Saturday, March 12, 2011

नरेन्द्र सिंह नेगी के गीतों में बसंत वर्णन - 2


बसंत को ऋतुराज कहा जाता है. बसंत पंचमी से बसंत का आगमन माना जाता है. किन्तु पहाड़ों में शीत अधिक होने के कारण बसंत का चरम चैत्र मास ही माना जाता है. (चैत्र की शुरुआत तो फाल्गुन पूर्णिमा (होली) के बाद  मानी जाती है. किन्तु नेपाल व पंजाब आदि की भांति उत्तराखंड हिमालय में चन्द्र मास नहीं अपितु सूर्य मास के आधार पर तिथि की गणना होती है और सूर्य मास के अनुसार चैत्र प्रायः 14 या 15 मार्च से प्रारंभ होता है.) बसंत उन्माद का महीना है, रंग विरंगा बसंत जीवन की विविधता को दर्शाता है किन्तु यह भी सत्य है कि बसंत में विरह की तड़प और भी बढ़ जाती है. गढ़ शिरोमणि, गढ़ रत्न आदि अनेकानेक सम्मान व पुरस्कारों से सम्मानित जनता के सरताज और गढ़वाली भाषा के सशक्त हस्ताक्षर भाई नरेन्द्र सिंह नेगी की अनेक कविताओं में बसंत ऋतु और विरह का वर्णन मिलता है. नेगी जी की रचनाओं में बसंती बयार में नायक नायिका का मन मयूर नाच उठता है तो कहीं यही बसंत व्याकुल हृदयों के लिए कसक का कारण बन जाता है. बसंत ऋतु को माध्यम बनाकर गढ़ हिमालय का सौन्दर्य वर्णन उनकी काव्य कला का उत्कर्ष है.    
बसंतऋतु पर नेगी जी की ये कवितायेँ उत्कृष्ट रचनाओं में रखी जा सकती है;
1 . ऋतु चैत की......  2. बसंत ऋतु मा जैई........ 3 . कै बाटा ऐली......... और 4 . हे जी सार्यूं मा बौड़ीगे.......
२. - बसंत ऋतु मा जैई
मेरा डांडी कान्ठ्यूं का मुलुक जैल्यु बसंत ऋतु मा जैई, 
बसंत ऋतु मा जैई.......... 
हैरा बणु मा बुरांशी का फूल जब बणाग लगाणा  होला,
भीटा पाखों थैं फ्यूंली का फूल पिंगल़ा रंग मा रंगाणा होला,
लय्या पय्यां ग्वीर्याळ फुलू न होली धरती सजीं देखि ऐई. बसंत ऋतु मा जैई.......... 
{ भावार्थ:  नेगी जी ने वर्णन किया है कि मेरे पहाड़ों में जब भी जाना चाहोगे तो बसंत ऋतु में जाना. जब हरे भरे जंगलों में सुर्ख लाल रंगों में खिले बुरांश के फूल धधकती हुयी अग्नि का आभास करायेंगे, घाटियों को फ्योंली के फूल बासंती रंग में रंग रही होगी और शेष धरती लाई (सरसों), पय्यां और ग्वीराळ (कचनार) के फूलों से रंगी  अपनी सुन्दरता का बयां कर रही होगी. }
नेगी की गीतों में प्रकृति चित्रण हो या विरह की पीड़ा, विशेषता यह है कि सारे उपमान स्थानीयता से लिए गए हैं. उन्होंने अपने गीतों में पतंग, मोर, कमल पुष्प आदि शब्दों का प्रयोग नहीं किया है. वे अपने गीतों के माध्यम से गढ़वाली के विस्मृत शब्दों को भी सामने लाये हैं. अपने गीतों में जो बिम्ब उन्होंने उभारे हैं  यह उनकी अद्भुत कल्पना शक्ति से ही संभव हुआ है.
इसी गीत की  दूसरी अंतरा में उन्होंने हिमालय की अद्भुत छटा के साथ गढ़वाल की लोकरीति और लोक परंपराओं का वर्णन किया है.
बिन्सिरी देळयूं मा खिल्दा फूल  राति गौं गौं गितान्गु का गीत,
चैती का बोल औज्युं का ढोल  मेरा रौन्तेळl मुल्कै की रीत,
मस्त बिगरैला बैखु का ठुमका बांदू का लसका देखि ऐई.  बसंत ऋतु मा जैई..........    
