Monday, December 24, 2018

व्हाई डिड नॉट यू सिंग कमली ‘सतपुली का सैण मा...’

बचपन में एक कारुणिक गीत अक्सर सुनते थे;
द्वी हजार आठ भादौं का मास, सतपुली मोटर बगीन खास।
शिवानन्द को छयो गोवरधन दास, छै हजार रुप्या थै वैका पास।

जिया ब्वै कू बोलणू रोणू नी मैकु .....। 

 (दुःख है कि आज पूरा गीत याद नहीं है। संवत 2008 के भादौं/सन् 1951 सितम्बर माह की घटना है जब सतपुली में पूर्वी नयार नदी की बाढ़ में जन-धन व मवेशियों की भारी हानि हुयी। बाढ़ की विकरालता की कल्पना इसी से की जा सकती है कि नयार नदी पर बना पुल भी बाढ़ की भेंट चढ़ गया। उसी त्रासदी में जीवन खो देने वाले एक शिवानन्द के पुत्र गोवरधन भी थे जिन पर आशु कवियों द्वारा उपरोक्त गीत रचा गया था।)
 सतपुली की बात आते ही इस मार्मिक गीत की पंक्तियां जेहन में गूंजने लगती और ऐसा लगता कि सतपुली आज भी उस घटना से उबर नहीं पाया होगा। सच कहूँ तो सतपुली के प्रति संवेदना का कुहासा वर्षों बाद तब छंटा जब प्रख्यात गीतकार चन्द्र सिंह राही जी ने 1983 में फिल्म ‘‘जग्वाळ’’ के लिए गीत गाया था।
‘नि जाणू नि जाणू कतई नि जाणू सतपुळी का मेळा मेरी बऊ सुरेला।
नि जाणू नि जाणू जमई नि जाणू पंचमी का मेळा मेरी बऊ सुरेला।
सतपुळी का सैण मेरी बऊ सुरेला।..................’
सतपुली का दूसरा रोमाण्टिक पहलू भी है, दिल ने तब माना।
सतपुली मैंने सन् 1990 में पहली बार देखा, जब इलाहाबाद से लौटते हुये कोटद्वार से श्रीनगर जाना हुआ। सन् 1951, 1983 और 1990 के बाद जमाना बहुत बदल चुका है। तीस हजार से अधिक आबादी वाले पूर्वी नयार नदी के बायें तट पर बसा सतपुली आज नगर पंचायत क्षेत्र है। पौड़ी जिले के पन्द्रह विकास खण्डों में से एक सतपुली, दो सौ तिरेसठ गांव वाला विकासखण्ड सतपुली अब एक पृथक तहसील भी है। 105 किलोमीटर लम्बे पौड़ी-कोटद्वार मार्ग के लगभग मध्य में स्थित और समुद्रतल से मात्र साढ़े छः सौ मीटर ऊंचाई पर बसा सतपुली समशीतोष्ण जलवायु वाला नगर है। सतपुली नगर से एक किलोमीटर पश्चिम में पूर्वी व पश्चिमी नयार नदी का संगम है और निरन्तर पश्चिम वाहिनी होते हुये नेगी जी की ‘‘रुकदी छै ना सुख्दी छै, नयार जनी बग्दी छै.......’’ के यथार्त के साथ लगभग पच्चीस किलोमीटर दूरी तय कर ब्यासघाट के पास गंगा नदी की बाहों में समाकर अपना अस्तित्व खो बैठती है। 

