Tuesday, June 28, 2011

अपना अपना दुःख

नारी तेरे कितने रूप  छाया:गूगल
मुझे तुम्हारे अपढ़ होने का दुःख हमेशा-हमेशा ही सालता रहा भाभी माँ
तुम्हारे मुखर व स्पष्टवादी होने की पीड़ा मै सदा ही भोगता रहा भाभी माँ

मुझे इस बात का दुःख नहीं है भाभी माँ कि -
कुचल देती थी तुम अक्सर मेरी देर रात तक पढने की इच्छा को,कि   
जाना है सुबह खेतों में फसल बुवाई, रोपाई या कटाई, मंड़ाई को,
या फिर जंगल में घास, चारा, लकड़ी काटने या ढोर-डंगर चुगाने को ,    
और कभी रिश्ते की मामी,बुआ,चाची,ताई बुलाने जाने को ! मुझे तुम्हारे ....... 

मुझे इस बात का दुःख नहीं है भाभी माँ कि -
किताबों से अधिक महत्व दिया तुमने लोहे-लकड़ी के कृषि औजारों को 
रिंगाल के सूप, टोकरों को या सन से बटी हुयी रस्सियों को, क्योंकि अक्सर 
कालेज से घर लौटकर रखे पाता मै औजार या टोकरे अपने बिस्तर पर, या
दाल, मिर्च, धनिया, मसाले रखे होते मेरी पढाई की मेज पर ! मुझे तुम्हारे ............

मुझे इस बात का दुःख नहीं है भाभी माँ कि -
घर के छोटे से कोने में देवी-देवताओं की फोटुओं, मूर्तियों के बीच 
सजा रखी क्यों तुमने मेरे शहीद फौजी भाई की पुरानी तस्वीर 
और दीप, शंख, घंटी, नारियल के साथ जाने क्यों रखे हुए हैं 
कुलदेवता, भैरों, नरसिंग के नाम से पुड़ियों में कई-कई उठाणे ! मुझे तुम्हारे ............

मुझे इस बात का दुःख नहीं है भाभी माँ कि -
अपनी तरह के स्पष्टवादी लोगों से क्यों करती हो नफरत, तभी तो  
बात-बेबात फूट पड़ती पणगोले सी किसी पर अकारण ही, और कभी 
हाथों में ज्यूंदाल लिए खड़ी नतमस्ता देवता-अदेवता के हुंकार पर
मांगती वरदान अपने-पराये और गाँव-कुनबों की राजी ख़ुशी का ! मुझे तुम्हारे .............






Wednesday, June 22, 2011

माधो सिंह भंडारी: एक शापित महानायक

मलेथा व अलकनंदा का विहंगम दृश्य               छाया: साभार गूगल
                ऐतिहासिक पुरुष वीर माधो सिंह भंडारी का नाम गढ़वाल के घर घर में आज भी श्रृद्धा व सम्मान के साथ लिया जाता है. महाराजा महीपति शाह के शासनकाल में प्रधान सेनापति रहते हुए उन्होंने अनेक लड़ाईयां लड़ी व गढ़वाल की सीमा पश्चिम में सतलज तक बढाई. गढ़वाल राज्य की राजधानी तब श्रीनगर (गढ़वाल) थी और  श्रीनगर के पश्चिम में लगभग पांच मील दूरी पर अलखनंदा नदी के दायें तट पर भंडारी का पैतृक गाँव मलेथा है. डाक्टर भक्तदर्शन के अनुसार "लगभग सन 1585 में जन्मे भंडारी सन 1635 में मात्र पचास वर्ष की आयु में छोटी चीन (वर्तमान हिमाचल)में वीरगति को प्राप्त हुए." उनके गाँव मलेथा में समतल भूमि प्रचुर थी किन्तु सिंचाई के साधन न होने के कारण मोटा अनाज उगाने के काम आती थी और अधिकांश भूमि बंजर ही पड़ी थी.  भूमि के उत्तर में निरर्थक बह रही चंद्रभागा का पानी वे मलेथा लाना चाहते थे किन्तु बीच में एक बड़ी पहाड़ी बाधा थी. उन्होंने लगभग 225फीट लम्बी, तीन फिट ऊंची व तीन फिट चौड़ी सुरंग बनवाई किन्तु पानी नहर में चढ़ा ही नहीं. किवदंती है कि एक रात देवी ने स्वप्न में भंडारी को कहा कि यदि वह नरबली दे तो पानी सुरंग पार कर सकता है. किसी अन्य के प्रस्तुत न होने पर उन्होंने अपने युवा पुत्र गजे सिंह की बलि दी और पानी मलेथा में पहुँच सका. मृत्यु के बाद गजे सिंह की आत्मा का प्रलाप निम्न कविता में अभिव्यक्त है.
भंडारी द्वारा निर्मित सुरंग                               छाया: साभार गूगल
तुम तो वनराज की उपाधि पा चुके पिता 
किन्तु मै तो मेमना ही साबित हुआ. 
लोकगीतों के पंखों पर बिठा दिया
तुम्हे जनपद के लोगों ने,
इतिहास में अंकित हो गयी तुम्हारी शौर्यगाथा.
और मै मात्र- एक निरीह पशु सा,
एक आज्ञाकारी पुत्र मात्र- त्रेता के राम सा.
छोड़ा जिसने राजसी ठाठबाट,
समस्त वैभव और सभी सुख.
और मैंने,
आहुति दे डाली जीवन की तुम्हारी इच्छा पर. 
मलेथा में माधो सिंह भंडारी स्मारक                 छाया: साभार गूगल
क्या राम की भांति
मेरा भी समग्र मूल्यांकन हो पायेगा?

ऐसी भी क्या विवशता थी पिता,
ऐसी भी क्या शीघ्रता थी 
मै राणीहाट से लौटा भी नहीं था कि
तुमने कर दिया मेरे जीवन का निर्णय.
सोचा नहीं तुमने कैसे सह पायेगी
यह मर्मान्तक पीड़ा, यह दुःख 
मेरी जननी, सद्ध्य ब्याहता पत्नी
और दुलारी बहना.
क्या कांपी नहीं होगी तुम्हारी रूह,
काँपे नहीं तुम्हारे हाथ 
मेरी गरदन पर धारदार हथियार से वार करते हुए,
ओ पिता,
मै तो एक आज्ञाकारी पुत्र का धर्म निभा रहा था 
किन्तु तुम, क्या वास्तव में मलेथा का विकास चाहते थे
या तुम्हे चाह थी मात्र जनपद के नायक बनने की ?

और यदि यह सच है तो पिता मै भी शाप देता हूँ कि
जिस भूमि के लिए मुझे मिटा दिया गया- उस भूमि पर
अन्न खूब उगे, फसलें लहलहाए किन्तु रसहीन, स्वाद हीन !
और पिता तुम, तुम्हारी शौर्यगाथाओं के साथ-
पुत्रहन्ता का यह कलंक तुम्हारे सिर, तुम्हारी छवि धूमिल करे !!