{भावार्थ : वर्णन है कि मेरे पहाड़ों में बसंत ऋतु में जब जाओगे तो वहां परम्परानुसार मुंह अँधेरे ही देहरी पर फूल डले हुए दिख जायेंगे, तो  गाँव गाँव में लोक कलाकारों द्वारा पूरी-पूरी रात गीत सुनने को मिलेंगे. नयनाभिराम दृश्य समेटे मेरे पहाड़ की लोकरीति के अनुसार पूरे साल नहीं केवल चैत के महीने ही मांग कर गुजारा करने वाले 'चैती' के भावपूर्ण बोल और ढोल वादकों के ढोल पर मंत्रमुग्ध ताल भी आपको सुनने को मिलेगी, वहीं इतराते इठलाते मस्त युवाओं के ठुमके भी देख सकोगे तो चित्ताकर्षक अभिनय करती सुंदरियों का नृत्य भी.}
दूरदर्शन द्वारा कुछ वर्ष पूर्व एक प्रोग्राम आया था " नोस्टाल्जिया ऑफ़ मुकेश ". जिसमे मुकेश की जादू भरी आवाज में ' मेरा जूता है जापानी ......'  ' हम उस देश के वासी हैं ........'  आदि गीतों का प्रसारण किया गया. मुकेश के इन गीतों को किसने लिखा, किसने संगीत दिया नहीं जानता हूँ. किन्तु नेगी ने प्रकृति के सानिदध्य में रहकर सारे गीत स्वयं लिखे हैं,  संगीत भी स्वयं दिया और प्रत्येक गीत को उसके भावानुसार प्रभावी स्तर पर टिकाये रखकर स्वयं गाया है. गीत, संगीत और स्वर, पूरे माद्यम पर उनकी अद्भुत पकड़ है.
इसी गीत की एक और अंतरा में देखिये ;
 सैणा दमाला अर चैते बयार  घस्यारी गीतुन गुन्ज्दी डांडी 
खेल्युं मा रंगमत ग्वैर छोरा  अटगदा गोर घमणान्दी घांडी 
उखी फुंडै होलू खत्युं मेरु बि बचपन उक्रि सकिलि त उक्री क लैयी. बसंत ऋतु मा जैई..........
{भावार्थ : वर्णन है कि दूर- दूर तक फैले हुए समतल बुग्यालों के मेरे पर्वतीय प्रदेश में आपको चैत में मकरंद लिए मदहोश करती मंद-मंद बहती बसंती बयार का अहसास होगा और पहाड़ियों पर विरहा भोगती या अपना दर्द बयां करती कारुणिक आवाज में घसियारिनों के गीत गूंजते सुनोगे. एक ओर जहाँ पालतू पशु जंगल में खा पीकर मस्ती में उछलते कूदते गले में बंधी घंटियों से वातावरण को संगीतमय बना रही होंगी. वहीं ग्वाले खेल में सब कुछ भुलाये बैठे होंगे. और , हाँ ! वहीं आस पास ही कहीं मेरा बचपन बीता है, जिसे याद कर मै भावुक हो जाता हूँ , उन यादों को, उन स्मृतियों को यदि तुम उठाकर ला सकोगे तो अवश्य ले आना.}   
                                                                                            अगले अंक में -  हे जी सार्यूं मा बौड़ीगे.............

2 comments:

  1. rawat ji na jane kyon apka blog mere desh board pe disply nahi hota hai, update n hone ki wjh se aksar vilamb se pahunchta hun, NEGI JI ka main bhi prashanshak hun, bharhaal....apni sanskriti or sahity ke prasaar prachaar main aapka pryas sarahniy hai , meri shubhkaamnaye swikaar karen,

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  2. रावत जी, नेगी जी के बारे में लिख कर आप ने हमें भी भाव विभोरे कर दिया . नरेंदर सिंह नेगी अपने आप में संगीत की एक सम्पूर्ण संस्था हैं. जब भी उनके गीत सुनो तो नया ही लगता है

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