Monday, June 11, 2012

अधूरी जात्रा

               जीवन गुजर ही रहा था यूं ही तुम्हारे बिना, तुम्हारी दूसरी छुट्टी की प्रतीक्षा में. चिट्ठी का इंतजार रहता. नजर लगी रहती  पोस्ट ऑफिस से घर तक आने वाली उस संकरी, घुमावदार व चढ़ाई वाली पगडण्डी पर, एकटक. तुम्हारी वो बातें, वो शरारतें अक्सर याद आती तब और
अब. अब सिर्फ तुम. बस तुम ही ! जब शहीद हो गए तुम लाम पर. तब तुम्हारी शिकायत रहती थी मेरे से और अब मेरी....... नहीं, मै अब शिकायत क्यों जो करूं तुम से. तुम जो मेरे होते मेरे पास ही रहते और मै जो तुम्हारी होती तो तुम अकेले ही क्यों जाते.
             तुम्हें उलाहना नहीं दे रही हूँ. वह जो छाती पर सिल (पत्थर) रखा है न, उसे ही घड़ी-दो-घड़ी के लिए नीचे रखना चाहती हूँ. बस! गाँव से जात्रा जाती है कुंजा देवी के लिए. हर बरस  परम्परा वही, जात्रा वही, रास्ता वही पर उत्साह, उल्लास नया. ढोल नगाड़े के साथ रंग विरंगे परिधानों में सजे गाँव के लोग और नयी चुनरी नए श्रृंगार के साथ कहारों के कंधे पर इतराती इठलाती देवी की डोली. कुंजाधार पर पहुँचने के बाद जात्रा समाप्त होती है पूजा अनुष्ठान के बाद..... पर अपनी जात्रा?  अपनी जात्रा तो अधूरी रह गयी भुवन मेरे ! सच, तुम कितने निरुठे (निष्ठुर) हुए ठहरे.
              दादा जी अक्सर कहते भी कि फौजी निरुठे होते हैं. जब जलमपत्री मिला रहे थे घरवाले. दादी जी बोलती ही रही कि वे कमतर हैं बल. वे गंगाड़ी हैं और हम.....  उनका भात हमारे यहाँ नहीं चलता....... संजोग ही रहा होगा शायद. पिताजी किसी की बात नहीं माने, स्वभाव था उनका. न दादा की और न दादी की ही, माँ तो शायद ही उनके सामने ठीक से मुंह खोल पाई हो कभी...... बैशाख के महीने मिले थे हम पठालधार के मेले में, चलते चलते. मिले क्या देखना ही हुआ वो. जैसे सिनेमा के परदे पर कुछ ठीक से देखे भी न कि सीन बदल जाय...! आग लगे उस ज़माने को.

              माघ में शादी हो गयी. मै उन्नीस की हुयी तब और तुम तेईस के. मै गाँव में तब सबसे ज्यादा पढ़ी लिखी थी- आठवीं पास और तुम हुए पलटण में ल्हैंसनैक. यह घमंड करने वाली बात नहीं रही पर  ससुर जी के लोगों से बतियाने और सास के गाँव के बीच रास्तों पर चलने में वह ठसक अक्सर झलक जाती...... शादी के बाद कहाँ रह पाए थे तुम घर, मुश्किल से पांच दिन. "   सारी छुट्टी शादी की ही तैयारी में कट गयी..."    ऐसा तुमने कहा था प्यार के क्षणों में, फिर से जल्दी आने का आश्वासन देते हुए. करते भी क्या, इकलौते बेटे जो ठहरे घर के. 
              मुश्किल से पांच चिट्ठियां ही मिल पायी थी तुम्हारी पूरे सात महीनों में। मै डाकिया को उन दिनों अक्सर कोसती कि तुम्हारी चिट्ठी क्यों नहीं लाता होगा झटपट.  तभी तो जवाब लिख पाऊंगी न. यह सोचते करते आठ माह बाद तुम ही आ गए..... खेतों में फसल पकने लगी थी और बारिस छूट रही थी जो कभी कभार भिगो ही देती. पर मै तो बाहर भीतर भीग रही थी इन दिनों. खेतों में साथ जाना होता, साथ खाना होता और साथ....  तुम अपनी कम पलटण की ज्यादा सुनाते. पलटण में ये होता है, पलटण में वो होता है. और और....... उन पचपन दिनों की दुनिया ही मेरे लिए दुनिया हुयी. और उसके बाद .....?  हाँ ! उसके बाद तो सिर्फ नरक ही हुआ न ? उन पचपन दिनों की याद मैंने सम्भाल रखी है आज तक, गठरी बाँध कर, कभी इस कोने रखती  हूँ और कभी उस कोने..... तुम्हारी धरोहर हैं वे यादें. जिसके सहारे इत्ता लम्बा अरसा कट गया.
              गाँव की गाड (गदेरे) के स्यून्साट के बीच, कभी जंगल की ओर जाती पथरीली पगडंडियों पर चलते-चलते और कभी खेतों की मेड़ पर बैठे-बैठे तुमने साथ जीने मरने का वचन दिया था. मै झट से हथेली तुम्हारे मुंह पर रख देती मरने की बात कहने पर. मरने से बहुत डरने वाली जो हुयी मै. पर तुम फौजियों को तो मरने मारने के सिवा......... और जब तुम्हारे जाने के सात महीने बारह दिन बाद ही तुम्हारे मरने की, नहीं नहीं शहीद होने की (जैसे कि लोग कहते हैं) खबर सुनी तो भरी दोपहरी में बज्र गिरा हो जैसे. शहीद हो गए लाम पर. और चुटकी में ही तोड़ गए सात फेरों, सात वचनों, सात जल्मों का रिश्ता. बन्धन में तो हम दोनों बंधे थे भुवन एक साथ. पर तुम बन्ध कहां पाए, बन्धन के सारे धर्म तो मै निभा रही हूँ और मै ही निभाऊंगी....... वीरगति पा गए तुम जैसे कि तुम्हें व तुम्हारा सामान घर लेकर आये वे हरी वर्दी वाले निर्दयी फौजी कह रहे थे. कुहराम मचा था दोनों घरों में. दादा, दादी की जली-कटी सुनने पर पिताजी को अपने फैसले पर बार-बार अफ़सोस हो रहा था. यह उनके चेहरे पर साफ़ झलकता. मुझे भी लगा था एक बार कि..... किन्तु नहीं. पचपन दिनों का जो अरसा, जितना अरसा मैंने तुम्हारे साथ जिया भुवन मेरे ! वो शेष चालीस-पचास बरस के लिए संजीवनी का काम करेंगे. (अगर जी पाऊंगी तब)   
              जहाँ जहाँ कभी तुम्हारे साथ गयी, तुम्हारे साथ रही, आज जब भी उन पगडंडियों पर चलती हूँ तो लगता है कि तुम लुका छुपी कर आगे पीछे चल रहे हो, खेतों की मेड़ पर तुम बैठे से दिखाई देते हो, पलक झपकती हूँ तो तुम नदारद. गाड में पानी के स्यून्साट की जगह तुम्हारी फुसफुसाहट सी सुनाई देती है जैसे तुम कुछ कह रहे हो. वह अनकहा भी जो तुम कहने से रह गए थे और मै खिच्च से हंस देती हूँ ........ पर तुम तो भुवन, स्वर्गतारा बन गए न अब...... बस, इतना जरूर पूछना चाहती हूँ कि पूरणमासी से लगातार क्षीण होते चांद देखकर तुम्हें पीड़ा नहीं होती क्या ?  या तुम सचमुच निरुठे हो क्या ?
                                                              X X X X X X X 

Sunday, June 03, 2012

प्रकृति से भावनात्मक तादात्म्य स्थापित करने का नाम है मैती आन्दोलन

वृक्ष दान करते श्री कल्याण सिंह रावत 
'विश्व पर्यावरण दिवस' पर विशेष
कभी वनस्पतियों को
एक कवि की दृष्टि से देखो-
कैसी विशाल कौटुम्बिकता अनुभव होती है.
अमानुषी वन पर्वतों, निर्जन जंगलों,
एकाकी उपत्यकाओं में भी
पत्र लिखी भूषाएं धारे,
सुरम्यवर्णी फूल खोंसे ये वनस्पतियाँ-
भाषातीत संकीर्तन करती
निवेदित, सुगंध ही सुगंध लिखती रहती है.

