Wednesday, February 09, 2011

कण्व ऋषि की प्रतीक्षा में है कण्वाश्रम -1

कोटद्वार नगर का विहंगम दृश्य                फोटो- गूगल से साभार
                केदारखंड, मध्य हिमालय, खसदेश या उत्तराखंड आदि अनेक नामों से विख्यात यह तपोभूमि सदियों से ऋषि  मुनियों, श्रृद्धालुओं, प्रकृति प्रेमियों व सैलानियों को आकर्षित करती रही है. हिन्दू धर्म शास्त्रों में वर्णित वशिष्ट आश्रम हिन्दावं (टिहरी गढ़वाल) में, अगत्स्य ऋषि का आश्रम अगत्स्यमुनी में होना माना जाता है. तो ब्यासी, ब्यासघाट, ब्यास् गुफा आदि महामुनि ब्यास का इस क्षेत्र से जुड़े होने का पुष्ट प्रमाण है. अत्री, अंगीरा, भृगु, मार्कंडेय, जमदग्नि, मनु, भरद्वाज, दत्तात्रेय आदि अनेक ऋषियों का कर्म क्षेत्र यह पावन भूमि रही है. पौराणिक ग्रंथों में इस क्षेत्र का उल्लेख ब्रह्मऋषि प्रदेश. ब्रह्मावत प्रदेश या ब्रह्मऋषि मंडल आदि के नाम से भी किया गया है. महाभारत कालीन भीम पुल (माणा, निकट बद्रीनाथ),लाक्षागृह (लाखामंडल,जौनसार-देहरादून), युधिष्टर की चौपड़ (गोविन्दघाट ), किरातार्जुन युद्ध स्थल श्रीपुर (श्रीनगर) आदि अनेक घटनाएँ व स्थल उत्तराखण्ड हिमालय की महत्ता को रेखांकित करते हैं. गत चार पांच दशकों से अनेक विद्वान लेखकों के सद्प्रयास से थापली, डूंगरी, रानीहाट, मलारी, मोरध्वज व पुरोला आदि स्थानों पर हुए उत्खनन एवं प्राप्त अवशेषों से उपरोक्त अवधारनाओं को बल ही मिला है बल्कि पुष्ट प्रमाण भी मिले हैं. यह स्पष्ट हो गया है कि भारत की उत्तराखण्ड भूमि भी पिछले पांच हज़ार सालों से सांस्कृतिक रूप से समृद्ध रही है.
                   पुरापाषाणकाल के उपरांत ऐतिहासिक काल के धुंधलके में यदि हम झांके तो किरात, खस, तंगण, नाग, पौरव आदि अनेक राजाओं का उल्लेख हमारे ग्रंथों में है. सम्राट अशोक द्वारा कालसी का शिलालेख, पांचवीं शताब्दी में चीनी यात्री ह्वैनसांग  द्वारा भारत भ्रमण, बौद्धों के बढ़ते प्रभाव को रोकने के लिए आठवीं शताब्दी में आदि शंकराचार्य द्वारा ज्योतिर्मठ की स्थापना व बद्री-केदार मंदिरों का जीर्णोद्धार, कत्यूरी, पंवार व चन्द शासकों का उदय व अस्त की कहानी प्राप्त ताम्रपत्र, सिक्के, पांडुलिपियाँ व अभिलेख भली-भांति बयां करते हैं. भजन सिंह 'सिंह' जी ने अपनी पुस्तक "आर्यों का आदि निवास मध्य हिमालय" में वर्णन किया है कि आर्य मध्य हिमालय के मूल निवासी थे और यहीं से शेष भारत व विश्व में जाकर बसे. किन्तु यह विडम्बना ही है कि पुष्ट प्रमाण होने के बावजूद भी उत्तराखण्ड के अधिकांश पौराणिक स्थलों को वैश्विक स्तर पर पहचान नहीं मिल पाई है. ऐसा ही एक पौराणिक स्थल कोटद्वार से पांच छः मील पश्चिम में उत्तर दक्षिण बहने वाली मालिनी नदी के तट पर स्थित है कण्व का आश्रम- कण्वाश्रम.
