बाबा मोहन उत्तराखण्डी
शहीद न होते तो क्या आज उत्तराखण्ड आन्दोलनकारियों को सरकारी नौकरी में
आरक्षण मिल पाता? नहीं न! न होते वे शहीद तो गैरसैण राजधानी को लेकर सरकार
पर इतना दबाव बना रहता? नहीं न! और हम इतने कृतघ्न हैं कि उनके शहीद दिवस
पर कहीं कोई सुगबुगाहट नहीं। उनकी न कोई मूर्ति, न उनके नाम से
विश्वविद्यालय, न चिकित्सालय, न पुस्तकालय, न कोई कॉलोनी, न स्कूल कॉलेज ही
और न कोई स्मारिका। कुछ भी तो नहीं। हम लगभग उनको भुला चुके हैं। एक
व्यक्ति गैरसैण राजधानी को लेकर अपना प्राणोत्सर्ग कर चुका है और हम हैं कि........।
कौन थे बाबा मोहन उत्तराखण्डी? जिला गढ़वाल के एकेश्वर ब्लॉक के बंठोली
गांव में सेना अधिकारी मनवर सिंह नेगी व सरोजनी देवी के पुत्र रूप में 3
दिसम्बर 1948 को जन्में मोहन सिंह नेगी एक जीवट, कर्मठ व दृढ़ इच्छाशक्ति
वाले व्यक्ति थे। प्रारम्भिक शिक्षा मैन्दाणी में और इंटर तक की पढ़ाई
दुगड्डा में करने के बाद 1969 में उन्होंने रेडियो आपरेटर ट्रेड में
आई०टी०आई० किया और 1970 में बंगाल इंजीनियर्स में भर्ती हो गये। सेना में
उनका ज्यादा दिन मन नहीं लगा और 1975 में फौज की नौकरी छोड़ गांव में खेती
बाड़ी से गुजारा करने लगे और साथ ही समाजसेवा भी। उनके व्यवहार व सामाजिक
दायित्वों के निर्वाहन में उनकी भूमिका देखकर वे 1983 से वे निरन्तर दो बार
ग्रामप्रधान रहे।
ग्रामप्रधानी के दौरान ही उनका जुड़ाव यू.के.डी. से हुआ तो फिर तो उनपर आन्दोलनों का जुनून सवार हो गया। उत्तराखण्ड आन्दोलन को लेकर 1994 में तीन सौ दिन का क्रमिक अनशन किया तो 1994 मुज्जफर काण्ड का उन्हें इतना आघात लगा कि दाढ़ी व बाल काटना ही छोड़ दिया, भरा-पूरा परिवार छोड़ दिया, गेरुआ वस्त्र पहनना व केवल एक बार भोजन करना शुरू किया और यहाँ तक कि अपना पूरा नाम ‘मोहन सिंह नेगी’ की जगह ‘बाबा मोहन उत्तराखण्डी’ लिखना शुरू किया। और यह जूनून उन पर अन्तिम समय तक सवार रहा जब तक वे गैरसैण राजधानी को लेकर आदिबद्री के निकट बेनीताल में टोपरी उड्यार में 02 जुलाई 2004 से अकेले ही अनिश्चितकालीन भूख हड़ताल पर नहीं बैठ गये। यहीं 39 दिन की भूख हड़ताल ने 9 अगस्त 2004 को उनकी जीवनलीला समाप्त कर दी।
उनकी शहादत की खबर सुनकर राज्यवासी आक्रोशित हो उठे, जगह-जगह आन्दोलन हुये और दस अगस्त 2004 को प्रदेश व्यापी हड़ताल व बन्द किया गया। उत्तराखण्ड सरकार ने ‘डेमेज कण्ट्रोल’ के लिए आनन-फानन में आन्दोलनकारियों के लिए आरक्षण की घोषणा कर दी और बाबा मोहन उत्तराखण्डी को भुला दिया गया। किसी शायर ने क्या खूब कहा है;
शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले,
वतन पर मरने वालों का यही बाकी निशां होगा।
(स्रोत साभार- एल.मोहन कोठियाल के लेख ‘जिसने गैरसैण के लिये जान दे दी थी.....’ के सम्पादित अंश)
ग्रामप्रधानी के दौरान ही उनका जुड़ाव यू.के.डी. से हुआ तो फिर तो उनपर आन्दोलनों का जुनून सवार हो गया। उत्तराखण्ड आन्दोलन को लेकर 1994 में तीन सौ दिन का क्रमिक अनशन किया तो 1994 मुज्जफर काण्ड का उन्हें इतना आघात लगा कि दाढ़ी व बाल काटना ही छोड़ दिया, भरा-पूरा परिवार छोड़ दिया, गेरुआ वस्त्र पहनना व केवल एक बार भोजन करना शुरू किया और यहाँ तक कि अपना पूरा नाम ‘मोहन सिंह नेगी’ की जगह ‘बाबा मोहन उत्तराखण्डी’ लिखना शुरू किया। और यह जूनून उन पर अन्तिम समय तक सवार रहा जब तक वे गैरसैण राजधानी को लेकर आदिबद्री के निकट बेनीताल में टोपरी उड्यार में 02 जुलाई 2004 से अकेले ही अनिश्चितकालीन भूख हड़ताल पर नहीं बैठ गये। यहीं 39 दिन की भूख हड़ताल ने 9 अगस्त 2004 को उनकी जीवनलीला समाप्त कर दी।
उनकी शहादत की खबर सुनकर राज्यवासी आक्रोशित हो उठे, जगह-जगह आन्दोलन हुये और दस अगस्त 2004 को प्रदेश व्यापी हड़ताल व बन्द किया गया। उत्तराखण्ड सरकार ने ‘डेमेज कण्ट्रोल’ के लिए आनन-फानन में आन्दोलनकारियों के लिए आरक्षण की घोषणा कर दी और बाबा मोहन उत्तराखण्डी को भुला दिया गया। किसी शायर ने क्या खूब कहा है;
शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले,
वतन पर मरने वालों का यही बाकी निशां होगा।
(स्रोत साभार- एल.मोहन कोठियाल के लेख ‘जिसने गैरसैण के लिये जान दे दी थी.....’ के सम्पादित अंश)