Tuesday, May 13, 2014

रेणुका जी से परशुराम कुण्ड तक (3)


पिछले अंक से जारी..........
शिवालिक पहाड़ियों की गोद में
        नहरकटिया में बस पकड़कर हम आगे बढ़े, दक्षिण में अरुणाचल की ओर। दस बारह  कि0मी0 के बाद ही शिवालिक पहाड़ियां प्रारम्भ होती है। सीमान्त राज्य होने के कारण अरुणाचल, नागालैण्ड आदि राज्यों की सीमा में प्रवेश के लिए इनर लाईन कार्ड/परमिट होना नितान्त आवश्यक है। हुकुनजुरी चेकपोस्ट पर चेकिंग से गुजरने के बाद बोगापानी और बरदूरिया जैसे छोटे-छोटे पड़ाव पार कर पैंतीस-चालीस कि0मी0 निरन्तर हल्की चढ़ाई चढ़ते हुये हम पहुँचते हैं तीन हजार फीट ऊँचाई पर बसे हुए तिराप के मुख्यालय खोन्सा में। सहयात्री बताते हैं कि देवमाली, हुकुनजुरी व बरदूरिया क्षेत्र में सर्दियों में प्रायः दिन में भी हाथी सड़क पर आ जाते हैं जिससे घण्टों तक जाम लग जाता है। वन बहुल्य  क्षेत्र होने के कारण असम व अन्य पूर्वोत्तर राज्यों में जंगली हाथियों की संख्या काफी अधिक है। इसलिये हाथी को यहां "डांगरिया" रूप में पूजा जाता है। (डांगरिया डांगर शब्द से बना है जिसका अर्थ होता है बड़ा, पूज्य अर्थात शिव ) इसीलिये प्रायः जंगली भूभाग पर कोई काम प्रारम्भ करने से पूर्व पेड़ की आड़ में प्रतीक रूप में छोटा सा डांगरिया मन्दिर बनाया जाता है और वहां पर पूजा -हवन किया जाता है। दक्षिण से उत्तर की ओर ढलान लिए खोन्सा की बनावट नरेन्द्रनगर, टिहरी गढवाल से मिलती-जुलती है। आबादी का घनत्व अत्यधिक कम और धारा 371 के लागू रहने के कारण सड़कें सूनी और गांव दूर-दूर हैं। जिला मुख्यालयों में भी कम ही है। खोन्सा में लगभग सभी विभागों के जिला कार्यालय, हायर सेकेण्ड्री स्कूल, श्री मां शारदा मिशन हायर सेकेण्ड्री (गर्ल्स), सी0आर0पी0 का बटालियन हेडक्वार्टर, एक सिनेमाहाल, जिला पुस्तकालय व एक बाजार है। अरुणाचल में जगह-जगह थाने तो खुल गये हैं किन्तु सीमान्त राज्य होने के कारण असम-अरुणाचल सीमा व चौकियों पर सी0आर0पी0 ही तैनात है। जनपद तिराप में वांग्चू, नोक्टे और तंग्छा तीन मुख्य जनजातियों के अतिरिक्त सिंग्फू आदि जातियां है। सबकी अलग बोलियां है, जो वे आपस में भी नहीं समझ पाते हैं और संवाद बनाने के लिये उन्हें भी असमिया या हिन्दी का ही सहारा रहता है।
खोंसा क्लब और दूर पहाड़ियों पर श्री माँ शारदा स्कूल
         प्रशासनिक दृष्टि से तिराप दस सर्किल में बंटा हुआ है। भूमि का बन्दोबस्त न होने के कारण अरुणाचल में अभी तक तहसीलों का गठन नहीं हुआ है। बस, एक सर्किल आफिसर ही सर्किल की सभी शक्तियां रखता है। राजनीतिक मानचित्र के अनुसार छः विधान सभा सीट वाला तिराप ’’अरुणाचल-ईस्ट’’ लोकसभा क्षेत्र के अन्तर्गत है। प्राकृतिक छटा के साथ-साथ दर्शनीय स्थलों में बौद्ध शैली में बना एक गोम्पा मन्दिर व श्री माँ शारदा मिशन का भव्य भवन है।
जिन्दादिल वांग्चुओं की धरती पर
              दूसरी सुबह खोन्सा से पश्चिम में लांगडिंग की ओर बढते हैं, पैंतीस-चालीस कि0मी0 बाद बरसाती नदी टंगसा पड़ती है। जो पंग्चाव की पहाड़ियों से निकलकर  पश्चिम-पूरब और फिर उत्तर को बहती हुयी नाकफन नदी में समाहित हो जाती है। (देहरादून की दो टोंस नदियों - हर की दून उदगम वाली तथा दूसरी मसूरी की पहाड़ियों से निकलने वाली, का पौराणिक नाम भी टंगसा/तमसा ही है)। टंगसा से पहले ही एक सड़क बारह-चौदह कि0मी0 पर बसे सीमान्त क्षेत्र वाक्का को चली जाती है। वाक्का के आसपास दालचीनी के पेड़ बहुतायत में है। चौड़ी घाटी वाले इस क्षेत्र में थोड़ी मेहनत की जाये तो खेती की अच्छी संभावना है। किसी विभाग में कार्यरत एक असमियां युवा अनूप गोहाईं से भेंट होती है। टूटी फूटी हिन्दी में वह हमारा मार्गदर्शन करता है और आगे बढकर अपनी धुन में मस्त होकर गाना शुरु करता है- 
’’धुनिया धुनिया सैंतोली, धुनिया धुनिया सैंतोली..........’’  
           टंगसा पार कर हम वांग्चू जनजातीय क्षेत्र में प्रवेश करते हैं और दस-बारह कि0मी0 बाद ही पहंुचते हैं लॉगंडिगं कस्बे में। रास्ते में सेनुआ नामक जगह पर भूमि संरक्षण विभाग का प्रशिक्षण केन्द्र हैं। खोन्सा के आसपास जहां घने बांस के जंगल हैं वहीं लॉगंडिंग कस्बा कछुए की आकृति वाले पहाड़ी की ढलान पर बसा हुआ है और आसपास गांव होने के कारण इसका सौन्दर्य भी आकर्षित करता हैं। लॉगंडिंग के निकट एक ऊँची पहाड़ी पर चढ़कर देखते हैं तो दक्षिण में भारत-बर्मा की सीमा पर शिवालिक पहाड़ियां और सुदूर उत्तर में असम के मैदान और असम के पास अरुणाचल में उच्च हिमालय। जगह-जगह तेल के कुओं से रिसने वाली गैस जल रही है। रात को ऐसा प्रतीत होता है मानो सैकड़ों लोग हाथों में मशाल लिये ‘’रगांली बिहू’’ का आनन्द ले रहे हों।
         पूर्वोत्तरवासियों की बनावट व कद-काठी जहाँ मंगोलों से मिलती है वहीं वांग्चू लोगों की मुखाकृति मंगोलों की भांति तो है किन्तु आकार में वे प्रायः लम्बे-चौडे़ होतहैं। कमर में छोटी लंगोट बांधे, काले दाँत और हाथ में दाव (पाठल) लिये कभी कोई वांग्चू एकाएक मिले तो शरीर ंिसंहर जाता है। बलिष्ठ भुजायें और पुष्ट जंघायें उनकी ताकत का अहसास कराये बिना नहीं रहती। (अरुणाचल की कुछ जनजातियों में सफेद-साफ दाँत अच्छे नहीं माने जाते। इसलिये वे जंगली पेड़ की छाल दांतों पर रगड़ कर दाँत काले करते है) शाम को निकट स्थित जेडुआ के गांवबूढ़ा श्री आबू वांग्चू के यहां से निमत्रंण मिलता है तो मैं और गुनिन गोगोई चले जाते हैं। गांव तक सड़क है। कमर में लंगोट व लंगोट में खुंसी दाव तथा बाहर से मेहरून रंग के कोट पहने लगभग साठ वर्षीय गांवबूढ़ा की दो-ढाई हजार फीट कवर्ड एरिया लिये बांस व टोको पात से बनी हवेली गांव के शुरू में ही है। मेहरून रंग के कोट पहनने का अघिकार केवल गांव बूढा को ही होता है। (फर्न परिवार के ’टोको’ पौधे के पत्ते, आकार में पपीते के पत्तों की भांति किन्तु काफी मोटे व बड़े होते हैं। स्थानीय लोग टोको पात का प्रयोग छाते के रूप में भी करते हैं) प्रवेश द्वार पर मिथुनों के दो बड़े-बड़े सिर स्वागत करते हैं। भीतर बढ़ते हैं तो फर्श न सीमेण्ट का है न मिट्टी का, बल्कि लकड़ियों की बल्लियों पर टिका हुआ बांस की चटाई का है। चटाईयों का ही पार्टीशन देकर कई कमरे बनाये गये थे, सभी सदस्यों के लिये अलग-अलग कमरे। बैठक की दीवार पर गांवबूढा की राज्य के मुख्यमंत्री माननीय श्री गेगोंग अपांग, स्व0 प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गांधी व अन्य राजनीतिक हस्तियों के साथ खिंची तस्वीरें टंगी थी। घर के बीच में चटाई के ऊपर थोड़ी मिट्टी बिछाकर उस पर जांती रखी हुयी थी और जांती पर ही खाना पक रहा था। एल्मुनियम की बाहर-भीतर पूरी तरह काली पड़ चुकी डेगची पर भात बन रहा था और वैसी ही दूसरी पर बिना तेल, हल्दी व मसाले का मुर्गा। गांवबूढ़ा बताता है कि वे लोग तेल, मसाला नहीं खाते हैं और न ही चाय पीते हैं। घर में प्रवेश करने से लेकर रात सोने तक वे चावल की बनी हुयी शराब लावपानी अवश्य पिलाते रहते हैं जब तक कि पीने वाला ही मना न कर दे।  चावल की बनी इस शराब का स्वाद कुछ-कुछ ताजी व गाढी मठ्ठा की तरह था। गांवबूढ़ा के घर में न रजाई है, न बिस्तर और न तकिया। सोचता हूँ कि जब गांव में सम्पन्न माने जाने वाले इस व्यक्ति के ये हाल हैं तो सामान्यजन के कैसे होंगे? लकड़ी का टुकड़ा सिरहाने रखकर जांती के आसपास ही पसर जाते हैं। कुछ जांती के नीचे राख में दबी आग की गरमी और कुछ लावपानी का नशा कि घण्टे-डेढ घण्टे करवटें बदलने के बाद नंगी चटाई पर नींद आ ही जाती है। सुबह जागकर चाय पीने की बड़ी तीव्र इच्छा होती है किन्तु गांवबूढ़ा असमर्थता व्यक्त करता है। दिशा-शौच के लिये पानी की बोतल आदि खोजता हूँ तो गांवबूढ़ा हँसकर मना कर देता है, कहता है ’’अजी! हम लोग कहाँ पानी इस्तेमाल करते हैं।’’
            सुबह मैं गांवबूढा, उनके दो सहयोगी तथा ग्रामीण निर्माण विभाग के जे0ई0 गुनिन गोगोई व मैं दो-तीन कि0मी0 उतरकर खेतों में गये। सहयोगी के कन्धे पर झोला लटका था और हाथ में कभी न धुली गयी एक अल्मुनियम की डेगची व जांती। एक गदेरे में प्रस्तावित नहर हेतु दो घण्टे चली नाप-जोख के बाद खेत के किनारे बैठ गये। इतने में सहयोगियों द्वारा बिना तेल मसाले का मुर्गा बना दिया गया था और चावल पकाना शेष था। वे ढाई-तीन इंच व्यास का लम्बा कच्चा बांस काटकर लाये थे, फटाफट एक-एक फिट के आठ दस ठूंगे (कलमनुमा टुकड़े)े किये, उनमें पानी भरा और चौड़े पत्तों में चावल बांधकर ठूंगे मे रखते गये, फिर ठूंगे जलती आग में पत्थरों के सहारे खड़े कर कुछ देर पकने दिया गया। बड़म-बड़म कर बांस फूटने लगे तो उन्हे आग से हटाकर ठूंगे फाड़कर चावल की पोटली बाहर निकाली। चावल पक चुका था, फिर मुर्गे के साथ वह चावल खाया तो उसका स्वाद वर्षों बाद आज भी जीभ पर है।  
 अरुणाचल, नागालैण्ड और बर्मा सीमा पर
          लांगडिंग से पंग्चाव के लिये कच्ची सड़क तो है किन्तु सार्वजनिक परिवहन नहीं। सुबह लॉगंडिंग से चलकर लगभग चौदह कि0मी0 दूर मिण्टोगं गांव पहुँचते हैं। रास्ते में गावं इक्का दुक्का हीे है, एक जगह आर्मी का कम्पनी हेडक्वार्टर है। मिण्टोंग में राजस्थानी मूल के युवा दुकानदार भवंर सिंह को स्थानीय वांग्चू से उलझते और उसी की बोली में बात करते देखा तो लगा कि आदमी प्रयास करने से काफी कुछ सीख सकता है। उत्तराखण्ड के लोग दूर प्रदेश में नौकरी भले ही करे परन्तु व्यापार शायद ही कभी करे। मिण्टांेग में पडा़व डाला। बारह-चौदह साल के लड़कों को नग्न देखकर अटपटा लगता था। किन्तु जब सभी आयुवर्ग की स्त्रियों को केवल अधोभाग को एक छोटे से गमछे से ढके लगभग नंग धड़गं आते-जाते देखा तो सन्न रह गया। सोचा विकास के सरकारी आंकड़े कितने झूठे हैं ? यह क्षेत्र काफी पिछड़ा हुआ है और लोग गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन कर रहे हैं। समूह में स्त्रियों के चलने पर कहीं से घण्टियों की आवाज आ रही थी तो मैने सोचा कहीं भेड़-बकरी या गाय चर रहीं होंगी। लेकिन तब एक स्थानीय व्यक्ति ने ही बताया कि आकर्षण के लिये अविवाहित लड़कियां गमछे के नीचे घण्टियां बाँधा करती हैं।यहां सभी के जीवन में हर्ष और उल्लास है। लड़के-लड़कियों को अपने जीवन साथी चुनने की स्वतंत्रता है। इसके लिए प्रत्येक गांव में अलग से एक मोरंग घर बना होता है। (मोरंग असमिया के मोरम शब्द का अपभ्रंश है अर्थात् प्रेम, प्यार) मोरंग घर में युवक-युवतियां रात को एकत्रित होकर नाच-गाना करते है और एक दूसरे की भावनाओं, विचारों से परिचित होते हैं और यहीं होते हैं फैसले जीवन के, शादी के। हाँ, विवाह के बाद युवक-युवती का मोरंग में प्रवेश बन्द हो जाता हैं। मोरंग घर को ’’बैचलर क्लब’’ की संज्ञा भी दी जा सकती है। यहीं पर लड़के-लड़कियों के बीच विवाह पूर्व ऐसे सम्बन्ध भी स्थापित हो जाते हैं जो हमारे समाज में वर्जित हैं।  आदिवासी समाज में प्रायः विवाह की कोई विशेष रीति-रिवाज, परम्परायें नहीं है। लड़का लड़की आपस में मिलते हैं, साथ घूमते फिरते हैं, और साथ रह भी लेते हैं, एक-दूसरे को भली भांति परखते हैं। कभी लम्बा समय भी लगता है। एक-दूसरे को जंच गये तो रहने का फैसला कर लेते हैं। शादी की रश्म के नाम पर न बारात, न बाजे, न पालकी और न गहने। गहनों का फैशन पूर्वाेत्तर राज्यों में प्रायः नहीं है, गांववालों व रिश्तेदारों को हैसियत के अनुसार एक, या एकाधिक मिथुन काटकर मीट-भात व लावपानी की दावत दी जाती है। शादी का जश्न दो-तीन दिनों तक नहीं कई दिनों तक चलता है। (साण्ड व गौर के अंतः प्रजनन से तैयार प्रजाति मिथुन कहलाती है)
           शाम को मैं भवंर सिंह को पूछता हूँ कि ये लोग खेती नहीं करते क्या? कहने लगा वह दिखाई तो दे रही साहब! कहीं कहीं वह हरी झाड़ियां। कच्चू की खेती थी वह , जो अरबी की तरह होता है। झूम खेती ;ैीपजिपदह बनसजपअंजपवदद्ध का यहां पर प्रचलन है। प्रत्येक एक-दो साल बाद भूमि चयन की जाती है, सफाई की जाती है और फिर दाव द्वारा ही जमीन खोद कर खेत तैयार कर कच्चू आलू की भांति लगा दिया जाता है और कुछ महीनों में ही फसल तैयार। (दाव ही इन आदिवासियों का एकल हथियार है। दाव पाठल के रूप में इस्तेमाल होती है तो कुदाल के रूप में भी, सब्जी-मीट काटने के लिये चाकू के रूप में भी तो बाल काटने के लिए उस्तरे के तौर पर भी) अन्य धान, दाल, सब्जियां बोना लोगों ने अभी सीखा नहीं है। किन्तु धीरे-धीरे अब लोग जानने लग गये हैं। झूम खेती से एक ओर जंगल तेजी से साफ हो रहें है और पर्यावरण का गम्भीर संकट पैदा हो गया है वहीं दूसरी ओर पारिस्थितीकीय संतुलन भी गड़बड़ा रहा है। मिण्टोंग से निर्माणाधीन मिण्टोंग-खासा सड़क पर अगली सुबह जब पैदल बढने लगे तो रास्ते में साथ आये दो स्थानीय युवा तेजी से एक जगह पर दौड़े तो मैं भी पीछे-पीछे भागा और दौड़ने का कारण पूछा तो कहने लगे ’निगोनी है’ निगोनी अर्थात चूहा। देखते-देखते एक युवक ने बिल में हाथ डाला दिया। मैं काँप उठा कि बिल में कही साँप हुआ तो? लेकिन जब उसने हाथ बाहर खींचा तो हाथ में मधुमख्खियों का छत्ता और कोहनी तक लिपटी हुयी सैकड़ों मधुमख्खियां। परन्तु वह इस प्रकार हटा रहा था मानो घरेलू मख्खियां हों। चूहे के पीछे सारा सामान जमीन पर पटक कर दूर तक अन्धे की तरह दौड़ने पर आश्चर्य हुआ। पूछा तो कहने लगा’’ आपको पता नहीं चूहा हमारे यहां विशिष्ट भोजन है जो मेहमानों के लिये खासतौर पर तैयार किया जाता है।’’ वांग्चू जनजाति के लोग सभी जीवों का भक्षण करते हैं। बच्चे-बूढ़ों के हाथों में गुलेल रहती है और कमर में दाव। गांव का प्रत्येक परिवार एक-दो बन्दूकें रखता ही है। कहां साठ प्रतिशत भाग वन क्षेत्र होने के कारण अरुणाचल जैव विविधता के लिये सबसे सुरक्षित राज्य हो सकता था और कहां यह मरघट का सा सन्नाटा। न कहीं चिड़ियों की चहचहाट और न जानवरों की आवाजें। बन्दर भी मनुष्यों से कम से कम सौ मीटर का फासला बना कर रहते हैं। बाहरी लोग मजाक में अक्सर कहते भी हैं ’’उड़ने वाले में हवाई जहाज और पैर वालों में चारपाई छोड़कर आदिवासी सभी कुछ खा जाते हैं।’’ ऐसी भी अफवाह यहां पर थी कि कुछ दशक पूर्व तक दुश्मनों का मांस खाने की प्रथा भी रही। रात खासा से कुछ पहले कमुआ- नकनू गांव में बिताकर वापस मिण्टोंग लौट आये ।
            
