उत्तराखंड हिमालय ही नहीं अपितु हिंदी की साहित्यिक व सामाजिक सरोकारों वाली पत्र पत्रिकाओं से वास्ता रखने वाले ऐसे विरले ही होंगे जो बी0 मोहन नेगी जी की कला से वाकिफ न हो. सीधी व आड़ी - तिरछी रेखाओं और बिन्दुओं को अभिव्यक्ति का माध्यम बनाकर लगभग पिछले चार दशक से साधनारत है. प्राकृतिक सुषमा से परिवर्धित हिमालय का सम्मोहित करने वाला सौन्दर्य वर्णन हो या हिमालय वासियों की प्रकृति प्रदत्त सहजता, सरलता व निश्चलता हो या फिर अल्हड चंचल बालाओं का स्वाभाविक नख सिख वर्णन अथवा अभावग्रस्त नारी की पीड़ा हो सभी कुछ अभिव्यक्त हुआ है उनके चित्रशिल्प में.
जो कुछ सीखा प्रकृति के सानिद्ध्य में सीखा. स्कूल कालेज में इस तरह के प्रशिक्षण का सौभाग्य ही नहीं मिल पाया. नेगी जी वार्ता के दौरान कहते हैं "......... अभिभूत करने वाला हिमालय का यह सौन्दर्य स्वयं ही शिक्षक है और यही सौन्दर्य मेरी प्रेरणा को स्फुरित व अनुप्राणित करता है. हिमालय के पास हमें देने के लिए अपार सम्पदा है...."
और सच भी है हिमालय के सौन्दर्य पर मर मिटे थे प्रकृति के चितेरे कवि सुमित्रानंदन पन्त; "
छोड़ द्रुमों की मृदु छाया,
तोड़ प्रकृति से भी माया,
बाले ! तेरे बाल जाल में कैसे उलझा दूं लोचन, ......"
और अपने काफलपाकू कवि चन्द्र कुंवर बर्त्वाल ने लिखा है; "
जाने कितने प्रिय जीवन,
किये मैंने तुझको अर्पण,
माधुरी मेरे हिमगिरी की. ...."
यह नेगी जी का हिमालय प्रेम ही है कि देहरादून जन्मस्थली होने के बावजूद वे पौड़ी जाकर बस गए. रेखाओं द्वारा देवी, देवताओं के चित्र उकेरने का सिलसिला किशोरावस्था में शुरू हुआ जो शौक बन गया और फिर साधना. वे कब प्रकृति के मोहपाश में बन्ध गए समझ ही नहीं पाए. जब भान हुआ तो प्रकृति उनकी सहचरी बन चुकी थी. अपने मित्रों के सहयोग से सन 1984 में गोपेश्वर में जब पहली कविता पोस्टर की प्रदर्शनी लगाई तो दर्शक दंग रह गए. सब वाह-वाह कह उठे. तब से उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा. देश के विभिन्न नगरों, महानगरों में अपनी चित्रकला की प्रदर्शनी लगा ख्याति अर्जित कर चुके हैं
परन्तु आज भी चरैवैती, चरैवैती उनका मूल मंत्र है. ऐसा भी नहीं कि नेगी जी ने चित्रकला को धनोपार्जन का साधन बनाया हो. कहते हैं, " जिसमे लालच हो, स्वार्थ हो वह कला कैसी ? कला तो ईश्वर को समर्पित की जानी चाहिए. आजीविका के लिए नौकरी ही काफी है. ......" सच भी है उनसे पत्र या फोन द्वारा निवेदन किया जाय कि इस प्रयोजन हेतु कुछ चित्रों की आवश्यकता है तो मैं समझता हूँ उन्होंने 'ना' कदाचित ही किसी को किया हो.
नेगी जी जितने बड़े चित्रशिल्पी हैं उतने ही सरल, मृदुभाषी व व्यवहार कुशल. उनकी स्निग्ध मुस्कान बरबस आकर्षित करती है. आत्मीयता इतनी कि पौड़ी जाना हो तो उनसे मिले बिना नहीं रहा जाता. और संभवतः इसीलिये उनके चाहने वालों की कतार बहुत लम्बी है.
बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी भाई नेगी जी की कला को शिल्प की दृष्टि से चार भागों में विभक्त किया जा सकता है, 1 - रेखाचित्र 2 - बिंदुओं (dots) द्वारा रेखाचित्र 3 - कविता पोस्टर और 4 - कोलाज
नेगी जी के शिल्प से परिचय अगले अंक से......
निसंदेह , अद्भुत चित्रकारी की मिसाल है। आभार श्री नेगी जी के परिचय का।
ReplyDeleteबहुत खूब, रावत जी ! मोहन नेगी जी की प्रतिभा को आम लोगो तक पहुंचाने के लिए आपका आभार !
ReplyDeleteNamaste Subhir ji...aapke blog k madyam se Mohan negi ji ke bare me jankar bahut acha laga...
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