Tuesday, January 10, 2012

कुपूतो जायेत क्वचिदपि, कुमाता न भवति

स्वामी विवेकानंद     (January 12, 1863  -  July 04, 1902)
              " विवेकानंद जयंती पर विशेष "
           हमारे धर्म ग्रंथों में सैकड़ों वर्ष पूर्व वर्णित सत्य आज भी उतना ही प्रासंगिक है जितना तब था. वेद, उपनिषद, रामायण, महाभारत के प्रसंग हो या श्रीमद्भागवद्गीता, बाईबिल, कुरान शरीफ की बातें या फिर कबीरवाणी ही. किन्तु लगता है जैसे महापुरुषों के शब्द वर्तमान परिस्थितियों को देखकर ही रचे-गढ़े जाते रहे हों.
          स्वामी विवेकानंद ('नरेंद्रनाथ दत्ता' या सिर्फ 'नरेन') की पृथ्वी के ऊपर समस्त व्यापारों पर एक अद्भुत पकड़ थी. सौ-सवा सौ साल पहले 'वसुदेव कुटुम्बकम' की भावना रखते हुए  स्वामी जी द्वारा जो आह्वाहन किया गया, जो व्याख्यान दिए गए, वे आज भी प्रासंगिक है. रूढ़िवादिता, अन्धविश्वास, भेदभाव, छुआछूत, निर्बलों व स्त्रियों पर अत्याचार आदि बुराइयां आज भी समाज में व्याप्त है. धर्म, इतिहास, विज्ञान, कला, संस्कृति या कुछ भी क्यों न हो वे जो भी विषय चुनते अपनी विद्वता, अनुभव व अद्ध्यात्म शक्ति के बल पर उसे ठोस व प्रमाणिक रूप से प्रस्तुत करते.  आश्चर्य होता कि वे उन विषयों पर कैसे बलपूर्वक कहते हैं जो एक सन्यासी होने के नाते उनकी अध्ययन सामग्री के बाहर थे.     
        अमेरिका प्रवास के दौरान 18  जनवरी 1900  को पैसडोना (कैलिफोर्निया) के शेक्सपियर क्लब हॉउस में उनके धार्मिक व्याख्यान के उपरांत श्रोताओं ने पूछा कि "......स्वामी जी, आपके दर्शन का परिणाम क्या है ? आपका दर्शन व धर्म अमेरिकन स्त्रियों की तुलना में भारतीय स्त्रियों के विकास में किस प्रकार सहायक हुआ है ?.."  स्वामी जी ने स्पष्ट किया कि "...यह प्रश्न वैमनष्य पैदा करेगा. मेरे लिए अमेरिकन स्त्रियाँ भी उतनी ही पूज्य है जितनी कि भारतीय स्त्रियाँ..  फिर प्रश्न आया कि " स्वामी जी, भारतीय स्त्रियों के रीति रिवाज, शिक्षा व पारिवारिक दायित्वों पर कुछ प्रकाश डालना चाहेंगे ?"
       स्वामी जी ने अपनी सीमायें निर्धारित करते हुए खुलकर उत्तर दिया कि "....... एक सन्यासी होने के कारण मेरा ज्ञान उनके (माँ, बहिन, पत्नी व पुत्री) सभी रूपों में नहीं हो सकता, जितना कि एक गृहस्थ का.... विभिन्न धर्मों, विभिन्न जातियों वाला भारतवर्ष एक विशाल महाद्वीप है न कि देश. इसकी वृहदता का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि भारत में आठ मुख्य भाषाएँ है और सैकड़ों बोलियाँ, जिनका कि अपना अलग अलग साहित्य है. हिंदी ही दस करोड़ लोगों की भाषा है और बंगला छ करोड़ की. और वैसे ही अन्य भाषाएँ. उत्तर भारत की भाषाएँ दक्षिण भारत की भाषा से पूर्णतया भिन्न है..... "  
        भाषागत विभिन्नता के अतिरिक्त जातिगत विभिन्नता पर अपना मत स्पष्ट रूप से रखते हुए उन्होंने कहा कि ""....एक उपदेशक के नाते एक स्थान से दूसरे स्थान पर भ्रमण करते रहने के कारण मैंने यह देखा की उत्तरी भारत में जहाँ स्त्रियाँ प्रत्यक्ष रूप से पुरुषों के सामने नहीं आती वहां धार्मिक व्याख्यानों और धर्म व दर्शन से सम्बंधित अपनी जिज्ञासाओं को शांत करने के लिए निर्भय होकर हमारी सभाओं में आती है. तथापि यह कहना ध्रष्टता होगी की मै भारतीय स्त्रियों के सभी पहलुओं से परिचित हूँ...."
