पिछले अंक से जारी.........
Me ate Meedo, Near Wakro |
तिराप की सीमा से बाहर निकलकर उत्तर की ओर नामसाई पहुँचे। नामसाई नोआ डिहींग नदी के दोनों तटों पर बसा हुआ है। बायें तट वाला भाग डिब्रुगढ़ का हिस्सा है और दायें तट वाला लोहित का। नामसाई-डिब्रुगढ़ निवासी श्रीमती ओमेम देवरी पिछले लम्बे अरसे से राज्यसभा सदस्य हैं। नोआ डिहीगं नदी निरन्तर उत्तर की ओर बहती हुयी लोहित में मिल जाती है। नामसाई में रात्रि विश्राम के बाद अगली सुबह पूरब की ओर अपने गंतव्य स्थल परशुराम कुण्ड को निकल पड़े। लगभग बीस-पच्चीस कि0मी0 पर चौंग्खम गांव हैं। समुद्रतल से एक हजार फीट से भी कम ऊंचाई वाला समतल भूमि पर बसे खामती आदिवासी बहुल इस गावं में चारों ओर हरियाली व उपजाऊ भूमि है। यहां कृषि व बागवानी की प्रबल संभावना है। गांव के ज्यादा लोग राज्य सरकार में उच्च पदों पर सेवारत् हैं। जो गांव में हैं वे भी दो-दो तीन-तीन हाथियों के स्वामी हैं। एक हाथी की कीमत एक टाटा ट्रक से कम नहीं है। अरुणाचल में पेड़ों के कटान के दौरान लकड़ी के बड़े-बड़े टुकड़ों को जंगल से बाहर खींचने का काम हाथी करते हैं और औसतन एक हाथी प्रतिदिन एक हजार तक कमा लेता है। जबकि एक मजदूर की दैनिक मजदूरी आज मात्र नौ रुपये है। खामती लोगों का नाम प्रायः तीन शब्दों से मिलकर बना होता है। प्रथम शब्द उनकी जाति व स्थानीयता को इंगित करता है दूसरा नाम को और तीसरा उपजाति को। जैसे हमारे पथ प्रदर्शक थे चौंगखम गांव के ‘चाऊ मायासोई नामचूम’। पूरे अरुणाचल में लगभग 39 (उनतालीस) जनजातियां हैं। भारत के अन्य समाजों में आज हरिजन, राजपूत व ब्राह्मण आदि जातीय व्यवस्था होने के कारण ‘तू छोटा, मैं बड़ा’ का जो अहम् है वह अरुणाचल में नहीं है। क्योंकि अरुणाचल जनजातियों में भले ही बंटा हो पर जातियों में नहीं।सांस्कृतिक रीतिरिवाज तथा सामाजिक व धार्मिक क्रियाकलापों की दृष्टि से उनके मध्य अवश्य अदृश्य एकरूपता दिखती है किन्तु भाषाई भिन्नता है। अकेले तिराप जिले के वांग्चू, नोक्टे, सिंग्फू व तंगछा आदि जनजातियों के लोग परस्पर संवाद बनाने के लिए असमियां, हिन्दी या अंग्रेजी को माध्यम बनाती है। हिन्दी फिल्मों की बदौलत हिन्दी का प्रचलन अधिक है जिसके कारण वे हिन्दी को प्राथमिकता देते हैं। किन्तु हिन्दी इस प्रकार कि आदमी सुनकर सिर पकड़ ले। जैसे कि ‘‘ आप कहाँ जाते हैं ?’’ को वे कहेंगे ‘‘आप कहाँ जाता है?’’ आदि आदि। व्याकरण का उन्हें ज्ञान नहीं होता है।