आज सतपुली नगर में अनेक कार्यालयों के अतिरिक्त राष्ट्रीयकृत बैंकों की शाखाएं, इण्टर कॉलेज, आई0 टी0 आई0, पोलीटेक्निक, नवोदय विद्यालय, राजकीय महाविद्यालय आदि शैक्षणिक संस्थान ही नहीं ‘द हँस फाउण्डेशन’ का सभी सुविधाओं से युक्त 150 बेड का अस्पताल भी है। पौड़ी, कोटद्वार ही नहीं सतपुली नगर देवप्रयाग, थलीसैण आदि महत्वपूर्ण स्थलों से भी सीधा जुड़ा हुआ है। 
माना जाता है कि कोटद्वार से इस मार्ग पर सातवें पुल के पास बसे होने के कारण इसका नाम सात पुल और ‘सतपुली’ पड़ा। उत्तराखण्ड के वर्तमान मुख्यमंत्री श्री त्रिवेन्द्र सिंह रावत जी के मौसेरे भाई डेरयाली(गुमखाल) निवासी अड़सठ वर्षीय श्री बीरेन्द्र सिंह बिष्ट जी बताते हैं कि उनके दादा स्व0 चन्द्र सिंह बिष्ट आजादी से पहले सतपुली में बस गये थे और सन् पचास के दशक में वे सतपुली के मालदार लोगों में से थे क्योंकि उनका व्यवसाय ठीक-ठाक चलता था। छहत्तर वर्ष की आयु में उनका देहान्त सन् 1972 में हो गया। श्री बीरेन्द्र सिंह बिष्ट जी का कहना था कि उसी दौर में राजस्थान मारवाड़ से रोजगार की तलाश में जोधराज नाम का एक व्यक्ति आया और दूसरों की मजदूरी करते-करते सतपुली में बस गया और कुछ साल सतपुली का बड़ा व्यापारी बन गया। आज राजस्थान निवासी जोधराज जी के वंशज सतपुली मंे है या नहीं कहा नहीं जा सकता।
डामटा व छाम की ही भांति ‘‘माछा-भात’’ के लिए विख्यात सतपुली को साहित्यकार अशोक कण्डवाल जी के कविता संग्रह ‘‘गौंदार की रात’’ में जगह नहीं मिल पायी। (मुझे यकीन है/ तुम कभी/ डामटा नहीं गये/तुमने/छाम भी नहीं देखा/फिर तुम्हें क्या पता/ जमुना या/ भागीरथी की/ मछलियों की/ पाँखें ओर आँखंे/ कैसी होती है।..........) 

पाँच-छ दशक पहले तक सतपुली में होटल व्यवसायियों की अपेक्षा स्थानीय निवासी कम थे। सड़क मार्ग से जुड़े होने के कारण सुबह जल्दी बस पकड़ने या देर शाम को पहुँचने पर परदेश से आने-जाने वाले लोग प्रायः सतपुली में रुक जाते थे और पौड़ी, कोटद्वार जाने वाली बसें यहाँ पर कुछ देर के लिए अवश्य रुकती थी। फिर जी. एम. ओ. यू. कार्यालय भी सतपुली में था। सतपुली में अक्सर फौजियों की गहमा-गहमी रहती थी। वक्त बदला, फौजियों का आना-जाना कम हुआ क्योंकि ज्यादातर फौजी सुविधाजनक स्थानों पर बस गये हैं। सतपुली में आज आस-पास के गांवों के लोग ही नहीं नौकरी-पेशा बाहरी व्यवसायी लोग भी बस गये हैं।  नयार नदी की उपजाऊ घाटी में बसे खैरासैण, राज सेरा, चमशु, बड़खोलू, रौतेला, बूंगा, बांघाट, बिलखेत, दैसण, मरोड़ा आदि गांवों की भूमि कभी सोना उगलती थी। बल्कि यह कहना ज्यादा प्रासंगिक होगा कि कुछ दशक पहले तक ही सतपुली गढ़वाल का एक सम्पन्न अन्न भण्डार क्षेत्र था। परन्तु आज पलायन के कारण अधिकांश गांवों की भूमि बंजर पड़ी हुयी है। 
उत्तराखण्ड राज्य की इस अठारहवीं वर्षगांठ पर एक प्रश्न मन में अवश्य उठता है कि मुख्यमंत्री त्रिवेन्द्र सिंह रावत जी की इस नयार घाटी में क्या कभी फसलंे फिर से लहलहायेगी, दूध-घी की नदियां फिर से बहेगी, वह बहार फिर से लौट सकेगी, खण्डहर हो चुके घरों में क्या कभी फिर से दीया जल सकेगा?

Wednesday, August 08, 2018

एक महान योद्धा की शहादत दिवस पर.....