Monday, June 13, 2011

श्रृद्धा व रोमांच का अद्भुत संगम श्रीअमरनाथ यात्रा - 5

यात्रा संस्मरण  -  गतांक से आगे.... 
पञ्चतरणी का मनमोहक दृश्य 
पञ्चतरणी और अमरावती नदी का संगम
     पञ्चतरणी में रात लंगर छक कर टैंट में लौटे तो एक अधेड़ मराठी दम्पति उस टैंट की दूसरी चारपाइयों में लेटे थे. औरत कराह रही थी और पुरुष उसकी तीमारदारी में लगा था. ठेठ मराठी बोलने से पहले तो कुछ समझ ही नहीं आया, फिर मालूम हुआ कि वे बालटाल से हेलीकाप्टर द्वारा अमरनाथ दर्शन को आये थे. पञ्चतरणी से पालकी द्वारा अमरनाथ दर्शन कर आये. परन्तु आने जाने में बुरी तरह भीग गए. हेलीकाप्टर से आये थे तो कपडे, बरसाती या रेन कोट साथ ले कर नहीं आये. परन्तु घाटी में कोहरा होने के कारण हेलीकाप्टर शाम को आया ही नहीं. फिर यशपाल ने अपने सूखे कपडे उस महिला को पहनने को दिए और टैंट में खाली पड़ी चारपाइयों की रजाईयां उसे ओढ़ाई गयी. तब कहीं उस महिला की कंपकंपी और कराहट बंद हुयी. पुरुष रात भर टूर पैकेज वाले व अपने गाइड को गाली देते रहे. सुबह विदा होते वक्त उनकी आँखों में आंसू छलक आये.
              अमरनाथ पहुँचने की उत्सुकता व उत्कंठा के चलते सुबह छ बजे ही पञ्चतरणी से चल पड़े. कुछ दूर पञ्चतरणी नदी के किनारे किनारे चल कर और फिर भैरों घाटी की एक मील की चढ़ाई पार कर समतल मार्ग आता है. पहाडी के साथ साथ चलते एक मोड़ पर दायी ओर देखते हैं तो अमरावती की सुरम्य घाटी दिखाई देती है और यहीं से श्रीअमरनाथ के प्रथम दर्शन होते हैं. बारिस नहीं थी. मौसम साफ, स्वच्छ, शांत, स्निग्ध था. थोडा रुकते हैं- अमरावती के उस पार मार्ग से बालटाल आने जाने वाले यात्रियों की भीड़ थी और नीचे पञ्चतरणी तथा अमरावती के संगम पर अभिभूत करने वाला सौन्दर्य. अमरावती के बाएं किनारे पर चलते आगे बढ़ते हैं. यात्रियों द्वारा 'बर्फानी बाबा की जय', 'बम बम भोले' तथा 'हर हर महादेव' की जय- जयकार पूरी घाटी को गूंजा रही थी. दर्शन की वह घड़ी अब आने ही वाली है. पांव स्वतः ही आगे बढ़ते प्रतीत होते हैं, लगता है जैसे कोई अदृश्य शक्ति हमें अपनी ओर आकृष्ट कर रही हो. अमरावती नदी के दर्शन कहीं कहीं ही हो रहे थे, शेष उसके ऊपर ग्लेशियर जमे पड़े थे. अब हम भी मार्ग छोड़कर नदी के ऊपर बर्फ पर चलना शुरू करते हैं. आगे गुफा से पहले घाटी में सैकड़ों टैंट लगे हुए थे. एक टैंट में अपने कुली के भरोसे सामान रखकर पंच्स्नानी के बाद प्रसाद लेते है. परन्तु यह क्या? कुली, घोड़े खच्चर, पालकी वाले तो मुस्लिम है ही किन्तु प्रसाद, बेलपत्री, फोटो आदि बेचने वाले भी मुस्लिम लोग. सांप्रदायिक सद्भाव का यह अद्भुत समन्वय है. और आश्चर्य का ठिकाना न रहा जब ज्ञात हुआ कि आरती उतारने की जिम्मेदारी भी उसी मुसलमान गड़रिये बूटा मलिक के वंशज को है जिसने सैकड़ों वर्ष पहले इस गुफा की खोज की थी. आगे बढ़ते हुए ठीक उस स्थान पर पहुँचते हैं जहां से सर उठा कर देखें तो वह पवित्र गुफा दिखाई दे रही थी, बस, अब कुछ सीढ़ियों भर का फासला शेष था. सैकड़ों दर्शनार्थियों के साथ ढाई-तीन सौ सीढियां चढ़कर, भोले की जय जयकार करते हुए जैसे ही गुफा के द्वार पर पहुंचे तो मन अद्भुत आनंद से रोमांचित हो उठा. आँखों की कोरें भीग आयी. समुद्र तल से 13500 फिट ऊँचाई पर स्थित प्रकृति द्वारा निर्मित लगभग साठ फिट चौड़ी, तीस फिट गहरी और अठारह फिट ऊंची इस गुफा में न कोई मूर्ती है न कोई द्वार. है तो केवल बर्फ का एक शिवलिंग जिसका स्वतः निर्मित हो जाना ही अलौकिक शक्ति है. वर्षों से कल्पना में संजोये व इतने दिनों
अमरावती नदी के ऊपर खड़े साथी यशपाल रावत 
तक पल रही आस्था के चलते गुफा के सम्मुख चमत्कार से अभिभूत हो आश्चर्य व श्रृद्धावश सर चबूतरे पर रखना चाहा परन्तु ग्रिल की बाधा के कारण हाथ जोड़ कर ही रह गए. आँखे बंद करता हूँ तो भीतर अतल गहराइयों में परंपरागत शिव आरती की जगह गुरुवाणी गूँजती है; इक ओंकार सतनाम कर्ता पुरुख निर्भोग निर्भय अकाल मूरत अजोनी सैभंग ...........! गुफा में कबूतरों को देखना शुभ माना जाता है. हमें भी ऊपर जगह
अमरावती नदी पर टैंट व पार्श्व में अमरनाथ गुफा
तलाशते पंख फड फडाते चार कबूतर दिखाई दिए. जिस निर्जन स्थल में मीलों तक कोई आबादी नहीं वहां पर कबूतर, चमत्कार ही तो हैं. बर्फ का शिवलिंग अब मात्र दो ढाई फिट का ही रह गया था. (जबकि यात्रा प्रारंभ में यह सोलह फिट का तक होना बताया जाता है) प्रसाद चढाने के बाद लोग पिघलते हुए शिवलिंग का पानी घर के लिए बर्तनों में भर रहे थे. गुफा के दाहिनी ओर चट्टान का स्वरुप कुछ बुझे हुए चूने की भांति है, लोग भभूत के रूप में घर ले जाते हैं. घर से निकलते वक्त एक दो ने मुझे भी कहा कि वहां से भभूत जरूर ले
गुफा द्वार पर दर्शनार्थियों की भीड़            छाया:  साभार गूगल
आना. चट्टान की जड़ पर काफी बड़ा गड्ढा सा बन गया. गुफा को खतरा न हो इसलिए सेना ने कंटीले तार वहां पर डाल रखे थे, उसके बावजूद लोग खोदते जा रहे थे. एक जवान ने जब यह देखा तो एक लड़के पर बुरी तरह बिगड़ा, लहजा ठेठ हरियाणवी था " "अबे तू यहाँ अमरनाथ की गुफा खोदने आया क्या ?"
           अमरनाथ के विषय में एक कथा प्रचलित है ; एक बार पार्वती ने भगवान शंकर से जानना चाहा कि  संसार के सब प्राणी तथा पार्वती स्वयं भी जन्म मृत्यु से बंधे हैं तो भगवान शंकर क्यों नहीं. भगवान  ने कहा कि यह सब अमरकथा के कारण है. पार्वती ने सुनने की जिज्ञासा प्रकट की. निर्जन स्थल की तलाश में उन्होंने पार्वती सहित हिमालय की ओर प्रस्थान किया. अनंत नाग में उन्होंने अपने नागों को त्याग दिया, पहलगाम में नंदी बैल को (जिससे उसका नाम बैलगाम व तदनंतर पहलगाम पड़ा ), चन्दनबाड़ी में अपने माथे का चन्दन धोया, शेषनाग स्थल में गले में पड़े शेषनाग का त्याग किया, महागुनुष टॉप पर गणेश जी को बिठाया और पञ्चतरणी में पञ्च विकारों को त्याग दिया. फिर पार्वती के साथ तांडव नृत्य कर इस गुफा में मृगछाल बिछाकर बैठ गए. कथा सुनाने से पूर्व उन्होंने कालाग्नि को आदेशित किया कि वह गुफा के आसपास समस्त प्राणियों को भस्म कर दे जिससे कोई भी अमरकथा सुनकर अमर न हो जाय......... आदि आदि  (यह वृतांत बहुत लम्बा है और उम्मीद है कि सभी विद्वान ब्लोगर्स सुने या पढ़े ही होंगे)          
सिंध नदी तट पर बालटाल व पड़
      गुफा से नीचे उतरकर एक लंगर में खाकर वापस बालटाल के लिए चल पड़े. बराड़ी, दोमेल होते हुए यह चौदह किलोमीटर का यह मार्ग सुरक्षित नहीं है. नीचे उन्माद से परिपूर्ण विकराल रूप धारण किये सिन्धु नदी और ऊपर कच्ची पहाड़ियां. इस पहाड़ी से पत्थर गिर कर(विशेष कर बारिस में ) कब इहलीला समाप्त कर दे या पाँव फिसल कर नीचे नदी अपने आगोश में ले ले, सब भगवान भरोसे. 
     इस यात्रा के विषय में इतना अवश्य कहूँगा  कि केन्द्रीय सुरक्षा बलों का संरक्षण, हर पड़ाव पर चिकित्सा शिविर और जगह जगह लंगर न हो तो
बालटाल में हेलीपैड तथा  टैक्सी व बस स्टैंड
प्रति दिन औसतन पंद्रह हज़ार पहुँचने वाले यात्रियों के स्थान पर मात्र डेढ़ दो सौ लोग ही पहुँच पाए. पिट्ठू(कुली), पालकी वाले व घोड़े वालों के साथ यदि मिल बैठकर भाड़े की प्रीपेड की व्यवस्था लागू जा सके तो यात्री अपने को ज्यादा महफूज़ महसूस करेंगे. शेषनाग व पञ्चतरणी में शौचालय की पर्याप्त व्यवस्था नहीं है, जिससे टैंट के चारों ओर गन्दगी देखी जाती है. मुख्य यह है कि पूरे मार्ग पर यात्रियों द्वारा प्लास्टिक कचरा फैलाया जाता है, मानो हम लोग नरक को स्वर्ग तो नहीं बना सकते किन्तु स्वर्ग को नरक बनाने की काबिलियत तो हममे है ही.     
श्रीनगर में डल झील का अभिभूत करता सौन्दर्य 
      एक रात बालटाल में रूककर सोनमर्ग, गंदरबल, श्रीनगर, अनंतनाग होते हुए वापस जम्मू पहुँचते हैं.कश्मीर का सौन्दर्य निस्संदेह स्वर्गिक है. किसी कवि ने ठीक ही कहा है;
अगर फिरदेश बरा हाय ज़मी अस्थ,
हमी अस्थ, हमी अस्थ, हमी अस्थ, हमी अस्थ.
                                                                                                                              ........समाप्त........ 