        अगली सुबह पश्चिम में चौदह-पन्द्रह कि0मी0 दूरी पर स्थित पंग्चाव आये । पंग्चाव सर्किल हेडक्वार्टर है। यहीं बर्मा, नागालैण्ड व अरुणाचल की सीमा आपस में मिलती है। पंग्चाव से आगे कोई मार्ग नहीं है। नागालैण्ड को अरुणाचल से जोड़ने वाली यह अकेली सीमा हो सकती है यदि सड़क कोहिमा तक बढ़ायी जाय। दो राज्यो की बीच प्रगाढता आयेगी ही अपितु खोन्सा, लॉगंडिंग आदि स्थानों से कोहिमा व गोहाटी जाने वालों के लिए दूरी घट जायेगी। लगभग साढ़े चार हजार फीट ऊंचाई पर स्थित पंग्चाव से पश्विम में नागालैण्ड और दक्षिण में बर्मा के बेहतरीन नजारे देख  सकते है। यहां पर सेना व सी0आर0पी0 तैनात है। सी0आर0पी0 कैम्प सबसे ज्यादा ऊँचाई पर है। रातें काफी सर्द होती है, एक सी0आर0पी0 जवान से दोस्ती में रात का जुगाड़ हो जाता है। दूसरे दिन वापस खोन्सा होते हुये देवमाली पहंुचे।                      शेष अगले अंक(4) में...............

Friday, April 18, 2014

रेणुका जी से परशुराम कुण्ड तक (2)

 पिछले अंक से जारी..........
ब्रहमपुत्र की धरती पर
              गोहाटी तक ब्रोडगेज लाईन की लम्बी यात्रा के बाद ट्रेन बदलते हैं और प्रारम्भ होती है मीटर गेज लाईन पर एक उबाऊ, थकानपूर्ण और असमाप्य सी लगती यात्रा। दिल्ली से गोहाटी तक की लगभग 45 घण्टे की यात्रा में एक रफ्तार है और भीड़भाड़ भी। परन्तु गोहाटी से आगे पूरब की ओर बढने पर लगता है कि हम किसी अज्ञात प्रदेश की ओर बढ रहे हैं। यात्रियों की संख्या भी अपेक्षाकृत कम ही रह जाती है और भाषा बिल्कुल अजनबी सी, असमिया, नागा, बंग्ला, सिलेटी, मणिपुरी आदि। मीटर गेज पर एक तो ट्रेन की सुस्त रफ्तार और भीतर डिब्बे में घुटन भरा सा वातावरण। बाहर छोटे-छोटे स्टेशन पीछे छूटते जाते हैं- नारंगी, हौजाई, लंका आदि, आदि। ट्रेन में हॉकरों का चढना उतरना इस उबाऊपन में और भी खलता है। लगभग छः घण्टे के सफर के उपरान्त गाड़ी में कुछ हलचल होती है तभी जान पड़ता है कि लमडिगं स्टेशन आ गया। लमडिगं से ही असम की बैराक वैली के लिए एक मीटर गेज लाइन अलग कट जाती है जो कि त्रिपुरा, मणिपुर व मिजोरम राज्यों को जोड़ती है। (असम प्राकृतिक रूप से दो भागों में बंटा है - ब्रहमपुत्र वैली और बैराक/बराक वैली) बीस-पच्चीस मिनट बाद लम्बी व्हिसिल के साथ गाड़ी आगे बढ़ती है तो डिब्बों में गिनती की सवारी रह जाती है। खालीपन और भी काटने लगता है। असम और बंगाल में (सिलीगुड़ी के बाहरी भाग - न्यू जलपाइगुड़ी स्टेशन पार करते ही)  गौर करने लायक है जल आप्लावित भूमि में घास-फूस  व बांस से बने घरों के गांव। कहीं लकड़ी के आधार पर ही पूरा घर बनाकर और चौखटों के अन्दर बांस की खपचियां फंसा कर बाहर भीतर मिट्टी अथवा रेत सीमेण्ट का प्लास्टर किया जाता है। बांस से ही कई तरह के घरेलू सामान और चारपाईयां आदि तैयार की जाती है अर्थात् बांस यहां के जीवन का अभिन्न अंग है। प्रायः घरों के आस-पास पोखर या तालाब दिखाई देते हैं और आंगन व पिछवाड़े में केले के झुरमुट। (बाढ़ के दौरान असमिया लोग केले के तनों को ही आपस में बांधकर नाव के रूप में इस्तेमाल करते हैं) लोग प्रायः घर के आंगन या पिछवाड़े नारियल, सुपारी के पेड़ लगाते हैं और उन्हीं पेड़ों से लिपटी होती है पान की लताएं। (सुपारी को स्थानीय भाषा में तामूल कहा जाता है, जो कि संस्कृत शब्द ताम्बूल का अपभ्रंश है) असमिया लोगों के घर जाने पर वे सर्वप्रथम मेहमान को पान, ताम्बूल ही पेश करते है। प्रत्येक घर में पान-तामूल रखने का पीतल का ‘सोराइ’ बर्तन होता है।
खेतों में धान ही बोया जाता है। जुताई बैलों या भैंसों द्वारा ही की जाती है। तालाब पोखरों में बंसी (कांटा) फंसाकर मच्छियां मारना यहां आम ग्रामीणों की दिनचर्या है। मच्छी भात असम बंगाल का प्रिय भोजन है। दालें शायद ही कहीं बोयी जाती हों। हाँ, मुस्लिम बाहुल्य नौगावं जिले में सब्जी की पैदावार अच्छी है। वर्षा की अधिकता के कारण गन्ना व गेहूं पूर्वोत्तर भारत में बोया नहीं जाता है। हिन्दी भाषी राज्यों के लोग यहां प्रायः मजाक में कहते भी हैं कि ”पूर्वोत्तर के लोगों ने आटे और चीनी के पेड़ नहीं देखे है।“
लमडिंग से दो घण्टे के सफर के बाद स्टेशन पड़ता है दीमापुर। भाबर क्षेत्र दीमापुर नागालैण्ड का एकमात्र रेलवे स्टेशन है। आजादी के बाद नागालैण्ड अशान्त राज्य रहा। कहां कब क्या घट जाये, हमेशा ही आशंका बनी रहती है। एक अलगाव नागाओं के मन में जो शुरू से पनप रहा था इतने लम्बे अरसे बाद भी दूर नहीं किया जा सका। शायद इसी अलगाव के कारण गोहाटी से आगे पटना, दिल्ली आदि शहरों की ओर बढ़ने पर कुछ नागा कहते भी हैं कि ”इण्डिया जा रहे है“।
दीमापुर से अगला स्टेशन आमगुड़ी है। जोरहाट की सवारी यहां उतर जाती है । आमगुड़ी के बाद ट्रेन सोनारी, नाजिरा, लखुवा, सफेकटी, नामरूप आदि पड़ावों से गुजरती है। (नाजिरा व लखुवा की पहचान ओ0एन0जी0सी0 के ऑयलफील्ड के रूप में भी है) 