        बाबा मोहन उत्तराखण्डी शहीद न होते तो क्या आज उत्तराखण्ड आन्दोलनकारियों को सरकारी नौकरी में आरक्षण मिल पाता? नहीं न! न होते वे शहीद तो गैरसैण राजधानी को लेकर सरकार पर इतना दबाव बना रहता? नहीं न! और हम इतने कृतघ्न हैं कि उनके शहीद दिवस पर कहीं कोई सुगबुगाहट नहीं। उनकी न कोई मूर्ति, न उनके नाम से विश्वविद्यालय, न चिकित्सालय, न पुस्तकालय, न कोई कॉलोनी, न स्कूल कॉलेज ही और न कोई स्मारिका। कुछ भी तो नहीं। हम लगभग उनको भुला चुके हैं। एक व्यक्ति गैरसैण राजधानी को लेकर अपना प्राणोत्सर्ग कर चुका है और हम हैं कि........।
            कौन थे बाबा मोहन उत्तराखण्डी? जिला गढ़वाल के एकेश्वर ब्लॉक के बंठोली गांव में सेना अधिकारी मनवर सिंह नेगी व सरोजनी देवी के पुत्र रूप में 3 दिसम्बर 1948 को जन्में मोहन सिंह नेगी एक जीवट, कर्मठ व दृढ़ इच्छाशक्ति वाले व्यक्ति थे। प्रारम्भिक शिक्षा मैन्दाणी में और इंटर तक की पढ़ाई दुगड्डा में करने के बाद 1969 में उन्होंने रेडियो आपरेटर ट्रेड में आई०टी०आई० किया और 1970 में बंगाल इंजीनियर्स में भर्ती हो गये। सेना में उनका ज्यादा दिन मन नहीं लगा और 1975 में फौज की नौकरी छोड़ गांव में खेती बाड़ी से गुजारा करने लगे और साथ ही समाजसेवा भी। उनके व्यवहार व सामाजिक दायित्वों के निर्वाहन में उनकी भूमिका देखकर वे 1983 से वे निरन्तर दो बार ग्रामप्रधान रहे।
            ग्रामप्रधानी के दौरान ही उनका जुड़ाव यू.के.डी. से हुआ तो फिर तो उनपर आन्दोलनों का जुनून सवार हो गया। उत्तराखण्ड आन्दोलन को लेकर 1994 में तीन सौ दिन का क्रमिक अनशन किया तो 1994 मुज्जफर काण्ड का उन्हें इतना आघात लगा कि दाढ़ी व बाल काटना ही छोड़ दिया, भरा-पूरा परिवार छोड़ दिया, गेरुआ वस्त्र पहनना व केवल एक बार भोजन करना शुरू किया और यहाँ तक कि अपना पूरा नाम ‘मोहन सिंह नेगी’ की जगह ‘बाबा मोहन उत्तराखण्डी’ लिखना शुरू किया। और यह जूनून उन पर अन्तिम समय तक सवार रहा जब तक वे गैरसैण राजधानी को लेकर आदिबद्री के निकट बेनीताल में टोपरी उड्यार में 02 जुलाई 2004 से अकेले ही अनिश्चितकालीन भूख हड़ताल पर नहीं बैठ गये। यहीं 39 दिन की भूख हड़ताल ने 9 अगस्त 2004 को उनकी जीवनलीला समाप्त कर दी।
         उनकी शहादत की खबर सुनकर राज्यवासी आक्रोशित हो उठे, जगह-जगह आन्दोलन हुये और दस अगस्त 2004 को प्रदेश व्यापी हड़ताल व बन्द किया गया। उत्तराखण्ड सरकार ने ‘डेमेज कण्ट्रोल’ के लिए आनन-फानन में आन्दोलनकारियों के लिए आरक्षण की घोषणा कर दी और बाबा मोहन उत्तराखण्डी को भुला दिया गया। किसी शायर ने क्या खूब कहा है;
शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले,
वतन पर मरने वालों का यही बाकी निशां होगा।

(स्रोत साभार- एल.मोहन कोठियाल के लेख ‘जिसने गैरसैण के लिये जान दे दी थी.....’ के सम्पादित अंश)

Tuesday, August 07, 2018

राजनीतिक और राजनीति

लोकतंत्र में इतनी स्वतंत्रता तो है कि राजनीतिज्ञों को गाहे-वेगाहे हर कोई कोस सकता है। हाँ, कोसने का अन्दाज सबका जुदा होता है। एक साधारण व्यक्ति और एक कवि की भाषा शैली में अन्तर बहुत होता है। कुमाऊं के सुप्रसिद्ध कवि शेरदा ‘अनपढ और गढरत्न नरेन्द्र सिंह नेगी जी की उलाहना भरी रचनाओं में आप स्वयं ही देख लें।
तुम समाजाक इज्जतदार, हम भेड़-गंवार        - शेरदा अनपढ -
तुम सुख में लोटी रया,
हम दुःख में पोती रया !
तुम स्वर्ग, हम नरक,
धरती में, धरती आसमानौ फरक !