चौंग्खम में फ्रेश होने व चाय वाय पीने के बाद फिर आगे बढ़े तो सुदूर उत्तर व पूरब में गिरिराज हिमालय के दर्शन होते हैं और दक्षिण में शिवालिक शृंखला की छोटी छोटी पहाड़ियां। आबादी वाली क्षेत्र वाकरो में कुछ देर रुककर फिर चाय पी। चाय ऐसी चीज है कि इसके बहाने आप कुछ देर सुस्ता भी लेते हैं और आस पास बैठे व्यक्तियों से अपने मतलब की बातें भी पूछ सकते हैं। वाकरो प्रशासनिक दृष्टि से लोहित जनपद का सर्किल हेड क्वार्टर है। आसपास लोगों द्वारा चाय की बागवानी व खेती भी की गयी है। कादुम से धीरे धीरे पहाड़ियों का उठान शुरु होता है। चौंग्खम से तीसेक किलोमीटर दूरी तय कर पहुंचते हैं धार्मिक व पौराणिक महत्व वाले पवित्र स्थल परशुराम कुण्ड।
विपुल जल सम्पदा वाली लोहित नदी के बायें तट पर स्थित परशुराम कुण्ड की धार्मिक महत्ता है। दन्त कथा है कि परशुराम ने फरसे से अपनी माँ रेणुका की हत्या कर दी किन्तु माँ के शाप से फरसा उनके हाथ पर ही चिपक गया। श्राप से मुक्ति तथा क्रोध शमन के लिये वे वर्षो तक तीर्थस्थलों में भटकते रहे। ऋषियों की सलाह पर जब सुदूर उत्तरपूर्व में उन्होंने बह्मकुण्ड में स्नान किया तो शपमुक्त हो सके। तब उन्होंने फरसा जितनी दूर हो सकता था फेंक दिया। मान्यता है कि जहां फरसा गिरा वहां की बर्फ पिघल गयी और वहीं से एक नदी फूट पड़ी जिसे लोहित नदी नाम दिया गया। बह्मकुण्ड ही परशुराम कुण्ड के रूप में विख्यात है। आबादी विहीन वाले इस क्षेत्र में एक मंदिर के अतिरिक्त दो-चार झोपड़ियां ही हैं। न कोई घाट विकसित किया गया है और न ही कोई सराय, धर्मशाला ही। साल में एक बार जनवरी माह में मेला अवश्य आयोजित होता है तो देश विदेश से आये श्रद्धालुओं की अपार भीड़ उमड़ पड़ती है। हम स्नान से निवृत्त होकर साथ लाये गये आहार को लेते हैं और प्रकृति का आनन्द उठाते हैं। उस पार लोहित के मुख्यालय तेजू के लिए सड़क है किन्तु नदी पर पुल बनना पस्तावित है। लोहित नदी घाटियों से निकलकर यहां पर मैदानी भूभाग में प्रवेश करती है, ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार ऋषिकेश में गंगा व टनकपुर में काली।
आज सकून मिला रेणुका जी से परशुराम कुण्ड तक की यात्रा पूरी हुयी। रेणुका जी हिमाचल के सिरमौर जिले में है और परशुराम कुण्ड यहाँ। लम्बी थकान से चूर होकर नामसाई लौट आये। यह भी अच्छा है कि नामसाई से परशुराम कुण्ड तक सड़क की स्थिति बिल्कुल ठीक है। यहाँ जनजातीय क्षेत्रवासी भी बिल्कुल भोले नाथ की तरह है। सरल, निष्कपट व्यवहार वाले ये लोग अपनी संस्कृति को जीवन्त रखे हुए हैं। ईर्ष्या व द्वेष भाव से कोसों दूर हैं। आदिवासियों में एक बात यह गौरतलब है कि पुरानी पीढी जहां अन्धविश्वास, पिछड़ेपन व निरक्षरता के अन्धकार में है वहीं नई पीढी आधुनिकता के साथ आगे बढ रही है। शिक्षा के प्रचार प्रसार के लिये अरुणाचल सरकार सुविधायें दे रही है। प्रत्येक गावं में प्राइमरी स्कूल तथा आगे की शिक्षा के लिये शत-प्रतिशत बच्चों को होस्टल सुविधा व होस्टल में कापी किताबों के साथ आवास व भोजन मुफ्त। रात नामसाईं में बिताकर सुबह जयरामपुर से साथ चल रहे मित्र अनिल कुमार सिंह ने विदा ली क्योंकि उनको मिआओं जाना था और हम शेष लोग तिनसुकिया होते हुए डिब्रुगढ़ पहुँच गये।