          भारतीय व पाश्चात्य परिवेश में प्रचलित धर्मों को तुलनात्मक तथ्यों का आधार देते हुए स्वामी जी कहते हैं कि  "   ...... भारत में स्त्री का आदर्श रूप है माँ. आदि व अंत दोनों. हिन्दुओं में माँ का स्थान सर्वोपरि है. और देवियों (भगवान) को भी माँ कहकर संबोधित किया जाता है. माँ के प्रति यह अगाध श्रृद्धा ही है कि हिन्दू बालक हर दिन प्रातः एक छोटी सी कटोरी में जल लेकर माँ के पास पहुँचते हैं और माँ उस जल में अपने पैर का अंगूठा डुबोती है, बालक माँ का आशीर्वाद मानकर श्रद्धावश उस जल को पी जाता है..... पाश्चात्य देशों में स्त्री का अभिप्राय पत्नी से है, अर्थात स्त्री का आदर्श रूप पत्नी का है जबकि भारत में माँ का. पाश्चात्य घरों में पत्नी का शासन चलता है और भारत में माँ का. पश्चिमी देशों में यदि माँ पुत्र के पास रहने आती है तो उसे बहू के अधीन रहना होता है किन्तु भारतीय घरों में माँ गृहस्वामिनी होती है ....... आप पूछते हैं कि भारतीय नारी एक पत्नी के रूप में क्या है और भारतीय पूछता है अमेरिकन स्त्री की स्थिति माँ के रूप में कहाँ पर है ? वह सर्वश्रेष्ठ माँ जिसने मुझे यह शरीर दिया, जिसने मुझे नौ माह तक गर्भ में रखा, अपना जीवन मुझ पर न्यौछावर करने को जो हर वक्त तत्पर रहती है, जिसका प्यार अमिट है चाहे मै कितना ही क्रूर कपटी क्यों न होऊँ. भारतीय माँ रुपी उस स्त्री की तुलना अमेरिका की पत्नी रुपी उस स्त्री से नहीं की जा सकती जो छोटी सी भूल पर भी तलाक के लिए अदालत का दरवाजा खटखटाती है.......मै ऐसा पुत्र यहाँ नहीं पा सकता जो कहे कि माँ पहले है. एक भारतीय कभी भी यह नहीं चाहता कि माँ की मृत्यु के पश्चात उसकी पत्नी या बच्चे उसकी माँ का स्थान गृहण करे. यदि माँ से पूर्व ही मृत्यु हो तो उत्कट इच्छा होती है कि माँ की गोद में ही सर रखकर मरे. यहाँ अमेरिका में कहाँ है वह स्त्री? कहाँ है वह माँ ?..... क्या स्त्री का अर्थ शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ती मात्र है ?एक संस्कारित हिन्दू इन कुत्सित विचारों से ही भय खाता है कि शरीर तो है ही शारीरिक आकर्षण में बंधने के लिए. नहीं, नहीं ! स्त्री को मात्र हाड़-मांस का शरीर समझना भूल है .." 
         अपने अनुभव को विस्तारपूर्वक सुनाते हुए स्वामी जी कहते हैं कि "..... सन्यासी होने के कारण हम भोजन व वस्त्र हेतु भिक्षावृत्ति पर निर्भर होते हैं और जहाँ स्थान मिला वहीँ पर रात्रि विश्राम करते हैं. हम सन्यासी प्रत्येक स्त्री को माँ कह कर ही संबोधित करते हैं, छोटी से छोटी कन्या को भी. यहाँ पश्चिम देशों में जब किसी स्त्री को संवाद के दौरान मै आदतन माँ कह देता तो वह भयभीत होती. शुरू में समझ नहीं पाया किन्तु अब जाना कि 'माँ' से अभिप्राय वे ढलती उम्र की स्त्री से लेती हैं.... भारतवर्ष में माँ शब्द श्रेष्ठता, निस्वार्थता, क्षम्यशीलता व  गरिमा का प्रतीक है और पत्नी अनुगामिनी है....... एक माँ अपने पुत्र को कभी शाप दे, आपने  नहीं सुना होगा. वह तो देवी है- क्षमा की देवी..... इस नश्वर संसार में माँ का प्यार भगवान के निकट माना जाता है. महान संत रामप्रसाद ने कहा भी है कि; " कुपूतो जायेत क्वचिदपि, कुमाता न भवति " 