चाय के बगीचों के बीच से ट्रेन का छुक-छुक होकर गुजरना मन को रोमांचित करता है। मध्य हिमालय में ऊँचे पहाड़ों पर फैले हैं अनगिनत बुग्याल। जहां कठिन यात्रा के बाद ही पहुंचा जा सकता है। लेकिन असम में दूर-दूर तक फैले ‘ड्रेस्ड ' चाय बागान बुग्यालों का सा भ्रम करा देते हैं। लगता है ऊषा मंगेशकर की सुमधुर आवाज में असमियां गीत यहीं कहीं गूंज रहा है-
"हे अखम देकोर बागीचा रे सुवाली, झुमुर-झुमुर नाचे क्वरूं धेमाली,
हे लछमी न ह्वै मोरे नाम समेली, बीरबलेर बेटी मोर नाम समेली.....‘‘

(असम देश के बगीचे में मैं एक लड़की उधम मचा रही हूं अरे! मैं लक्ष्मी नहीं, मेरा नाम चमेली है। बीरवल की बेटी मैं चमेली हूँ )
असमिया भाषा की विशेषता यह भी है कि ‘च’ का उच्चारण ‘स’ और ‘स’ का उच्चारण ‘ह’ के रूप में होता है यथा- चाय का साय, सागर का हागर आदि। (वैसे टिहरी गढ़वाल के लम्बगावं क्षेत्र में कहीं-कहीं ‘स’ को ‘ह’ उच्चारित किया जाता है, ) गढ़वाल के लोक वाद्य यन्त्रों में जिस प्रकार ‘मोछंग’ को एक विशिष्ठ स्थान प्राप्त है वहीं असमिया गीतों में प्रायः मोछंग की कर्णप्रिय धुन अवश्य सुनाई देती है। कुमाऊंनियों की भांति असमिया व अरूणाचल की कुछ जनजातियों के लोग भी बात करते समय ‘हूं’ की जगह सांस भीतर खींचकर ‘‘होय’’ कहते हैं। वहीं असमियां भाषा में श्रीनगर, पौड़ी के आसपास बोले जाने वाली गढ़वाली की भांति ही ध्वनि में ‘अ’ का उच्चारण संवृत्त व वृत्तमुखी, अर्थात ‘ओ’ की भांति होता है, जैसे घर का घौर, बडा का बौडा, आदि। और असमियां में महन्त का मोहन्त, बगाईगावं का बोगाइगावं आदि।   
       नामरूप फर्टिलाइजर्स कार्पोरेशन आवॅ इण्डिया के लिये विख्यात है। गोहाटी से चौदह घण्टे की उबाऊ यात्रा के बाद हम पहुंचते हैं मात्र पांच सौ किलोमीटर दूर अपने पड़ाव नहरकटिया। नहरकटिया बूरी डिहींग नदी के बायें तट पर बसा हुआ डिब्रूगढ का तहसील हेडक्वार्टर है। ट्रेन निरन्तर पूरब ढुलियाजान व तिनसुखिया की ओर बढती है। ढुलियाजान में इण्डियन ऑयल कार्पोरेशन का बड़ा प्रतिष्ठान है और तिनसुखिया ऊपरी असम का सबसे बड़ा व्यापारिक केन्द्र है। 

                                                                                                               अगले अंक में जारी.........

Tuesday, July 23, 2013

रेणुका जी से परशुराम कुण्ड तक - 1

(सन् 1985 में की गयी यह वह पहली यात्रा है जिसे मैंने लिपिबद्ध किया है 1988 में। जगहों और समाज को समझने की समझ तब नहीं थी। यह भी नहीं सोचा था कि कभी इस पर लिख पाऊंगा। फिर भी जैसे तैसे तैयार कर इसे अपने ब्लॉग के मित्रों के सामने रख रहा हूँ। यह यात्रा संस्मरण कई पत्रिकाओं में छप चुका है और अपनी पुस्तक ‘आवारा कदमों की बातें’ में भी इसे प्रकाशित कर चुका हूँ। आज लगभग तीस साल बाद जब समाज, परिस्थितियां पूरी तरह बदल गयी है तब इस लेख की प्रासंगिकता भी शायद न हो। फिर भी यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ। पाठकों से निवेदन अवश्य करूंगा कि वे अपनी टिप्पणी अवश्य दें। )
        विविधता में एकता का रंग भरने वाले भारतवर्ष में संस्कृति के विभिन्न आयाम देखने को मिलते हैं। विभिन्न क्षेत्रों की विभिन्न संस्कृति। भिन्न जातियों की भिन्न भाषा। सांस्कृतिक धरातल पर आदिवासियों की एक अलग पहचान है। आदिवासी कहीं के भी हो किन्तु सबके रीति-रिवाज, त्यौहार, मान्यतायें, परम्परायें, गीत, संगीत हमें लुभाते हैं। विकास की ओर अग्रसर नई पीढी़ आज अपने रीति-रिवाज, अपनी भाषा, परम्परा एवं संस्कृति से उन्मुख होकर पाश्चात्य सभ्यता व भाषा संस्कृति की भोंडी नकल कर रही है। किन्तु आदिवासी समाज इस सांस्कृतिक क्षरण से थोड़ा-बहुत बचा हुआ है।  उत्तर में हिमालय व दक्षिण में शिवालिक श्रेणियों से आबद्ध, समृद्ध नैसर्गिक सौन्दर्य से परिपूर्ण, शान्त व सुन्दर परिवेश तथा मन मोहने वाले अनेक प्रकार के पेड़-पौधे व जीव जन्तु (Flora and Fauna) की भूमि और विभिन्न प्रकार की कथायें, लोककथायें, रहस्य रोमांच से पूर्ण दन्त कथायें और विविध संस्कृतियांे को समाहित करने वाले पूर्वोत्तर भारत की एक लघु यात्रा का विवरण है।
        ’सेवन सिस्टर्स’ नाम से लोकप्रिय पूर्वोत्तर भारत के सात राज्यों में असम के अतिरिक्त अन्य मेघालय, मिजोरम, मणिपुर, नागालैण्ड, त्रिपुरा व अरुणाचल प्रदेश राज्य हैं। असम (जो समतल नहीं है) के छोटे-छोटे पर्वतीय राज्यों में विभाजन के बाद आज केवल लगभग समतल भूभाग ही असम में रह गया है। अतः अब ‘‘असम‘‘ शब्द की प्रासंगिकता ही नहीं रही। (वैसे असम को ’असोम’ का अपभ्रंश भी माना जाता है और असोम नाम अहोम राजा द्वारा दिया गया था जब उन्होंने तेरहवीं शताब्दी में इस देश पर विजय पायी थी) बंगाल की खाड़ी से निकटता और वनाच्छादित हिमालयी क्षेत्र होने के कारण असम में शेष भारत की अपेक्षा वर्षा का औसत कहीं अधिक है। अप्रैल से अक्टूबर तक, लगभग छः माह चलने वाली वर्षा ऋतु असम में तबाही मचा देती है। विडम्बना है कि पूर्वोतर में विपुल जलराशि वाली ब्रह्मपुत्र व सहायक नदियां व्यर्थ बह रही है। न कोई जल विद्युत परियोजना है और न सिंचाई परियोजना। वर्षा की अधिकता के कारण पूर्वोत्तर राज्यों में सदैव सावन की सी हरियाली छायी रहती है और -
पतझड़ सावन बसन्त बहार,
एक बरस के मौसम चार, मौसम चार,
पाँचवां मौसम प्यार का इन्तजार का ..’‘
         की टेर लगाने वालों को यहां मायूस होना ही पड़ सकता है, यहां साल में दो ही मौसम होते हैं - वर्षा और शीत।
              औपनिवेशिक राज्यों का दोहन और उसे सैरगाह व ऐशगाह के रूप में देखने वाली ब्रिटिश सत्ता ने आदिवासी क्षेत्रों की घोर उपेक्षा ही की है। उपयुक्त जलवायु होने के कारण जहां असम और बंगाल के सैकड़ों चाय बगीचे अंग्रेजों की देन है वहीं ब्रिटिशराज में पूर्वोत्तर क्षेत्र का विकास शेष भारत की भांति नहीं हो पाया है। असम के जंगलों की उपयोगिता उनके लिये मात्र लकड़ी प्राप्ति और शिकार के लिए ही रही है। नेफा भी इससे अछूता नहीं रहा। (एक खूबसूरत हिल स्टेशन शिलॉगं को अंग्रेजों द्वारा अवश्य विकसित किया गया) आदिवासी क्षेत्रों में कबीलाई संस्कृति विकसित होती रही। अपने ही कबीलों तक सीमित रहना, अपने ही समाज के भीतर दैहिक व दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति आदिवासी समाज की विवशता भी रही है। जो कि उनके विकास में बाधक बनी है। स्वतंत्रता के बाद भी पूर्वोत्तर राज्यों की स्थिति कमोवेश वही रही, सिवाय यह कि जगह-जगह असम में स्थापित आरा मिलों के लिये जंगलों से ’कच्चा माल’ ढोया जाने लगा। उसके लिये ही सड़कों का निर्माण किया गया और प्रारम्भ हुयी विकास की प्रक्रिया।
           ’सेवन सिस्टर्म’में एक राज्य है अरुणाचल, अर्थात सूर्य का आंचल जहां सर्वप्रथम लहराता है। अरुणाचल का अस्तित्व हम तभी से मान सकते हैं जब चौदहवीं सदी के आरम्भ में असम पर अहोम राजा का साम्राज्य स्थापित हुआ। 1838 में अंग्रेजों ने असम को अपने आधिपत्य में लिया तो नेफा स्वतः इसके नियंत्रण में आ गया। लगभग अठ्ठासी हजार वर्ग कि.मी. क्षेत्रफल में फैले प्राकृतिक सौन्दर्य से भरपूर केन्द्र शासित अरुणाचल प्रदेश को यह नाम जनवरी 20, 1972 में मिला। इससे पूर्व यह 1948 से नेफा(North East Frontier Agency) नाम से जाना जाता था 21 जनवरी, 1972 को ही खासी, गारो व जयन्यिता हिल्स को मिलाकर मेघालय राज्य की स्थापना हुयी (जो कि इससे पूर्व 02 अप्रैल 1970 को एक स्वायत्त राज्य के रूप में घोषित हो चुका था) तथा ब्रिटिश सरकार के अधीन “लुसाई हिल्स” वाले जिले को 1954 में संसद की कार्यवाही के बाद “मिजो हिल्स” नाम दिया गया और 21, जनवरी 1972 को ही मिजोरम नाम देकर केन्द्र शासित प्रदेश घोषित कर दिया गया। गढवाली कुमाउंनी गीतो में नेफा, लद्दाख जैसे दुरूह क्षेत्रों का वर्णन प्रायः विरह गीतों में आता है,
उड़ि जा ऐ घुघूती न्हैं जा लद्दाख,
हाल म्यारा बतै दिया मेरा स्वामी पास घुघूती. . .

