Friday, November 19, 2010

कितने कितने अतीत

1.
बैठा हूँ जब भी कहीं एकान्त पाने की चाह में, जाने क्यों गिद्ध,चील सी झपट पड़ती यादें.
याद आते पहाड़, गर्वोन्नत खड़े चीड़ देवदार, औ' ढलान पर अटके हुए छोटे-छोटे गाँव.
घाटियों में इठलाती, इतराती अल्हड़ नदियां, और पहाड़ की बाँहों में टेढ़ी मेढ़ी पगडंडियां.
जाने क्यों लगता है आज भी-  गुजरे समय और गुजरी घटनाओं के साथ ही
गाँव के चौराहे पर बैठ फटी एड़ियां मलासते, कई-कई अतीत थामे मैं अब भी वहीं कहीं हूँ !
2.
गाँव, पंख फैलाये तितली के आकार सा, पहाड़ी ढलान पर पसरा हुआ है छोटा सा गाँव.
सात घर तितली की पीठ पर, तीन नीचे-तीन ऊपर, औ' दर्ज़नों चिपके हुए से हैं पंखों पर.
बिचले घर में आँगन बड़ा और एक खाली गौशाला, गौशाला में चलती एक छोटी पाठशाला
वहीँ आँगन के दूसरे छोर पर, सहेलियों की गोद में सिर दिए अंगूठे से जूं मसलती औरतें
जाने क्यों लगता है आज भी- हार गए बच्चों के कान पर थूक लगा चिढाते
हम उम्र दोस्तों संग खेल-खेल में धींगामुश्ती करते, शैतान बच्चों की लिस्ट में मै भी हूँ ! 
3.
गाँव, गाँव में जातियां अलग, कुनबे अलग, खोले अलग, पर दुःख दर्द एक सा, हर्षोल्लास एक सा
क्या नर, क्या नारी चहक रहे सभी भारी, सबकी चहेती मंगली का ब्याह जो है आज,
ब्याह की तैयारी में जुटा है सारा गाँव, औ' उधर रास्ते में चार पैसे की आस लिए गोबर गणेश सजा
बारात की बाट देखते दीवारों की ओट से बच्चे, रात बारातियों संग खाना खाने की जिद करते बच्चे
जाने क्यों लगता है आज भी- बारात की मर्चीली दाल-भात छकते, सिसकारी भरते
भैजी की 'रिजेक्ट' कमीज़ पहने लम्बी आस्तीन से, आंसू- सेमण पोंछते बच्चों की पंगत में मै भी हूँ !
4.                                                        
गाँव, पहाड़ी ढलान पर पसरा हुआ है छोटा सा गाँव, सामने फैले खेतों के सामानांतर
मीलों लम्बी है एक पहाड़ी नदी, औ' नदी में हजारों रोखड़, लाखों छोटे बड़े पत्थर.
नदी में नहाते, पत्थरों पर घड़ियाल सा पसरते, रौखडों में दुबकी मछलियाँ मारते लड़के,
तड़पती मछलियाँ देख उल्लासित होते लड़के, भूनकर चटकारे ले-लेकर खूब खाते लड़के.
जाने क्यों लगता है आज भी-  दिन भर नहाते, पसरते, मछलियाँ मारते या
चुल्लू, किल्मोड़ा, हिंसालू  ठून्गते-  डरते घबराते घर लौटते लड़कों की दंगल में मै भी हूँ !   
5.
गाँव, चीड़ के पेड़ों से युक्त ढलुवा वनभूमि पीछे, हस्त रेखाओं जैसे बरसाती गदेरे
चीड़ के पेड़ों के आसपास आंखमिचौनी खेलते, पिरूल पर फिसलते लड़के लड़कियां
हँसते खेलते गाय बैल बकरियां हंकाते, दूर निकल पड़ते किशोर लड़के लड़कियां
स्त्री-पुरुष रिश्तों की समझ भले नहीं, पर इशारों में बतियाते हैं लड़के लड़कियां
जाने क्यों लगता है आज भी- भूखे प्यासे जंगलों में बाजूबंद गाते, बांसुरी बजाते
 औ' शाम ढले थके हारे घर लौटते ग्वालों की टोली में मै भी हूँ !
6.
गाँव,  आस्थाएं अनेक, गीत अनेक रीतियाँ अनेक, पर पहाड़ की संस्कृति है एक
बार त्यौहार पंचायती चौक में अलाव जला, थड्या चौंफुला झुमैलो तांदी पर थिरकते
रोमांचित हो ढोल-दमौं की थाप पर नाचते, ढोल-दमौं गरमाने और सुस्ताने के बीच,
बायीं हथेली कान पे धर दायाँ हाथ हवा में लहराते पंवाडा गाने का रामू दा का शौक,
जाने क्यों लगता है आज भी- रात भर अपनी नृत्यकला का जौहर दिखाते  
कुल्हे मटका-मटका हाथ हवा में लहराते, ठुमके लगाने वाले मर्दों की घेर में मै भी हूँ                                  
7.
गाँव,  दीपावली के रतजगों से उबरे भी कि, जुट जाता नौरते की तैयारी में फिर से सारा गाँव
पूरे नौ दिन-आठ रात, ढोल-दमौं, नृत्य नाटिका- मत्स्य भेदन से लेकर महाभारत युद्ध तक
अक्सर नाचते पंडों -जुधिश्टर भीम अर्जुन दुर्पदा, नतमस्तक हो करते दर्शक चावलों की वर्षा
ढाल, कटार लिए नाचते-नाचते ही जब बकरे को, दांतों से पकड़ सिर के पीछे उठा फेंकती दुर्पदा
जाने क्यों लगता है आज भी- सयाने की तलवार से चोटिल बलि के भैंसे को दौड़ाते
निरीह-निर्दोष भैंसे के शरीर पर, तलवार-खुन्खरियों से वार करने वाले 'शूरवीरों' में मै भी हूँ !
8.
गाँव, गाँव की बातें अनगिनत, यादें अनगिनत, रीतियाँ अनेक, परम्पराएँ अनेक कुप्रथाएं भी अनेक
कई घटनाओं, कई हादसों, कई झगड़ों का साक्षी है गाँव, बाढ़ कभी सूखा कभी अकाल भी झेला है गाँव
बार-त्यौहार, खुदेड गीतों या संगरांद की नौबत धुयांल से,  भूत-पिशाच कभी देवताओं की हुंकार से
भैरो मंदिर में भक्तों के विलाप और घंटों की गूँज से, कई वर्षों, कई युगों से गूंजता रहा है गाँव
जाने क्यों लगता है आज - अपने गाँव अपने मुल्क से दूर
घूमते-टहलते शब्दों की जुगाली करते, अतीत खंगालते, शेखी बघारते
पराये शहर की गुमनाम गली में मुठ्ठी भर सम्पति पर इतराते- इठलाते,
हर रोज कभी सड़क, कभी पार्क किनारे चेन पकड कर कुत्ता हगाते
 'सभ्रांत' (?) प्रवासी पहाड़ियों की जमात में मै भी हूँ !