माँ की महिमा पर ही स्वामी जी कहते हैं कि"....मातृत्व प्राप्त होते ही एक स्त्री के अन्दर दायित्व की अधिकाधिक भावना उत्पन्न हो जाती है..... हमारे धर्मग्रन्थ कहते हैं कि जन्म के संस्कार ही बच्चे को अच्छा या बुरा बनने की प्रेरणा देते हैं. हम चाहे हजारों विद्यालाओं में क्यों न जाएँ, लाखों पुस्तकें क्यों न पढ़ें, सभी अच्छे लोगों की संगती ही क्यों न करें, किन्तु हमारा वास्तविक चरित्र जन्म के संस्कारों के अनुरूप ही होगा..... शिक्षा व अन्य संसाधन तत्पश्चात है....... हम वैसे ही होंगे जैसे जन्मे हैं. यदि रोगी पैदा हुए हैं तो औषधियों का भंडार भी हमें जीवनभर स्वस्थ नहीं रख सकते........" 
           पाश्चात्य सभ्यता पर चोट करते हुए स्वामी जी कहते कि "......पाश्चात्य देशो में लोग व्यक्तिवादी होते हैं. 'मै यह करना चाहता हूँ -क्योंकि मुझे यह पसंद है'. 'मै सबसे आगे रहूँगा - क्योंकि यह मेरी इच्छा है'. 'मै अमुक स्त्री से शादी करूंगा -क्योंकि मेरी कामनाओं की तृप्ति उसी मे है.' 'वह मुझसे शादी करेगी क्योंकि वह मुझे चाहती है' ..... बस ! एक वह और एक मै. इस 'मै' और 'वह' के बीच और कोई नहीं. न किसी की चिंता, न किसी का दायित्व ........ जबकि भारत में जातीय व सामाजिक व्यवस्था है. आमजन कहता है कि मेरा जन्म जाति व वर्ण हेतु है. मै जाति व समाज द्वारा निर्धारित नियमों का पालन करूंगा..... अभिप्राय यह कि पाश्चात्य देशों में पुरुष व्यक्तिवादी है और भारत में सामाजिक........."
             लड़कियों की शिक्षा के प्रति घोर उपेक्षा के लिए वे विदेशी (ब्रिटिश)तंत्र को दायी मानते हैं. ".....हमारा धर्म स्त्रियों को शिक्षित होने से नहीं रोकता. उन्हें शिक्षित होना चाहिए, उन्हें प्रशिक्षित किया जाना चाहिए. इतिहास पर नजर दौडाएं तो पाते हैं कि पुरातन कल में भी लड़के व लड़कियों को सामान रूप से शिक्षा प्रदान की जाती थी. तदनंतर सम्पूर्ण राष्ट्र की शिक्षा को उपेक्षित किया गया. विदेशी शासन से अपेक्षा भी नहीं की जा सकती. विदेशी शासक जनहित के लिए नहीं अर्थोपार्जन के लिए है. मैंने ही बारह वर्ष तक कठिन परिश्रम कर कलकत्ता विश्वविध्यालय से स्नातक उपाधि प्राप्त की. किन्तु इस शिक्षा के बल पर मै पांच डॉलर प्रतिमाह से अधिक नहीं कमा सकता. आप विश्वास न करें किन्तु सत्य यही है. ये विदेशी शिक्षण संस्थान जीवन में थोडा सा कुछ पाने का साधन मात्र है और यह थोडा ही गुलामी की मानसिकता की और धकेलती है ....." 

अनुदित अंश Women of India"
The Complete works of Swami Vivekananda (Vol. VIII- Jan.1989 edition) से साभार 
   
 

5 comments:

  1. हम सबके आदर्श है विवेकानंद जी ....आपने उनके विचारों को हम सबके साथ साँझा किया आपका बहुत बहुत आभार ....!

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  2. सुबीर जी,
    इस पोस्ट की प्रस्तुति के लिए आप धन्यवाद के पात्र हैं।.इसे अच्छी तरह से पढ़ कर फिर एक बार आपके पोस्ट पर कुछ अतिरिक्त जानकारियों को लेकर उपस्थित होने की कोशिश करूंगा । धन्यवाद ।

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  3. आपने बहुत सुन्दरता से विस्तारित रूप से स्वामी विवेकानंद जी के बारे में लिखा है! महत्वपूर्ण और ज्ञानवर्धक जानकारी के साथ शानदार प्रस्तुती !

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  4. स्वामी विवेकानंद के कथ्यों प्रकाश डालकर आपने हम पर भी उपकार किया है.

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