तुमरि थाइन सुनुक र्वट,
हमरि थाइन ट्वाटे-ट्वट !
तुम ढडूवे चार खुश,
हम जिबाई भितेर मुस !
तुम तड़क भड़क में,
हम बीच सड़क में !
तुमार गाउन घ्युंकि तौहाड़,
हमार गाउन आंसुकि तौहाड़ !
तुम बेमानिक र्वट खानयाँ,
हम इमानांक ज्वात खानयाँ !
तुम पेट फूलूंण में लागा,
हम पेट लुकुंण में लागाँ !
तुम समाजाक इज्जतदार,
हम समाजाक भेड़-गंवार !
तुम मरी लै ज्यूने भया,
हम ज्यूने लै मरिये रयाँ !
तुम मुलुक के मारण में छा,
हम मुलुक पर मरण में छा !
तुमुल मौक पा सुनुक महल बणैं दीं,
हमुल मौक पा गरधन चड़ै दीं !
लोग कुनी एक्कै मैक च्याल छाँ,
तुम और हम,
अरे! हम भारत मैक छा,
सो साओ ! तुम कै छा !
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गरीब दाता मातबर मंगत्या        - नरेन्द्र सिंह नेगी -

तुम लोणधरा ह्वैल्या,
पर हम गोर-बखरा नि छां।
तुम गुड़ ह्वै सकदां,
पर, हम माखा नि छां।
तुम देखि हमारी लाळ नि चूण,
तुमारि पूंछ पकड़ि हमुन पार नि हूण।
हम यै छाला तुम वै छाला।
तुमारी आग मांगणू
गाड तरि हम नि ऐ सकदा।
तुमारा बावन बिन्जन, छत्तीस परकार
तुम खुणी, हम नि खै सकदा।
हमारी कोदै रोट्टी, कण्डाळ्यू साग
हमारी गुरबत हमारू भाग।


तुम तैं भोट छैणी छ, त आवा
हमारी देळ्यूं मा खड़ा ह्वा
हत्त पसारा ! .... मांगा !
भगवानै किरपा सि हमुमां कुछ नी, पर
तुमारी किरपा सि दाता बण्यां छां।।

    @@@@@@

Saturday, August 04, 2018

माँ को याद करते हुये..............



       माँ की आज पुण्यतिथि है। आज ही के दिन 2011 में माँ हमें छोड़ गयी थी। यदि माँ जीवित होती तो आज चौरासी की होती, परन्तु वह तो सात साल पहले ही चौरासी के जाल से मुक्त हो गयी। शास्त्रों में ज्ञान का भण्डार है किन्तु हम शोक में डूबे रहते हैं। श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को सांख्ययोग के माध्यम से समझाते हुए कहा कि;

नैनं छिदन्ति शस्त्राणी नैनं दहति पावकः !
न चौनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः !!