ब्रह्मपुत्र के बायें तट पर स्थित डिब्रुगढ़ एक डिसेन्ट शहर और ऊपरी असम का शैक्षणिक व सांस्कृतिक केन्द्र है। अनेक दर्शनीय स्थलों के अतिरिक्त डिब्रुगढ़ में इंजीनियरिंग व मेडिकल कालेज तथा डिब्रुगढ़ यूनिवर्सिटी स्थित है। उत्तरी असम तथा उत्तरी अरुणाचल जाने के लिए डिब्रुगढ़ में ही फेरी (मोटरबोट) से ब्रह्मपुत्र पार किया जाता है। विशालकाय इन मोटरबोट में तीन-चार सौ सवारियांे के अतिरिक्त एक ट्रक/बस, तीन जीप/कार व चार-छः स्कूटर आराम से लद सकते है। ब्रह्मपुत्र पार करने में बरसात में तीन साढ़े तीन घण्टे लगते हैं जबकि अन्य मौसम में पांच घण्टे तक का समय। असमियां लोग मूलतः बहुत सरल होते हैं। यह नहरकटिया से ही हमारे साथ चल रहे रोबिन गुगोई के व्यवहार से भी हम जान गये थे। उसने ही बताया कि कभी व्यापारी एक मीटर कपड़ा बेचता तो चारों ओर से नापकर तब उतने मीटर की कीमत वसूलता था। मुस्लिम बहुल पूर्वी पाकिस्तान ;बांग्लादेशद्ध के हिन्दू लोग असम में बड़ी तादाद में आये और उन्होंने व्यापार व सरकारी नौकरियों में आम असमियां लोगों को पीछे छोड़ दिया। जिससे असम में धीरे-धीरे व्यवस्था के प्रति असन्तोष पनप रहा है।
शिव की नगरी शिवसागर की ओर
डिब्रुगढ़ में ईश्वर के दर्शनों की अभिलाषा से मन्दिर गये। अरुणाचली लोग उत्सवधर्मी होते हैं और जीवित भगवान पर ज्यादा विश्वास करते हैं। जबकि हम तथाकथित सभ्य लोग पत्थर या धातु की मूर्तियों में कैद भगवान पर। डिबूगढ के उत्तरी छोर पर बाढ़ से बचाव के लिये ब्रह्मपुत्र नदी के समानान्तर एक लम्बी सुरक्षा दीवार बनाई गयी है जिस पर सूर्यास्त के समय घूमना आनन्दित करता है। ब्रह्मपुत्र की विपुल जलराशि में सूर्य की किरणें अटखेलियां करती है तो प्रतीत होता है मानो नदी के सीने पर सोना ही सोना बिखरा पड़ा हो। काजीरंगा नेशनल पार्क देखने के लिये अगली सुबह शिवसागर के लिये निकल पड़े। रोबिन गुगोई के साथ जीप हमने वापस खोन्सा भेज दी थी। तिनसुकिया से तीन बंगाली मित्र भी साथ थे। नारायण कार, स्वदेश दत्ता और पार्थो भादुड़ी। लगभग सौ कि0मी0 दूरी तय कर शिवसागर पहुंचे।