                                           ......... नरेश मेहता
                         गिरिराज हिमालय का सौन्दर्य श्वेत बर्फ के ऊंचे पहाड़, कल कल निनाद करती नदियां ही नहीं अपितु यहाँ का सघन वन, अनेक जडी बूटियाँ व हरित बुग्याल भी है. राजा भगीरथ व उनके पूर्वजों ने सैकड़ों वर्षों तक तपस्या की तो गंगा धरती पर अवतरित हुयी. क्या है तपस्या? व्यावहारिक तौर पर विश्लेषण करे तो कतिपय कारणों से हिमालय वृक्षविहीन और बारिस का औसत कम होने लगा होगा. जब बारिस नहीं तो हिमालय में ही सूखा पड़ने लगा होगा. मैदानी भागों में त्राहि त्राहि मचने लगी होगी. ऐसे में जब राजा पहल करेगा तो प्रजा स्वयमेव ही आगे आएगी. राजा भागीरथ व उनके पूर्वजों ने सैकड़ों वर्षों तक तपस्या की. वह तपस्या नहीं वस्तुतः वृक्षारोपण रहा होगा. जब हिमालय की हरियाली लौटी तो वर्षा हुयी और नदी नालों में पानी ही पानी हो गया होगा. साठ हजार पुरखों के तर्पण की बात जो की गयी है वह रही होगी मैदानी क्षेत्र में पानी का साठ हजार (अर्थात अनेक) प्रकार से उपयोग करना. आज भी अनेक विनाशकारी गलत नीतियों व निरंतर वनों के दोहन के कारण हिमालय वृक्ष विहीन हो रहा है. किन्तु सौभाग्य की बात है कि उत्तराखण्ड हिमालय में आज भी अनेकों भगीरथ हैं. जो पुरखों के तर्पण के लिए नहीं अपितु दुनिया के जीव जंतुओं की रक्षा के लिए तपस्या कर रहे हैं. उनमे अग्रणी हैं उत्तराखण्ड के महान विचारक और मैती आन्दोलन के जन्मदाता कल्याण सिंह रावत.    
वृक्षारोपण करते दूल्हा दुल्हन व मैती बहनें 
                         उत्तराखण्ड की स्थानीय भाषाओँ में 'मैत' का अर्थ है 'मायका' और 'मैती' का अर्थ हुआ 'मायके वाले'. मायके के जल, जंगल, जमीन, खेत-खलिहान, नौले-धारे, पेड़-पौधे सब ससुराल गयी लडकी के लिए मैती हुए. मैती आन्दोलन में शादी के वक्त दूल्हा, दुल्हन वैदिक मंत्रोचार के साथ एक-एक फलदार वृक्ष रोपते हैं और दुल्हन उसे सींचती है. फिर गाँव में जो मैती कोष होता है उसमे एक निश्चित धनराशि दानस्वरुप दिया जाता  है. उत्तराखण्ड में कठिन दुर्गम रास्ते होने के कारण आज भी यह परम्परा है कि दुल्हन की विदाई होती है तो उसका भाई उसे छोड़ने उसके ससुराल जाता है और दूसरे दिन लौटता है. परम्परानुसार दुल्हन अपनी ससुराल में पहली सुबह धारा (जल स्रोत) पूजने जाती है. जहाँ पर मैती आन्दोलन की नीतियों के अनुसार दुल्हन का भाई एक फलदार पेड़ रोपता है और दुल्हन आजीवन उस पेड़ की परवरिश की सौगंध लेती है. इस प्रकार यह आन्दोलन एक भावनात्मक पर्यावरणीय आन्दोलन के रूप में प्रचलित हुआ. शादी के मौके पर हुए इस समारोह के प्रत्यक्षदर्शी ब्राहमण, बाराती व अन्य मेहमान अपने गाँव लौटकर जरूर इसकी चर्चा करते हैं और अपने गाँव में इस प्रकार के आयोजन करने की मंशा रखते हैं. उत्तराखण्ड के नौ-दस हजार गांवों में आज इस आन्दोलन का जूनून यहाँ तक है कि अब लोग शादी के निमंत्रण पत्र पर भी मैती वृक्षारोपण समारोह का उल्लेख करते हैं. इस प्रकार सर्वस्वीकार्यता बनी तो गाँव गाँव में मैती संगठन बने. गाँव की अविवाहित लड़कियों का यह संगठन मैती बहनों का संगठन कहलाता है. गाँव की ही तेज तर्रार लड़की को अध्यक्ष नियुक्त किया जाता है जिसे दीदी कहा जाता है. शादी के समय प्राप्त दान से कोष तैयार कर खाता खुलवाया जाता है जो कि गाँव की किसी पढ़ी लिखी बहू के नाम होता है. कोष की राशि से फलदार वृक्ष खरीदे जाते है, निर्धन बच्चों की शिक्षा पर खर्च किया जाता है व उन स्त्रियों की मदद की जाती है जो निर्धनता के कारण नंगे पांव ही खेतों, जंगलों में जाती हैं. शादी के समय लगाये गए पेड़ों की देखभाल, खाद पानी देना जैसे कार्य मैती बहनों द्वारा किया जाता है.
                         मैती आन्दोलन के जन्मदाता कल्याण सिंह रावत जी ने कभी सोचा भी नहीं होगा कि वर्ष 1994 में चमोली जनपद (उत्तराखण्ड) के ग्वालदम कसबे से शुरू हुआ उनका यह मैती आन्दोलन पूरे उत्तराखण्ड ही नहीं अपितु देश के अनेक राज्यों में लोकप्रिय हो जाएगा. यहाँ तक कि मैती आन्दोलन से प्रभावित होकर ही अमेरिका, कनाडा, चीन, नार्वे, आस्ट्रिया, थाईलैंड और नेपाल आदि देशों में भी शादी के मौके पर पेड़ लगाये जाने लगे हैं. मैती आन्दोलन की ख़बरें जब कनाडा की पूर्व प्रधानमंत्री फ्लोरा डोनाल्ड ने पढ़ी तो वे इतनी अभिभूत हुयी कि कल्याण सिंह रावत जी से मिलने गोचर(चमोली) ही जा पहुंची. इस आन्दोलन की देन ही है कि गाँव गाँव में मैती जंगलों की श्रंखलायें सजने लगी है. हरियाली दिखाई देने लगी है.  
सांस्कृतिक समारोह के दौरान नृत्य व गायन करती स्थानीय स्त्रियां 
                         मैती आन्दोलन अब शादी व्याह के मौकों पर ही वृक्षारोपण नहीं कर रहा बल्कि दायरे से बाहर निकलकर  'वेलेनटाइन डे' पर भी "एक युगल एक पेड़" का नारा देकर उनसे पेड़ लगवा रहे हैं और वेलेनटाइन जोड़े ख़ुशी ख़ुशी पेड़ लगा रहे हैं. कारगिल शहीदों की याद में बरहामगढ़ी (ग्वालदम) में शहीद वन व वर्ष 2000 में नन्दा राजजात मेले से पूर्व राज्य के तेरह जनपदों से लाये गए पेड़ नौटी(कर्णप्रयाग) में रोपकर उसे 'नन्दा मैती वन' नाम दिया गया. मोरी (उत्तरकाशी) के निकट टोंस नदी के किनारे जब एशिया का सबसे ऊंचा वृक्ष गिरा तो उसकी याद में मैती बहनों द्वारा वहां पर हजारों लोगों की उपस्थिति में एक भव्य शिक्षा प्रद कार्यक्रम आयोजित किया गया और उस महावृक्ष को श्रृद्धांजलि देते हुए वहां पर उसी चीड़ की प्रजाति के पौधे रोपे गए. विशाल टिहरी बाँध बनने के कारण टिहरी शहर के जलसमाधि लेने से पूर्व मैती द्वारा वहां के तैतीस ऐतिहासिक स्थलों की मिटटी को लाकर स्वामी रामथीर्थ महाविद्यालय के प्रांगण में अलग अलग गड्ढों में डालकर उनमे पौधे रोपे गए, दिसंबर 2006 में  एफ०आर०आई० देहरादून द्वारा शताब्दी वर्ष मनाये जाने पर बारह लाख बच्चों के हस्ताक्षर से युक्त दो किलीमीटर लम्बा कपडा एफ०आर०आई० के मुख्य भवन पर लपेटा गया. जिसकी  गांठ तत्कालीन राज्यपाल श्री सुदर्शन अग्रवाल ने बाँधी. इस अवसर पर परिसर में दो पौधे रोपे गए.  राजगढ़ी उत्तरकाशी में तिलाड़ी काण्ड के शहीदों की याद में वृक्ष अभिषेक मेला व नारायणबगड़ (चमोली) में महामृत्युंजय मन्दिर के समीप पर्यावरण सांस्कृतिक मेला आयोजित किये जाते हैं.

                         बैनोली-तल्ला चांदपुर, कर्णप्रयाग, जनपद चमोली में जन्मे व वनस्पति विज्ञान, इतिहास व राजनीति शास्त्र में पोस्ट ग्रेजुएट रावत जी ने राज0 इंटर कालेज में प्रवक्ता (वनस्पति विज्ञान)के रूप में कैरियर शुरू किया और आज उत्तराखण्ड अन्तरिक्ष उपयोग केंद्र, देहरादून में बतौर वैज्ञानिक कार्यरत हैं. उनका कहना है कि उनके पिता व पितामह भी वन विभाग में नौकरी करते थे. वहां पर उन्हें जंगलों के निकट रहने का मौका मिला. फिर विषय भी वनस्पति विज्ञान रहा तो वे प्रकृति के और निकट आ गए. चिपको आन्दोलन की जननी गौरा देवी उनकी प्रेरणा स्रोत रही. रावत जी ने देखा कि वन विभाग हर वर्ष वृक्षारोपण पर  लाखों करोड़ों रुपये खर्च करता है  किन्तु लोगों का भावनात्मक लगाव न होने के कारण वह सफल नहीं होता. परिणाम यह होता है कि सरकार पुनः पुनः उसी भूमि पर वृक्षारोपण करती है जिस पर वह पहले के वर्षों में कर चुकी होती है. सरकारी धन ठिकाने तो लगता है किन्तु वन क्षेत्र नहीं बढ़ता है.
                         उन्होंने इसे एन०जी०ओ० क्यों नहीं बनाया इस पर वे खुल कर कहते है कि आज अनेक एन०जी०ओ० कागजों तक ही सीमित हैं, जिससे उनकी साख घटी है. रावत जी का उद्देश्य पर्यावरण हित है न कि धन कमाना. मैती आन्दोलन को पैसे से जोड़ दिया जाएगा तो इसकी आत्मा मर जायेगी. वे इसे निस्वार्थ भाव से इस मुकाम तक ले आये और चाहते हैं कि यह एक स्वतः स्फूर्त आन्दोलन की भांति कार्य करे.
                         उतराखंड के अनेक सामाजिक संगठनों द्वारा श्री रावत को गढ़ गौरव, गढ़विभूति, उत्तराँचल प्रतिभा सम्मान, दून श्री, बद्रीश प्रतिभा सम्मान सहित दो दर्जन से अधिक सम्मानों से नवाजा जा चुका है। किन्तु यह दुखद पहलू ही है कि पर्यावरण के नाम पर दिए जाने वाले सरकारी पुरस्कारों से चिपको आन्दोलन की जननी गौरा देवी की भांति कल्याण सिंह रावत जी को भी अभी तक वंचित रखा गया है. जो कि सरकारी पुरस्कारों में बन्दरबाँट या पुरस्कारों के नाम पर दलगत व जातिगत राजनीति की कहानी ही बयां करती है.
                           (स्रोत - श्री कल्याण सिंह रावत जी से उपलब्ध सामग्री व उनसे हुयी बातचीत  के आधार पर)  
 

Saturday, May 26, 2012

एक शापित शिला

छाया - साभार गूगल 
शेरशाह, शाहजहाँ आदि बादशाहों की नजरों से
बौद्ध मठों, जैन मंदिरों व मूर्तियों के निर्माताओं से
बल्कि उससे पूर्व, सभ्यता की नीवं रखने वालों से 
छुपकर दुबका हुआ, मिटटी रेतगारे में पड़ा हुआ,
धरती के सीने पर गड़ा हुआ- एक पत्थर हूँ मै ।

ईश्वर ! भयभीत रहा हूँ मै सदा मानवी छायाओं से
आंकते हैं जब भी वे कभी मेरी उपयोगिता-
किसी देवालय की नीवं-दीवारें चिनवाने के लिए,
या शहर की ऊंची इमारतों के निर्माण के लिए,
किसी मंदिर की मूरत बनवाने के लिए, या किसी  
भ्रष्ट नेता का पापमय चेहरा गढ़ने के लिए ही।

ओह मनुष्यों ! तुम्हे तो बस
मिटा देना ही आता है किसी के अस्तित्व को
प्रहार करना ही आता है किसी की अस्मिता पर 
हो सकती है स्वतंत्र सत्ता मेरी भी, ऐतराज है क्यों तुम्हे
अरे मानव!
नहीं हो चराचर के स्वामी तुम,
उस अनाम-कोटिनाम विधाता की ही कृति हो-
तुम भी, मै भी. किया नहीं प्रयास कभी
तुम्हारा मार्ग बाधित करने का मैंने 
तुम ही गुजरते रहे हो अपितु, ठोकरें मार कर
या कभी मेरे सीने को ही रौंद कर।

शापित शिला हूँ मैं, युगों युगों से धरती के सीने में
दुबका हुआ, मिटटी रेतगारे में गड़ा हुआ.
मानव ! भगवान के लिए ही सही, रहने दो मेरी स्वतंत्र सत्ता, 
यूं ही पड़ा रहने दो मुझे, तुम यूं ही गड़ा रहने दो मुझे।

Wednesday, May 16, 2012

शौर्य व स्वाभिमान के पर्याय थे महाराणा प्रताप - (4)