Monday, June 06, 2011

श्रृद्धा व रोमांच का अद्भुत संगम श्रीअमरनाथ यात्रा - 4

यात्रा संस्मरण  -  गतांक से आगे....
शेषनाग का शांयकालीन  दृश्य
               शेषनाग पहलगाम के बाद पहला पड़ाव है. हालाँकि कुछ लोग पहलगाम की अपेक्षा चन्दनबाड़ी में रुकना पसन्द करते हैं. एक छोटे से समतल भूभाग पर बसा है यह पड़ाव, यहाँ पर पांच-छ हज़ार लोग एक साथ रुक सकते हैं. इसके पूरब में शेषनाग पर्वत, दक्षिण में उतनी ही ऊँचाई वाला एक दूसरी पहाड़ी. उत्तर में औसत चौड़ाई लिए हुए घाटी और दक्षिण में शेषनाग झील. प्रायः अमरनाथ जाने वाले यात्री ही यहाँ रुकते हैं वापसी में सभी का प्रयास रहता है कि पहलगाम में रुके. बच्चे, वृद्ध व शारीरिक रूप से असमर्थ लोगों की मजबूरी रहती है. शेषनाग के विषय में एक कथा प्रचलित है कि; यहाँ पर्वत पर वायु रूप में एक अत्यंत बलशाली राक्षस रहता था, जो देवताओं को भांति-भांति के कष्ट पंहुचाता था. देवताओं ने भगवान विष्णु से विनती की, विष्णु ने शेषनाग को आज्ञा दी कि वह अपने हजारों मुखों से वायु को सोख ले. शेषनाग के साथ स्वयं विष्णु भी यहाँ पर प्रकट हुए. वायु के साथ शेषनाग ने उस राक्षस का भक्षण कर लिया. तब से इस पर्वत व झील का नाम शेषनाग पड़ गया. 
शेषनाग से गुफा की और आते यात्री
                         शेषनाग पहुँचने तक जहाँ मौसम साफ़ था वहीं अँधेरा होते-होते बारिस शुरू हो गयी, जो रात भर रुक-रुक कर होती रही. आगे प्रस्थान को लेकर सुबह देर तक अनिश्चितता बनी रही. सात गुणा आठ फीट के टैंट(बल्कि छोलदारी कहना उचित होगा) में बैठे-बैठे मन अकुलाने लगा. साढ़े नौ बजे सी. आर. पी. के लाउडस्पीकर द्वारा आगे मौसम खुला होने की सूचना मिली. अपने-अपने टैंट से यात्री निकलकर गेट के आगे से गुजरते हुए "बर्फानी बाबा की जय" "सी. आर. पी. की जय" कहने लगे, तो जवानों ने हाथ जोड़कर मना कर दिया कि केवल बाबा बर्फानी की जय कहिये, हम तो सेवक हैं. लंगर में हल्का नाश्ता लेकर कुली तय किया और चल पड़े मंजिल की ओर. आधा किलोमीटर नाले के किनारे-किनारे चल कर बर्फ का
महागुनुष टॉप से आगे बढ़ते यात्री 
बना पुल पार करने के बाद चढ़ाई शुरू होती है. सात-आठ माह यह क्षेत्र बर्फ से ढका रहता है और पूरा वृक्ष विहीन 
है. बारिस के बाद भुरभुरी काली मिटटी वाला रास्ता अत्यंत फिसलन भरा हो जाता है. यात्री हाथ में पकड़ी छड़ी या जमीन में गड़े पत्थरों के सहारे आगे बढ़ते हैं. फिर भी कुछ लोग फिसलकर चोटिल हो रहे थे. तो कहीं बच्चे व युवा काफी नीचे तक फिसल कर ठहाका मार रहे थे. कहीं-कहीं पर सेना के जवान सहारा देकर यात्रियों को आगे बढ़ने का हौसला देते. यात्रा मार्ग के दोनों ओर पहाड़ियों की चोटी पर जगह-जगह पर तैनात जवान हाथ हिलाकर अभिवादन करते. मन में उन जवानों के प्रति आदर का भाव स्वाभाविक है कि हमारी निर्बाध यात्रा के लिए किन कठिन परिस्थितियों में ये घर परिवार से दूर एकाकी जीवन जी रहे हैं.
                        शेषनाग से मात्र तीन मील की दूरी पर इस पूरी यात्रा मार्ग का सबसे अधिक (14500 फीट) ऊँचाई वाला स्थल है एम.जी. टॉप अर्थात महागुनुष टॉप, जो महागणेश का अपभ्रन्श है. सेना के जवानो द्वारा यात्रियों को जलजीरा पिलाया जा रहा था और चलते रहने की विनती की जा रही थी, जिससे उन्हें ओक्सिजन की कमी से कोई तकलीफ न हो. इच्छा थी कि महागुनुष टॉप पर थोड़ी देर बैठकर नज़ारे देखते, फोटोग्राफी करते. परन्तु बारिस
और कुहरे ने हताश किया. हाँ, हवा काफी तेज थी. यहाँ से आगे का मार्ग उतराई वाला है. पाबिलाल में एक श्रृद्धालु द्वारा लंगर की व्यवस्था की गयी थी. बर्तन भांडे सभी बर्फ के ढेर के ऊपर रखे हुए थे, वे भी क्या करते चारों और बर्फ ही बर्फ. भीड़ अधिक थी, बिना कुछ लिए ही बर्फ पर चलते हुए आगे बढ़ जाते हैं. दो-ढाई बना पुल पार करने के बाद चढ़ाई शुरू होती है. सात-आठ माह यह क्षेत्र बर्फ से ढका रहता है और पूरा वृक्ष विहीन किलोमीटर उतराई के बाद पोषपत्री पहुँचते हैं. शिव शक्ति दिल्ली द्वारा यहाँ एक विशाल लंगर का आयोजन
किया गया था. लंगर में भोजन के साथ लगभग सभी प्रकार के स्वादिष्ट व्यंजन. इस पैदल मार्ग पर यह अकेला विशाल लंगर है. सभी तृप्त होकर आगे बढ़ रहे थे. इस दुर्गम स्थल और मीलों लम्बे पैदल मार्ग पर घोड़े खच्चरों द्वारा इतनी अधिक व्यवस्था. ऐसे शिव भक्तों के प्रति श्रृद्धा स्वयमेव ही उमड़ पड़ती है, हजारों यात्री प्रतिदिन खा पीकर आगे बढ़ रहे हैं. क्या रिश्ता है
पोषपत्री में वर्णित लंगर का दृश्य
हमारा इनसे. अरे, हम तो शादी-व्याह में ही अपने सगे सम्बन्धियों को एक वक्त का खाना खिलाते हैं तो कापी लेकर न्योता लिखने बैठ जाते हैं. सोचकर ग्लानि हुयी.
           पोषपत्री से तीनेक (तथा शेषनाग से बारह) किलोमीटर दूरी पर कई जलधाराओं से युक्त एक समतल भूभाग दिखाई देता है, पञ्चतरणी. मान्यता है कि भगवान शंकर ने यहीं पर अपनी जटा जूट निचोड़ी थी जिससे पांच जलधाराएँ बहने लगी. पाँचों धाराएँ मिलकर पञ्चतरणी नदी बनाती है जो दो किलोमीटर आगे अमरनाथ से आने वाली अमरावती से मिलकर सिन्धु नदी बन जाती है. (ब्लोगर्स कृपया ध्यान दें, सिंध और सिन्धु दो अलग अलग नदियाँ है. सिंध नदी का उद्गम स्थल मानसरोवर झील है और सिन्धु का यह पञ्चतरणी क्षेत्र)  यहाँ पञ्चतरणी नदी के दायें तट पर एक हेलीपैड हैं, जो पहलगाम व बालटाल से हेलीकाप्टर सेवा से जुड़ा है और आगे गुफा तक छ किलोमीटर का रास्ता यात्री पैदल ही तय करते हैं.
दूर से पञ्च तरणी का मनमोहक दृश्य
          पञ्चतरणी में हजारों यात्री रुकने की व्यवस्था है. लंगर भी तीन-चार ठीकठाक हैं. लगातार होती बारिस और पहाड़ों से पिघलकर आती बर्फ से पानी ही पानी हो जाता है. इसलिए मुख्य जलधारा के अतिरिक्त जो हिस्सा सूखा होना चाहिए था वहां भी सूखा मार्ग नहीं मिलता है और हम पानी में ही चल कर छप-छप की आवाज के साथ पञ्चतरणी में प्रवेश करते हैं. ठौरठिकाना तलाशने के बाद सामान रखकर, यशपाल को आराम करता छोड़कर बाहर निकलता हूँ. सैटलाइट फोन के एस. टी. डी.  बूथ पर जाकर घर फोन करना चाहता हूँ परन्तु मिलता नहीं. फिर एक आरती में शामिल होता हूँ. बारिस थम गयी है किन्तु ठीक अँधेरा होने से पहले आकाश में काले बादल छाये देखकर चारों ओर ऊंची-ऊंची निर्जन व हिमाच्छादित पहाड़ियों से घिरी इस घाटी में मन अन्जान आशंका से व्याकुल हो उठता है. सोचने लगा ऐसा ही निर्जन व एकांत ने हिमालयी कवि चन्द्र कुंवर बर्त्वाल की कविताओं के लिए भाव भूमि का काम किया होगा; 'यम' शीर्षक कविता से ये पंक्तियाँ उनकी बानगी है -
कितना एकांत यहाँ पर है, मै इसी कुञ्ज में दूर्वा पर- लेटूंगा आज शांत होकर जीवन भर चल चल अब थककर ! 
ये पद लो गिरि पर सदा चढ़ें चोटी से घाटी में उतरे, ये पद अब विश्राम मांगते अब इस हरी-भरी धरती में आ !
अपने उद्गम को लौट रही अब बहना छोड़ नदी मेरी, छोटे से अणु में डूब रही अब जीवन की पृथ्वी मेरी ! 
आँखों में सुख से पिघल पिघल ओंठों में स्मितियां भरता, मेरा जीवन धीरे-धीरे इस सुन्दर घाटी में भरता !
                                                                                                                           
                                                                                                                               शेष अंतिम अंक में .....