      प्रेयसी अपने प्रिय के सकुशल लौटने की कामना करती है। ऐसा इसलिए भी कि गढ़वाल-कुमाऊँ में अधिकांश लोग सेना में होते हैं और नेफा व लद्दाख पहले से ही दुर्गम और बीहड़ क्षेत्र माने जाते रहे हैं। नेफा से लौटे हुये सैनिक भी संभवतः नेफा के भयानक जंगलों और खतरनाक कबीलों का वर्णन ही लोगों से करते रहे हैं। वहां की परम्पराओं, लोकजीवन, भाषा और संस्कृति का वर्णन कदाचित ही कोई करता हो। इसके पीछे शायद अपनी जीवटता का प्रदर्शन और अपने लिए सहानुभूति बटोरने की मानसिकता ही अधिक रहती हो।
     ’हिन्दी-चीनी भाई भाई’ और पंचशील समझौते को धत्ता बताते हुए चीन ने वर्ष 1962 में भारतवर्ष पर हमला कर दिया। चीन ने अपनी ताकत का अहसास कराकर हमारी सेनाओं को सैकड़ों मील पीछे धकेल दिया। केन्द्र सरकार का ध्यान भी तभी सामरिक महत्व के इन सीमान्त क्षेत्रों की ओर गया। केन्द्रशासित अरुणाचल प्रदेश गठन के उपरान्त पाँच जिले बने। पंच आब -पांच नदियों(रावी, ताप्ती, ब्यास, सतलज और चेनाब) की धरती को पंजाब नाम मिल गया किन्तु पांच प्रमुख नदियों के नाम से सृजित जिलों वाले नेफा को पंजाब जैसा नाम नहीं मिल पाया। ये जिले बने- कामेंग, सुबन्सिरी, सियागं, लोहित और तिराप। राज्य की राजधानी ईटानगर सुबन्सिरी में है तो राज्य का एकमात्र- जवाहर लाल नेहरू कालेज पासीघाट (सियांग जिला) में, जो कि चंढीगढ विश्वविद्यालय से सम्बद्ध है।
            दिल्ली से कानपुर, इलाहाबाद, मुगलसराय, पटना, भागलपुर, जलपाइगुड़ी, बंगाइगांव व रंगिया होते हुये ट्रेन से गोहाटी पहुंचते हैं। गोहाटी जो कि भौगोलिक रूप से असम का केन्द्र है एक पौराणिक नगर भी है। गोहाटी के निकट ही पश्चिम में ब्रहमपुत्र के बायें तट पर एक ऊँची पहाड़ी पर कामाख्या देवी का मन्दिर है। (कथा है कि भगवान शिव की पत्नी एवं हिमालय पुत्री सती के पित्रगृह में प्राण त्यागने के उपरान्त भगवान शिव क्रोधित हो उसके शव को अपने कन्धों पर रख ताण्डव करने लगे थे। तीनों लोकों में त्राहि-त्राहि होने पर भगवान विष्णु ने यह सोचकर कि जब तक सती का शव शंकर के कन्धे पर रहेगा वे अपने को रोक नहीं पायेंगे। अतः उन्होंने सर्वप्रथम सुदर्शन चक्र से सती के शव के टुकड़े-टुकड़े कर डाले। जहां-जहां सती के अंग गिरे वहां-वहां आज शाक्त पीठ हैं। माना जाता है कि कामाख्या में भी देवी सती का ‘भग‘ गिरा था। कामाख्या मन्दिर में कुमारी पूजा का नियम है) प्रागज्योतिशपुर नाम से विख्यात इस गोहाटी को राजा नरकासुर द्वारा बसाये जाने का वर्णन पुराणों व महाकाव्यों में है। नरकासुर के पुत्र भागदत्त ने कौरवों की ओर से हाथियों की विशाल सेना सहित महाभारत युद्ध में भाग लिया था।
                                                                                              क्रमशः  -------------------------

Friday, May 31, 2013

मुक्ति

दुराचारी राजा के षडयन्त्र की शिकार
निर्दोष किन्तु कलंकिनी घोषित
पति परित्यक्ता किन्तु अकारण ही
परिवर्तित हो गयी शिलारूप में
मै आश्रमवासिनी ऋषिपत्नी अहल्या।

अयोध्या के राजदुलारे राम !
आँखें पथरा गयी तुम्हारी प्रतीक्षा में
तुम, जो समझे हो दर्द कौशल्या का
महारानी होने पर भी उपेक्षित
लाचार बूढ़े दशरथ के समक्ष ही
झेलती दंश कैकेई का कई बार।
मेरी पीड़ा भी समझो राम !
अपने प्रिय गौतम, पुत्र सद से बिछुड़ी हुयी।
तड़पते होंगे कपिलवस्तु में निश्चित् ही
मेरा सद अैर मेरे प्रिय भी मेरी प्रतीक्षा में।

रघुवंशी परम्पराओं के निर्वाहक राम !
उद्धारक बन मुक्ति दो इस शिलारूप से।
तुम्हारा यश, तुम्हारी कीर्ति फैले चहुँदिशा कि
मर्यादाओं की नई परिभाषायें गढता राम
पद, व्यक्ति नहीं, न्याय व सत्य के निमित्त है।
दण्डित किया जा सकता है नारी होने पर भी
कुलटा ताड़का को, तो इन्द्र की उद्ण्डता के लिये
निर्दोष अहल्या को पुनर्प्रतिष्ठा क्यों नहीं ? 

Tuesday, April 23, 2013

इतिहास

भाषा के रंग में
जब कभी
वर्तमान को सींचा जाता है
वह
आकाश में खड़े सूर्य के
पदचिन्हों सा
स्थायी हो जाता है
अपने
समूचे भार के साथ।

Friday, March 22, 2013

पराये शहर के अपने लोग


इस पराये शहर में
रहता हूँ अपने लोगों के बीच,
बैठता हूँ अपनें लोगों के बीच,
मिलते हैं साथ सुख-दुःख में,
होते हैं साथ सुख-दुःख में।

इस शहर के अपने लोग-
दूसरे बड़े शहर की बात करते हैं,
बड़े शहर बसने की चाह रखते हैं।
उन्हें सिर्फ धन-दौलत की बातें सुहाती,
उन्हें जमीन-जायदाद की बातें ही भाती।

इस शहर के अपने लोग-
अपने गावं की बात नहीं करते।
इस शहर के अपने लोग-
अपने गावं को याद नहीं करते।

यहाँ के अपने लोग पराये हुये,
यह शहर कभी अपना नहीं रहा।
गावं अपने लौट जाऊँगा एक दिन,
शहर अब मेरा सपना नहीं रहा।

Tuesday, March 12, 2013

वहीं कहीं आज भी

भाग्यशाली हो तुम
ओ बदरा !   
घूम आते हो
मेरे गावं, मुलुक तक
गाहे-बेगाहे,
वक्त-बेवक्त।

जा नहीं पाया मैं चाहकर भी
गावं वर्षों से ।
जबकि,
अटका पड़ा है मन मेरा
वहीं-कहीं ।
वहीं-कहीं आज भी ।।

Tuesday, February 19, 2013

पुल

मेरे गावं के गदेरे पर
नहीं था पहले एक भी पुल।
अक्सर स्कूल आते-जाते बच्चों को
पार करवाते थे तब बरसात में बड़े बुजुर्ग
कमर कमर भर पानी में।

फिर पंचायत में पैसा आया, और 
एक पुल बना गावं के लिये।
कुछ साल बाद दूसरा, फिर तीसरा, और फिर चौथा।
अलग-अलग रास्तों पर अलग-अलग पुल बने
विकास के लिये, या फिर कयावद-
सरकारी धन को ठिकाने लगाने की ?
प्रधान बदलते गये और पुल बनते गये।

वक्त ने करवट ली- और आज
नहीं चढ़ता गदेरे में पानी इतना कि
कमर क्या घुटने भी भीग सके ठीक से।
और स्कूल जाने वाले बच्चों की संख्या
गिनी जा सकती है उंगलियों पर, क्योंकि
कर गये हैं पलायन लोग गावं से आज।

कल जब नहीं गुजरेगा कोई उन पुलों से
बैठे दिखेंगे पुलों की रेलिंग पर तब
केवल और केवल गूणी बान्दर ही।


Tuesday, January 29, 2013

अनुत्तरित प्रश्न

तुमसे मिलने से पहले अक्सर 
सजग बहुत थे सपनों को लेकर
बहुत सोचा करते थे अक्सर 
अपनी जिन्दगी और अपने बारे में,
सोचा न हो कभी तुम्हारे बारे में
ऐसा तो हुआ नहीं कभी। 

तलाशा करते थे चाहत लिये
हर नगर, हर डगर, हर शहर।
कभी मिले भी, कभी दिखे भी तो
अपूर्ण ! आधे अधूरे !!
भटकते रहे जब तक कि
हुयी नहीं तलाश पूरी मेरी,
तुम्हें देखने के बाद लगा मगर
व्यर्थ नहीं रहा प्रयास मेरा
विफल नहीं हुयी साधना मेरी।

परन्तु-
मन के एकान्त कोने से एक प्रश्न
सिर उठाकर पूछता जरूर है कि
तुम भी सोचते हो ऐसा ही, या
यह भ्रम है ? मेरा ही पागलपन है ??


            **** ****





Thursday, January 24, 2013

कुमाऊँ - 5 (अद्भुत आकर्षक पाताल भुवनेश्वर)