 यात्रा संस्मरण (पिछले अंक से जारी.....)
                                  प्रताप यह भली भांति जानते थे कि अकबर यद्यपि पश्चिमोत्तर सीमा विवाद में बुरी तरह उलझ गया है किन्तु वापस लौटने पर वह एक बार फिर मेवाड़ पराजय का कलंक मिटाना चाहेगा. अतः प्रताप ने मुग़ल शासित उन क्षेत्रों को नहीं छेड़ा जो पहले से ही मुगलों के अधीन थे. मालवा व गुजरात के मार्गों से गुजरने वाले यात्रियों को स्वतंत्र रूप से जाने दिया. मेवाड़ की आर्थिक समृद्धि के लिए कृषि, व्यापार व उद्योग को बढ़ावा देने की दिशा में तेजी से प्रयास किये जाने लगे. दूसरी ओर प्रताप मेवाड़ का सम्पूर्ण पश्चिमी भाग, सम्पूर्ण पर्वतीय क्षेत्र तथा चित्तौड़गढ़ व माण्डलगढ़ के अतिरिक्त पूरा पूर्वी भाग भी मुगलों से युद्ध कर वापस लेने में सफल रहे. मुगलों के अधीन 36 थानों में से 32 पर पुनः अपना कब्ज़ा करने में सफल रहे. थानों पर तैनात मुसलमान या तो मार दिए गए या वे स्वतः ही जान बचाकर भाग गए. मेवाड़ पर मान सिंह व जगन्नाथ कछ्वावा द्वारा आक्रमण से व्यथित होकर प्रताप ने बदला लेने के लिए अम्बेर पर चढ़ाई कर दी तथा उनके समृद्ध व संपन्न नगर मालपुरे को तहस-नहस कर डाला.
                          प्रताप द्वारा मेवाड़ पर पुनः आधिपत्य की सूचना अकबर को जब मिली तो सन 1586 में करौली के राजा गोपालदास जादव को अजमेर का सूबेदार तैनात कर दिया. तथा सन 1590 में जादव की मृत्यु के उपरांत सन 1594 में शिरोजखान को सूबेदार बनाया गया. किन्तु प्रताप की वीरता से भयभीत होकर या अन्य किसी कारण से इन सूबेदारों द्वारा मेवाड़ पर आक्रमण नहीं किया गया. अपितु यह कहा जाता है कि प्रताप के जीते जी फिर मेवाड़ पर कोई आक्रमण नहीं हुआ. तथापि अतीत को देखते हुए सुरक्षा की दृष्टि से प्रताप ने ऊंचे पर्वतों व घने जंगलों से घिरे चावण्ड गाँव को नयी राजधानी बनाया(जो कि सन 1615 तक मेवाड़ की राजधानी बनी रही). चावण्ड में राणा द्वारा छोटे-छोटे महल व माँ चामुंडा का एक मन्दिर भी बनवाया गया. सम्पूर्ण राज्य की समृद्धि के लिए राणा ने अथक प्रयास किये. युद्ध के समय साथ देने वाले छोटे छोटे शासकों को बड़ी बड़ी जागीरें भेंट की गयी.उन्हें सुरक्षा पर्दान की गयी. और लम्बे युद्ध की विभीषिका से बाहर निकल कर मेवाड़ एक बार फिर संपन्न राज्यों में शुमार हो गया. अन्न धन के भण्डार भरने लगे और घी-दूध की नदियां बहने लगी.
                           किन्तु विधि का विधान देखिये कि जो प्रताप लगभग सत्रह वर्षों तक मुगलों की बड़ी से बड़ी सेना के खिलाफ निरंतर युद्ध करता रहा, घायल होने पर भी नेतृत्व करने से पीछे नहीं हटा, कठिन परिस्थितियों में भी हार नहीं मानी. वही प्रताप एक बार शिकार खेलते समय कमान जोर से खींचते के कारण घायल हो गए और शय्या पकड़ ली. जिसके चलते 19 जनवरी 1597 को मात्र 57 वर्ष की आयु में चावण्ड में मृत्यु को प्राप्त हो गए. चावण्ड के निकट बन्दोली गाँव के नाले के तट पर उनका अंतिम संस्कार किया गया. जहाँ पर संगमरमर पत्थरों से आठ खम्बे वाली एक छतरी बनी हुयी है.
                          प्रताप की मृत्यु का समाचार सुनकर अकबर खुश होने की बजाय उदास हो गया. "वीर विनोद" पुस्तक के अनुसार उस दौरान एक चारण 'दुरसा आढ़ा' एक स्वरचित 'छप्पय' खूब गाया करता था. अकबर ने जब सुना तो चारण को बुलवाया गया. चारण भय से कांपते कांपते सम्राट अकबर के पास पहुंचा कि शत्रुओं के प्रशंसा गीत गाने पर दंड अवश्य मिलेगा. किन्तु अकबर ने पूरा छप्पय सुनकर उसे ईनाम  दिया तो चारण चकित रह गया. छप्पय इस प्रकार था,
"अश लेगो अण दाग, पाघ लेगो अण नामी. 
गो आड़ा गबडाय जिको बहतो धुर बामी. 
नब रोजे नह गयो, नागो आतशा नवल्ली.
न गो झरोखा हेठ, जेथ दुनियाण दहल्ली........."
 अर्थात जिसने अपने घोड़ों को दाग नहीं लगवाया,(तब परम्परा थी कि पराजित होने पर जो घोड़ा शत्रुओं के हाथ पड़ जाता था उसके पुट्ठों पर दाग लगाया जाता था) किसी के सामने अपनी पगड़ी नहीं झुकाई, आड़ा(वीरगाथा) गवाता चला गया, नरोज (नववर्ष की भांति नौ ऱोज तक चलने वाला त्यौहार) के जलसे में नहीं गया, शाही डेरों में नहीं गया, दुनिया जिसका मानकरती थी ......ऐसा प्रताप चला गया"
                           यह भी हकीकत है कि चारणों ने  ही भूतकाल को जीवित रखा. चारण गीतों में राजाओं - महाराजाओं के अनेक किस्से मिलते हैं. चारणों की वीरगाथाओं में ही यह भी मिलता है कि निरंतर युद्ध पर युद्ध और हार पर हार से प्रताप तिलमिला गए थे. हर वक्त डर रहता था कि वे या उनके परिवार का कोई सदस्य कहीं मुगलों के हाथ न पड़ जाये. मेवाड़ के राज परिवार के सदस्य कभी पर्वतों की गुफाओं में पत्थरों पर सोकर रातें गुजारते तो कभी पेड़ों पर बैठे-बैठे दिन काटते थे. जंगली फलों पर गुजारा करते थे. कई बार शत्रुओं से बचने  के लिए मामूली भोजन छोड़कर भी भागना पड़ा. केवल इस संकल्प के लिए कि तुर्कों के सामने सिर नहीं झुकायेंगे. किन्तु एक बार उनकी प्रतिज्ञा टूटने लगी, वे झुकने लगे. हुआ यह कि महारानी और युवरानी ने घास के बीज के आटे से रोटी बनाई थी. बच्चों को एक-एक रोटी दी गयी कि वे आधी अभी खा लें और आधी बाद में. प्रताप किनारे बैठे किसी गहन सोच में थे कि उनकी पौत्री की दारुण पुकार उन्हें सुनाई दी. वास्तव में एक जंगली बिल्ली उसके हिस्से की रोटी झपटा मारकर ले गयी थी. महाराणा तिलमिला गए. एक घास की रोटी के लिए राज परिवार की कन्या की ह्रदयभेदी चीत्कार. युद्ध भूमि में अपने सगे क्या अपने पुत्र के वीरगति प्राप्त करने पर भी जो प्रताप कभी विचलित न हुआ हो एक छोटी सी राजकुमारी के दर्द से विचलित हो गए, उनकी आँखों में आंसू आ गए. उन्होंने तुरन्त अकबर को संधि पत्र लिखा.
                            अकबर पत्र पाकर बहुत खुश हुआ. वह पत्र बीकानेर के राजा के भाई पृथ्वीराज को दिखाया जो अकबर के दरबार में राजकवि था. पृथ्वीराज राजपूतों की आखरी आशा और वीर महाराणा की वह चिट्ठी देखकर अत्यंत दुखी हुए. किन्तु प्रत्यक्ष में ढोंग करने लगे कि 'मुझे विश्वास नहीं कि यह चिट्ठी प्रताप की है. मुग़ल साम्राज्य मिलने पर भी प्रताप कभी सिर नहीं झुकाएगा. मै स्वयं ही पता कर लेता हूँ.' पृथ्वीराज महान कवि थे,  अतः घुमा फिराकर यह पत्र लिखा;
अकबर समद अथाह, तिहं डूबा हिन्दू तुसक.
मेवाड़ तिड़ माँह, पोयण फूल प्रताप सी.
अकबरिये इकबार, दागल की सारी दुनी,
अण दागल-असवार, चेतक राणा प्रताप सी.
अकबर घोर अंधार, उषीणा हिन्दू अबर,
जागै जगदातार, पोहरे राण प्रताप सी.
हिन्दुपति परताप, पत राखी हिन्दू आण री,
सहो विपत संताप, सत्य सपथ करि आपनी.
चंपा चितोड़ हा, पोरसतणो प्रताप गीं,
सौरभ अकबरशाह, अलि यल आमरिया नहीं.
पातल जो पतशाह, बोले मुखऊ तो बयण.  
मीहर पछिम दिश माँह, उगै कासप रावत. 
पटके मुद्दां पाया, कि पटकूं निज कर तलद.
दीजै लिख दीवाण, इन दो महली  बात इक. 
अर्थात अकबर रुपी समुद्र में हिन्दू तुर्क डूब गए हैं, किन्तु मेवाड़ के राणा प्रताप उसमे कमल की तरह खिले हुए हैं. अकबर ने सबको पराजित किया किन्तु चेतक घोड़े पर सवार प्रताप अभी अपराजित हैं. अकबर के अँधेरे में सब हिन्दू ढक गए हैं किन्तु दुनिया का दाता राणा प्रताप अभी उजाले में खड़ा है. हे हिन्दुओं के राजा प्रताप ! हिन्दुओं की लाज रख. अपनी प्रतिज्ञा के पूर्ण होने के लिए कष्ट सहो. चित्तौड़ चंपा का फूल है और प्रताप उसकी सुगंध. अकबर उस पर बैठ नहीं सकता. यदि प्रताप अकबर को अपना बादशाह माने तो भगवान कश्यप का पुत्र सूरज पश्चिम में उदय होगा. हे एकलिंग महादेव के पुजारी प्रताप ! यह लिख दो कि मै वीर बनके रहूँगा या तलवार से अपने को काट डालूँगा.
      पृथ्वीराज की इस कविता ने दस हजार सैनिकों का काम किया और प्रताप ने उत्तर में यह लिख भेजा.
तुरुक कहाँ सो मुख पतों, इन तणसुं इकलिंग,
उसै जासु ऊगसी, प्राची बीच पतंग.
अर्थात भगवान एकलिंग जी के नाम से सौगंध खाता हूँ कि मै हमेशा अकबर को तुर्क के नाम से ही पुकारूँगा. जिस दिशा में सूरज हमेशा से उगता आया है वह उसी दिशा में उगता रहेगा. वीर पृथ्वीराज ! सहर्ष मूंछों पर ताव दो, प्रताप की तलवार यवनों के सिरों पर ही होगी.
                             ओझा आदि विद्वानों ने इसे कपोलकल्पना मात्र माना है. उत्तर में कुम्भल गढ़ से दक्षिण ऋषभदेव की सीमा तक लगभग 90 मील और देबारी से सिरोही तक लगभग 70 मील चौड़ा क्षेत्र सदैव ही राणा के अधिकार में रहा. जिससे कभी खाद्यान की कमी नहीं रही. फिर इस क्षेत्र में फल फूल पर्याप्त मात्रा में थे. सैकड़ों गाँव आबाद थे इसलिए खेती भी ठीक ठाक होती थी.इस पूरे पहाड़ी क्षेत्र को घेरने के लिए लाखों सैनिकों की आवश्यकता होती. हजारों वीर व स्वामिभक्त भील दुश्मन की सेना की चालीस पचास मील तक की हरकत कुछ ही समय में राणा तक पहुंचा देते थे.और राणा योजना बनाकर शत्रुओं का संहार करता  था. जिसके कारण बीहड़ प्रदेश में घुसने की की हिम्मत मुगलों ने कभी नहीं की. फिर राणा के पास अकूत सम्पति थी. जिससे वे राज परिवार का ही नहीं अपने सैनिकों व उनके परिवार का भरण पोषण करते थे. भामाशाह एक चतुर व कुशल मंत्री थे. उन्होंने खजाना सुरक्षित स्थान पर रखा था और आवश्यकता अनुसार प्रताप को देते थे. उदयपुर की क्यात और महाराणा की वंशावली से ज्ञात होता है कि राणा की सेना में एक राजा, तीन राव, सात रावत, पंद्रह हजार अश्वारोही, एक सौ हाथी और बीस हजार पैदल थे. अतः इतनी बड़ी सेना का भरण पोषण साधारण खजाने से नहीं हो सकता था. परन्तु पृथ्वीराज और प्रताप के बीच संवाद को पूर्णतया ख़ारिज भी नहीं किया जा सकता. पृथ्वीराज और प्रताप मौसेरे भाई थे. सम्भव हो अकबर इस बात को जानता हो और अकबर ने ही पृथ्वीराज से पत्र लिखवाया हो कि प्रताप संधि कर ले. किन्तु राजपूताना के प्रति असीम प्रेमवश पृथ्वीराज ने प्रताप से मेवाड़ की रक्षा का वचन ले लिया.
                                 वास्तविकता जो भी हो किन्तु यह सत्य है कि इन किवदंतियों ने राजस्थान में राजपूत धर्म की परम्परा अक्षुण बनाये रखने में बहुत बड़ी भूमिका निभाई है. प्रताप के बारे में जेम्स टाड ने लिखा है कि चित्तौड़ पर से अधिकार समाप्त होने पर प्रताप ने प्रतिज्ञा ली थी कि- 'जब तक चित्तौड़ वापस नहीं ले लेंगे मै और मेरे वंशज सोने चान्दी के वर्तनों पर नहीं पत्तलों पर भोजन करेंगे, घास के बिस्तरों पर सोयेंगे, दाढ़ी नहीं बनायेंगे और नगाड़ा सेना के पीछे बजायेंगे. कमोवेश यह परम्परा आज भी निभाई जाती है. परन्तु यह कथन भी कितना सत्य है कहा नहीं जा सकता.
                                 जो भी हो प्रताप आज साढ़े चार सौ साल बाद भी मेवाड़ ही नहीं पूरे राजस्थान अपितु पूरे हिंदुस्तान में प्रातः स्मरणीय है, पूज्य है, उनकी वीरता के किस्से लोग बड़े गर्व से बयां करते हैं, बड़े चाव से सुनते हैं. उनके नाम पर सौगंध ली जाती है.
                                                                                                                                                                                                                                                                                                           --समाप्त------
    (सामग्री स्रोत साभार-Manorama Yearbook1988 & 2009, युगपुरुष महाराणा प्रताप-मोहन श्रीमाली व एस० पी० जैन, Mewar &Welcome to Rajsthan- Rajsthan Tourism's Magazines तथा रजवाड़ा-देवेश दास आदि  पुस्तक) 