       

Thursday, May 26, 2011

श्रृद्धा व रोमांच का अद्भुत संगम श्रीअमरनाथ यात्रा - 3

यात्रा संस्मरण  -  गतांक से आगे....
नुनावल में लंगर की व्यवस्था और तैयारी में अमरनाथ यात्री


          नुनावल (पहलगाम) में सघन जांच के बाद हम सी0 आर0 पी0 एफ0 द्वारा सुरक्षित कैम्प में प्रवेश करते हैं. सुरक्षित अर्थात तारबाड़ से घिरा हुआ और चारों ओर हथियारों से लैस चौकस जवान तैनात. सैकड़ों छोटे-बड़े टैंट, जिनमे छः-सात हज़ार यात्री तक रुकने की व्यवस्था हैं. स्थानीय लोगों को रोजगार देने के उद्देश्य से यह टैंट सरकार द्वारा उन्हें मुहैया कराये गए हैं और वे यात्रियों से किराया वसूल कर अपना गुजारा करते हैं. कैम्प के एक कोने में हिन्दू श्रृद्धालुओं द्वारा दर्ज़न भर से अधिक लंगर (भंडारे) लगाये हैं. यहाँ पर स्वास्थ्य केंद्र, जे0 एंड के0 टूरिज्म का कैम्प कार्यालय, पंजीकरण कार्यालय, दैनिक उपयोग व आगे की यात्रा में काम आने वाले आवश्यक सामान की कई दुकाने है. यात्रा की थकान से उबरने के लिए गुनगुने पानी की बीस रुपये प्रति बाल्टी खरीद कर नहाते हैं. सेना द्वारा यहाँ पर फाइबर की चद्दरों से पर्याप्त लैट्रिन, बाथरूम तैयार करवाए गए हैं. नहाने व लंगर में लजीज भोजन के बाद ऊबड़ खाबड़ टैंट के फर्श तथा पतले गद्दों में भी ऐसी नींद आयी कि सुबह यशपाल ने ही बताया-" भाई साहब, आपके खराटों के शोर में तो लिद्दर का शोर भी दब कर रह गया था."    
चन्दनबाड़ी  में लिद्दर के दोनों और शिविर
             अगली सुबह जल्दी ही तैयार होकर और लंगर में स्वादिष्ट नाश्ता कर चन्दनबाड़ी की ओर बढ़ते हैं. नाश्ता स्वादिष्ट तो था ही, किन्तु लंगर कर्मियों का मृदु व्यवहार इतना आत्मीय व हृदयस्पर्शी था कि भूख न होने के बावजूद कुछ लेना ही पड़ा. पहलगाम बाजार के बीच से गुजरते हुए सन्नाटा पसरा नजर आता है. वह भी समय था जब अनेक हिंदी फिल्मों के अलावा  राजेश खन्ना व मुमताज अभिनीत सुपरहिट फिल्म 'रोटी' यहीं पहलगाम में फिल्माई गयी थी. किन्तु अब होटल स्वामियों और दुकानदारों के चेहरे पर उदासी और बेचारगी के भाव कश्मीर में आतंकवाद की दास्ताँ बयां करते हैं. एक डेढ़ माह चलने वाली इस अमरनाथ यात्रा में पालकी व घोड़े-खच्चरों में यात्री ढोकर या कुली गिरी कर साल भर की रोजी रोटी की व्यवस्था संभव नहीं है. फिर अमरनाथ यात्रा में सैलानी कम और धार्मिक यात्री अधिक होते हैं. हाँ, कभी कभार कोई विदेशी यात्री आ जाते हैं. पहलगाम में लिद्दर पर बने पुल पार करते ही यात्रियों में जाने कैसे उबाल सा आता है और उनके "जय बर्फानी बाबा" "जय भोले" की जय जयकारे से घाटियाँ गुंजायमान होने लगती है. सामाजिक, आर्थिक व बौद्धिक स्तर पर यात्रियों में चाहे कितना ही भेद क्यों न हो किन्तु ऐसी यात्रा में, जहाँ सबका आराध्य एक हो, एक दूसरे के प्रति स्नेह स्वतः ही प्रगाढ़ होता है. मोड़ों को पार करने के बाद ऊँचाई से पहलगाम को देखते हैं वह अत्यंत आकर्षक दिखाई देता है. चन्दनबाड़ी पहुँच कर जब बस कंडक्टर साठ रुपये सवारी किराया मांगता है तो दंग रह जाते हैं. नुनावल से चन्दनबाड़ी तक मात्र सोलह किलोमीटर का किराया साठ रुपये.   
पिस्सूटॉप से लिद्दर और गुफा को जाता मार्ग
                लिद्दर नदी के दायें तट पर बसे आधार शिविर चन्दनबाड़ी में सुरक्षा कर्मियों द्वारा पुनः जांच होती है. श्रृद्धालुओं द्वारा यहाँ पर अनेक लंगर लगाये गए हैं. लंगर कर्मियों द्वारा भोले शंकर के जयकारे के साथ यात्रियों से कुछ न कुछ खाने का आग्रह किया जाता है और ले लेने पर वे तृप्त होकर इस भाव से विदा करते हैं मानो यात्री श्रीअमरनाथ दर्शन को नहीं बल्कि युद्धभूमि की ओर प्रस्थान कर रहे हों. पीछे साठ रुपये बस किराया देने के बाद यहाँ पर कुली और घोड़े-खच्चरों का भाव पूछा तो पाया कि बताई गयी दरें नुनावल टूरिज्म कैम्प में लिखी गयी दरों से कहीं अधिक है. मोल भाव के बाद एक कुली लेकर व छड़ी के रूप में बीस रुपये की साधारण लकड़ी खरीद लेते हैं. श्रीअमरनाथ श्राईन बोर्ड, जे0 एंड के0 टूरिज्म व पहलगाम विकास प्राधिकरण (जो यात्रा मार्ग का निर्माण व रख रखाव करता है) की यह व्यवस्था बहुत अच्छी है कि कुली/ घोड़ा मालिक /पालकी ढोने वाले अपना फोटो युक्त पहचानपत्र चलने से पहले ही 'बुक' कर ले जाने वाले यात्री को स्वतः ही सौंप देते हैं. जिससे कोई यात्री 'चीट' न हो. चन्दनबाड़ी के दूसरे सिरे पर एक बार फिर सुरक्षा जाँच से गुजरने के बाद पिस्सू टॉप की और बढ़ते हैं. पिस्सू टॉप और चन्दनबाड़ी की ऊँचाई में दो हज़ार फीट का अंतर है तो दूरी में मात्र दो मील का. ऊबड़-खाबड़, पथरीला ओर सर्पाकार मोड़ लिए यह रास्ता भक्तों की पहली परीक्षा है. टॉप पर सुरक्षा चौकी और स्वास्थ्य शिविर लगा था. पिस्सू टॉप के बारे में दन्तकथा यह है कि; भगवान शंकर के दर्शनों के लिए देवता व राक्षस समान रूप से आते थे. एक बार दर्शनार्थ आते किसी बात पर देवता व राक्षसों में टकराव हो गया. राक्षस संख्या में ज्यादा थे तो लड़ते-लड़ते देवता हारने लगे, उन्होंने भगवान शंकर का अहवाह्न किया. भोलेनाथ ने राक्षसों को मारकर उनका चूर्ण बना और यहाँ पर ढेर लगा दिया. 11500 फिट ऊँचाई पर स्थित यह स्थान तब से पिस्सू टॉप कहलाने लगा.