शिवसागर असम राज्य की भाषाई व सांस्कृतिक हृदयस्थली भी है। इतिहास पर नजर दौड़ाये तो असम अनेक प्रजातियों का संगम रहा है। सदियों से असम ने सभ्यताओं व संस्कृतियों के वाहक उन समुदायों को शरण दी हैं जो पृथक-पृथक धाराओं से सम्बन्ध रखते थे। इन समुदायों में आस्ट्रेलियन, हब्सी, द्रविड़, इण्डो-मंगोल, तिब्बती-बर्मी एवं आर्य भी थे। इन लोगों ने विभिन्न मार्गों से असम में प्रवेश कर सर्वथा एक नवीन लोक समाज के संयोजन में योगदान दिया। इस नये समाज को ही ‘‘असमिया’’ कहा जाने लगा। तथापि अधिसंख्य असमियां तिब्बती-बर्मी मूल के ही हैं। लगभग छः सौ वर्षों तक असम पर राज्य करने वाले राजा हूण जाति के थे जिन्होने अहोम राज्य स्थापित कर शिवसागर राजधानी बनायी। असम के बिहू नृत्य पर तेरहवीं शताब्दी के हूण संस्कृति की छाप स्पष्ट दिखायी देती है। असम में आज मूलतः बोरा, बरूआ, गोर्हाइं, हजारिका, गुगोई, सैकिया, डेका, महन्त, कालिटा, फुकन आदि उपजातियां ही अपने को ‘‘औरिजिनल’’ असमियां मानती है। यहां के मूल निवासी असम को ‘अखम’ और असमिया को ‘अखमिया’ उच्चारित करते हैं। कोई भी जनपद, प्रान्त व देश राजनीतिक व भौगोलिक दृष्टि से चाहे कितनी ही दूरी पर क्यों न हो परन्तु उनमें परस्पर भाषागत व सांस्कृति निकटता रहती ही है। असम गढ़वाल-कुमाऊं से भले ही दूर है किन्तु भाषागत समानता रखता है। शिव की नगरी शिवसागर पौराणिक व ऐतिहासिक महत्व लिये हुए है। शिवसागर सागर के तट पर तो नहीं किन्तु यहां के तीन पौराणिक मंदिर शिवाडोल, विष्णुडोल तथा देवीटोल, जिनका निर्माण सन् 1734 में रानी मदाम्बिका द्वारा करावाया गया, एक विशाल झील के किनारे स्थित अवश्य हैं। शिवसागर में कुछ देर रुककर जोरहाट के लिए चल पड़े जो हमारा अगला पड़ाव है। रात खाना खाने के बाद जोरहाट सिनेमाहॉल में अनिल कपूर अभिनीत ‘मशाल’ फिल्म देखी। लम्बे समय बाद हॉल में सिनेमा देखने का आनन्द लेते हैं।
सुबह काजीरंगा नेशनल पार्क पहुंचकर स्वागत कक्ष में पार्क शुल्क भुगतान के बाद घूमने के लिए जीप किराये पर ली। चौकसी के लिए पार्क के दो फारेस्ट गार्ड भी साथ भेजे गये बन्दूकें लेकर। उनके ढीले कपडे, पतला बदन तथा आरामतलब मिजा ज देखकर कुछ देर सोचता रहा कि उनके हाथों में बंदूकें क्यों पकड़ा दी होंगी। खतरा यदि आन पड़ा तो वे हमारी क्या रक्षा क्या करेंगे उल्टे इनकी रक्षा हमें ही करनी होगी। ब्रहमपुत्र के बायें तट पर बसा काजीरंगा नेशनल पार्क एक सींगी गैण्डों के लिये ही नहीं अपितु जंगली भैंसों तथा विभिन्न प्रजाति के पक्षियों के लिये भी विख्यात है। फरवरी का महीना होने के कारण अधिक तो नहीं किंतु लगभग सौ गज दूरी से एक सींगी गैंडे व जंगली भैंसों के झुण्ड का दर्शन हो गये थे। गैण्डों का एक सींग इनकी खूबसूरती नहीं, सुरक्षा नहीं बल्कि अभिशाप ही है। सींग हथियाने के लिये असामाजिक तत्वों द्वारा गैण्डों की हत्यायें हमेंशा ही की जाती रही हैें। जिससे इनकी संख्या में निरन्तर गिरावट आ रही है। लगभग 450 वर्ग कि0मी0 में फैले विशाल काजीरंगा पार्क आधा अधूरा घूमने के बाद शाम को सभी बंगाली मित्र वापस लौट गये और हम गोहाटी की बस पकड़ने चले गये।
समाप्त