       
    

Saturday, April 28, 2012

मैन वर्सेस वाइल्ड



छाया - साभार गूगल  
इस विशेष सप्ताह में  'वाइल्ड लाइफ प्रोटेक्सन' व 
 'कन्जर्वेसन ऑफ़ टाइगर' जैसे मुद्दों पर बहस करते,
साथी चर्चाकारों के साथ उलझते, लड़ते, झगड़ते 
पक जाता हूँ, थक जाता हूँ  आफिस में  हर रोज  
थका-हारा घर लौटते एक शाम नोट करता हूँ कि -
मनुष्य जितने हो गए धरती पर बाघ, और
कुल बाघ जितने रह गए मनुष्य .

जारी है पलायन बाघों का- जंगलों से शहरों की ओर
और मनुष्य ठूस दिए गए हैं पिंजरों में, चिड़ियाघरों में,
वाइल्ड लाइफ सैंक्चुरी में, नेशनल पार्कों में.
बाघों की सत्ता हो गयी धरती पर और मनुष्य-
गिने जा रहे हैं उँगलियों पर निरीह प्राणी से.
इतने हैं अमुक चिड़ियाघर में, फलां सैंक्चुरी में
या इतने फलां पार्क में. इतने नर, इतने मादा.
चर्चाएँ, बहस और सेमिनार हो रहे खूब बड़े-बड़े
मनुष्यों के नाम पर, उनकी सुरक्षा को लेकर
हाईलाइट हो रही ख़बरें टी० वी०, रेडियो, अख़बारों में
पढ़ रहे ख़बरें बाघ घर के लान में बैठकर,
कभी दोस्तों के बीच चाय की चुस्कियों के साथ
और कभी अंगड़ाई ले-लेकर टी० वी० देखते !


आये दिन ख़बरों की हेडलाइन होती कि-
'एक मादा मनुष्य भटक रही थी जंगलों में
अपने दो बच्चों के साथ भोजन की तलाश में
कि, एक जांबाज बाघ ने तीनो को मार गिराया.'
या कभी इस तरह भी कि,
'कुछ बाघखोर मनुष्य घुस आये रात बस्ती में 
और दो माह के शावक को ले गए उठाकर
अपनी कई दिनों की क्षुधा मिटाने को
बाघों ने सारी रात जंगल पूरा छान मारा 
पर शावक नहीं पाया गया, न जीवित और न मृत ही' 

मै आफिस से जल्दी-जल्दी सीधे घर भागता हूँ
कि कुछ वर्दीधारी खूंखार बाघ लपक पड़े मेरी ओर
वे फाड़ना चाहते थे मेरा शरीर, नोचना चाहते थे बोटी बोटी 
एक समझदार, प्रौढ़ बाघ ने बचा लिया मुझे  इतने में 
करवा दिया बंद मनुष्यों के बीच सीधे चिड़ियाघर में 
अब कटती है जिंदगी खूब मौज मस्ती में  
चिढ़ाता हूँ मै खुश होकर रोज दर्शक बन आये बाघों को-
जाली के इस ओर कभी उस पार -घुर्रर्रर्रर्र.. खौंऔंऔंऔं... 


छाया - साभार गूगल 
होता है गीलेपन का सा अहसास एकाएक
सपना टूटता है, उठिए बाघ महाराज कहकर 
साक्षात् दुर्गा बनी सिरहाने खड़ी मेरी पत्नी 
बाल्टी भर पानी मुझ पे उड़ेल मुझे जगाती है, और
मेरी घुर्रर्रर्रर्र खौंऔंऔंऔं, म्याऊं-म्याऊं में बदल जाती है !

Sunday, April 22, 2012

अब तुम्हारे हवाले वतन.....