पिछले अंक से आगे 
 सौ-डेढ सौ मीटर का अर्धचन्द्राकार मार्ग पार कर पवित्र गुफा के मुहाने पर पहुँचे। इतनी कम ऊँचाई पर देवदार नहीं उगते किन्तु आश्चर्य है कि गुफा के चारों ओर देवदार व चीड़ का घना जंगल है। देवदार के पेड़ सद्यस्नाता सुन्दरी सा रूप लिये हुये बिल्कुल हरे। गुफा के बाहर एक छोटा सा आंगन जिसमें बीस-पच्चीस लोग भीतर प्रवेश करने की प्रतीक्षा में थे। पहाड़ी को काटकर एक छोटा सा कमरानुमा काउण्टर बनाया गया है जिसमें प्रवेश शुल्क लेकर टिकट दिये जाते हैं और साथ ही कैमरे व कैमरे वाले मोबाईल फोन जमा किये जाते हैं। गुफा द्वार पर एक अभिलेख उत्कीर्ण है जो कि चौदहवीं शताब्दी का बताया जाता है। बाहर एक सिक्योरिटी वाला खड़ा था जो भीतर से दल बाहर आने के बाद ही लोगों को भीतर जाने को कहता। एक बार में पन्द्रह-बीस लोगों को ही भीतर प्रवेश करया जा रहा था।
हमारी बारी आई तो मन्दिरों से प्रायः दूरी रखने वाले चालक राणा जी भी साथ हो लिए। भीतर घुसते ही नजर गई तो गुफा से कुछ लोगों की आवाजें आ रही थी। बेतरतीब छोटी छोटी सीढ़ियां चट्टान काटकर बनाई गई थी। साथ ही सीढ़ियों के दोनों ओर मोटी मोटी दो लोहे की सांकलें लटकाई गई थी। जिससे लोग आसानी से उतर सकें। गुफा का सबसे निम्न स्थल और द्वार के बीच की ऊंचाई का अंतर लगभग 27 मीटर का है। किंतु सीढ़ी में इस संकरे मार्ग से एक ही बार में हम बीस मीटर तक उतर गये। नीचे पहुंचकर देखते हैं पैरों के नीचे ढलवा भूमि है। गुफा की कुल लम्बाई 160 मीटर है। किन्तु चूने पत्थर की इस प्राकृतिक गुफा में जिस प्रकार अनेक दैवीय आकृतियां उभरी हुई हैं उससे ईश्वर के प्रति आस्था होनी स्वाभाविक ही है। गाइड इन विभिन्न आकृतियों को हिन्दू धर्म ग्रंथों में वर्णित देवी देवताओं से जोड़ते हैं।
गाईड बताते हैं कि गुफा के भीतर से एक मार्ग काशी विश्वनाथ (वाराणसी) दूसरा रामेश्वरम व तीसरा कैलाश मानसरोवर तक जाता है किन्तु विभिन्न कालखण्डों में प्रलय आ जाने के कारण यह मार्ग बन्द हो गये हैं। और विश्वास है कि कलियुग समाप्ति अर्थात सतयुग प्रारम्भ होने पर यह मार्ग पुनः खुलेंगे, ऐसा धर्मग्रंथों में वर्णित है। गुफा के भीतर ऐरावत हाथी के दर्जनों पांव, चार युगों के रूप में छोटी-मोटी टीलेनुमा आकृतियां, शिवलिंग व गुफा की छत से स्वतः ही पानी टपकना, शिव की विशाल जटा आदि मुख्य रूप से दर्शनीय हैं। गुफा की छत कहीं 15-20 फुट ऊंची है तो कहीं मात्र 5-6 फीट ही। इन दैवीय स्वरूप लिये आकृतियों को देखकर उस अनाम कोटिनाम ईश्वर के प्रति अगाध श्रद्धा उमडनी स्वाभाविक है। लगभग 45 मिनट तक हम प्रकृति के अद्भुत रूप को विस्फारित नेत्रों से देखते रहे। गाईड ने पूरी गुफा के दर्शन करवाने के बाद एक जगह पर सामूहिक रूप से पूजा सम्पन्न की और बाहर जाने को कहा। किन्तु मेरा मन वहीं रुक जाने को हुआ। प्रकृति के इस रूप को निकट से देखने से  मन में रोमांच भर गया था। गर्मी के इस मौसम में बाहर भीषण गर्मी थी लेकिन गुफा के भीतर काफी शीतलता। अनमने भाव से अन्य श्रद्धालुओं के साथ मैं परिवार सहित बाहर निकल आया। भीतर की स्थिति को सटीक शब्दों में बयां कर पाना संभव नहीं।
ऐसा माना जाता है कि यहां पर भगवान शिव अपने भक्तों की प्रतीक्षा बड़ी उत्सुकता से करते हैं और जो भक्त पवित्र गुफा तक पहुंच जाता है उस पर उनकी कृपा सदैव बनी रहती है। द्वादश ज्योर्तिलिंगों में काशी विश्वनाथ, केदारनाथ व रामेश्वरम की पूजा से अधिक महात्म्य पाताल भुवनेश्वर की पूजा का माना जाता है। पाताल भुवनेश्वर में भगवान शिव ही नहीं अपितु हमारे 33 करोड़ देवी देवताओं की शय्या है। मार्कण्डेय ऋषि द्वारा चण्डीपथ की रचना इसी पवित्र गुफा में बैठकर की गई। स्कन्ध पुराण के मानस खण्ड में विस्तृत विवेचना की गई है कि जो भी मनुष्य उस अलौकिक पारब्रह्म के अस्तित्व को लेकर थोड़ी सी भी शंका करता है उसे पाताल भुवनेश्वर के दर्शन अवश्य कर लेना चाहिए।

पौराणिक मान्यताओं के अनुसार त्रेता युग में अयोध्या के सूर्यवंशी राजा ऋतुपर्ण द्वारा यह गुफा खोजी गई। मान्यता है कि रानी दमयंती ने एक बार राजा नल को पराजित किया और रानी दमयंती के रोष से बचने के लिए राजा नल ने ऋतु पर्ण से याचना की कि वह उसे उसकी पत्नी दमयंती से बचाये। ऋतुपर्ण राजा नल को हिमालय के सघन वन क्षेत्र में ले गये और वहां रुकने के लिए कहा। वापसी में राजा ऋतुपर्ण को एक हिरण के सौन्दर्य ने मोह लिया, जो घने जंगलों में भाग गया। उन्होंन हिरण का पीछा किया किन्तु वह कहीं नहीं मिला। थक कर वह एक पेड़ के नीचे लेट गये। सपने में उसी हिरण ने राजा ऋतुपर्ण से कहा कि वह उसका पीछा करना छोड़ दें। नींद टूटी तो उन्होंने अपने को एक गुफा के मुहाने पर पाया। फिर वे गुफा के भीतर जाने के लिए बढ़े तो द्वारपाल ने रोक दिया। परिचय के उपरान्त वहां विराजमान शेषनाग जी ऋतुपर्ण को अपने फन पर बिठाकर गुफा में ले गये और उन्हें उस दिव्यलोक के दर्शन कराये जहां पर तैंतीस करोड़ देवी देवता विराजमान थे।
द्वापर में कुरुक्षेत्र युद्ध के पश्चात अपने गुरुजनों एवं बंधु बांधवों की हत्या के पाप से बचने के लिए पाण्डवों ने हिमालय में प्रस्थान किया। यहां से गुजरते हुए पाण्डवों ने गुफा में कुछ दिन भगवान शिव की आराधना की। माना जाता है कि तत्पश्चात गुफा तब खुली जब आठवीं सदी में कत्यूरी शासनकाल के दौरान आदि शंकराचार्य ने यहां पूजा अर्चना की और इस गुफा का महात्म्य स्थानीय जनों को बताया।(राज्य के अन्य मन्दिरों की भांति इस गुफा का सम्बन्ध भी आदि शंकराचार्य से जोड़ दिया गया है) तब से इस गुफा के दर्शन के लिए श्रद्धालुओं द्वारा दूर-दराज के क्षेत्रों से आकर पूजा अर्चना की जाती है। प्रायः सभी मंदिरों व धार्मिक स्थलों में ब्राह्मण वर्ग ही पूजा अर्चना करते हैं। किंतु पाताल भुवनेश्वर में भण्डारी जाति के क्षत्रिय उपासक हैं, जिन्हें आदि शंकराचार्य ने इस कार्य हेतु नियुक्त किया है। भुवनेश्वर गांव के ही रावल, गुरौं, दसौनी, द्योण आदि अन्य जातियों के लोग व्यवस्था में सहयोग प्रदान करते हैं।
पाताल भुवनेश्वर से गंगोली हाट वापस आये। कुमाऊं रेजीमेंट की ईष्ट देवी तथा शक्तिपीठ के रूप में विख्यात माँ महाकाली (हाटकालिका) के दर्शन कर आगे के लिए प्रस्थान किया।
                                                                                                                                .............समाप्त  

Monday, January 21, 2013

कुमाऊँ - 4 ( बागेश्वर से गणाईं-गंगोलीहाट तक)

पिछले अंक से आगे - 
            सुबह नहा धोकर जल्दी तैयार हो गये। पिछले दो दिनों से रानीखेत और कौसानी में पानी की तंगी के कारण ढंग से नहीं नहा पाये थे। पानी तो था किन्तु मनोवैज्ञानिक दबाव रहता। होटल वाले यह आगाह करना न भूलते ‘‘साहब ! गरमी के कारण थोड़ा पानी की किल्लत है। आदि आदि.....’’  चाय नाश्ते के बाद हम बागनाथ जी को प्रणाम कर बागेश्वर से पूरब की ओर धीरे-धीरे चढाई वाले मार्ग पर बढते जाते हैं। स्टियरिंग हाथ में हो और चीड़ के जंगलों के बीच से गुजरती हुयी नागिन जैसी काली सड़क हो तो गाड़ी दौड़ाना अच्छा लगता है। जैसे जैसे ऊँचाई पर उठते जाते हैं पीछे बागेश्वर का फैलाव और गोमती व सरयू का संगम का दृश्य और भी मनभावन लगता है। बागेश्वर के लोगों में वन चेतना अधिक है इसीलिये शहर में सभी जगह हरियाली दिखायी देती है। मैं हर मोड़ के बाद गाड़ी रोकता हूँ ताकि नजारों का लुत्फ उठाया जा सके। आगे काण्डा पहुंचते हैं। काण्डा नाम स्थानीयता का परिचायक है। उत्तराखण्ड में काण्डा, काण्डी, काण्डाखाल,काण्डाधार, काण्डयूंसैण आदि कई नाम हैं। काण्डा से गुजरते हुये आसपास की पहाड़ियों पर जगह जगह खड़िया खनन के कारण सफेद रंग के गड्ढे दिखाई देते हैं। हरे भरे खेतों व हरियाली बिखेरते पहाड़ों के बीच जगह जगह ये सफेद दाग ? दुःख होता है हमारा यह खूबसूरत पहाड़ सफेद दाग (ल्यूकोडर्मा) का रोगी हो गया है। दोहन चाहे खनिज पदार्थों का हो या वनों का, पहाड़ का भला होता तो कहीं दिखता नहीं है।
आगे बढते जाते हैं, इस पिथौरागढ-बागेश्वर सड़क पर इक्का दुक्का वाहनों का ही आना जाना था। गावं दूर दूर होने के कारण आबादी का घनत्व इस क्षेत्र में अपेक्षाकृत कम ही है। गावों के आसपास सड़क किनारे जगह जगह हैण्डपम्प दिख रहे थे, कुछ सूखे पड़े थे और जिनमें पानी होता उनमें गागर व बण्ठा लिये औरतों की भीड़ दिखती। जिनमें भीड़ कम होती वहां पर लड़कियां व औरतें कपड़ों सहित नहाते हुये दिख जाती। इस गरमी ने सभी को झुलसा कर रख दिया, क्या मैदान क्या पहाड़। इस पर्वत श्रृंखला के पूर्वी ढलान पर फैले चौकोड़ी में रुकने की तीव्र इच्छा थी। पंचाचुली आदि पर्वत श्रेणियों के दर्शन के लिये यह स्थान उपयुक्त माना जाता है। सुदूर उत्तर-पूरब में अभिभूत कर देने वाली हिमालय की धवल चोटियां और सामने गणाई-गंगोलीहाट का विस्तार। उत्तराखण्ड के वास्को-डि-गामा कहे जाने वाले डॉ सुरेन्द्र सिंह पांगती, आई0 ए0 एस0 ने आयुक्त व महानिदेशक, उ0प्र0 पर्यटन निदेशालय रहते हुये जिन गुमनाम स्थानों को पहचान दिलायी चौकोड़ी भी उनमें से एक है। उनके सद्प्रयास से ही कुमाऊँ मण्डल विकास निगम ने यहां पर पर्यटकों को आकर्षित करने के लिये एक गेस्ट हाऊस बनाया और आज देखते देखते यहां पर धन्ना सेठों के अनेक हट्स व रिसोर्टस तैयार हो गये। और जिस तेजी से ये बढ रहे हैं उससे लगता है कि एक दिन यहां की पूरी कृषि व उपजाऊ भूमि कंक्रीट के जंगल में
तब्दील हो जायेगी।
फोन द्वारा स्थानीय मित्र भुवन चन्द्र पन्त से सुबह ही पूछा कि दोपहर के भोजन के लिये कौन सी जगह ठीक है? वे बता चुके थे कि यदि सीधे पिथौरागढ आओगे तो थल में और गंगोलीहाट होते हुये आओगे तो उडयारी बैण्ड। उडयारी बैण्ड में दो राहा है, एक थल-पिथौरागढ/मुनस्यारी के लिये तो दूसरा बेरीनाग-आगर-गंगोलीहाट के लिये। मात्र दो-तीन होटल है उडयारी बैण्ड में। खाना लजीज तो नहीं किन्तु भूख मिटायी जा सकती थी। पहाड़ों पर होटलों में प्रायः थाली सिस्टम होता है अर्थात कितना भी खाओ कीमत निर्धारित है। इसलिये होटल मालिक भी सभी कुछ बजट के भीतर ही रखते हैं। और ग्राहक भी मजबूर होता है कि जो भी मिल रहा है उसे तो खा ही लें।
भोजन करने और कुछ सुस्ताने के बाद दक्षिण की ओर गंगोलीहाट जाना तय करते हैं। चौकोड़ी समुद्रतल से 1980 मीटर ऊँचाई पर स्थित है तो उडयारी बैण्ड मात्र 1800 मीटर पर। महीना भले ही जून का हो किन्तु इतनी ऊँचाई पर धूप में गरमी नहीं रहती है। यहां पर धूप तपा नहीं सहला रही हो जैसे। रास्ते के दोनों ओर सीढीदार खेत और पीछे ऊँचाई पर बांज, बुरांस, देवदार व कैल आदि का मिश्रित वन मनोहारी दृश्य उत्त्पन्न करता है। बसन्त में जब यहां बुरांस फूलते होंगे तो कैसा दिखता होगा, कल्पना ही कर सकता हूँः
जागेश्वर धुरा बुरुंशि फुलि गे छ ऽ
मैं कैहुँ टिपुँ फूला, मेरि हंसा रिसै रै।