       माँ डेढ़ साल तक स्किन (बायीं जांघ के) कैंसर से ग्रस्त रही। पहले वह सामने की ओर घुटने के नीचे था, चिकित्सकों की बातों में आकर प्लास्टिक सर्जरी द्वारा वह ऑपरेट किया गया तो कुछ महीनों बाद जांघ पर निकल गया और फिर बढ़ता गया। दवाईयां सब फेल हो गयी यहाँ तक कि पतंजलि का स्वर्ण भस्म, डायमंड पावडर, गिलोय आदि सभी कुछ। बाद में किसी ने कीमोथेरेपी की सलाह दी और किसी ने रेडियोलॉजी की, परन्तु चिकित्सकों ने आयु अधिक होने का हवाला देकर केवल सेवा करने को कहा। होनी को कौन टाल सकता है। यह मानकर सन्तोष कर लेता हूँ कि सभी की माँ एक न एक दिन उन्हें छोड़ कर चली जाती है।
           मेरी माँ पढ़ी लिखी नहीं थी, निपट अपढ़ थी। परन्तु मुझे शिक्षित करने को लेकर वह सचेत भी थीं। मेरी एडमिशन फीस हो या मासिक फीस, घर में न होने पर वह गांव में ऊज-पैंछ(उधार) कर व्यवस्था कर लेती थी और न मिलने पर अनाज भी बेच देती। पिताजी सेना में थे, जिनका भेजा गया मनिऑर्डर कभी-कभी समय पर नहीं मिल पाता था।(मनिऑर्डर न मिलने का कारण डाक व्यवस्था ही दोषी नहीं थी बल्कि मुख्य था हमारे सात-आठ गांवों का डाकखाना जिस दुकानदार को मिला हुआ था वह मनिऑर्डर आने की सूचना समय पर नहीं देता था। लोग कहते थे कि वह लोगों के मनिऑर्डरों से अपना बिजनिस चला रहा है अर्थात उन पैंसो को ‘रोटेट’करता था)
         खेती-किसानी के कार्य के समय माँ उसके लिए पूरी तरह समर्पित हो जाती थी। तब उसके लिए मेरी पढ़ाई-लिखाई व स्कूल कॉलेज कोई मायने नहीं रखता था केवल खेती प्राथमिकता होती। मुझे आदेश मिलता कि आज स्कूल नहीं जायेगा क्योंकि आज रोपाई है या आज मण्डवार्त है या आज मळवार्त है या आज हल बाना है और हळया के साथ एक सहायक की जरूरत है आदि आदि। मेरे ना-नुकुर करने पर वह गुस्सा करते हुये भी गर्व से कहती ‘हम किसाण हैं। (किसाण अर्थात किसान, वैसे गढ़वाली में किसाण ‘कर्मठ’ को भी कहा जाता है) माँ सचमुच में ही किसाण थी- दोनो अर्थों में। उसने हम नादान भाई-बहनों के साथ अकेले दम पर पूरी खेती सम्भाल रखी थी। माँ के बलबूते ही तब हमारे सिंचित खेतों से लगभग बीस बोरी धान और बीस दोण गेंहूं होने की मुझे याद है और उड़द, मसूर, भट्ट आदि दालें व काखड़ी, मंुगरी के साथ भेण्डी, आलू, प्याज व चौलाई, राई आदि सब्जियां भी खूब होती थी। उखड़ थे सही, परन्तु दूर थे इसलिए उन्हें छोड़ दिया गया था। बिना दूध के हम कभी रहे नहीं और न मोल का ही खाया, एक भैंस हमेशा आंगन में होती थी।
         खेती-किसानी के काम में मेरी रुचि न होने या न कर सकने के कारण माँ अक्सर दुखी होकर कहती थी कि ‘कैसे खायेगा तू ? न तू भैंस दुहना जानता है, न हल लगान और न लकड़ियां काटना। तुझे कौन लड़की देगा? अकेले पढ़-लिखकर हो जायेगा तेरा गुजारा?.......’ माँ की जितनी समझ थी उस हिसाब से उसकी चिन्ता वाजिब थी। परन्तु माँ के ऐसे प्रश्नों का मेरे पास एक ही उत्तर होता कि सभी का गुजारा हो जाता है माँ, हर कोई अपना पेट भर लेता है। और ईश्वर की दया से आज बिना खेती-किसानी के गुजारा कर ले रहा हूँ।
         परन्तु आज माँ नहीं है। माँ नहीं है तो खेत बंजर हो गये हैं, घर-आंगन सूना पड़ा है, मकान में दीमक और मकड़ियों ने ठिकाना बना लिया है, माँ के लगाये पेड-पौधे सूख गये हैं या सूखने की कगार पर हैं। गांव में रौनक नहीं है और गांव अपना जैसा भी नहीं है। जिस आंगन में हम उछल-कूद करते थे वहाँ अब बन्दरों की धमा-चौकड़ी है। सब कुछ चला गया है माँ के साथ। ऐसे में तुम्हारा न होना बहुत सालता है माँ।...........
  विनम्र श्रद्धांजलि माँ।

