपितु यहाँ ग्रेनाईट, क्वार्टज़, बसाल्ट, जिप्सम, मार्बल, संगमूसा, माइका , रॉक फास्फेट आदि खनिज पदार्थों के साथ सीसा, चांदी जैसी बहुमूल्य धातुओं के खानों की प्रचुरता है. साथ ही इमली, सागौन, गूलर, महुआ, जामुन, खेजडा, सेमल, खजूर आदि उपयोगी वृक्ष बहुतायत में है.
मेवाड़ अपनी ऐतिहासिक राजसी विरासत का प्रतीक भी है. गत चार सौ
वर्षों से अधिक समय से जिसकी यश पताका लहरा रही हो ऐसे प्रातः स्मरणीय वीर
शिरोमणि महाराणा प्रताप की जन्म और कर्मभूमि है मेवाड़. वर्तमान मेवाड़ में उदयपुर, चित्तौडगढ़, भीलवाड़ा, राजसमन्द जिले के अतिरिक्त पाली व सिरोही जिले का दक्षिण-पूर्वी तथा डूंगरपुर व बांसवाडा जिले का उत्तरी भाग आता है. किन्तु इतिहास साक्षी है कि मेवाड़ राज्य की सीमा वहां के राजाओं की स्थिति के अनुसार बदलती रही है.
मेवाड़ का अधिकाँश भूभाग अरावली श्रेणियों से आबद्ध है. अरावली की विशेषता यह है कि इसमें एक ओर 3568 फीट ऊंचा कुम्भलगढ़ व 4315 फीट ऊंचा जरगा जैसी पहाड़ियां हैं तो वहीँ दूसरी ओर गहरे, पतले व तंग मार्ग भी हैं जिन्हें नाल कहा जाता है. व्यापार व यातायात की दृष्टि से ही नहीं अपितु ये नाल सामरिक दृष्टि से भी उपयोगी साबित हुए हैं. सिपाहियों की तैनाती के साथ इनमे
जगह जगह चौकियां भी स्थापित की जाती रही है. अरावली के मध्य कई नदी नाले भी बहते हैं जो मेवाड़ के मध्य भाग को उपजाऊ बनाते हैं. दक्षिण में डूंगरपुर की सीमा से पश्चिम में सिरोही की सीमा तक का पूरा हिस्सा 'मगरे' के नाम से जाना जाता है वहीँ मेवाड़ के उत्तरपूर्व में उभरा हुआ क्षेत्र 'उपरमाल' कहा जाता है. बिजोलिया, माण्डलगढ़, भैंसरोगढ़, मैनाल व जहाजपुर कस्बे इसी क्षेत्र में है. मेवाड़ के दक्षिण में व्यापक विस्तार लिए अपेक्षाकृत कम ऊँचाई वाली वनाच्छादित पहाड़ियां है 'चाँवड़' जगह इन्ही पहाड़ियों में स्थित है. उत्तर में कुम्भल गढ़ के निकट उद्गम वाली बनास नदी मेवाड़ की मुख्य नदी है तथा बेड़च, कोठारी तथा मेनाल सहायक नदियां. बनास नदी के तट पर बसे "ख़मनौर" गाँव के पास ही हल्दीघाटी का ऐतिहासिक युद्ध लड़ा गया. (नाथद्वारा से लगभग 17 कि०मी० दूर अरावली पहाड़ियों के मध्य स्थित एक चौड़ा दर्रा ही हल्दीघाटी है, जो कि राजसमन्द व पाली जिले को आपस में जोडती है. इस क्षेत्र की मिटटी कुछ कुछ हल्दी का रंग लिए हुए है इसलिए यह हल्दीघाटी कहलाती है) जाखम व वाकल मेवाड़ के दक्षिणी भूभाग में बहने वाली बरसाती नदियाँ हैं. इसके अतिरिक्त पांच मुख्य झीलें व अनेक छोटे छोटे जलाशय हैं जो मेवाड़ की धरती को हरा भरा रखने में सहायक है.