कुमाऊँ के मध्य कोई हिमानी न बहने के कारण पहाड़ों की आकृति में गढवाल की भांति पैनापन नहीं है। अपितु अधिकांश पहाड़ियों की बनावट तो कूर्माकार (कछुये जैसी) है। बारह कि0मी0 दूरी तय कर बेरीनाग पहुंचते हैं। डेढ सौ वर्ष पहले अंग्रेजों द्वारा चौकोड़ी बेरीनाग की पहाड़ियों पर चाय बागान लगाये गये थे जो कि आज अच्छी स्थिति में नहीं है।
बेरीनाग से गंगोलीहाट की ओर धार पर चलते हुये उत्तर-पूर्व में पूर्वी रामगंगा के जलागम क्षेत्र का विस्तार दिखाई देता है। गुप्ताड़ी से गंगोलीहाट का रास्ता छोड़कर पाताल भुवनेश्वर की ओर बढ़ जाते हैं। बचपन में गावं की रामलीला में पाताललोक के बारे में सुना था कि रावण का भाई अहिरावण था व उसकी सत्ता पाताललोक में थी। रावण के कहने पर वह भगवान राम व लक्ष्मण को अपहरण कर पाताललोक ले गया। तब वीर हनुमान जी ने उन्हें छुड़ाया था जहाँ पर वे अपने पुत्र मकरध्वज को मिलते हैं, आदि आदि। महाभारत में पाताललोक तो नहीं, हां नागलोक का जिक्र अवश्य आता है। सोचता हूँ पाताल भुवनेश्वर नाम क्यांे दिया गया होगा। किन्तु जब कहीं कहीं खड़ी चट्टानों को काटकर बनाई गयी सड़क पर निरन्तर नीचे नीचे उतरते जाते हैं तो तब पाताल भुवनेश्वर नाम की सार्थकता सही लगती है। वास्तव में हम पाताल उतर आये थे।पाताल भुवनेश्वर में सड़क जहाँ समाप्त होती है वहीं पार्किंग भी है, दायीं ओरगाड़ियां पार्क होती है और बायीं ओर आठ-दस दुकानें हैं। सड़क के आखिर में प्रवेशद्वार है और नीचे सीढ़ियां उतरने पर प्राचीन मन्दिर बुद्ध भुवनेश्वर के दर्शन होते हैं। साथ ही नील, काल व बटुक भैरव के मन्दिर भी हैं। समय पर्याप्त हो तो त्रिकोण के बीच बना शिवलिंग, धर्मशाला के आंगन में हनुमान जी की विशाल मूर्ति तथा शेषावतार व सूर्य की मूर्ति भी आकर्षण के केन्द्र है।
                                                                                                                                  क्रमशः......................

Wednesday, January 02, 2013

प्रार्थना

जग को ज्योतिर्मय कर दो !
 

प्रिय कोमल-पद-गामिनि !
 

मन्द उतर-
 

जीवन्मृत तरु-तृण-गुल्मों की पृथ्वी पर,
 

हँस-हँस, निज पथ आलोकित कर
 

नूतन जीवन भर दो ! -
 

जग को ज्योतिर्मय कर दो !              
                         
                             -सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’
                                         (परिमल से)

Wednesday, December 26, 2012

कुमाऊँ - 3 (भगवान बागनाथ जी के चरणों में)


यात्रा संस्मरण  
 बागेश्वर- सरयू नदी का फैलाव और गोमती का संगम 
            ईश्वर को प्रणाम कर, भोजन बागेश्वर में किया जाय यह सोचकर हम आगे बढ़ते हैं. बैजनाथ से कुछ दूरी पर से एक रास्ता बायीं ओर बदरीनाथ को जाता है और दूसरा बागेश्वर को. यहाँ से निरंतर चढ़ाई चढ़ते हुए अठारह किलोमीटर दूरी पर चमोली जिले का एक हिल स्टेशन है ग्वालदम. समुद्रतल से लगभग 2000 मीटर ऊँचाई पर होने के कारण सर्दियों में जमकर हिमपात होता है जो सैलानियों को आकृषित करता है. हल्द्वानी, नैनीताल, अल्मोड़ा, बागेश्वर आदि जगहों से बदरीनाथ जाने वाले लोग ग्वालदम होकर जाते हैं. ग्वालदम का सौन्दर्य प्रकृति प्रेमी को बरबस अपनी ओर आकृषित करने वाला है. हम गोमती नदी के बाएं तट पर बागेश्वर की ओर आगे बढ़ते हैं. समशीतोष्ण जलवायु वाली चौड़ी व इस रमणीक घाटी में गाँव काफी पास-पास हैं और जनसँख्या घनत्व ठीकठाक है. पहाड़ों में बढ़ते पलायन को देखते हुए कहा जा सकता है कि गगास घाटी और यह कत्यूर घाटी अपवाद है. गांवों में हलचल दिखती है. पुरुषों की भागदौड़, महिलाओं की खिलखिलाहट और बच्चों की धमाचौकड़ी से जीवन्तता आज भी बनी हुयी है. कत्यूरी शासन काल में राजधानी होने के साथ साथ कारण यह भी है कि बसासत के लिए आवश्यक संसाधन उपलब्ध है. चारा व जलावन लकड़ी हेतु गाँव के पीछे पहाड़ियों पर घना जंगल, आस पास अपेक्षाकृत समतल कृषि योग्य प्रचुर भूमि तथा आवागमन के लिए चौड़ी सड़कें. तीन ओर पहाड़ियां होने से पानी की कमी भी कदाचित ही होती होगी. और सबसे मुख्य यह भी कि गाँव लगभग समतल भाग या हल्की ढलान वाली भूमि पर होने के कारण न भूस्खलन का खतरा है और न ही पहाड़ियों से मलबा गिरने का भय. सड़क के दोनों ओर बसे गांवों में केले, आम, खुबानी और नाशपाती के फलदार पेड़ों की कतारें मन मोह लेती है. नाशपाती के लकदक पेड़ों को देखकर मेरी बेटी ललचाती है और एकाध नाशपाती तोड़ लाने की जिद पकडती है. मना करता हूँ और किसी तरह ही उसे मना पाता हूँ.             
भगवान बागनाथ जी का मन्दिर (पार्श्व ओर  से )
             चालक राणा जी कई वर्षों तक लम्बी दूरी की बसों में ड्राइविंग करता था. इसलिए उसे हमेशा मंजिल पर पहुँचने की जल्दी रहती है. मना करते हैं कि हम लोग घूमने के मकसद से ही घर से निकले हैं इसलिए हमें कहीं पहुँचने की कोई जल्दी नहीं है. जहाँ रात होगी वहीँ पर रुक जायेंगे. नदी के दोनों ओर खेतों में किसानों ने धान की नर्सरी उगा कर खेत के शेष हिस्से में जुताई भी कर दी है. आशमान बरसेगा तो रोपाई कर देंगे. जून का अंतिम सप्ताह चल रहा है किन्तु बारिस का इन्तेजार ख़त्म नहीं हुआ. चाय पीने की इच्छा से सड़क किनारे गाडी रोकते हैं. एक अधेड़ व्यक्ति से हाल चाल पूछता हूँ तो जबाव मिलता है ठेठ कुमाउनी लहजे में " ..... कहाँ हो, इस साल बारिस हुयी ही कहाँ ठहरी, खेतों की तो छोड़ो पीने के पानी का अकाल पड़ा हुआ ठहरा ......"  नीचे गोमती में पानी की एक पतली सी धारा मात्र कहीं कहीं दिखाई दे रही थी और उसके सीने पर बेतरतीब बिखरे छोटे बड़े पत्थर शीशे की मानिंद चमक रहे थे. सन 2003 में सितम्बर माह में यहाँ से गुजरा था तो गोमती नदी किसी अल्हड़ युवती की भांति इठलाती इतराती आगे बढ़ रही थी. नदी किनारे तब कई मछुवारे बगुला बने बैठे थे. गोमती का यह सूखा रूप उदास कर गया. धीरे धीरे रास्ते में कमेरा और कमेड़ी गाँव होते हुए हम बागेश्वर पहुँचते हैं जो कि बैजनाथ से मात्र 23 किलोमीटर की दूरी पर है.
                           बागेश्वर जिला मुख्यालय है. गोमती व सरयू नदी के तट पर निर्मित बागनाथ जी का मन्दिर यहाँ का मुख्य आकर्षण है. बागनाथ भगवान शंकर का ही एक रूप है. बागनाथ जी के नाम से ही इस जगह का नाम बागेशुर पड़ा, जो कालांतर में बागेश्वर हो गया. मन्दिर का मुख्य द्वार उत्तर दिशा में है जहाँ तक पहुँचने के लिए एक सात-आठ फीट चौड़ी सड़क से गुजरना होता है. इस सड़क के दोनों ओर पूजा प्रसाद और श्रृंगार सामग्री आदि का बाजार सजा रहता है. खूब चहल पहल है. कहीं होटल में बैठकर गाँव से आये स्त्री पुरुष जलेबी, समोसा खा रहे थे तो कहीं औरतें हाथो में रंग बिरंगी चूड़ियाँ पहन रही थी. मै पत्नी को बाजार से चूड़ी, बिंदी  खरीदने को कहता हूँ तो वह मुंह बिचका कर आगे बढ़ जाती है. मन्दिर के दक्षिण में गोमती नदी है और पूरब में सरयू. जिन पर स्नानघाट बनाया गया है और पास ही गोमती-सरयू का संगम है. सरयू का जलागम क्षेत्र अधिक होने के कारण इसमें गोमती की अपेक्षा अधिक जलराशि है। मकर सक्रांति को लगने वाला उत्तरायणी मेला बागेश्वर का ही नहीं पूरे कुमाऊँ का प्रसिद्द मेला है. जिसमे
उत्तरखंड की समृद्ध संस्कृति की झलक दिखाई देती है. सरयूं नदी के दोनों ओर बाजार सजता है. मै परिवार सहित मन्दिर के उत्तरी द्वार से प्रवेश करता हूँ. मन्दिर में इक्का दुक्का लोग दिखाई दे रहे थे. भीतर पूजा अर्चना के लिए पुजारी नहीं दिखाई देते हैं तो मै बाहर आता हूँ उसी वक्त एक स्त्री मन्दिर में आती है. मै उस पर गौर नहीं करता हूँ, सोचता हूँ  दर्शनार्थ आई होगी. मै परिवार सहित बाहर ही खड़ा रहा कि कोई पुजारी आयेंगे. तो वह कुमाउनी स्त्री आवाज लगाती है " आईये, आईये !" हम आश्चर्य करते हैं तो फिर वह कहती है -"आईये, मै ही पूजा कर देती हूँ. आज स्त्रियाँ जब हवाई जहाज तक चला रही है तो क्या मै मन्दिर में पूजा नहीं कर सकती? " रावल लोग ही इस मन्दिर के पुजारी हैं और व्यवस्था भी देखते हैं. लोक धारणा है कि यदि कभी सरयू बरसात में विकराल रूप धारण करती है तो मन्दिर का रावल सरयू पुल से कूद कर बागनाथ जी से विनाश को रोकने की प्रार्थना करता है और यह बागनाथ जी की ही महिमा है कि उफनती नदी में कूदे रावल भी बच जाते हैं और मन्दिर व बागेश्वर भी. पूजा से निवृत्त होकर हम सभी बाहर आकर दीवार के सहारे बैठ जाते हैं. बाहर एक पंडित जी फर्श पर पालथी मर कर बैठे हुए थे और गाँव के एक दम्पति को उनकी कुंडली में देखकर राहू, केतु, शनि की दशा और ग्रहों का योग समझा रहे थे, साथ ही निवारण की विधि भी.
धर्म कर्म में लीन पण्डित जी और चिन्तित यजमान 
                     उनकी ओर पीठ कर मै पत्नी से इस मन्दिर की ऊँचाई नजरों से नापने को कहता हूँ. सन 1450 में कुमाऊ के राजा लक्ष्मी चन्द द्वारा ग्रेनाईट व नीस पत्थरों से निर्मित और काष्ट छत्र वाला 90 फीट ऊंचा यह मन्दिर आज भी भव्य है, मन्दिर में पूजा कक्ष व बरामदा आकार में इतना बड़ा है कि एक साथ पचास से अधिक लोग खड़े होकर पूजा कर सकते हैं. मन्दिर के चारों ओर भी
सैकड़ों भक्त खड़े हो सकते हैं. मन्दिर थोड़ा बहुत मरम्मत व सफाई मांग रहा है. गोमती की घाटी सरयू की अपेक्षा कुछ संकरी है इसलिए आबादी सरयू के तट पर ज्यादा है. लेकिन दुखद यह है कि आबादी जिस क्षेत्र में बसी है वहां कभी धान की फसलें लहलहाती थी. घाटी में होने और समुद्र तल से ऊँचाई मात्र 1000 मीटर होने के कारण बागेश्वर में काफी गर्मी पड़ती है. माना जाता है कि बागेश्वर के पूरब और पश्चिम दिशा में भीलेश्वर व नीलेश्वर पर्वत हैं तो उत्तर दिशा में सूरज कुण्ड तथा  दक्षिण में अग्निकुंड अवस्थित है. घूमते हुए शाम हो गयी थी अतः आज यहीं रुकने के इरादे से होटल की तलाश शुरू करते हैं ताकि कल की यात्रा के लिए तरोताजा रह सकें.                                                                                                                                                                                      क्रमशः  - - - - -     