Sunday, May 13, 2018

मरास की महत्ता


        आज घर के पिछवाड़े लगभग पांच सौ वर्गफीट के किचन गार्डन में तीन बाय तीन फिट का एक गड्ढ़ा बना दिया है मरास के लिए। फल व सब्जी के छिलके जो पहले कूड़े के ढेर में चले जाते थे अब हम उसे मरास में डालेंगे। बीच-बीच में पलटते रहने से यह जैविक खाद बनेगी और घर के गमलों व किचन गार्डन के काम आयेगी। गढ़वाली भाषा में ‘मरास’ गोबर के ढेर को कहते हैं। घरों में ढोर-डंगरों के मल को एक नियत स्थान पर ढेर बनाकर रखा जाता है और सड़ने पर उसे खाद के रूप में इस्तेमाल करते हैं। मरास संभवतः ‘मरा’ व ‘अंश’ शब्दों से मिलकर बना होगा। जो कि पहले मराशं, फिर मराश और अब मरास कहकर उच्चारित हो रहा है। कभी-कभी मरास शब्द का प्रयोग केवल एक ढेर के लिए भी होता है। यथा; ‘तै थैंं खाणै पूरी मरास छैन्दि...।’ ‘अफु मरास कर पसर्यूं अर हैका पर हुकम चलौणू....।’(विस्तार में तो गढ़वाली भाषा के महारथी रमाकांत बेंजवाल जी ही बता सकते हैं।)
      
मरास की बात चली तो बचपन की याद आ गयी। गांव के हमारे छः वास(तीन बौण्ड/पाण्डा और तीन ओबरे) वाले घर में मेरा व मेरे चाचा जी का परिवार रहता था। तीन बौण्ड(ऊपर के कमरों) के आगे पूरी लम्बाई में ग्रिल से बन्द बरामदा था और उसके आगे पूरी लम्बाई में ही लगभग डेढ़ फीट चौड़ा पत्थरों की स्लेट का छज्जा। आंगन में उतरने के लिए सीढ़ी दोनों परिवारों की एक ही थी। आंगन के खूंटों पर दोनो परिवारों की कम से कम दो भैंसें व उनके बछड़े तथा बैल बन्धे रहते थे, यानि कि कम से कम सात-आठ पशु। दोनों परिवार अपने-अपने पशुओं का गोबर उठाते और अपनी-अपनी मरास में डाल देते। लगभग डेढ़ सौ घन फीट क्षमता वाला हमारी मरास का गड्ढा छ महीने में तो भर ही जाता था। क्योंकि डंगरों द्वारा खाने से छोड़े गये घास व पुआल के अलावा डंगरों के नीचे बिछाया गया तुंगला व अन्य घास के पत्तों के साथ घर के फल सब्जियों के छिलके और घर के आंगन में पेड़-पौधों से झड़े हुय पत्ते काफी हो जाते थे। हर ढाई-तीन महीने बाद माँ कहती कि ‘जा, मरास पलट दे!’ अर्थात फावड़े से ऊपर का गोबर नीचे और नीचे का ऊपर कर दे, ताकि वह भली-भांति सड़ जाय। तो मैं अक्सर टाल जाता था। भला-बुरा कहते हुये माँ फिर स्वयं ही पलटने लग जाती।
      मरास को पलटते रहने की अहमियत तब पता नहीं थी। मेरी माँ निपट अनपढ़ थी परन्तु कृषिकार्य की समझ उसकी बहुत विकसित थी। कौन सा बीज किस खेत में और कब बोना चाहिए वह भली-भंाति जानती थी। कौन से पौधे की कलम कब, कैसे और कहाँ लगाना है वह जानती थी। आज घर में बेटा व बहू पन्तनगर कृषि विश्वविद्यालय से कृषि में स्नातक/परास्नातक अवश्य हैं परन्तु किचन गार्डन तो छोड़िए उन्हें अपनी नौकरियों के चलते गमलों को देखने तक की फुरसत नहीं है।
      बैसाख, जेठ में जहाँ अरबी, अदरक व हल्दी के खेतों में गोबर डाला जाता वहीं मंगसीर में गेहूं बोने के बाद गोबर अवश्य डालते। गांव के सभी काम सामुदायिकता की भावना से होते थे इसलिए खेतों में गोबर भी औरतें
मिल-जुलकर ही डालती थी। पुरुष फावड़े से खोदकर गोबर झालों(रिंगाल के बड़े टोकरों) में भरता और औरतंें सिर पर रखकर कई-कई फेरों में गोबर को खेतों तक पहुँचाती। औरतों का झुण्ड गोबर के भारी-भारी टोकरे सिर पर होने के बावजूद हँसते-बातें करते हुये घर से खेत के बीच का फासला तय करती और खिलखिलाते व ठिठोली करते हुये वापस लौटती। खेतों में गोबर डालने की इस प्रक्रिया को गढ़वाली भाषा में ‘मळवार्त’ कहा जाता और मळवार्त के दिन इन मेहनतकश औरतों को दोपहर का भोजन, शाम को चाय के साथ घी का हलुवा या आलू-प्याज की पकोड़ी और रात को लबा-लब घी के साथ गरमा-गरम लड़बड़ी दाल भात।