पेशावरकाण्ड की 82 वीं वर्षगांठ पर विशेष  
                       स्वतंत्रता आन्दोलन में जिस सेनानी में गांधी जैसी अहिंसा दृष्टि, नेहरु जैसी सौम्यता, पटेल जैसी दृढ़ता, सुभाष जैसा दुस्साहस, भगत सिंह जैसे विचार और चन्द्रशेखर 'आजाद' जैसा स्वाभिमान एक साथ देखा जा सकता है वह सिर्फ और सिर्फ चन्द्र सिंह गढ़वाली ही थे.
गढ़वाली  (25/12/1891 - 01/10/1979 )
                        आजादी की लड़ाई पूरे भारतवर्ष में लड़ी जा रही थी और शांति व सुरक्षा व्यवस्था बनाये रखने के लिए पुलिस व सेना जगह-जगह तैनात थी. पेशावर में भी गढ़वाल रायफल्स की 2 /18 बटालियन की 'ए' कम्पनी तैनात थी. इंडियन नेशनल कांग्रेस की पहल पर पेशावर शहर के किस्साखानी बाजार में देशभक्त पठानों द्वारा 23 अप्रैल 1930 को अंग्रेजों के खिलाफ नारे लगाते व तिरंगा हाथों में लहराते हुए नमक सत्याग्रह के पक्ष में एक जुलूस निकाला जा रहा था कि एक अंग्रेज अधिकारी द्वारा आजादी के इन दीवानों पर गोली चलाने का निर्देश दिया गया-'गढ़वाल, थ्री राउंड फायर!' किन्तु क्वार्टर मास्टर(न0-253, प्लाटून न0-4)चन्द्र सिंह भंडारी पुत्र जाथली सिंह भंडारी, निवासी- मासौं, थलीसैण, पौड़ी गढ़वाल (जिन्होंने बाद में अपना उपनाम 'भंडारी' के स्थान पर 'गढ़वाली' लिखा व इसी नाम से आज हम उन्हें जानते हैं) ने अपनी प्लाटून न0-4 व प्लाटून न0-1 के सिपाहियों को तत्काल निर्देश दिया 'गढ़वाली सीज फायर !' जवानों ने गढ़वाली के आदेश का पालन करते हुए गोली चलाने से इंकार कर दिया. बंदूकें निर्दोष देशभक्त पठानों पर नहीं उठी तो नहीं उठी. 
                        दोनों ओर से प्रतिक्रिया हुयी, जबरदस्त. अंग्रेज अधिकारी हतप्रभ रह गये और देशभक्त पठान गढ़वाली जवानों की जय-जयकार करने लगे. देखते ही देखते यह खबर आग की तरह चारों ओर फ़ैल गयी. जनता उन वीर जवानों को देखने के लिए सड़कों पर उमड़ पड़ी और अंग्रेजों की नींद उड़ गयी. आज गढ़वाली सेना ने अपने ही अंग्रेज अधिकारी का आदेश मानने से इंकार कर दिया गया था. सम्पूर्ण ब्रिटिश साम्राज्य में यह पहला सैनिक विद्रोह था. वह भी उन गढ़वाली वीरों द्वारा जो प्रथम विश्वयुद्ध में फ्रांस के मोर्चे पर अंग्रेजों के पक्ष में लड़ते हुए अपना लोहा मनवा चुके थे. यह माना जाता है कि कूटनीति के तहत ही अंग्रेजों द्वारा पठानों के दमन हेतु गढ़वाली जवानों को तैनात किया गया था. वे जानते थे कि गढ़वाली सेना में सभी जवान हिन्दू हैं और पेशावर में आजादी के सभी दीवाने मुस्लिम पठान. फिर फायर हेतु कोई लिखित आदेश भी नहीं दिया गया. वे जानते थे कि गोली काण्ड होते ही इसे सांप्रदायिक रूप दिया जाएगा और वे "divide and rule" के तहत हिंदुस्तान पर अपना साम्राज्य लम्बे समय तक बनाये रख सकेंगे. चन्द्र सिंह गढ़वाली व उनकी सैनिक टुकड़ी को संभवतः इस षड्यंत्र की भनक एक दिन पहले ही लग गयी थी. और परिणति "  सीज फायर "   के रूप में हुयी. इस अभूतपूर्व घटना ने कई मिशालें कायम कर दी. पहली, यह कि देशभक्त सत्याग्रहियों पर गोली न चलाकर अहिंसा का अनूठा उदहारण, अन्यथा अंग्रेजों की मंसा तो जालियांवाला बाग़ की पुनरावृत्ति की थी. दूसरी, ब्रिटिश अधिकारियों की साम्प्रदायिक दंगे फ़ैलाने की कुचेष्टा पर कुठाराघात. तीसरी, ब्रिटिश साम्राज्य को यह सन्देश कि फौजी अनुशासन भी देशभक्ति का ज्वार नहीं रोक सकता और न ही कोई भय उन्हें पथ से डिगा सकता है. कालांतर में आजाद हिंद फ़ौज के गठन और ब्रिटिश रायल नेवी विद्रोह के लिए भी इसी पेशावर काण्ड ने प्रेरक का काम किया.
                        चन्द्र सिंह गढ़वाली और उनके अन्य साथियों को गोरों ने उसी दिन हिरासत में लिया. सभी जवानों ने अपने-अपने हथियार स्वयं ही जमा कर दिए. अन्यथा दूसरी सेनाएं भय से या सम्मान से उनके पास आने से बच रही थी. 24 अप्रैल को एक अंग्रेज अधिकारी ने गढ़वाली फौजियों को गाली दी तो रायफलमैन दौलत सिंह रावत व लांसनायक भीम सिंह ने फौजी बूटों से उसकी मरम्मत कर दी. चन्द्र सिंह गढ़वाली और उनके साथियों को मालूम था कि कोर्ट मार्शल होगा और फांसी तक की सजा हो सकती है, किन्तु अंग्रेजों के एक और षड्यंत्र से वे अनजान थे. पेशावर से बाहर ले जाने के लिए इस फौजी टुकड़ी को जिस रेल में बिठाया गया उसे समुद्र में डुबोने की योजना थी. पेशावरवासियों को जब इसकी भनक लगी तो उन्होंने रेल रोक दी. फिर इस टुकड़ी को एबटाबाद होते हुए काकुल ले जाकर तोप से उड़ाने की योजना बनी किन्तु आजादी की मतवाली जनता वहां भी बाधक बनी. दूसरी ओर अंग्रेजों को यह आशंका भी सताने लगी कि यदि इन्हें तोप, गोली से उड़ा दिया गया तो कहीं राष्ट्रव्यापी सैनिक विद्रोह न हो जाय.
                       कोर्ट मार्शल की कार्यवाही 2 जून से 8 जून तक चली. जवानों की ओर से मुकुन्दी लाल बैरिस्टर ने पैरवी की. आरोप तय हुआ कि सिपाहियों ने आदेश का उल्लंघन किया है व अनुशासन तोडा है. गढ़वाली व सभी साथी पहले ही स्पष्ट कर चुके थे कि बहरी दुश्मनों द्वारा आक्रमण करने पर वे अपनी जान तक न्यौछावर करने से नहीं हिचकते किन्तु निरपराध व निहत्थे नागरिकों पर गोली चलाना फौजी अनुशासन नहीं हो सकता. बैरिस्टर की बचाव की दलील भी इसीके आस पास थी. फ़ौज का काम सीमा पर युद्ध लड़ना हैं, जनता पर गोली चलाना नहीं. फौजी अदालत ने 11 जून 1930 को फैसला सुना दिया- दोनों प्लाटूनों के 60  जवानों की सेना से बर्खास्तगी तथा सम्पति, वेतन व पूरा जमा फंड जब्त. चन्द्र सिंह गढ़वाली सहित 17 जवानों को एक साल से लेकर कालापानी/आजीवन कारावास तक की सजा सुनाई गयी (गढ़वाली को कालापानी तथा हवालदार नारायण सिंह गुसाईं, नायक जीत सिंह रावत व नायक केशर सिंह रावत को 15-15 साल की जेल की सजा हुयी) और 43 जवानों को लाहोर होते हुए वापस गढ़वाल रायफल्स के मुख्यालय लैंसडौन भेज दिया गया.
                         लाहोर में इन गढ़वाली सिपाहियों का जोरदार स्वागत हुआ और देखते ही देखते 12000/= रुपये इकट्ठे किये गए. किन्तु सभी जवानों ने रुपये लेने से इंकार कर दिया और कठिन परिस्थितियों में ही जीवन गुजारा किया. चन्द्र सिंह गढ़वाली व उनके साथियों को एबटाबाद, डेरा इस्माइलखां, लखनऊ, बरेली, देहरादून व अल्मोड़ा की जेलों में रखा गया. साथी 16 जवान पहले ही जेल से छूट गए किन्तु चन्द्र सिंह गढ़वाली 11 साल, 3 महीने व 18 दिन जेल में रहने के बाद 26 सितम्बर 1941 को रिहा हुए. जेल में रहते हुए उन्हें अनेक प्रख्यात क्रांतिकारियों का सानिध्य मिला. जिनमे प्रमुख थे- यशपाल, शिव वर्मा व रमेश सिन्हा. गाँधी जी व मोतीलाल नेहरु से वे मुलाकात पहले कर चुके थे और जवाहर लाल नेहरु, सुभाष चन्द्र बोस, आचार्य नरेंद्र देव आदि उनसे मिलने आये.
                   चन्द्र सिंह गढ़वाली जेल से तो छूट गए किन्तु अंग्रेज सरकार ने उनके गढ़वाल प्रवेश पर रोक लगा दी थी. जिससे वे पूरी तरह आजादी की लड़ाई में शामिल हुए और भारत छोडो आन्दोलन के दौरान वे इलाहबाद में गिरफ्तार हुए और 3 वर्ष जेल में रहे. 16 वर्ष से अधिक समय बाद 26 दिसम्बर 1946 को वे गढ़वाल लौटे. इस सपूत को देखने के लिए लोग उमड़ पड़े. जगह जगह उनका स्वागत हुआ. चन्द्र सिंह गढ़वाली संभवतः देश के प्रथम स्वतंत्रता सेनानी होंगे जो 14 वर्ष से अधिक समय तक जेल में रहे. किन्तु दुखद पहलु यह भी रहा कि गांधी जी पेशावरकाण्ड के लिए गढ़वाली की आलोचना कर चुके थे अपितु 20 फरवरी 1932 को लन्दन में द्वितीय गोलमेज सम्मलेन के दौरान उन्होंने गढ़वाली की रिहाई के लिए कोई मांग भी नहीं रखी. कुछ समय बाद देश आजाद हुआ किन्तु देशभक्ति का जज्बा उनके अन्दर बना रहा. वे टिहरी रियासत के खिलाफ जनक्रांति में सम्मिलित हुए. शराब विरोधी आन्दोलन हो या भविष्य में उत्तराखंड  बनने पर  राजधानी गैरसैंण को  बनाये जाने का चिंतन अथवा जन सरोकारों को लेकर कोई और मुददा. वे आजीवन संघर्षरत रहे. इसे विडम्बना ही कहा जाएगा कि जिस देशभक्त को भारत रत्न से नवाजा जाना चाहिए था, जिनके नाम पर पुरस्कार की घोषणा होनी चाहिए थी. उस वीर सेनानी को कोई पदम् पुरस्कार तक भी नहीं दिया गया.  
                                         साभार- महीपाल सिंह नेगी के आलेख  "गढ़वाली सीज फायर"  के सम्पादित अंश

Monday, April 16, 2012

शौर्य व स्वाभिमान के पर्याय थे महाराणा प्रताप-(3)

महाराणा प्रताप      छाया - साभार गूगल
यात्रा संस्मरण (पिछले अंक से जारी.....)
                      अकबर को उम्मीद थी कि हल्दीघाटी में प्रताप पर जीत आसानी से मिल जाएगी किन्तु विशाल सेना  व अस्त्र-शस्त्र होते हुए भी  मुगलों को मुंह की खानी पड़ी. असफल होने पर अकबर के अहं को बड़ा धक्का लगा. मान सिंह के लौट जाने के बाद अकबर ने अपने विश्वसनीय क़ुतुबुद्दीन मोहम्मद खां को आदेश दिया कि वे प्रताप को कैद करें या मार डालें. किन्तु प्रताप ने पर्वतीय क्षेत्र में जिस प्रकार अपनी स्थिति मजबूत कर ली थी उससे क़ुतुबुद्दीन को भी पराजित होकर लौटना पड़ा. हल्दीघाटी युद्ध के बाद कोल्यारी गाँव के निकट कमलनाथ पर्वत पर स्थित आवरगढ़ में प्रताप ने अस्थाई राजधानी बनाई. (आज भी यहाँ पर खंडहर दिखाई देते हैं) प्रताप ने गोगुन्दा पर पुनः अपना अधिकार कायम किया और कून्पावत को वहां का शासक तैनात कर लिया. गोगुन्दा के पास रणेराव के तालाब पर राणा ने सैनिक छावनी बनाई जहाँ से मैदानी भागों में भेजकर मुग़ल सैनिकों की चौकियों को ध्वस्त कर सैनिकों को मार भगाया. फिर कुम्भलगढ़ किले को ठिकाना बनाकर किले को मजबूती दी तथा मेहता नरबद को किलेदार नियुक्त किया. तीन महीनों से अधिक समय तक प्रताप निरंतर डूंगरपुर, बांसवाडा, सिरोही, जालोर, मारवाड़, बूंदी, ईडर अदि के शासकों से सम्बन्ध कायम करते रहे व उन्हें मुगलों के विरोध के लिए प्रेरित करते रहे. मारवाड़ के राव चन्द्रसेन, ईडर के नारायणदास और सिरोही के राव सुरताण और बूंदी के राव दूदा  ने भी मुग़ल विरोधी अभियान में प्रताप का साथ दिया. हिन्दू राजा ही नहीं अपितु मुस्लिम शासक भी प्रताप के साथ खड़े  हुए. जालौर का नवाब ताजखां अरावली पहाड़ी के दोनों ओर लूटपाट व फसाद कर अकबर के स्थानीय सामंतों को तंग करने लगा था. प्रताप ने मेवाड़ में स्पष्ट आदेश कर दिया था कि कोई भी किसान खेती कर शाही थानेदारों को लगान न दें. जिससे काफी
प्रताप के विश्वासनीय भामाशाह
कृषक मेवाड़ छोड़कर चले गए और शाही सेना भूखों मरने लगी.
                      प्रताप और मेवाड़ अकबर के लिए नाक का सवाल हो गया था. 12 अक्टूबर 1576 को अजमेर से प्रस्थान से पूर्व उसने प्रताप के सहयोगी शासकों को समाप्त करने के लिए तरसुन खां, राम सिंह, सैयद हासिम बरहा, क़ुतुबुद्दीन मोहम्मद खां,  कुल्तज खां, आसफ खां, भगवान दास आदि के नेतृत्व में अलग अलग सेनाएं भेजी. और अकबर स्वयं माण्डलगढ़, देवलगढ़, मदरिया होते हुए मोही पहुंचा. राणा को सूचना मिलने पर वे ईडर के दक्षिणी क्षेत्र में जा डटे. नारायण दास व प्रताप ने मुगलों का डट कर मुकाबला किया और उमरखां और हसनबहादुर को मार गिराया. अंततः लम्बे युद्ध के बाद 23 फरबरी 1577 को मुग़ल सेना ने ईडर पर जीत हासिल कर दी. अकबर ने सैकड़ों घुड़सवारों को प्रत्येक थाने पर नियुक्त कर लिया और स्वयं हल्दीघाटी होते हुए उदयपुर पहुंचा. हजारों सैनिकों, घुड़सवारों को दर्जनों सेनानायकों के साथ जगह-जगह भेजा कि प्रताप को जैसे भी हो पकड़ा जाये. दो महीने तक अकबर उदयपुर में जमा रहा किन्तु राणा न पकड़ा गया न मारा ही गया. हाँ, प्रताप के अनेक सहयोगी शासकों को हराने या मारने में मुग़ल सेना कामयाब जरूर हुयी.  इस बीच राणा ने मुग़ल सैनिको को मार भगा कर गोगुन्दा पर पुनः विजय प्राप्त कर ली. हताश होकर 12 मई 1577 को अकबर वापस फतेहपुर सीकरी लौट आया. अकबर के लौटते ही राणा ने उदयपुर को छोड़कर सभी रियासतों  को पुनः जीत लिया.