Friday, December 21, 2012

कुमाऊँ - 2 (कत्यूर घाटी का सौन्दर्य)

यात्रा संस्मरण  
हिमालय विलेज रिसोर्ट में चायबागान देखती बिमला रावत 
         कत्यूर घाटी का सौन्दर्य  मैदानी इलाके जून के अंतिम सप्ताह तक भी दहक रहे थे. ऐसे में रानीखेत और कौसानी जैसे हिल स्टेशन स्वर्गिक आनंद देते हैं. कौसानी से उत्तर की ओर चलने पर कुछ सर्पाकार मोड़ों के बाद हम चाय बगीचों के बीच से गुजरते हैं. हलकी ढलान लिए असिंचित सीढ़ीदार खेतों पर तैयार किये गए इन चाय के बगीचों के पार्श्व में देवदारु, बांज व चीड़ के जंगल मनमोहक लगते हैं. आज हमारी यात्रा थी कौसानी से बागेश्वर तक. सड़क के दोनों ओर ठेठ कुमाउनी काष्ट  कला के द्योतक सुन्दर मकानों वाले गाँव हैं. सड़क के दायीं तरफ नीचे ढलान की ओर एक क्राफ्ट सेंटर है. और कुछ आगे ही कौसानी से लगभग छ किलोमीटर दूरी पर बाईं ओर उत्तराखण्ड (कौसानी) टी एस्टेट है और उसके मध्य है टी फैक्ट्री. पास ही सड़क किनारे एक दुकान पर हम गए तो वहां पर फैक्ट्री की चाय अलग-अलग वैरायटी व अलग-अलग वजन के पैकेट में बिक रही थी. अच्छी लगी तो एक पैकेट मैंने भी ले लिया 'गिरियास टी' ब्रांड के नाम से. तुलनात्मक तौर पर देखा जाय तो अयारतोली चाय बगीचा यहाँ पर सबसे बड़ा है. चाय बगीचों का इतिहास उत्तराखण्ड में काफी पुराना है. माना जाता है कि गढ़वाल, कुमाऊँ की पहाड़ियों में चाय बागान लगाने की शुरुआत ब्रिटिश शासकों द्वारा सन 1836 में शुरू की गयी. डैंसी, व्हीलर आदि प्रमुख अंग्रेज अफसर थे जिन्हें यह श्रेय जाता है. ब्रिटिश शासन काल अर्थात बीसवीं सदी के मध्य तक उत्तराखण्ड में आठ हजार हेक्टेअर भूभाग में चाय बागान थे जो कि सदी के अंतिम दशक तक मात्र पांच सौ हेक्टेअर तक ही रह गए. 
                      गर्मियों की सुबह कौसानी के आँचल में हो तो फिर क्या कहना. बदलियां पिछली शाम से ही आशमान में दिखाई दे रही थी. किन्तु बरसने की उम्मीद बाकी थी. धीरे धीरे आगे बढ़ते हैं. हलकी ढलान ख़त्म होती है और समतल भूभाग में हमारी गाड़ी सरपट दौड़ रही है कि गरुड़ कस्बे में पहुचते हूँ. सन 2003 में गरुड़ में दो दिन रुका था किसी काम के सिलसिले में. नौ साल में काफी कुछ बदल जाता है. स्वतंत्रता पूर्व गरुड़ मण्डी हुआ करती थी. ग्वालदम, चमोली, बागेश्वर और सम्पूर्ण कत्यूर घाटी क्षेत्र के लिए। छोटे व्यापारी यहीं से माल खरीदकर खच्चरों में लाद कर ले जाते थे. आज आवागमन के साधन अच्छे हो गए, जिससे सामान मैदानी क्षेत्रों की मंडियों से सीधे छोटे दुकानदारों तक पहुच रहा है. तथापि आज भी गरुड़ में छोटी गाड़ियों और खच्चरों में सामान ढोते हुए देखा जा सकता हैं. (वर्तमान में गरुड़ बागेश्वर जिले की एक तहसील है) परन्तु जैसे कि नगरों-महानगरों में अतिक्रमण और अनुशासनहीनता की स्थिति है, वह गरुड़ में भी
गरुड़ गंगा व बैजनाथ का विहंगम दृश्य 
है. सड़कें अतिक्रमण के कारण संकरी हो रही है और लोगों ने जहाँ तहां गाड़ियाँ खड़ी कर जनता को परेशान करने का जैसे मन बना रखा हो. कभी रेंगते और कभी दौड़ाते हमारे चालक महोदय गाड़ी को गरुड़ से बाहर निकाल लेते हैं. और शीघ्र ही हम दो कि0मी0 दूर ऐतिहासिक स्थल बैजनाथ पहुँचते हैं.
                गोमती नदी के बाएं तट पर स्थित यह मन्दिर समूह उत्तराखण्ड के इतिहास में प्रमुख स्थान रखता है. माना जाता है कि कत्यूर शासकों द्वारा आठवीं शताब्दी में राजधानी कार्तिकेयपुर (जोशीमठ) से बैजनाथ स्थानांतरित की गयी. यहाँ पर नागर शैली में निर्मित मुख्य मन्दिर शिव को समर्पित होने के साथ साथ सत्रह और मन्दिर हैं. जो विभिन्न पौराणिक देवी देवताओं - सूर्य, चंडिका, ब्रह्मा, गणेश, पार्वती, कुबेर आदि को समर्पित है. मुख्य मन्दिर का शिखर भाग ध्वस्त होने के कारण वर्तमान में धातु की चादर से तैयार किया गया है. इतिहासकार कत्यूरी राजाओं द्वारा निर्मित इन मंदिरों का निर्माण काल नौवीं से बारहवीं शताब्दी के मध्य मानते हैं। बार-बार कुमाऊं पर गोरखों और रुहेलों द्वारा आक्रमण करने और मन्दिरों को क्षति पहुँचाने के कारण मन्दिर आज मूल स्वरुप में ही है, संदेह है। राष्ट्रीय धरोहर होने के कारण यह मन्दिर समूह आज भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा अधिगृहित है. मन्दिर से नदी में उतरने के लिए पत्थरों की सीढियां बनी हुयी है जो कि एक कत्यूरी महारानी द्वारा तैयार करवाई गयी. यहाँ शिव मन्दिर की मान्यता इसलिए भी अधिक है कि हिन्दू धर्म ग्रंथों के अनुसार भगवान शिव और माँ पार्वती का विवाह यहीं गोमती व गरुड़ गंगा के संगम तट पर संपन्न हुआ था. बैजनाथ मन्दिर भगवान शिव को समर्पित है. क्योंकि शिव को ही वैद्यनाथ अर्थात कायिक विज्ञान का ज्ञाता माना जाता है. श्रृद्धालुओं को यह शांत व साफ़ सुथरा देवस्थान अधिक भाता है तभी हर वक्त भक्तों की भीड़ लगी रहती है. माँ पार्वती की आदमकद मूर्ति और उसके सामने ही शिवलिंग की स्थापना होने से यहाँ का महत्व और भी बढ़ जाता है. पास ही नदी के किनारे पानी को रोककर तालाब का रूप दे दिया गया है, जिससे उसमे काफी महाशीर मछलियाँ कलाबाजियां कर रही थी. हमारे चालक राणा जी मछलियों के बड़े शौक़ीन हैं, देखकर उनके मुंह में पानी आ जाता है. हिन्दू धर्मशास्त्र विष्णु पुराण में भगवान विष्णु के चौबीस अवतारों में से एक "मत्स्य अवतार" भी हैं. शायद इसलिए आस्तिक लोग पास से ही चने व मूंगफली के दाने खरीद कर मछलियों को खिला रहे थे.
                        समुद्रतल से लगभग 1130 मीटर ऊँचाई पर स्थित बैजनाथ का पौराणिक व ऐतिहासिक महत्व
बैजनाथ मन्दिर समूह 
समान रूप से है. कत्यूरी शासन काल में प्रायः जितने भी मन्दिर बने उनकी निर्माण शैली और पत्थरों की प्रकृति एक ही है. केदारनाथ, पांडुकेश्वर मन्दिर हो या  बैजनाथ, द्वाराहाट व जागेश्वर मन्दिर समूह. जैन मन्दिर, दक्षिण भारतीय स्थापत्य कला व कांगड़ा शैली से हटकर मन्दिर निर्माण की जो शैली विकसित हुयी वह कत्यूरी  शैली कहलाई. कत्यूरी शासन काल स्थापत्य कला के लिए आज भी प्रसिद्द है. इस शासन काल में Architect ही नहीं अपितु structural इंजिनियर और माइनिंग इंजिनियर की प्रवीणता का मूल्यांकन इसी बात से किया जा सकता है कि उन्होंने नीस पत्थरों (Gneiss-Metamorphic Rock Types)  की खोज की, उनकी 10-12" मोटी व 3 से 6 फीट लम्बी लम्बी स्लैब बनवाकर तैयार करवाई और निर्माण स्थल तक पहुंचा कर एक अनूठी शैली के मन्दिर बनवाए.  सैकड़ों सालों में इस उच्च हिमालयी क्षेत्र में न जाने कितने भूकम्प इन मन्दिरों ने झेले होंगे किन्तु कहीं कोई क्षति नही।
                      ऐतिहासिक काल से ही उत्तराखण्ड की भौगोलिक सीमायें पूर्व में काली नदी, पश्चिम में यमुना की सहायक टोंस नदी, दक्षिण में तराई-भाबर व टनकपुर का क्षेत्र तथा उत्तर में तिब्बत (चीन) तक विस्तार लिए हुए था. इतिहासकारों व पुरातत्वविदों के अनुसार उत्तराखण्ड में दूसरी शताब्दी से पांचवीं शताब्दी के मध्य तक कुणिन्द वंश का साम्राज्य रहा है. कुणिन्द शासकों की ही एक शाखा कत्यूरे हुए, ऐसा माना जाता है, जिसके
माँ पार्वती की मूर्ती और सम्मुख शिवलिंग
संस्थापक वासुदेव कत्यूरी हुए. कत्यूरों में मुख्य राजा बिरमदेव (ब्रह्मदेव) हुए. समुद्रगुप्त के इलाहाबाद प्रशस्ति अभिलेख के अनुसार चौथी शताब्दी में उत्तराखण्ड कार्तिकेयपुर के नाम से जाना जाता था. तदनंतर उत्तराखण्ड ब्रह्मपुर के नाम से भी जाना गया. (संभवतः राजा ब्रह्मदेव के कारण) चीनी यात्री व्हेनसांग की सातवीं शताब्दी के यात्रा वर्णन में यह उल्लेख है. सातवीं सदी से बारहवीं सदी तक उत्तराखंड ही नहीं पश्चिमी नेपाल तक कत्यूरों का साम्राज्य रहा. कत्यूरी शासनकाल स्वर्णिम युग माना जाता है। किन्तु बारहवीं सदी के अंत में नेपाल के मल्ल शासकों द्वारा कत्यूरों को पराजित कर इस क्षेत्र पर अधिकार पा लिया गया. उन्होंने लगभग चौबीस वर्षों तक शासन किया. कालांतर में कत्यूरी शासन छोटी छोटी रियासतों में बंट गया और वे स्वतंत्र रूप से शासन करने लगे. कत्यूरी शासक असंगठित रहने व धीरे धीरे उनका प्रभाव कम होने के कारण गढ़वाल में पंवार व कुमाऊँ में चन्द राजवंशों का उदय हुआ. जिनका शासन अठाहरवीं सदी के अंत तक रहा. असकोट, डोरी, पाली व पछाऊँ में जो छोटे छोटे रजवाड़े रहे उनके क्षत्रप अपने को आज भी कत्यूरी वंशज बताते है।                                                                                                     
                                                                                                क्रमशः ......................... 
                        

