Saturday, July 30, 2011

घाटी के स्वर

दूर कहीं कोई मुझे पुकार रहा है
और आवाज- घाटियों से टकराकर
आ रही है - जो शायद तुम्हारी है
कितना अपनापन है  इस आवाज में,
कितनी मिठास - शहद की बूँद सी !

कोई मुझे लम्बे समय से पुकार रहा है 
और आवाज - जो शायद तुम्हारी है
कितनी विह्वलता है इस आवाज में - कितनी तड़प !
घाटियों में पड़ी बर्फ सी- 
आतुर है जो नदियों के आगोश में समाने को. 

शहर सारे जंगल हो गए हैं 
प्यार पाने को आकुल एक युवा सन्यासिन
एक अपरिचित दरवाजा खटखटाती है 
इस बियावान जंगल में - निश्वास, निशब्द !

आँसू जो आज थम नहीं रहे
सिर्फ मेरे हैं !
और यह कारुणिक पुकार 
जो शायद तुम्हारी है - सिर्फ तुम्हारी !
भेद रही मेरे अंतस को - चुपचाप, दबे पांव, निशब्द !!

           X  X  X  X  X  X  




6 comments:

  1. घाटी की अनुगूँज सुनकर पर्यावरण को आप चेतावनी दे रहे हैं हाँ एक सुधार"शहर सारे जंगल हो गए हैं " में शहर जंगल बने या जंगल शहर बने . शायद ऐसा " जंगल सारे शहर हो गए हैं. "

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  2. खंकरियाल जी, 'शहर सारे जंगल हो गए हैं' से अभिप्राय यह है कि शहर से सभ्यता गायब हो गयी है बस 'माइट इस राइट' रह गया है. दूसरा अभिप्राय आप यह भी हैं कि शहर कंक्रीट के जंगल में तब्दील हो गया है........ आगे आप समझ सकते हैं. आभार !

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  3. सुन्दर..सार्थक आलेख..बधई..

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  4. आँसू जो आज थम नहीं रहे
    सिर्फ मेरे हैं !
    और यह कारुणिक पुकार
    जो शायद तुम्हारी है - सिर्फ तुम्हारी !
    भेद रही मेरे अंतस को - चुपचाप, दबे पांव, निशब्द !!

    Lovely creation ! Anyone can get emotional on reading this beautiful poetry .

    thanks

    .

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  5. बहुत सुन्दर और भावपूर्ण आलेख!दिल को छू गई! उम्दा प्रस्तुती!
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