         कुछ देर सुस्ताने के बाद शेषनाग की ओर बढ़ते हैं. चार फीट चौड़ा फुटपाथ आने-जाने वाले यात्रियों से खचाखच भरा हुआ. आने वालों के मुखमंडल भोले के दर्शनों से प्रदीप्त और जाने वालों के मनों में उत्सुकता व उत्कंठा. मार्ग में न ज्यादा चढ़ाई और न उतराई. एक ओर नीचे लिद्दर नदी की कल-कल ध्वनि और दूसरी ओर वृक्ष विहीन पहाड़. हाँ, ऊपर पहाड़ पर चरती भेड़ बकरियों से यह डर हर वक्त लगा रहा कि इन निरीह पशुओं के पैरों से गिरा कोई पत्थर किसी को चोटिल न कर दे. दुधिया रंग लिए लिद्दर नदी कहीं बर्फ की चादर के नीचे बहती और कहीं खुले में. नदी के दूसरी ओर हरियाली लिए पहाड़ी पर पेड़ भी हैं और जगह-जगह झरने फूटे हुए. आगे जोजिबाल में श्रृद्धालुओं द्वारा लंगर और स्थानीय लोगों द्वारा दुकानों की व्यवस्था है. एक पांडाल में  डी0 जे0 पर देवी सिंह द्वारा रचित और कैलाश खेर द्वारा गाये भजन पर भक्तगण पूरे जोश से नाच रहे थे- " धन-धन भोलानाथ तुम्हारे कौड़ी नहीं खजाने में, तीन लोक बस्ती में बसाये आप बसे वीराने में. जटा-जूट का मुकुट शीश पर गले में मुंडों की माला, माथे पर छोटा सा चन्द्रमा कपाल का कर में प्याला, जिसे देखकर भय व्यापे सो गले बीच लिपटा काला, और तीसरे नेत्र में तुम्हारे महाप्रलय की है ज्वाला, पीने को हर वक्त भंग और आक धतूरा खाने में. तीन लोक बस्ती में ......."    रोजमर्रा की भाग दौड़ से दूर जहाँ पर न समय का बंधन हो, न आगे कोई प्रतीक्षारत, न चिंता, न भय. न कोलाहल. है तो सिर्फ साफ़ स्वच्छ मौसम, शांत वादियाँ और पूरी निश्चिंतता. ऐसे में जोश आना भी स्वाभाविक था. पांव स्वतः थिरकने लगे. जी भर नाचने के बाद लंगर छक कर शेषनाग की ओर प्रस्थान कर दिए. दो-ढाई मील पर नागाकोटी की हल्की चढ़ाई के बाद शाम को समुद्रतल से 11730 फिट ऊँचाई पर स्थित शेषनाग पहुँचते हैं. झील का स्वच्छ निर्मल जल हरा व नीला रंग लिए हुए है. इस शेषनाग झील के पार्श्व में ब्रह्मा, विष्णु व महेश नाम की पहाड़ियों से बर्फ पिघलकर आती छोटी-छोटी जलधाराएँ अत्यंत मनमोहक है. यही झील लिद्दर (आगे चलकर झेलम) नदी का यह उद्गम स्थल है. नुनावल/ चन्दनबाड़ी के बाद यात्री शेषनाग में रात्रि विश्राम करते हैं.                  
                                                                                                                                                                 जारी अगले अंक में .....

            
             

Wednesday, May 18, 2011

श्रृद्धा व रोमांच का अद्भुत संगम श्रीअमरनाथ यात्रा - 2

पातनीटॉप की नैसर्गिक छटा से अभिभूत यशपाल रावत
यात्रा संस्मरण  -  पिछले अंक से आगे....
श्री अमरनाथ जी के दर्शन की अभिलाषा और कश्मीर घाटी के अभिभूत कर देने वाले सौन्दर्य के रसपान की उत्सुकता के साथ जम्मू से हमारी यात्रा आरम्भ हुयी ठीक साढ़े सात बजे सुबह. जम्मू नगर को पीछे छोड़ते हुए गाड़ी तेजी से आगे बढ़ रही थी मानो उसे भी भोले के दर्शनों की जल्दी हो. मै साथियों से आग्रह कर ड्राइवर की बगल वाली सीट पर बैठकर आँखों को पूरी तरह खुला रखता हूँ कोशिश है कि कोई भी दृश्य छूट न पाए. जम्मू से ऊधमपुर तक लगभग मैदानी भूभाग की यात्रा है. ऊधमपुर जिले का जिला मुख्यालय है यह नगर. यहाँ से धीरे-धीरे चढ़ाई शुरू होती है और साथ ही शुरू होते हैं सुन्दर दृश्यावलियाँ. मानो कश्मीर हमें पुकार पुकार कर बुला रहा हो. ऊधमपुर से चालीस किलोमीटर पर छोटा सा क़स्बा पड़ता है कुद. सरदार सतविंदर जी गाडी रोकते हैं, यहाँ पर पंजाब के एक श्रृद्धालु ने लंगर की व्यवस्था की हुयी थी, जम्मू स्टेशन पर सुबह एक चाय ली थी अतः सभी यात्री नाश्ता करते हैं. यहाँ पर कुछ दुकाने व ठीक-ठाक रेस्टोरंट हैं और फिर आठ किलोमीटर दूरी पर स्थित है जम्मू क्षेत्र का प्रसिद्द हिल स्टेशन पातनी टॉप. समुद्र तल से लगभग 2040 मीटर ऊँचाई पर और चीड़, देवदार आदि घने वृक्षों से आच्छादित यह मनोहारी व रमणीक क्षेत्र एक चौरस भूमि पर बसा हुआ है. स्कीइंग, पैराग्लैडिंग आदि खेलों के अतिरिक्त यहाँ पर एक गोल्फ का मैदान भी है. आज की भागम-भाग की जिंदगी में यहाँ होटल, रेसोर्ट्स या गेस्ट हाउस में रूककर कुछ दिन सकून से बिताये जा सकते हैं और प्रकृति का सानिद्ध्य प्राप्त किया जा सकता है. पातनी टॉप से बीस किलोमीटर दूरी पर सुध महादेव का मंदिर है. सावन की पूर्णिमा को यहाँ का दृश्य अत्यंत मनभावन होता है.  
बनिहाल - अब जवाहर टनल पास ही है 
            पातनी टॉप से ही आगे चेनाब नदी के पुल तक उतराई वाला रास्ता है. आबादी का घनत्व अत्यंत कम है. बटोट नामक जगह पर किसी महापुरुष भक्त ने लंगर की व्यवस्था कर रखी है इसलिए काफी भीड़ दिखाई देती है. लजीज और स्वादिष्ट खाना देखकर हम भी लंगर छकते हैं और उस भक्त को धन्यवाद करना नहीं भूलते जो श्रृद्धा और प्रेम से हर रोज सैकड़ों, हजारों श्रृद्धालुओं को निष्काम भाव से भोजन करवा रहा है. यहीं पास ही दो ऊंची पहाड़ियों के मध्य चेनाब नदी पर 330 मेगावाट की 'बगलियार जल विद्युत परियोजना' है. चेनाब पुल पार करने के बाद जम्मू-श्रीनगर राष्ट्रीय राजमार्ग कुछ दूर तक चेनाब नदी के समानांतर है और रामबन नामक स्थान से धीरे-धीरे चढ़ाई शुरू होती है. जुलाई में पहाड़ियों पर जहाँ मौसम सुहावना होता है वहीं उसके विपरीत घाटियाँ अत्यंत गरम होती है. रामबन की गरमी भी असहनीय लग रही थी बाहर उतरे तो कुछ ठंडा पीने का मन हुआ, पर कुछ मिला नहीं. सरदार सतविंदर चालक कम गाइड का काम ज्यादा कर रहे थे और धीरे धीरे औपचारिकता कम होती जा रही थी. अपने पंजाबी लहजे में चिल्लाकर बोले "बियर पियो बद्शाहो" और आजू बाजू दबाकर कुछ बोतलें ले भी आये. ठंडी बीयर ली तो पीकर कुछ आराम सा मिला और हल्की झपकी आने लगी. 
पहलगाम-लिद्दर तट पर सतविंदर, परिचालक व सुरक्षा कर्मी संग लेखक
             गाड़ी निरंतर चढ़ाई पर कई मोड़ों को पार करती हुयी श्रीनगर की ओर बढ़ रही थी. आगे पीछे और भी गाड़ियाँ थी जिनमे कुछ रेगुलर बस सर्विस, ट्रक, कुछ सैलानी तथा कुछ अमरनाथ यात्रियों की गाड़ी और अधिक सेना के वाहन ही थे. झरने, नदी, नाले पीछे छूटते गए. हरियाली लिए ऊंचे पहाड़ और छोटे-छोटे गाँव मन को लुभा रहे थे. रामबन से लगभग तीन घंटे के सफ़र के बाद बनिहाल में काफी संख्या में वाहन खड़े दिखाई दिए. हमारा वाहन भी वहां पर रुक गया. सरदार सतविंदर जी से मालूम हुआ कि आगे आधा किलोमीटर दूरी पर ही जवाहर टनल शुरू हो जाएगी. यहाँ पर लंगर लगा था और काफी कुछ दुकाने भी. अतः हमने दुकानों से ही कुछ हल्का-फुल्का नाश्ता लिया व चाय पी ली. गाड़ियों का काफिला (यहाँ से हमारी गाड़ी भी काफिले में शामिल होती है) जैसे-जैसे आगे बढ़ता है टनल देखने व टनल से गुजरने की उत्सुकता में धड़कन बढ़ जाती है. समुद्र तल से लगभग 2300 मीटर की ऊँचाई पर आने व जाने के लिए 2547 मीटर लम्बी दो अलग-अलग टनल. टनल से गुजरने का अलग ही रोमांच है. और टनल के दोनों ओर तथा टनल के ऊपर पहाड़ी पर तैनात हैं भारतमाता के वीर जवान, किसी भी खतरे से निपटने को हर वक्त सजग. "बाबा अमरनाथ की जय "    "  बर्फानी बाबा की जय "   जैसे नारों के उद्घोष के साथ टनल पार करते हैं. दूसरी ओर शुरू होती है ढलान और खुलते हैं स्वर्ग के द्वार. कभी फिल्मों में देखा गया, कहानियों में पढ़ा गया और वर्षों से कल्पना में जिया गया कश्मीर का यह सौन्दर्य आज साक्षात देख रहे थे. विस्फारित नेत्रों से देखता हूँ कुदरत के इस नज़ारे को. बिलकुल उसी अंदाज में जैसे कोई व्यक्ति खदान से बाहर खुली हवा में आकर थोड़ी देर लम्बी सांस लेता है, फेफड़ों में ताजी हवा भर लेना चाहता है. बिलकुल वैसे ही. नजरों के सामने है समतल भूमि, मीलों तक फैले धान के हरे भरे खेत, दूर दूर छितरे हुए ढलुवा छत वाले मकानों के गाँव और गाँव को आपस में जोड़ने वाली लम्बी सड़कें. कई कई पगडंडियाँ. सड़कों के दोनों ओर चिनार आदि पेड़ों की कतारें. मनभावन, मनोहारी दृश्य. और इन्ही के बीच कहीं कछुए की पीठनुमा छोटी छोटी पहाड़ियां. कल्पना की जा सकती है कि सर्दियों में जब बर्फ गिरती होगी तब ये गाँव, खेत, खलिहान बर्फ से भले ही न ढक पाए परन्तु ये कछुए की आकारनुमा ये छोटी-छोटी पहाड़ियां अवश्य चान्दी की बर्क ओढ़ी सी प्रतीत होती होगी. अद्भुत होता होगा वह दैवीय सौन्दर्य ! अप्रतिम !!
               भूविज्ञान की दृष्टि से देखें तो कश्मीर घाटी हिमालय की काराकोरम, जस्कार (या जंस्कार ) तथा पीर पंजाल श्रेणियों के मध्य स्थित है. परन्तु जनश्रुति के आधार पर हम पाते हैं कि कश्मीर के बारे में अनेक दंतकथाएं हैं. एक दंतकथा यह है कि कश्मीर पहले एक विशाल समुद्राकर झील थी जिसमे एक भयानक राक्षस रहता था. ब्रह्मा के पौत्र कश्यप ऋषि और स्वयं पार्वती ने उस राक्षस का संहार किया तथा झील को लगभग खाली करा दिया. विशाल पर्वताकार राक्षस मृत्यु के उपरांत मिटटी पत्थरों के ढेर में तब्दील हो गया, जो कि आज हरी पर्वत के नाम से विख्यात है. 
काजीकुंड क्षेत्र (अनंतनाग) का अनुपम सौन्दर्य
    आगे कुछ दूरी पर टोल पॉइंट है लोअर मुण्डा. आज लगभग सभी राष्ट्रीय राजमार्ग पर टोल वसूलने के लिए अच्छी व्यवस्था कर ली गयी है, चालक बिना अपनी लेन से हटे, बिना नीचे उतरे ही टोल जमा करते है और वह भी कुछ ही पलों में. परन्तु लोअर मुण्डा में टोल जमा करने में इतनी अव्यवस्था है कि गाड़ियाँ जहाँ-तहां खड़ी होती है और समय भी ज्यादा बर्बाद होता है. लोअर मुण्डा से आगे काजीकुण्ड क़स्बा है. श्रीनगर व आगे घाटी  के लिए भारत सरकार द्वारा यहाँ से रेल लाइन बिछाकर कश्मीर वासियों को एक अच्छी सौगात दी गयी है. शीघ्र ही वह दिन भी आयेगा जब काजीकुंड रेल द्वारा ही जम्मू स्टेशन व शेष भारत से जुड़ेगा. आगे बढ़ते हैं तो खन्नाबल नामक स्थान पर राष्ट्रीय राजमार्ग को छोड़कर हम दायीं ओर मुड़ जाते हैं 45 किलोमीटर दूरी पर स्थित पहलगाम की ओर, जो कि हमारा पड़ाव है. और बायीं ओर 80 किलोमीटर पर श्रीनगर है. रामबन, बनिहाल जहाँ डोडा जिले का हिस्सा है वहीं लोअर मुण्डा, काजीकुण्ड व खन्नाबल अनंतनाग जिले के अंतर्गत है. खन्नाबल से पहलगाम की ओर मार्ग चढ़ाई, उतराई वाला नहीं है लगभग सपाट ही है. हरे खेतों और जंगलों के बीच इठलाती, इतराती दूधिया जलधारा वाली लिद्दर नदी सड़क के बायीं ओर बहते हुए देखना आनंदित करता है और सड़क पर धारा के विपरीत दिशा में आगे बढ़ते हुए किसी नहर के किनारे किनारे चलने का सा अहसास होता है. मौसम जहाँ इतना सुहावना, प्रकृति इतनी स्निग्ध वहीं नीरवता छाई हुयी, हवा कुछ सहमी सहमी सी. सड़क के दोनों और हर दस पंद्रह कदम पर अर्धसैनिक बलों के जवान दिखाई देते हैं अतिरिक्त रूप से चौकस और चौकन्ने. हाथों में लोडेड ए के 47 रायफल या एस एल आर और तर्जनी ट्रिगर पर. मालुम हुआ की कुछ दिन पहले तक अलगाववादियों द्वारा अमरनाथ यात्रियों पर पत्थर फेंके जा रहे थे. जिससे अनेक गाड़ियाँ टूटी और कई यात्री घायल हुए. अर्धसैनिक बलों के जवानों का ही हौसला था कि वे आतंक को रोक पाए. शाम अँधेरा होने से पूर्व हम नुनावल कैम्प (पहलगाम) पहुँच जाते हैं. एक बात जो मै इन बारह घंटों के दौरान गौर कर रहा था कि सरदार सतविंदर सिंह हर उस जगह पर गाड़ी बिना कहे ही रोक दे रहे थे जहाँ पर हमें लग रहा था कि कुछ खाना पीना चाहिये.  मैंने आखिर में यह बात पूछ ही ली तो कहने लगे "अजी, मै कहाँ आपका खियाल रख रहा था, वो तो मेरा पेट ख़राब चल रहा, इसलिए बार-बार गाड़ी रोकनी पड़ रही थी." यह सुनकर सभी लोग ठहाका मार कर हंस पड़े.
                                                                                                                                     अगले अंक में जारी ........                                
     