Wednesday, December 12, 2012

कुमाऊँ - देहरादून, रामनगर से रानीखेत

देहरादून  - किसकी नजर लग गयी इस सुन्दरता को 
यात्रा संस्मरण          
         मौसम विभाग भविष्यवाणी कर चुका था कि इस वर्ष मानसून देर से आएगा. फिर कुछ दिनों बाद मौसम विभाग ने पुनः घोषणा की कि मानसून भटक चुका है और अब और देर से आएगा. दून घाटी में बारिस प्रायः मई के दूसरे, कभी तीसरे हफ्ते तक हो जाती है पर इस बार मई पूरा सूखा बीता ही और जून के दो हफ्ते भी बारिस के इन्तजार में बीत गए. ऊपर से बिजली कटौती अलग से. इतनी गर्मी पहले कभी देहरादून में झेली हो याद नहीं. पत्नी बिमला और बेटी नन्दा दोनों जोर दे रहे थे कि चलो कहीं चलते हैं पहाड़ों में. मैंने कहा हमारा बेटा भी तो सहारनपुर की गर्मी झेल रहा है, तो ? बेटे को फोन किया तो उसे छुट्टी नहीं मिली और फिर कुमाऊँ चलने का मन बनाया. मेरी माँ जब तक जीवित रही तब तक उसके पास गाँव चले जाते थे. किन्तु पिछले साल कैंसर ग्रस्त होने के कारण यहीं मेरे पास ही उसकी मृत्यु हो गयी तो अब गाँव के बन्द पड़े घर में जाने का मन नहीं करता. उत्तराखण्ड राज्य बनने के बाद देहरादून राजधानी बनी तो इस शहर का अमन चैन ही समाप्त हो गया. बदलाव लोगों के आचार व्यवहार में तो आया ही किन्तु मौसम के मिजाज में भी बदलाव आ गया. देहरादून बदलाव के इन हालातों को प्रसिद्द जनकवि चन्दन सिंह नेगी जी से अधिक सुन्दर शब्दों में कौन बयां कर सकता है.
ये कैसी राजधानी है! ये कैसी राजधानी है!!  हवा में जहर घुलता औ' जहरीला सा पानी है !!!

कहाँ तो साँझ होते ही शहर में नींद सोती थी, कहाँ अब 'शाम होती है' ये कहना बेमानी है !!
मुखौटों का शहर है ये ज़रा बच के निकलना तुम, बुढ़ापा बाल रंगता है ये कैसी जवानी है !!
शहर में पेड़ लीची के बहुत सहमे हुए से हैं, सुना है एक 'बिल्डर' को दुनिया नयी बसानी है !!
न चावल है, न चूना है, न बागों में बहारें है, वो देहरादून तो गम है फ़क़त रश्मे निभानी है !!
महानगरी 'कल्चर' ने बदल डाला सबकुछ, इक घण्टाघर पुराना है औ' कुछ यादें पुरानी है !! 

ये कैसी राजधानी है .......!
चिलचिलाती धुप में माँ गिरिजा देवी के दर्शनार्थ भक्तों की भीड़ 
                   देहरादून से 18 जून को ही मुंह अँधेरे निकल पड़े, हरिद्वार, नजीबाबाद, काशीपुर होते हुए लगभग 240 कि०मी० दूरी तय कर रामनगर पहुंचे. फुटहिल्स में बसा लीची और आम के बगीचों के लिए प्रसिद्द यह नगर जिला नैनीताल की तहसील है और विश्व विख्यात टाइगर प्रोजक्ट जिम कार्बेट नैशनल पार्क के लिए प्रवेश द्वार भी. रामनगर से एक सड़क पूरब में काला ढून्गी होते हुए हल्द्वानी/नैनीताल को है. उत्तर में रानीखेत व धूमाकोट को चली जाती है तो पश्चिम में कालागढ़ होते हुए कोटद्वार को. रामनगर रेललाइन से भी जुड़ा हुआ है. रामनगर से ही पौड़ी व अल्मोड़ा के पहाड़ी क्षेत्रों के लिए फल, सब्जी, अनाज आदि सप्लाई होता है. रामनगर मैं सन 2006 में भी आया था किन्तु तब मेरे साथ चालक स्थानीय था इसलिए कुछ ढूँढने में दिक्कत नहीं हुयी. किन्तु आज चालक राणा जी इस क्षेत्र से अन्जान थे इसलिए नाश्ता करने के लिए सही होटल की तलाश की जा रही थी. सुबह के दस बज चुके और अभी तक नाश्ता भी नहीं कर पाए थे. कुमाऊँ मंडल विकास निगम का पर्यटन आवास गृह दिखाई दिया. जाकर फटाफट परांठे तैयार करवाए और दही के साथ दो-दो परांठे हम चारों ने ले लिए. गाड़ी में पेट्रोल चेक किया और निश्चिन्त होकर आगे बढ़ गए.
भीषण गर्मी में कोसी में नहाते माँ गिरिजा देवी के भक्त 

                      रामनगर से धीरे धीरे हम चढ़ाई चढ़ते हैं. और फिर घने पेड़ों के बीच समतल भूभाग से गुजर रही साफ़ सुथरी सड़क पर गाड़ी सरपट दौड़ती जाती है. कोसी नदी के दायें तट पर यह ढिकुली क्षेत्र कभी बसासत वाला भूभाग था. कुछ लोग इसे महाभारत कालीन विराट नगरी मानते हैं, जहाँ पर पाण्डव अज्ञातवास के दौरान रहे. कुछ इसे कत्यूरों की राजधानी भी मानते हैं. कुछ विद्वान जन अल्मोड़ा में चन्द शासनकाल के दौरान ढिकुली को शीतकालीन राजधानी मानते हैं. क्षेत्र में देखे जाने वाले प्राचीन खंडहर की ईंटें और समय समय पर प्राप्त होने वाली मूर्तियाँ इस ओर इशारा भी करती है. वर्तमान में जिम कार्बेट नैशनल पार्क के निकट होने के कारण ढिकुली एक महत्वपूर्ण क्षेत्र है जहाँ पर अनेक होटल, रिसोर्ट आदि बन गए हैं. यहाँ पर आबादी ठीक-ठाक होने के कारण एक इंटर कालेज है और बिजली, पानी के आफिस आदि अन्य आवश्यक जन सुविधाएँ भी. तथा काफी संख्या में बाग़ बगीचे भी हैं. ढिकुली से मात्र तीन कि०मी० आगे रानीखेत मार्ग पर (रामनगर से 11 कि०मी०) कोसी नदी के बीचों-बीच है जनआस्था का केन्द्र माँ गर्जिया देवी का मन्दिर. पौराणिक ग्रंथों के अनुसार राजा दक्ष प्रजापति की पुत्री सती का विवाह हुआ था भगवान शिव के साथ. राजा दक्ष द्वारा आयोजित यज्ञ में अपने पति शंकर को न बुलाये जाने पर सती रुष्ट हो गयी और अपमानित महसूस कर यज्ञ के हवन कुण्ड में ही अपने प्राणों की आहुति दे दी. जिससे क्षुब्ध होकर भगवान शंकर ने तांडव नृत्य करते हुए संहार किया था. फिर सती ने गिरिराज हिमालय की पुत्री के रूप में जन्म लिया. गिरिराज की पुत्री होने के कारण वह गौरा या गिरिजा भी. इनके नाम से ही यह मन्दिर है यह कोसी नदी के बीचों बीच. किन्तु यह गिरिजा जी इस क्षेत्र में गर्जिया देवी नाम से ज्यादा विख्यात है. ऐसा माना जाता है कि माँ के इस मन्दिर में प्रायः शेर आया करते हैं (जो कि गिरिजा की सवारी भी है) और गर्जना करते हैं जिससे इस मन्दिर का नाम गर्जिया देवी पड़ गया.                        उत्तर-दक्षिण बह रही कोसी नदी के मध्य एक समकोण त्रिभुज की आकृति से मिलता जुलता चालीस-पैंतालीस फीट ऊंचा टीला खड़ा है, जो कि मिट्टी, बजरी व छोटे-छोटे गोल पत्थरों के मिश्रण से बना हुआ है। जिसकी टेकरी पर निर्मित है एक छोटा सा मन्दिर. इस समकोण त्रिभुजनुमा टीले के कर्ण पर ऊपर चढ़ने के लिए सीढियां बना दी गयी है. किवदंती है कि यह टीला कहीं ऊपर कोसी नदी का कोई हिस्सा टूटकर यहाँ तक आया. परन्तु देखकर ऐसा नहीं लगता. यह अवश्य हो सकता है कि कभी यह टीला कोसी नदी का बायाँ या संभवतः दायाँ किनारा रहा होगा और किसी बरसात में नदी के कटाव के कारण यह भूभाग अलग हो गया और नदी के बहाव के कारण हर साल यह दोनों ओर से कटने लगा, जब तक कि इसके चारों ओर एक मजबूत 'फ्लड प्रोटेक्सन वाल' नहीं बनाई गयी. यह तो निश्चित है कि टीले का यह स्वरुप दस-बीस वर्षों में नहीं अपितु सैकड़ों वर्षों में तैयार हुआ होगा. यह जनआस्था का केंद्र कब बना यह ठीक-ठीक ज्ञात नहीं है किन्तु यह माना जाता है कि रानीखेत से रामनगर आने जाने वाले लोग जब टीले के इस स्वरुप से आकृषित होकर टीले पर जाते थे तो चारों ओर घने जंगल और टीले के दोनों और नदी की जलधाराएं देखकर अभिभूत होते थे। जो शनै-शनै आस्था में परिवर्तित होने लगी।  सन 1941 से रानीखेत निवासी रामकृष्ण पांडे विधिवत रूप से इस टीले पर बने मन्दिर में पूजा आराधना करने लगे और धीरे धीरे मन्दिर व देवी माँ की ख्याति दूर दूर तक फैलने लगी.तब से पांडे जी के वंशज ही इस मन्दिर के पुजारी नियुक्त हैं. आज मन्दिर जाने के लिए टीले पर सीढियां बनी हुयी है, कोसी नदी पर पुल तथा नदी के दायें तट पर एक विशाल धर्मशाला और एक बाजार भी बन गया है. प्रतिदिन सैकड़ों तीर्थयात्री देवी के दर्शनार्थ आते हैं. कुमाऊँ की सीमा उत्तर में गिरिराज हिमालय, पूरब में विशाल काली
माँ गिरिजा की शरण में मै और मेरा परिवार 
नदी द्वारा सुरक्षित है तो दक्षिण-पश्चिमी सीमा माँ गिरिजा और दक्षिण-पूर्वी सीमा माँ पूर्णागिरी देवी द्वारा सुरक्षित है.
                       माँ गिरिजा देवी को प्रणाम कर कोसी नदी की विपरीत दिशा में दायें तट के साथ-साथ चढ़ाई चढ़ते हुए इस मार्ग पर आगे बढ़ते हैं. घने जंगलों के बीच से गुजरते हुए अच्छा लगता है किन्तु आबादी विहीन होने के कारण एक सूनापन खलता है. सोरल में कुछ देर सुस्ता कर व चाय पीकर फिर आगे चलने के लिए तैयार हो जाते हैं. यहाँ टोटम, खायोधार गाँव में आबादी थोड़ी बहुत दिखती है. रास्ता निरंतर चढ़ाई वाला है और सोचता हूँ ब्रिटिश साम्राज्य द्वारा जब 1869 में रानीखेत में रेजिमेंट का हेडक्वार्टर बनाया गया होगा तो इस मार्ग की स्थिति कैसी रही होगी.   
                                                                                                                                  क्रमशः .............