प्रताप के लिए हथियार तैयार करते भील
                       दोबारा शर्मनाक हार के बाद अकबर ने फिर कुंवर मान सिंह, राजा भगवंतदास, सैयद कासिम, सैयद हाशिम, सैयदराजू, असद तुर्कमान, पायंदखां आदि वीर व स्वामिभक्त नायकों के साथ मीर बक्शी शाहबाजखां के नेतृत्व में एक विशाल सेना 15 अक्टूबर 1577 मेवाड़ भेजी. जिन्होंने  मेवाड़ के सैनिकों से थाने छीनकर अपने सैनिक तैनात कर दिए. भोमट के घने जंगलों व गोगुन्दा क्षेत्र में चारों ओर हजारों मुग़ल सैनिक छा गए. कुम्भलगढ़ को घेरकर संघर्ष के बाद 03 अप्रैल 1578 को मुगलों ने किले पर अधिकार कर लिया. किन्तु राणा पहले ही खजाना व रसद लेकर ससैन्य निकल गया था. जिससे मुगलों को अत्यंत निराशा हुयी. लगभग आठ महीने तक शाहबाजखां मेवाड़ में रहा और पचास से अधिक थानों पर अपने सैनिक तैनात किये किन्तु प्रताप को न पाकर वह वापस लौट गया. विषम व विकट परिस्थितियों  के कारण मुगलों की सेना को राणा की सेना की अपेक्षा जान-माल की अधिक हानि हुयी. मुगलों के लौटते ही प्रताप ने सभी थानों पर अपना अधिकार कर लिया. प्रताप के मंत्री भामाशाह व उनके भाई ताराचंद ने मालवा जाकर शाही सेना से मारकाट कर पच्चीस लाख व दो हजार अशर्फियाँ इकट्ठी की जो उन्होंने राणा को समर्पित की. प्राप्त धन से राणा ने सैनिक शक्ति बढाई. राणा ने अब मेवाड़ के दक्षिण पश्चिम के छप्पन भूभाग को अपना केंद्र बनाया. क्योंकि यह क्षेत्र कृषि व व्यापार की दृष्टि से उत्तम ही नहीं अपितु सामरिक दृष्टि से भी ज्यादा सुरक्षित था.
         
बादशाह अकबर  छाया-साभार गूगल 
                  मेवाड़ के समाचार जब अकबर को मिले तो प्रताप के दमन के लिए विपुल धनराशी देकर शाहबाजखां को पंजाब से अजमेर भेजा. जहाँ से वह दोबारा 15 दिसम्बर 1578 को शेख तिमूरबख्शी, मुहम्मद हुसैन, मीरजादा, गाजीखां, अलीखां आदि सेनानायकों को लेकर विशाल सेना सहित मेवाड़ पहुंचा. राणा फिर भी मुग़ल सेना के  हाथ नहीं आया अपितु राणा का  गुरिल्ला युद्ध जारी रहा. राजपूतों व भीलों के अचानक आक्रमण से त्रस्त होकर शाहबाजखां 1579 मध्य में वापस लौट गया. राणा ने स्वभूमिध्वंस नीति अपनाकर मुग़ल थानों के आसपास की भूमि पर किसानों को अन्न उगाने के लिए मना कर दिया. जिससे मुग़ल सैनिक भूखों मरने लगे. छापामार युद्ध के कारण सूरत के बंदरगाह से फारस की खाड़ी व यूरोप में होने वाला मुगलों का व्यापार ठप पड़ने लगा. लूटे हुए धन से राणा की स्थिति मजबूत होती गयी और वह शाही थानों को एक के बाद एक नष्ट करने लगा.
                    मेवाड़ व प्रताप अकबर के लिए साम्राज्य की प्रतिष्ठा का सवाल बन गया. मेवाड़ पर काफी हद तक प्रताप का अधिपत्य होने व व्यापार ठप होने से अकबर ने को 9 नवम्बर 1579 को शाहबाजखां को तीसरी बार मेवाड़ भेजा. परन्तु हर बार की तरह वह थानों चौकियों पर मुग़ल सैनिकों को तैनात करने व जगह जगह लूटपाट करने के अलावा कुछ न कर सका. प्रताप अविजेय ही रहा और हताश होकर शाहबाजखां मई 1580 को वापस लौट गया. बार बार असफल होने के बावजूद मेवाड़ पर आधिपत्य का सपना पूरा करने के लिए अकबर ने एक बार 1580 अंत में अब्दुर्ररहीम खानखाना तथा दिसम्बर 1584 में जगन्नाथ कछ्वावा को मेवाड़ भेजा. किन्तु वे भी असफल रहे. मेवाड़ पर बार-बार आक्रमण से मुगलों को जन-धन की भारी हानि उठानी पड़ी, जिससे अकबर ने अप्रत्यक्ष रूप में प्रताप से पराजय मान ली व मेवाड़ को अपने हाल पर छोड़ते हुए सन 1585  के बाद सभी सैनिक अभियान बंद कर दिए. अकबर पश्चिमोत्तर की समस्या से उलझ गया और विशाल मुग़ल सेना लेकर वह तेरह वर्षों तक लाहोर में ही रहा. जिससे प्रताप इन वर्षों में अपने राज्याभिषेक के समय प्राप्त मेवाड़ के सभी क्षेत्रों को पुनः मुगलों से वापस जीतने में सफल हो सका.
                                                                                                                           शेष अगले अंक में......... 
(सामग्री स्रोत साभार- युगपुरुष महाराणा प्रताप-मोहन श्रीमाली व एस० पी० जैन, Mewar & Welcome to Rajsthan-  Rajsthan Tourism's Magazines तथा रजवाड़ा -देवेश दास आदि  पुस्तक)

Wednesday, April 11, 2012

शौर्य व स्वाभिमान के पर्याय थे महाराणा प्रताप-(2)