Wednesday, May 11, 2011

श्रृद्धा व रोमांच का अद्भुत संगम श्रीअमरनाथ यात्रा - 1

              'धरती पर यदि कही स्वर्ग है तो कश्मीर है', 'कश्मीर भारत का मुकुट है', कितनी उपमाएं, कितने नारे. नब्बे के दशक तक की लगभग हर दूसरी हिंदी फिल्म में कश्मीर का नयनाभिराम दृश्य अवश्य होता. मन को हमेशा ही लुभाते रहे हैं रंग बदलते चिनार के पेड़, डल और वूलर झील का सुना गया सौन्दर्य, हिमाच्छादित चोटियों के नीचे सोनमर्ग और गुलमर्ग के बुग्याल (वैसे 'बुग्याल' ही कश्मीरी भाषा में 'मर्ग' कहलाते हैं) और क्या-क्या नहीं. कश्मीर की बात होती तो मन में एक हूक सी उठती. काश ! मैंने भी कश्मीर देखा होता. जाने की जब भी सोचा घरवाले और शुभचिंतक बाधक बनते. कश्मीर के आतंकवाद ने हमेशा हौसला तोडा है. कश्मीर में ही बर्फानी बाबा श्रीअमरनाथ विराजमान हैं. हिन्दू धर्म में आस्था रखने वाले व्यक्तियों के मन में यह उत्कंठा अवश्य रहती है कि सभी पावन स्थलों के दर्शन जीते जी कर सके. उत्तराखंड हिमालय तो केदारखंड ही है और केदार (अर्थात 'शिव') के सभी सैकड़ों रूपों के (और न सही, कम से कम द्वादश ज्योतिर्लिंग के ही) दर्शन करने की इच्छा तो रहती ही है. परन्तु ऐसे भाग्यशाली विरले ही हैं. फिर अमरनाथ तो वह पावन भूमि है जहाँ भगवान शिव ने माँ पार्वती को अमरकथा सुनायी थी, जहाँ भगवान शिव अपने बर्फानी रूप में विराजमान हैं. अमरनाथ की यात्रा ही कैलाश मानसरोवर की यात्रा के बाद सबसे ज्यादा रोमांचक और पुण्यप्रद मानी जाती है. सोचा, क्यों न देवादिदेव महादेव 'बाबा अमरनाथ' का जाप करते हुए उनके दर्शन किये जाय और कश्मीर भी देख आये, थोड़ा बहुत ही सही. 
अमर पैलेस, जम्मू .
             जहाँ चाह वहां राह ! साथी भी मिल गया- श्री यशपाल रावत. अपने पेशे के कारण वे लगभग पूरा हिमाचल प्रदेश देख चुके हैं. मणिमहेश श्रीखंड महादेव जैसे दुर्गम तीर्थ स्थलों की यात्रायें कर चुके हैं..... जे0 एंड के0 बैंक की स्थानीय शाखा में पंजीकरण के बाद प्रस्थान का दिन तय हुआ जुलाई 24, 2010. ऋषिकेश से हेमकुंठ एक्सप्रेस से जम्मू तक का सफ़र किया. (पत्नी साथ होती तो अच्छा लगता. परन्तु उसने श्रीअमरनाथ की थकाने वाली यात्रा कर सकने में असमर्थतता जताई. वैसे वह मेरे साथ यमुनोत्री, केदारनाथ, वैष्णोदेवी आदि अनेक स्थलों की यात्रा पैदल ही कर चुकी है. क्योंकि हमारा मानना है कि यात्रा का आनंद पैदल में ही है, घोड़े, पालकी में नहीं.) जम्मू मेरे लिए अपरिचित शहर नहीं था. दो बार पहले भी आ चुका था- एक बार व्यक्तिगत काम से और दूसरी बार माँ वैष्णोदेवी के दर्शनार्थ. कश्मीर का प्रवेश द्वार और राज्य की शीतकालीन राजधानी जम्मू एक अत्यंत खूबसूरत शहर है जो कि तवी नदी के दोनों तटों पर बसा हुआ है. अमर महल पैलेस, रघुनाथ मंदिर, बहु फोर्ट, पीरबाबा की मजार आदि अनेक दर्शनीय स्थल इसकी ऐतिहासिकता और खूबसूरती में चार चाँद लगाते हैं.
बहु फोर्ट,जम्मू  
             प्रातः शौच आदि से निवृत्त होने के बाद सात बजे भगवती नगर पहुंचे तो मालुम हुआ कि श्री अमरनाथ के लिए वहां से जत्थे (काफिला) सुबह पाँच बजे से पूर्व ही रवाना हो जाते हैं, मायूसी हुयी. जत्थे के साथ जाने के लिए अगले दिन तक इंतजार करना होगा- पूरे बाईस घंटे. कैम्प के बाहर तैनात सी0 आर0 पी0 के जवानों से आश्वस्त हुए कि जत्थे से हटकर भी प्राइवेट गाड़ी से सफ़र किया जाय तो ज्यादा परेशानी वाली बात नहीं है, जो आतंकवाद का थोड़ा डर है उसे ऊपर वाले पर छोड़ दो. साथी यशपाल से सलाह की तो तय हुआ कि बाहर खड़ी प्राइवेट वाहन से ही पहलगाम पहुंचा जाय. तीन यात्री मध्य प्रदेश, दो महाराष्ट्र से और दो उत्तर प्रदेश मूल के बाहर इस असमंजस में खड़े थे कि क्या किया जाय. थोड़ी बहुत और जानकारी के बाद हम सभी नौ यात्री सरदार सतविंदर सिंह जी की टाटा विन्जर में जाकर बैठ गए. जत्थे में सुरक्षा के पुख्ता इंतजाम होने के कारण प्रायः सभी लोग, विशेषतः बूढ़े, बच्चे और स्त्रियाँ जत्थे में ही यात्रा करना पसंद करते हैं. प्राइवेट गाड़ियों में कम लोग ही रिस्क लेते हैं. 
                                                                                                                 