                       कथा है, त्रेता युग में अत्यंत ओजस्वी, वीर व धर्म के नियामक हुए महर्षि विश्वामित्र. वह मूलतः एक क्षत्रिय सम्राट थे और किसी घटना से क्षुब्ध होकर वे पद, वैभव, सम्मान, भोग, लालसा त्याग कर वीतरागी हो गए और हट के चलते अपनी दीर्घ जिजीविषा से महर्षि पद को प्राप्त हुए. यह उनकी कठिन साधना का ही परिणाम था कि राजा त्रिशंकु को अपनी साधना बल से स्वर्ग भेजा और इंद्र द्वारा त्रिशंकु को स्वर्ग पहुँचने पर रोके जाने से त्रिशंकु के लिए एक पृथक स्वर्ग का निर्माण किया. (वर्तमान परिपेक्ष्य में देखें तो कई राजनितिक, सामाजिक या सरकारी/गैरसरकारी संघटनों में ऐसी घटनाएँ देखी जा सकती है.)
                   बाल्मीकि कृत रामायण (बालकाण्ड) के अनुसार मगध में शोणभद्रा के निकट माना गया है महर्षि विश्वामित्र का आश्रम-सिद्धाश्रम. प्रत्येक आश्रम का नाम तब सम्मानपूर्वक लिया जाता था, आश्रम को ही ऋषिकुल या गुरुकुल भी कहा जाता था. आश्रम में दस हज़ार मुनियों (विद्यार्थियों) के लिए आवास, भोजन व  विद्यार्जन हेतु भवन आदि के अतिरिक्त शिक्षकों, प्राचार्यों के लिए भी आवास आदि की उचित व्यवस्था होती थी. साथ ही समय-समय पर होने वाले अधिवेशनों, धर्म सम्मेलनों के लिए पर्याप्त स्थान होता था. इसके अतिरिक्त फल, फूल व अन्नोत्पादन हेतु प्रचुर कृषि भूमि का होना भी आवश्यक होता था. 
"मुनीनां दस सहस्त्रं यो अन्न पाकादि पोषणात, अध्यापयति ब्रह्मषीरसौ कुलपति रमतः."   
अर्थात जिस आश्रम में इस तरह की व्यवस्था हो उस आश्रम के महर्षि को कुलपति कहा जाता था.  महर्षि विश्वामित्र द्वारा अवध नरेश दशरथ पुत्र राम व लक्ष्मण को आश्रम की सुरक्षा व राक्षसों के संहार के लिए सिद्धाश्रम ही लाया गया था. सिद्धाश्रम में रहकर ही श्रीराम ने धर्म व नीति के व्यावहारिक पक्ष को जाना तथा अनेक युद्धाश्त्रों का चालन व सञ्चालन सीखा. यहीं पर ही उन्होंने ताड़का व सुबाहु का वध किया था.श्रीराम के वन गमन के बाद राक्षसों के बढ़ते आतंक से खिन्न होकर वे इस हिमवंत प्रदेश आ गए जहाँ पर उन्होंने पुनः सिद्धाश्रम की स्थापना की . 
  "   उत्तरे जान्हवी तीरे हिमवत शिलोच्च्यम."    बाल्मीकि रामायण(बाल कांड ) 
          यह भी संभव है कि मालिनी तट स्थित आश्रम पहले से ही स्थापित हो और विश्वामित्र की महिमा को देखते हुए आश्रम ने उन्हें कुलपति नियुक्त किया हो. यहीं घोर तपस्या में लीन होने पर स्वर्ग के राजा इंद्र ने उनको मार्ग से हटाने के लिए स्वर्ग की अप्सरा मेनका का सहारा लिया. तदोपरांत महर्षि विश्वामित्र और मेनका के संयोग से शकुन्तला का जन्म हुआ.
                                                                                                             अगले अंक में जारी ..............    