यात्रा संस्मरण (पिछले अंक से जारी .......)
प्रताप की कृपाण  के वार से बचता हुआ मान सिंह
                     फरवरी 28, 1572  को गोगून्दा में महाराणा उदय सिंह की मृत्यु हुयी, दाहसंस्कार के समय सभी पुत्र उपस्थित थे, किन्तु जगमाल नहीं था. मेवाड़ की परंपरा थी कि राज्य का उत्तराधिकारी दाहसंस्कार में शामिल नहीं होता था. पूछने पर दूसरे पुत्र सगर ने बताया कि महाराणा ने जगमाल को राजा बनाने का ऐलान किया है. प्रताप सबसे बड़ी महारानी के ज्येष्ठ पुत्र थे. किन्तु महाराणा उदय सिंह युवा रानी भट्याणी  के मोह में पड़कर उसके पुत्र जगमाल को राजा बनाना चाहते थे. सभी सरदार व सामंत सुनकर हतप्रभ रह गए. सरदार अक्षयराज सोनगरा ने रावत कृष्णदास व रावत सांगा के सामने रोष व्यक्त किया. सभी सरदारों ने मिलकर जगमाल को गद्दी से उतारकर प्रताप को गद्दी पर बिठाया. जगमाल यह अपमान बर्दाश्त न कर सका और मुगलों की सेना में शामिल हो गया. गोगून्दा में गद्दी पर बैठने के बाद प्रताप कुम्भलगढ़ आ गए जहाँ उनका विधिवत राजतिलक हुआ.(समुद्रतल से 1100 मीटर ऊँचाई पर स्थित यह विशाल किला चौदवीं शताब्दी में राणा कुम्भा द्वारा बनवाया गया था.)
शक्ति सिंह, झालामान व भामा शाह - प्रताप स्मारक, हल्दीघाटी.
                  आज सैकड़ों वर्ष बाद भी प्रताप की ख्याति पूरे विश्व में है  उसका कारण है भारतवर्ष के तत्कालीन सबसे ताकतवर साम्राज्य से लोहा लेना, उसके विरुद्ध डट कर  मुकाबला करना. ऐसे समय में जब भारतीय उप महाद्वीप में प्रायः सभी छोटी-बड़ी रियासतों के बुर्ज पर मुग़ल सल्तनत की पताका लहरा रही थी या जलालुद्दीन अकबर की विध्वंसकारी नीति के तहत विरोध करने वाली रियासत/राज्य को नेस्तनाबूद किया जाता था.  उस समय प्रताप का अकबर के सामने सर न झुकाने का प्रण और अंतिम सांस तक अपने स्वाभिमान व स्वतंत्रता की रक्षा करना, ऐसी बातें हैं जो प्रताप को महान बनाती है.           
            चित्तौडगढ़ में असफल होने पर अकबर ने प्रताप के पास अपने राजदूत कई बार इस आशय से भेजे कि वे अकबर की अधीनता स्वीकार कर लें जिससे रक्तपात से बचा जा सके. किन्तु अकबर ने चित्तौडगढ़ किले को  हथियाने के बाद किले को नष्ट किया व सैनिकों के साथ साथ निर्दोष व निहत्थे नागरिकों को जिस क्रूरता से मरवाया उससे प्रताप व उनके सहयोगियों के मन में अकबर के प्रति अत्यन्त घृणा पैदा हो गयी थी. सब तरफ से असफल होने पर अकबर ने प्रताप को उन्ही के गढ़ में घेरने की योजना बनाई. मार्च 1576 को अकबर अजमेर पहुँचा. मेवाड़ पर आक्रमण के लिए आमेर के कुंवर मान सिंह को सेनापति बनाया गया. मान सिंह यद्यपि योग्य, बुद्धिमान, साहसी व वीर था किन्तु गैर मुस्लिम मान सिंह की सेनापति के रूप में नियुक्ति के पीछे अकबर की कूटनीति थी  कि एक  राजपूत के विरुद्ध राजपूत भेजने से प्रताप ज्यादा समय तक अपने को नहीं रोक पायेगा और आमने सामने की लड़ाई में अकबर की विशाल सेना के समक्ष प्रताप मारा जाएगा या कैद कर लिया जायेगा. मान सिंह की नियुक्ति से अकबर के मुस्लिम सेनापतियों में नाराजगी होगी, अकबर यह भली भांति जानता था. इसीलिए अकबर ने यह घोषणा फतेहपुर सीकरी के बजाय अजमेर से की. विशाल सेना के साथ मान सिंह अप्रैल 03, 1576  को अजमेर से चला, लेकिन मांडलगढ़ पहुंचकर दो माह तक रुका रहा. कि सेना पूरी तरह पहुँच जाय और आवागमन के मार्ग सुरक्षित हो जाय. दूसरी यह उम्मीद थी कि हो सकता है विशाल शाही सेना को देखकर प्रताप की ओर से संधि का ही प्रस्ताव आ जाय. मान सिंह के मांडलगढ़   पहुँचने का समाचार सुनकर प्रताप भी कुम्भलगढ़ से गोगूंदा आ गए. सभी सामंतो व सरदारों के साथ परामर्श कर यह तय हुआ कि मान सिंह का
चेतक स्मारक - बालची, हल्दीघाटी 
मुकाबला मांडलगढ़ में नहीं अपितु पहाड़ों की  ओट से छुपकर ही किया जाय. क्योंकि मांडलगढ़  सीधे अजमेर मार्ग पर है जहाँ से और भी शाही सेना पहुँच सकती है. (एक दिन मान सिंह अपने थोड़े से सैनिको के साथ शिकार पर गया. प्रताप को खबर मिली तो कुछ सरदार मान सिंह को वहीँ घेर कर मारने की सोचने लगे. किन्तु सादड़ी के सरदार झालामान ने कहा कि शत्रु को धोखे से मारना क्षत्रियों की परंपरा नहीं है जिससे प्रताप भी सहमत थे)                                           
                       28 जून 1576 (संभवतः 18 जून) को हल्दीघाटी युद्ध में शाही सेना और प्रताप की सेना में घमासान युद्ध हुआ. शाही सेना में जहां हल्का आधुनिक तोपखाना था वहीँ राणा की सैनिकों के मुख्य हथियार भाले, छोटी तलवारें, धनुष वाण व गोफन (गुलेल) थे. यह अद्भुत संयोग था कि शाही सेना के अग्रिम दल में जगन्नाथ के नेतृत्व में राजपूत सैनिक थे. वहीँ महाराणा के अग्रिम दल में हकीमखां सूर के नेतृत्व में मुसलमान पठान सैनिक थे. महाराणा की सेना ने जहां मोर्चा संभाला था वह सामरिक दृष्टि से उपयुक्त था. वहां तक पहुँचने के लिए दो मील का पहाड़ी तंग रास्ता पार करना होता था जिससे एक बार में एक घुड़सवार बड़ी कठिनाई से निकल सकता था. चारों ओर की पहाड़ियों पर ऐसी घेरेबंदी की जा सकती थी कि मुट्ठी भर सैनिक ही सैकड़ों सैनिकों के आक्रमण को रोकने में समर्थ थे. आसपास के जंगलों से प्रताप के सैनिक भली भांति परिचत थे. अपरिचित शत्रु सैनिक रास्ता भटकने पर या तो जान गँवा देते या भूखों मरते. प्रताप की सेना की एक विशेषता यह भी रही कि उन्होंने मुग़ल सेना को बादशाह बाग़ से निकलकर रक्त तलाई के मैदान तक आने को वाध्य किया. 
                       पहल प्रताप ने की. सबसे पहले मेवाड़ की पताका लेकर एक हाथी हल्दीघाटी से निकला. उसके पीछे हकीमखां सूर के नेतृत्व में राणा का अग्रिम दल तथा फिर राणा व मुख्य सेना. राणा के पास वही अरबी नस्ल का सुन्दर व ऊंची कद काठी का सफ़ेद घोड़ा चेतक था जो उनके साथ कई युद्धभूमि में वीरतापूर्वक रह चुका था. तुरही की तूती, नगाड़ों की नाद और चारणों के वीर रस के गीतों ने सैनिकों का उत्साह दुगुना कर दिया. दोपहर तक दोनों ओर से डटकर मुकाबला हुआ. सैयद हाशिम के नेतृत्व में 80 वीर तथा जगन्नाथ व आसफ खां के नेतृत्व में आया दल राणा के सैनिकों ने मार भगाया. एक पहर से अधिक समय बीत चुका था. युद्ध में प्रताप का मुख्य लक्ष्य मान सिंह को मार गिराना था. मुग़ल सैनिकों को मार गिरते हुए प्रताप मान सिंह की ओर बढा. प्रताप ने चेतक से मान सिंह की ओर ऊंची छलांग लगवाकर कहा "मान सिंह ! तुझसे जहाँ तक हो सके बहादुरी दिखा, प्रताप आ गया."  किन्तु मान सिंह ने फुर्ती से झुककर अपनी जान बचा ली और प्रताप का शक्तिशाली बरछा महावत के शरीर को फाड़ता हुआ हौदे में जा लगा. चेतक के दोनों पैर मान सिंह के हाथी के सर पर लगे परन्तु हाथी के सूंड पर जो तलवार बंधी थी उससे चेतक का पिछला एक पैर कट गया. प्रताप तब यह नहीं देख पाए थे. मान सिंह पर हमला होते देख मुग़ल सेना ने बहलोल खां के नेतृत्व में प्रताप को चारों ओर से घेरकर हमला बोल दिया. प्रताप के एक ही वार से बहलोल खां की गर्दन रणभूमि में जा गिरी तथा वीरतापूर्वक मुग़ल सेना का कत्लेआम करते रहे. इधर चेतक अपने तीन पैरों पर ही खड़े होकर शिद्दत के साथ प्रताप का साथ दे रहा था और उधर प्रताप बुरी तरह घायल होने के बावजूद युद्धभूमि में डटे हुए थे. जनश्रुति है कि चेतक ज्यादा ही लड़खड़ाने लगा था और घायल प्रताप शाही सेना से बुरी तरह घिर गए थे. ऐसे समय में बड़ी सादड़ी के सरदार झाला मान ने मेवाड़ के सच्चे सपूत होने का परिचय देते हुए प्रताप से मेवाड़ के राजचिन्ह बलपूर्वक लेकर स्वयं धारण कर लिया और उन्हें वहां से चले जाने को विवश कर दिया. झाला मान वीरतापूर्वक लड़ते हुए मुग़ल सेना को युद्धभूमि से काफी दूर तक धकेलते हुए  ले गए और वीरगति को प्राप्त हुए.  (हल्दीघाटी का मानातालाब आज उस वीर की शहादत याद दिलाता है.)  उधर पैर कटने के बावजूद स्वामिभक्त चेतक घायल महाराणा को दो मील दूर बलीचा गाँव के पास ले आया. जहाँ पर चेतक ने कूदकर इक्कीस फिट चौड़ी खाई पार की और मृत्यु वरण कर इतिहास में अमर हो गया. कहते हैं मुगलों की सेना में शामिल प्रताप का भाई जगमाल, जो शक्ति सिंह के नाम से जाना जाता था, यह सब देख रहा था. चेतक की स्वामीभक्ति से उतना प्रभावित हुआ कि वह अपने को धिक्कारने लगा 'चेतक एक पशु होकर भी मेवाड़ की रक्षा के लिए इतना समर्पित और मै....?' वह प्रताप के पीछे भागा, चेतक की मौत जहाँ हुयी वहां प्रताप के गले मिलकर रोया, प्रताप को अपना घोड़ा देकर उनसे मेवाड़ की रक्षा हेतु बचकर निकल भागने को कहा और स्वयं अंतिम सांस तक मुग़ल  सिफहियों को रोके रखा.
                 इतिहासकार अल बदायुनी ने लिखा है कि शाही सेना पहले हमले में ही भाग निकली थी और बनास नदी को पार कर पांच-छः कोस तक भागती रही. 'अकबरनामा' में अबुल फजल ने लिखा है कि यह राणा की जीत थी. किन्तु एकाएक खबर फैली कि बादशाह स्वयं आ पहुंचा हैं. इससे शाही सेना की हिम्मत बढ़ गयी और राणा की सेना बिखर गयी. दोपहर तक चले इस युद्ध में लगभग पांच सौ सिपाही युद्धभूमि में मारे गए. जिनमे 128 मुसलमान व 300 हिन्दू और 300 से अधिक मुसलमान घायल हुए. 
                   इतिहासकार मानते हैं कि महाराणा प्रताप से इस युद्ध में कुछ चूक हुयी है. पहली यह कि राणा को
चेतक गाथा -बालची, हल्दीघाटी 
चाहिए था कि अपनी सेना को इस प्रकार अलग अलग स्थानों पर तैनात करते कि शत्रु घाटी में आने के लालच में फंस जाता और उसका संहार करते. दूसरी, मुग़ल सेना के पीछे हटने पर राणा को पूरी सेना लेकर मैदान में नहीं दौड़ जाना चाहिए था. तीसरे, युद्ध के बाद राणा अपनी सेना पर व्यवस्था बनाने में नाकाम रहे. फिर भी राणा अपनी  बुद्धि व विवेक का संतुलन बनाये रखकर और युद्धभूमि से दूर भागकर मेवाड़ की अधिक सेवा कर सके अन्यथा पकड़े या मारे जाने पर मेवाड़ की पताका उसी दिन धूल में मिल जाती. हल्दीघाटी का युद्ध समाप्त हुआ किन्तु संघर्ष नहीं. प्रताप का यश इतना फैला कि भारत के हर प्रदेश में लोग हल्दीघाटी के किस्से कहानियां बड़े चाव से सुनते और सुनाते. ये किस्से स्वतंत्रता के लिए जगह जगह लड़ रहे सैनिकों में जोश भर देते. प्रताप सकुशल कोल्यारी पहुंचे जहाँ उन्होंने घायलों के उपचार की व्यवस्था की. इस युद्ध ने प्रताप को हताशा के अँधेरी खाईयों में नहीं धकेला अपितु उनके इरादों को और भी मजबूती दी. एक शक्तिशाली सम्राट के विरुद्ध युद्ध करने और एक सीमा तक विजयी होने से उनके अन्दर आत्मविश्वास भर गया. उन्होंने इस संग्राम को जारी रखने और मुगलों के चुंगल से मेवाड़ के क्षेत्रों को वापस  छीनने का संकल्प लिया. प्रताप ने निश्चय किया कि भविष्य में वह मुगलों पर खुले मैदान में सामने से आक्रमण नहीं करेंगे. वह इस प्रदेश की भौगोलिक बनावट व उसके निवासियों के अनुकूल गुरिल्ला युद्ध जारी  रखेंगे.  
                                                                                                                अगले अंक में जारी  -------
(सामग्री स्रोत साभार- Manorama Yearbook1988&2009, युगपुरुष महाराणा प्रताप-मोहन श्रीमाली व एस० पी० जैन, Mewar & Welcome to Rajsthan-  Rajsthan Tourism's Magazines तथा रजवाड़ा -देवेश दास आदि  पुस्तक)

Saturday, April 07, 2012

शौर्य व स्वाभिमान के पर्याय थे महाराणा प्रताप- (1)


 यात्रा संस्मरण 
महाराणा प्रताप की विशाल कांस्य प्रतिमा - मोती मगरी, उदयपुर 
               उत्तराखण्ड आन्दोलन के दौरान बालाघाट (म० प्र०) से भाई आनन्द बिल्थरे जी ने प्रकाशनार्थ एक कविता प्रेषित की थी; "  पहाड़ पुत्रों !/ अगर सचमुच ही / उत्तराखण्ड चाहते हो तो / प्रताप बनना सीखो / पत्तल पर खाओ /धरती पर सोओ /अकबर मान सिंह के / भय उत्कोच से बचो / अगर तुम इतना कर सको / तो शक्ति, झाला, भामाशाह जैसे / कई तुम्हारे पीछे / कतार बान्धे खड़े होंगे /....."  कविता एक चुनौती थी, एक आह्वाहन. कविता प्रकाशित की गयी. मैंने कविता पोस्टर भी तैयार किया. नहीं जानता कितने प्रताप तैयार हुए. किन्तु प्रताप, शक्ति, झाला मानसिंह व भामाशाह जैसे इन ऐतिहासिक नायकों के बारे में जानने की उत्कंठा अवश्य जाग्रत हुयी. ह्रदय उस वीर महाराणा प्रताप की धरती की माटी को माथे से लगाने के लिए लालायित हो उठा. अवसर मिला और मैंने पत्नी के साथ मेवाड़  के लिए प्रस्थान किया.सुबह सात बजे ही उदयपुर पहुँच गए. छोटी-छोटी रियासतों, छोटे-छोटे रजवाड़ों में बंटा राजस्थान अपनी राजपूतानी शान के लिए विख्यात है. जब-जब आक्रमणकारियों ने राजस्थान के किसी भी भूभाग को हस्तगत करने की कोशीश की या तो उन्हें पराजय का मुंह देखना पड़ा या फिर बहुत कड़ा संघर्ष- जिसमे उन्हें भारी जन-धन की हानि उठानी पड़ी. और वे लम्बे समय तक उस पर अपना अधिकार बनाये रखने में कभी सफल नहीं हो पाए. होटल लिया और फ्रेश होने के बाद वर्षों से हिंदी साहित्य के ध्वजवाहक उदयपुर निवासी भाई दर्शन सिंह रावत जी को फोन किया. निश्छल और सरल ह्रदय के रावत जी तुरंत भागे हुए आ गए. रविवार का दिन था और उन्होंने पूरा दिन हमारे नाम कर दिया. "...मेवाड़ घूमना था तो पहले चित्तौड़गढ़ से शुरुआत करनी चाहिए थी. परन्तु जब आ ही गए तो उदयपुर से ही शुरू किया जा सकता है..."   ऐसा उन्होंने कहा. दिन भर उदयपुर के पिछोला झील, फतहसागर, नेहरुपार्क, मोतीमगरी, सहेलियों की बाड़ी, भारतीय लोक कला मंडल आदि  लगभग सभी ऐतिहासिक व दर्शनीय स्थलों की सैर करते रहे.एक ज्ञानी पुरुष साथ थे वे भूगोल ही नहीं इतिहास की बारीकियां भी समझाते रहे. शाम को हिरणमगरी में उनके ही आवास पर उनके साथ भोजन लेकर उनका धन्यवाद करते हुए विदा ली. दूसरे दिन हम पति-पत्नी ही टैक्सी लेकर जग मंदिर, नीमचमाता मंदिर, सज्जनगढ़ आदि जगहों पर घूमते रहे. और तीसरे दिन चल पड़े नाथद्वारा.
        उदयपुर से लगभग 44 कि०मी० उत्तर में अहमदाबाद-अजमेर राष्ट्रीय राजमार्ग पर नाथद्वारा एक छोटा सा क़स्बा है. विख्यात श्रीनाथजी मंदिर राजस्थान के धनी मंदिरों में शुमार है. यहाँ पर विष्णु व कृष्ण की पूजा समभाव से की जाती है. ऐसा माना जाता है कि औरंगजेब ने अपने साम्राज्य के अन्दर समस्त मंदिरों को नष्ट करने का फरमान सुनाया. तब मेवाड़ के महाराणा ने कृष्ण जन्मभूमि मथुरा से श्रीनाथजी नाम से एक मूर्ती लाकर सन 1691 में यहाँ मंदिर का निर्माण करवाया. ताकि भगवान के अस्तित्व को औरंगजेब की कुदृष्टि से बचाया जा सके. (दन्त कथा यह भी है कि महाराणा मथुरा से मूर्ती लेकर जब यहाँ से गुजर रहे थे तो रथ का पहिया लालबाग के निकट स्थित सिहड़ नामक गाँव में कीचड में धंस गया. जिससे भक्तों में यह विश्वास हुआ कि भगवान यहीं पर निवास करना चाहते हैं) नाथद्वारा में समस्त व्यापार श्रीनाथ जी के इर्द गिर्द है - भक्ति संगीत युक्त वीडिओ व ऑडियो सी डी, पोर्ट्रेट, चांदी व धातु से बनी मूर्तियाँ, मालाएं आदि सभी कुछ. 
            