                                                                                                               अगले अंक में जारी  ..............              

Saturday, April 30, 2011

रोहिणी-गाथा


   (05 मई -गुरुवार को अक्षय तृतीया पर विशेष )                 
             सौर-मंडल का नाम है दक्ष और जो उसकी सत्ताईस कन्यायें कही जाती है - वे सत्ताईस नक्षत्र हैं. ये नक्षत्र सौर-मंडल के उस रास्ते में हैं, जहाँ से सातों ग्रह सूर्य के चारों ओर घूमते हैं. ब्रह्मांड एक गोलाई लिए हुए है, और वह गोलाई तीन सौ साठ अंश की होती है. इसी में एक निश्चित दूरी बनाये हुए सत्ताईस नक्षत्र हैं. हर नक्षत्र तेरह अंश बीस कला की दूरी पर है. यही राजा दक्ष की सत्ताईस कन्यायें हैं, जो चन्द्रमा की सत्ताईस पत्नियाँ भी कही जाती हैं.
                यह कहा जाता है की चन्द्रमा को सत्ताईस पत्नियों में से रोहिणी नाम की पत्नी सबसे अधिक प्रिय थी और बाकी पत्नियों ने उसी की शिकायत अपने पिता राजा दक्ष से की थी - इसका विज्ञान यह है कि जब चन्द्रमा सब नक्षत्रों से गुजरता हुआ रोहिणी नक्षत्र पर आता है, तो वह स्थिति चन्द्रमा की उच्च स्थिति मानी जाती है.
            बैशाख के शुक्ल-पक्ष की तृतीया को अक्षय तृतीया कहा जाता है, क्योंकि उस रात चन्द्रमा का सौन्दर्य देखने वाला होता है, तब वह रोहिणी नक्षत्र से गुज़रता है. अगर उस समय बुध ग्रह भी रोहिणी नक्षत्र से गुज़र रहा हो, तो यह वही क्षण होता है, इलाही-नूर का - जिसे ब्रह्म दर्शन भी कहा जाता है.
                कवि तुलसीदास ने उस क्षण के सौन्दर्य का चौपाई में वर्णन किया और हज़रत मुहम्मद ने उसी क्षण के दर्शन को उस झंडे पर उतारा, जो उन्होंने अपनी कौम को दिया. उस लहराते हुए झंडे पर तीज के चाँद की फांक होती है, और ऊपर बुध का सितारा. ग्रहों के इस मिलन का निश्चित बिंदु प्रकृति के सौन्दर्य की एक ऐसी घटना है - जिसका दर्शन इन्सान को विस्माद की अवस्था में ले जाता है.
                                                                                                                                  अमृता प्रीतम
                                                                                                                           ( 'अक्षरों की अंतर्ध्वनि ' से साभार )

Tuesday, April 19, 2011

जो शहीद हुए हैं उनकी जरा याद करो क़ुरबानी........