     

6 comments:

  1. rochak evm jankari se paripurn uprokt post hetu abhaar .

    ReplyDelete
  2. महान ऋषि मुनियों की तपोभूमि श्रृद्धालुओं, प्रकृति प्रेमियों व सैलानियों को आकर्षित करने वाली हमारी उत्तराखण्ड की पावन धरा निसंदेह सांस्कृतिक रूप से समृद्ध रही है और इस सारगर्भित जानकारी को ब्लॉग के माध्यम से सुगमता से पहुँचाने का आपका यह प्रयास सराहनीय ही नहीं अपितु उलेखनीय है , इसके लिए आपका बहुत बहुत आभार .

    ReplyDelete
  3. महान ऋषि मुनियों की तपोभूमि उत्तराखण्ड की पावन धरा निसंदेह सांस्कृतिक रूप से समृद्ध रही है|और इस जानकारी को ब्लॉग के माध्यम से सुगमता से पहुँचाने का आपका यह प्रयास सराहनीय है|धन्यवाद|

    ReplyDelete
  4. ऋषियों की तपोभूमि, ज्ञान की दिग्दर्शिका, उत्तराखण्ड का कण-कण पावन है। सर्वत्र तीर्थ है। आपका सौभाग्य है कि आपको वहाँ की अभिराम शोभा, हरीतिमा एवं प्रकृति के अंचल का आश्रय मिला।



    एक निवेदन-

    मैं वृक्ष हूँ। वही वृक्ष, जो मार्ग की शोभा बढ़ाता है, पथिकों को गर्मी से राहत देता है तथा सभी प्राणियों के लिये प्राणवायु का संचार करता है। वर्तमान में हमारे समक्ष अस्तित्व का संकट उपस्थित है। हमारी अनेक प्रजातियाँ लुप्त हो चुकी हैं तथा अनेक लुप्त होने के कगार पर हैं। दैनंदिन हमारी संख्या घटती जा रही है। हम मानवता के अभिन्न मित्र हैं। मात्र मानव ही नहीं अपितु समस्त पर्यावरण प्रत्यक्षतः अथवा परोक्षतः मुझसे सम्बद्ध है। चूंकि आप मानव हैं, इस धरा पर अवस्थित सबसे बुद्धिमान् प्राणी हैं, अतः आपसे विनम्र निवेदन है कि हमारी रक्षा के लिये, हमारी प्रजातियों के संवर्द्धन, पुष्पन, पल्लवन एवं संरक्षण के लिये एक कदम बढ़ायें। वृक्षारोपण करें। प्रत्येक मांगलिक अवसर यथा जन्मदिन, विवाह, सन्तानप्राप्ति आदि पर एक वृक्ष अवश्य रोपें तथा उसकी देखभाल करें। एक-एक पग से मार्ग बनता है, एक-एक वृक्ष से वन, एक-एक बिन्दु से सागर, अतः आपका एक कदम हमारे संरक्षण के लिये अति महत्त्वपूर्ण है।

    ReplyDelete
  5. इस महत्वपूर्ण आलेख को पहले भी देखा था मगर उस दिन कुछ जल्दी मे थी इस लिये चली गयी इसे एक नज़र देखना तो आपके परिश्रम को और सुन्दर पोस्ट को नकारना था। उसके बाद भूल गयी आज आपका कमेन्ट पढा तो याद आया। ऋषि मुनियों की तपोभूमि उत्तराखण्ड की संस्कृ्ति के बारे मे बहुत सुन्दर आलेख है। भगवान ने चाहा तो कभी दर्शन करेंगे। धन्यवाद इस जानकारी के लिये।

    ReplyDelete
  6. Thanks for some other fantastic article. Where else could anybody get that
    kind of info in such an ideal way of writing? I have a presentation subsequent week,
    and I am at the look for such information.

    Here is my webpage ... free music downloads - twitter.com,

    ReplyDelete