मोतीमगरी से फतह सागर झील - उदयप
राजनीतिक आधार पर आज राजस्थान भले ही बत्तीस जिलों में विभक्त हो किन्तु उसकी भौगोलिकता, वानस्पतिकता व पर्यावरणीय विभिन्नता के आधार पर उसे मुख्यतः छः भागों में बांटा जा सकता है. पश्चिमी उष्ण (रेगिस्तानी) क्षेत्र, समशीतोष्ण क्षेत्र, दक्षिण-पूर्वी क्षेत्र, पूर्वी क्षेत्र, चम्बल के दर्रे वाला क्षेत्र तथा अरावली क्षेत्र. राजस्थान के दक्षिण मध्य में अरावली पहाड़ियों से घिरा अधिकांश भूभाग मेवाड़ की भूमि ही है. छोटी बड़ी अनेक पहाड़ियों से घिरा हुआ, सुन्दर नीली झीलों व संकरे दर्रों का नाम ही मेवाड़ नहीं अपितु यहाँ ग्रेनाईट, क्वार्टज़, बसाल्ट, जिप्सम, मार्बल, संगमूसा, माइका , रॉक फास्फेट आदि खनिज पदार्थों के साथ सीसा, चांदी जैसी बहुमूल्य धातुओं के खानों की प्रचुरता है. साथ ही इमली, सागौन, गूलर, महुआ, जामुन, खेजडा, सेमल, खजूर आदि उपयोगी वृक्ष बहुतायत में है.

मेवाड़ अपनी ऐतिहासिक राजसी विरासत का प्रतीक भी है. गत चार सौ वर्षों से अधिक समय से जिसकी यश पताका लहरा रही हो ऐसे प्रातः स्मरणीय वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप की जन्म और कर्मभूमि है मेवाड़. वर्तमान मेवाड़ में उदयपुर, चित्तौडगढ़, भीलवाड़ा, राजसमन्द जिले के अतिरिक्त पाली व सिरोही जिले का दक्षिण-पूर्वी  तथा डूंगरपुर व बांसवाडा जिले का उत्तरी भाग आता है. किन्तु इतिहास साक्षी है कि मेवाड़ राज्य की सीमा वहां के राजाओं की स्थिति के अनुसार बदलती रही है.
 मेवाड़ का अधिकाँश भूभाग अरावली श्रेणियों से आबद्ध है. अरावली की विशेषता यह है कि इसमें एक ओर 3568 फीट ऊंचा कुम्भलगढ़ व 4315 फीट ऊंचा जरगा जैसी पहाड़ियां हैं तो वहीँ दूसरी ओर गहरे, पतले व तंग मार्ग भी हैं जिन्हें नाल कहा जाता है. व्यापार व यातायात की दृष्टि से ही नहीं अपितु ये नाल सामरिक दृष्टि से भी उपयोगी साबित हुए हैं.  सिपाहियों की तैनाती के साथ इनमे
जगह जगह चौकियां भी स्थापित की जाती रही है. अरावली के मध्य कई  नदी नाले भी बहते हैं जो मेवाड़ के मध्य भाग को उपजाऊ बनाते हैं. दक्षिण में डूंगरपुर की सीमा से पश्चिम में सिरोही की सीमा तक का पूरा हिस्सा 'मगरे' के नाम से जाना जाता है वहीँ मेवाड़ के उत्तरपूर्व में उभरा हुआ क्षेत्र 'उपरमाल' कहा जाता है. बिजोलिया, माण्डलगढ़, भैंसरोगढ़, मैनाल व जहाजपुर कस्बे इसी क्षेत्र में है. मेवाड़ के दक्षिण में व्यापक विस्तार लिए अपेक्षाकृत कम ऊँचाई वाली वनाच्छादित पहाड़ियां है  'चाँवड़' जगह इन्ही पहाड़ियों में स्थित है. उत्तर में कुम्भल गढ़ के निकट उद्गम वाली बनास नदी मेवाड़ की मुख्य नदी है तथा बेड़च, कोठारी तथा मेनाल सहायक नदियां. बनास नदी के तट पर बसे "ख़मनौर" गाँव के पास ही हल्दीघाटी का ऐतिहासिक युद्ध लड़ा गया. (नाथद्वारा से लगभग 17 कि०मी० दूर अरावली पहाड़ियों के मध्य स्थित एक चौड़ा दर्रा ही हल्दीघाटी है, जो कि राजसमन्द व पाली जिले को आपस में जोडती है. इस क्षेत्र की मिटटी कुछ कुछ हल्दी का रंग लिए हुए है इसलिए यह हल्दीघाटी कहलाती है) जाखम व वाकल मेवाड़ के दक्षिणी भूभाग में बहने वाली बरसाती नदियाँ हैं. इसके अतिरिक्त पांच मुख्य झीलें व अनेक छोटे छोटे जलाशय हैं जो मेवाड़ की धरती को हरा भरा रखने में सहायक है.

चित्तौडगढ़ किले से शहर का दृश
वीर शिरोमणि प्रताप का जन्म मेवाड़ के तिरेपनवीं पीढ़ी के महाराणा उदय सिंह के ज्येष्ठ पुत्र के रूप में 09 मई 1540 रविवार को कुम्भलगेर में हुआ. वह अपने पिता के साथ हर अभियान व आखेट में भाग लिया करते थे. प्रताप धैर्यवान, गंभीर, सरल, वीर व शस्त्र परिचालन में निपुण थे. राजकीय मामलो में वे कई बार ऐसी सटीक सलाह देते कि महाराणा ही नहीं अपितु सभी दरबारी व सामंत भी सहज ही मान लेते. कुंवर रहते ही उन्होंने बागडिया चौहानों को पराजित कर लिया था, जिससे उनकी वीरता की ख्याति पूरे राज्य में फैली. शेरशाह के आक्रमण के बाद राजधानी चित्तौड़ से हटाकर अन्यत्र ले जाने के बावत सोचा जा रहा था क्योंकि शत्रुओं द्वारा घेरेबंदी किये जाने के बाद पहाड़ पर स्थित इस विशाल दुर्ग की सुरक्षा कठिन हो जाती थी. शत्रुओं द्वारा रास्ते बंद कर दिए जाते थे, रसद किले तक पहुँचाना दुष्कर हो जाता. 16  मार्च 1559 को प्रताप के ज्येष्ठ पुत्र अमर सिंह का जन्म होने पर महाराणा उदय सिंह ने किले में उत्सव मनाया व एकलिंग जी के दर्शनार्थ सभी सम्बन्धियों व सामंतो सहित वहां पहुंचे. पूजा अर्चना के बाद वे आहड़ गाँव की ओर शिकार करने गए. पहाड़ियों से घिरे इस सुरम्य स्थान को देखकर उन्होंने  राजधानी यहीं बनाने का निर्णय लिया. सन 1567  को किले में खबर पहुंची कि अकबर मेवाड़ पर चढ़ाई के इरादे से अपनी विशाल सेना सहित चित्तौरगढ़ पहुँच रहा है. अतीत और अनुभव के आधार पर सभी सामंतों व मंत्रियों ने तय किया कि अकबर की विशाल सेना का मुकाबला चित्तौड़ की छोटी सेना नहीं कर पायेगी. अतः महाराणा अपने पुत्रों, रानियों व खजाने के साथ मेवाड़ के दुर्गम क्षेत्र में चले जाए. महाराणा ने कहा कि सभी चले जाएँ किन्तु वे वहां पर डटे रहेंगे. प्रताप ने कहा कि वे ज्येष्ठ राजकुमार होने के नाते किले की रक्षा हेतु अकबर की सेना का मुकाबला करना चाहते हैं अतः महाराणा उदय सिंह का सुरक्षित चले जाना आवश्यक है जिससे कि किले के बाहर से युद्ध व मदद जारी रखी जा सके. परन्तु मेवाड़ के सभी सामंतो व सरदारों ने यह सलाह नहीं मानी. उन्होंने महाराणा उदय सिंह व प्रताप को सभी राजकुमारों व रानियों सहित चित्तौड़गढ़ छोड़ने को यह कह कर विवश कर दिया कि महाराणा रहेंगे तो सेनाएं फिर भी तैयार हो जायेगी. मर मार कर हमें बदला लेना होगा और वापस अपना राज्य भी. भरी मन से महाराणा उदय सिंह चित्तौड़ की रक्षा का भार जयमल सिंह के नेतृत्व में आठ हजार सैनिकों पर छोड़कर पहाड़ी क्षेत्रों में चले गए. राणा ने बाहर से गुरिल्ला युद्ध जारी रखा, किले के मार्ग को प्रशस्त रखने के लिए वे रात को मुग़ल सेना पर हमला बोलते और मार काट कर वापस पहाड़ियों में लौट जाते. अकबर स्वयं किले की घेरेबंदी में होने के बावजूद महाराणा उदय सिंह को पकड़ने या मारने के लिए अपने सेनापति हुसैन कुली खां को भी भेजा परन्तु कोई कामयाब नहीं हो पाया. हां, किले पर अवश्य फतह कर ली. 
                                                                                                                          अगले अंक में जारी  ..........
  (सामग्री स्रोतसाभार-Manorama Yearbook1988&2009, युगपुरुष महाराणा प्रताप-मोहन श्रीमाली व एस० पी० जैन, Mewar &Welcome to Rajsthan- Rajsthan Tourism's Magazines तथा रजवाड़ा-देवेश दास आदि  पुस्तक)


चित्तौड़ शहर से लगभग 180  फीट ऊँचाई पर त तथा 700 एकड़ क्षेत्र में फैला हुआ विशाल चित्तौडगढ़ किले का दृश्य