Saturday, November 06, 2010

ये कैसी राजधानी है !!

Clock Tower, Dehradun Photo-Subir
         युगीन यथार्थ की विसंगतियों के खिलाफ गत तीन दशक से निरंतर सक्रिय व जुझारू कवि चन्दन सिंह नेगी अपनी कविताओं, लेखों व जनगीतों के माध्यम से जन जागरण में लगे हैं......... उनके लेख व कवितायेँ उनकी पीड़ा, उनकी छटपटाहट को अभिव्यक्त करते हैं.........1986 में युवा कवियों के कविता संकलन 'बानगी' में प्रकाशित उनकी कवितायेँ काफी चर्चा में रही.......... 1995 में लोकतंत्र अभियान, देहरादून द्वारा प्रकाशित "उत्तराखंडी जनाकांक्षा के गीत"  में उनके वे जनगीत संकलित हैं जो उत्तराखंड आन्दोलन के दौरान सड़कों पर,पार्कों तथा नुक्कड़ नाटकों में गाये गए और वे गीत प्रत्येक आन्दोलनकारी की जुवां पर थे............समाज में व्याप्त संक्रमण के खिलाफ वे आज भी संघर्षरत है. 
यहाँ प्रस्तुत है उनका सद्ध्य प्रेषित जनगीत ;

 ये कैसी राजधानी है! ये कैसी राजधानी है!!
                                  हवा में जहर घुलता औ' जहरीला सा पानी है !!! ये कैसी राजधानी.......

शरीफों के दर्द को यहाँ कोई नहीं सुनता,
                                  यहाँ सबकी जुवां पर दबंगों की कहानी है !! ये कैसी राजधानी.........

कहाँ तो साँझ होते ही शहर में नींद सोती थी,
                                  कहाँ अब 'शाम होती है' ये कहना बेमानी है !! ये कैसी राजधानी.......

मुखौटों का शहर है ये ज़रा बच के निकलना तुम,
                                  बुढ़ापा बाल रंगता है ये कैसी जवानी है !! ये कैसी राजधानी.......

नदी नालों की बाहों में बिवशता के घरौंदे हैं,
                                  गरीबी गाँव से चलकर यहाँ होती सयानी है !! ये कैसी राजधानी......

शहर में पेड़ लीची के बहुत सहमे हुए से हैं,
                                  सुना है एक 'बिल्डर' को नयी दुनिया बसानी है !! ये कैसी राजधानी......

न चावल है, न चूना है, न बागों में बहारें है,
                                  वो देहरादून तो गम है फ़क़त रश्मे निभानी है !! ये कैसी राजधानी......

महानगरी 'कल्चर' ने सब कुछ बदल डाला,
                                  इक घन्टाघर पुराना है औ' कुछ यादें पुरानी है !! ये कैसी राजधानी.......