{सम्पूर्ण उत्तराखंड में वीर सपूतों की याद में जगह-जगह बैसाख और जेठ माह में मेले लगते हैं. अप्रैल 1895में ग्राम मंज्यूड़,पट्टी बमुंड,टिहरी गढ़वाल में बद्री सिंह नेगी के घर जन्मे तथा प्रथम विश्वयुद्ध में शहीद हुए वीर गबर सिंह नेगी, विक्टोरिया क्रास की स्मृति में उनके गाँव के निकट चंबा में 15 दिसंबर 1945 को  वीर गबर सिंह स्मारक बनाया गया, जहाँ पर हर वर्ष बैसाख आठ गते (20 अप्रैल )को विशाल मेला लगता है. गढ़वाल रायफल्स  द्वारा मेला प्रारंभ से पूर्व सलामी दी जाती है. परन्तु 1982 में वीर गबर सिंह नेगी की पत्नी सतुरी देवी के निधन के बाद मेले की अब बस औपचारिकता मात्र रह गयी है.}  
प्रथम विश्वयुद्ध प्रारंभ हुआ उस समय भारतीय सेनाएं युद्ध के लिए पूर्णतः तैयार नहीं थी. मुख्य कारण यह कि उस समय तक भारतीय सेनाओं को मुख्यतः दो ही कार्य करने होते थे-
1.-देश के भीतर आन्तरिक शांति कायम करना.  और
2.- दूसरे देशों में जाकर ब्रिटेन की सेना को सहायता प्रदान करना. 
अगस्त 01, 1914 को भारतीय सेना युद्ध में भाग लेने के लिए निम्न प्रकार डिविजनों में विभाजित की गयी-
1-पेशावर, 2-रावलपिंडी, 3-लाहौर, 4- क्वेटा, 5-महू, 6 -पूना, 7-मेरठ, 8- लखनऊ, 9-सिकन्दराबाद, और 10-बर्मा 4 
इस महायुद्ध में भारत की रियासती सेनाओं के लगभग 20,000 सैनिकों ने शाही सेना की सेवा के लिए विश्व के विभिन्न रणक्षेत्रों में भाग लिया. भारतीय फौजी दस्तों ने फ़्रांस, बेल्जियम, तुर्की, मेसोपोटामिया (ईराक), फिलिस्तीन, ईरान, मिश्र और यूनान में हुए अनेक युद्धों में भाग लिया. इनमे यूरोप और अफ्रीका में स्थित वे रणक्षेत्र भी सम्मिलित हैं जहाँ खतरों से घिरे विकट दर्रों तथा गर्म जलवायु या अधिक शीत को झेलते हुए भारतीय सैनिकों को अपनी क्षमता का प्रयोग करना पड़ा, जिसके लिए भारतीय सेना के 11 सैनिकों को ब्रिटिश साम्राज्य के सर्वोच्च सैनिक सम्मान "विक्टोरिया क्रास" (Victoria Cross) से सम्मानित किया गया. इस सन्दर्भ में ब्रिगेडियर राजेंद्र सिंह ने कहा कि "प्रथम विश्वयुद्ध में भारतीय सपूतों की वीरता तथा धैर्य की अमर कहानी का मूल्य सम्पूर्ण विश्व की समस्त सम्पति से बढ़ कर है, यदि हमें वह उपहारस्वरुप दी जाय." 
गढ़वाल राइफल्स-हिमालय की गोद में बसे गढ़वाल के वीर सैनिक भारतीय सेना में विशिष्ट स्थान रखते हैं. उनका गौरवपूर्ण इतिहास रहा है. भारतीय सेना में इन्होने अपनी अपूर्व निष्ठा, साहस, लगन, निडरता, कठोर परिश्रम, भाग्य पर विश्वास एवं कर्तव्य पालन से विशिष्ट पहचान बनायी है. प्रथम महायुद्ध में 39वीं गढ़वाल राइफल्स की फर्स्ट व सेकंड बटालियने मेरठ डिविजन के अंतर्गत 11 अक्टूबर 1914 को मरसेल्स पहुँची. उस समय मेरठ डिविजन में तीन ब्रिगेड थे- (i) देहरादून ब्रिगेड  (ii) गढ़वाल ब्रिगेड व   (iii) बरेली ब्रिगेड.  गढ़वाल ब्रिगेड के कमांडर मेजर जनरल एच० डी0 युकेरी तथा ब्रिगेडिएर जनरल ब्लेकेडर के अधीन गढ़वाल रायफल्स ने फ़्रांस तथा बेल्जियम के युद्ध क्षेत्रों पर अपना मोर्चा सम्भाल लिया.
फेस्टुबर्ट का संग्राम (फ़्रांस)- 23, 24 नवम्बर 1914 को फेस्टुबर्ट के निकट जर्मनों के खिलाफ अति महत्वपूर्ण लडाई लड़ी गयी. जर्मन ने यहाँ मोर्चा बना कर खाईयां खोद रखी थी और वहां से जमकर गोलाबारी कर रहे थे. इस फ्रंट पर फिरोजपुर ब्रिगेड को पीछे हटना पड़ा था और उन खाईयों पर जर्मनों ने कब्ज़ा कर दिया था. इन परिस्थितियों में 39वीं गढ़वाल रायफल्स की फर्स्ट बटालियन को आदेश दिया गया की वे खाई पर आक्रमण करें. लक्ष्य प्राप्ति व परिस्थितियों को पक्ष में करने के लिए सर्वप्रथम बमवर्षा व गोलियों की बौछार की गयी. कमांडर का विचार था कि भयानक वमबर्षा व गोलीबारी से स्थिति पर नियंत्रण होगा, शत्रुओं का मनोबल टूटेगा तथा कवरिंग फायर की मदद से आगे बढ़ सकेंगे. गढ़भूमि का वीर सपूत नायक दरबान सिंह नेगी ही पहला व्यक्ति था जो दुश्मनों की गोलियों और बमों की परवाह न करते हुए कुछ फीट दूरी से ही मुकाबला कर रहा था. इस साहस व वीरतापूर्ण कार्य में दो बार घायल हुआ लेकिन वह सच्चे सैनिक की भांति दर्द की परवाह न करते हुए भी खाई में दुश्मनों से लड़ता रहा. कई बार दुश्मनों को पछाड़ कर पीछे किया और कई बार मौत के मुंह में जाते-जाते बचा और अंततः बुरी तरह घायल होते हुए भी खाईयों पर फतह पा ली. इस अदम्य साहस और शौर्य के लिए ब्रिटिश सरकार ने उन्हें सर्वोच्च सैनिक सम्मान "विक्टोरिया क्रास" से सम्मानित किया. इस वीरतापूर्ण मोर्चे पर जान की परवाह न करते हुए जिन्होंने डटकर साथ दिया वे थे- सूबेदार धन सिंह (मिलिटरी क्रास), सूबेदार जगतपाल सिंह रावत(आर्डर ऑफ़ ब्रिटिश इंडिया) तथा हवालदार आलम सिंह नेगी, लांसनायक शंकरू गुसाईं तथा रायफलमैन कलामू बिष्ट (इंडियन आर्डर ऑफ़ मेरिट). गढ़वाली जवानों ने दुश्मन की खाईयों में हजारों जर्मन सिपाहियों को मौत की नींद सुला दिया और हजारों को बंदी बना दिया. 24 नवम्बर सुबह तक खाईयों पर पूरी तरह 39वीं गढ़वाल रायफल्स की फर्स्ट बटालियन के जवानों ने कब्ज़ा कर लिया.
न्यूवे चैपेल का संग्राम (फ़्रांस) - यह सबसे बड़ी एकल लड़ाई थी जिसमे 10 से 12 मार्च 1915 तक चले इस संग्राम में 39वीं गढ़वाल रायफल्स की सेकंड बटालियन ने अपना जौहर दिखाया और इंडियन ट्रूप्स के लिए गौरव की प्राप्ति की. जर्मनों ने यहाँ पर चार मील लम्बा अभेद्नीय मोर्चा कायम कर रखा था. 600 गज का एक फ्रंट अटैक 10 मार्च 1915 की सुबह आर्टिलरी बैराज से शुरू हुआ. उस सुबह कड़ाके की ठण्ड, नमी और घना कोहरा था. इसके अतिरिक्त दलदली खेतों, टूटी झाड़ियों और कांटेदार तारों के कारण परिस्थितियां अत्यंत विकट थी. आमने सामने की भिडंत और भयंकर गोलीबारी और बमवर्षा के बाद रात 10 बजे समाप्त हुआ. इस फ्रंट पर रायफलमैन गबर सिंह नेगी ने दुश्मनों पर बड़े साहस के साथ गोलियां बरसाई जब तक कि वे आत्मसमर्पण के लिए तैयार नहीं हो गए. एक सच्चे सिपाही की भांति वे युद्ध भूमि में अंतिम क्षण तक डटे रहे और फर्ज के लिए अपने प्राण न्यौछावर कर दिए. इस अदम्य साहस और पराक्रम के लिए ब्रिटिश सरकार ने उन्हें मरणोपरांत सर्वोच्च सैनिक सम्मान "विक्टोरिया क्रास" से सम्मानित किया. इस युद्ध में 20 अफसर और 350 सैनिकों ने अपने प्राणों का उत्सर्ग किया उनमे 39वीं गढ़वाल रायफल्स की सेकंड बटालियन के सूबेदार मेजर नैन सिंह (मिलिटरी क्रास), हवालदार बूथा सिंह नेगी (इंडियन आर्डर ऑफ़ मेरिट), नायक जमन सिंह बिष्ट (इंडियन आर्डर ऑफ़ मेरिट) तथा सूबेदार केदार सिंह( इंडियन डिसटीन्गुअश सर्विस मेडल) हैं.
 39वीं गढ़वाल रायफल्स की वीरता और साहस से प्रभावित होकर फील्ड मार्शल फ्रेंच ने वायसराय को यह रिपोर्ट भेजी; " इंडियन कोर की सारी यूनिटें जो न्युवे चैपल की लड़ाई में लगी है उन्होंने अच्छा कार्य किया. जिन्होंने विशेष तौर पर प्रसिद्धि पाई उनमे 39वीं गढ़वाल रायफल्स की फर्स्ट और सेकंड बटालियने प्रमुख है."
          प्रथम विश्वयुद्ध (1914 -18) में 39वीं गढ़वाल रायफल्स दोनों बटालियनों ने विक्टोरिया क्रास सहित 25 मेडल्स प्राप्त किये, जो उन्हें विशिष्ट सैनिक सेवाओं और शौर्य के लिए प्रदान किये गए तथा गढ़वाल रायफल्स को रायल (Royal) की पदवी से भी सम्मानित किया गया. जो युद्ध भूमि में अपने प्राण न्यौछावर कर गए उन सबकी स्मृति में लैंसडौन-जो कि गढ़वाल रायफल्स का मुख्यालय है (पौड़ी. उत्तराखंड) में 1923 में युद्ध स्मारक का निर्माण किया गया. यह स्मारक तीर्थस्थल की भांति पवित्र और पूज्य है.
                                                                                                     
                                                                                                     डॉ० उदयवीर सिंह जैवार
                                                                                    "प्रथम  विश्वयुद्ध  में  गढ़वाल  राइफल्स की भूमिका  (1914-18)" के सम्पादित अंश            

Saturday, April 16, 2011

शिक्षक ! मेरे बच्चे को इस योग्य बनाना कि ........


शिक्षक ! 
मेरे बच्चे को रट्टू तोता मत बनाना 
उसे अक्षर बताना.

शिक्षक !
मेरे बच्चे को लूट की तरकीब मत बताना 
चारों तरफ फैला है लूट का साम्राज्य
इस शिक्षा में भरे हैं उसके अवगुण 
एक पाठ कम पढ़ाना. 

शिक्षक !
हो सके तो मेरे बच्चे को भला आदमी बनाना 
स्कूल भेजते वक्त 
मेरा बच्चा बहुत चंचल था
हमने उसका नाम भी यही रखा
तुम्हारी कक्षा में जरूर हो जाता होगा दायें-बाएं 
बच्चे की शरारत माफ़ करना.

शिक्षक !
मेरे बच्चे को गऊ मत बनाना  
प्यार बहुत बड़ी चीज है, लेकिन 
नफरत बहुत बुरी चीज नहीं 
जुल्म के बनैले पशुओं के खिलाफ 
उसे गुस्सा आना ही चाहिए.

शिक्षक !
मेरे बच्चे को इतनी आग देना 
कि वह इस जंगल-तंत्र को जलाने का हौसला रखे
तुम्हारे ही हुनर से बनना है बालक मन को, भविष्य को 
पेशे की गरिमा बचाए रखना
शिक्षक ! मेरे बच्चे को इस योग्य बनाना 
कि वह तुम्हे इज्ज़त बख्शे.
                                                                                                                                   राजेश्वरी
                                                                                                                    ('दस्तक' अंक 41 जुलाई-अगस्त 2009 से साभार )