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चित्तौडगढ़ किले से शहर का दृश |
वीर शिरोमणि प्रताप का जन्म मेवाड़ के तिरेपनवीं पीढ़ी के महाराणा उदय सिंह के ज्येष्ठ पुत्र के रूप में 09 मई 1540 रविवार को कुम्भलगेर में हुआ. वह अपने पिता के साथ हर अभियान व आखेट में भाग लिया करते थे. प्रताप धैर्यवान, गंभीर, सरल, वीर व शस्त्र परिचालन में निपुण थे. राजकीय मामलो में वे कई बार ऐसी सटीक सलाह देते कि महाराणा ही नहीं अपितु सभी दरबारी व सामंत भी सहज ही मान लेते. कुंवर रहते ही उन्होंने बागडिया चौहानों को पराजित कर लिया था, जिससे उनकी वीरता की ख्याति पूरे राज्य में फैली. शेरशाह के आक्रमण के बाद राजधानी चित्तौड़ से हटाकर अन्यत्र ले जाने के बावत सोचा जा रहा था क्योंकि शत्रुओं द्वारा घेरेबंदी किये जाने के बाद पहाड़ पर स्थित इस विशाल दुर्ग की सुरक्षा कठिन हो जाती थी. शत्रुओं द्वारा रास्ते बंद कर दिए जाते थे, रसद किले तक पहुँचाना दुष्कर हो जाता. 16 मार्च 1559 को प्रताप के ज्येष्ठ पुत्र अमर सिंह का जन्म होने पर महाराणा उदय सिंह ने किले में उत्सव मनाया व एकलिंग जी के दर्शनार्थ सभी सम्बन्धियों व सामंतो सहित वहां पहुंचे. पूजा अर्चना के बाद वे आहड़ गाँव की ओर शिकार करने गए. पहाड़ियों से घिरे इस सुरम्य स्थान को देखकर उन्होंने राजधानी यहीं बनाने का निर्णय लिया. सन 1567 को किले में खबर पहुंची कि अकबर मेवाड़ पर चढ़ाई के इरादे से अपनी विशाल सेना सहित चित्तौरगढ़ पहुँच रहा है. अतीत और अनुभव के आधार पर सभी सामंतों व मंत्रियों ने तय किया कि अकबर की विशाल सेना का मुकाबला चित्तौड़ की छोटी सेना नहीं कर पायेगी. अतः महाराणा अपने पुत्रों, रानियों व खजाने के साथ मेवाड़ के दुर्गम क्षेत्र में चले जाए. महाराणा ने कहा कि सभी चले जाएँ किन्तु वे वहां पर डटे रहेंगे. प्रताप ने कहा कि वे ज्येष्ठ राजकुमार होने के नाते किले की रक्षा हेतु अकबर की सेना का मुकाबला करना चाहते हैं अतः महाराणा उदय सिंह का सुरक्षित चले जाना आवश्यक है जिससे कि किले के बाहर से युद्ध व मदद जारी रखी जा सके. परन्तु मेवाड़ के सभी सामंतो व सरदारों ने यह सलाह नहीं मानी. उन्होंने महाराणा उदय सिंह व प्रताप को सभी राजकुमारों व रानियों सहित चित्तौड़गढ़ छोड़ने को यह कह कर विवश कर दिया कि महाराणा रहेंगे तो सेनाएं फिर भी तैयार हो जायेगी. मर मार कर हमें बदला लेना होगा और वापस अपना राज्य भी. भरी मन से महाराणा उदय सिंह चित्तौड़ की रक्षा का भार जयमल सिंह के नेतृत्व में आठ हजार सैनिकों पर छोड़कर पहाड़ी क्षेत्रों में चले गए. राणा ने बाहर से गुरिल्ला युद्ध जारी रखा, किले के मार्ग को प्रशस्त रखने के लिए वे रात को मुग़ल सेना पर हमला बोलते और मार काट कर वापस पहाड़ियों में लौट जाते. अकबर स्वयं किले की घेरेबंदी में होने के बावजूद महाराणा उदय सिंह को पकड़ने या मारने के लिए अपने सेनापति हुसैन कुली खां को भी भेजा परन्तु कोई कामयाब नहीं हो पाया. हां, किले पर अवश्य फतह कर ली.
अगले अंक में जारी ..........
(सामग्री स्रोतसाभार-Manorama Yearbook1988&2009, युगपुरुष महाराणा प्रताप-मोहन श्रीमाली व एस० पी० जैन, Mewar &Welcome to Rajsthan- Rajsthan Tourism's Magazines तथा रजवाड़ा-देवेश दास आदि पुस्तक)
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चित्तौड़ शहर से लगभग 180 फीट ऊँचाई पर त तथा 700 एकड़ क्षेत्र में फैला हुआ विशाल चित्तौडगढ़ किले का दृश्य |