Monday, March 19, 2018

बसन्त ऋतु के बहाने



  जब डाण्डी-काण्ठी में बर्फ पिघलने लगती, ठण्डी चुभती हवाओं से निजात मिलने लगती, घाटियों में फ्यूंली और खेतों में सरसों का पीलापन छा जाता और गुदड़ी में देर तक दुबकने की अपेक्षा मन बाहर भागने के लिये मचल उठता तब लगता था कि सचमुच बसन्त आ गया है। यह बचपन की बात है।  
    चैत की पहली सुबह मुहँ अन्धेरे ही आधी-अधूरी नींद की खुमारी में षाम को धो-धाकर रखी गयी फुलकण्डी (रिंगाल की बनी छोटी टोकरी) उठाते और चल पड़ते ताजे फूल चुनने। तब घर-घर षौचालय नहीं थे इसलिये गाड-गदेरे या नहर किनारे निवृत्त होकर फुर्ती से फूल चुनने लगते। फूलदेई का नियम है कि सूरज उगने से पहले ही फूल घर की देहरी पर डाले जायें। अपने घर में ही नहीं अपितु आस-पास के उन घरों की देहरियों पर भी जिन घरों में अकेले बुजुर्ग या केवल वयस्क रह रहे हों (रिष्ते निभाने के लिये कम लोभवष ज्यादा)। चैत्र मास के अन्त में अर्थात पापड़ी (बैषाख) सक्रान्ति को ऐसे घरों से आषीर्वाद के अतिरिक्त थोड़ी-बहुत नगदी जो मिल जाती थी।

    भिलंगना की उपत्यका में बसे मेरे गांव सान्दणा से टिहरी (अब जलमग्न) दो मील हवाई दूरी और लगभग ढाई सौ मीटर गहराई पर दक्षिण पष्चिम में है जबकि मेरी माँ का मायका कठूली लगभग एक मील हवाई दूरी पर ही उत्तर-पूर्व में सौ मीटर ऊँचाई पर स्थित है। चौथी-पांचवी कक्षा में चम्पाधार स्कूल जो कि मेरे गांव व कठूली के बीच था, में पढ़ाई की तो स्कूल से छुट्टी होने के बाद महीने में एक-दो बार मैं अपने सहपाठी कठूली के सयाणा मामा के बेटे बल्ली (बलवीर) के साथ ननिहाल चला जाता था। पांचवीं कक्षा में रहा हूँगा जब एक बार चैत षुरू होने से ठीक एक दिन पहले कठूली गया तो बल्ली ने कहा कि चलो एक घर बनाते हैं। घर या घरौन्दा बनाने के मूल में एक मन्दिर बनाने व प्रकृति पूजा का भाव रहता होगा षायद। मैंने झट से हाँ कर दी, इसलिये कि यह मेरे लिये नया अनुभव था, हमारे गांव में इस तरह के घरौन्दे बनाने की परम्परा जो नहीं थी। इस काम में मैंने बढ़-चढ़ कर उसका साथ दिया। मन्दिरों की आकृति का ठीक-ठाक ज्ञान न होने के कारण उसके घर के आंगन के एक कोने में हमसे जो बना वह आम घरों की भांति ही था- वही दो मंजिला घर। स्वयं हमने गोबर-मिट्टी से उस घर की लिपाई की और ढालदार छत के साथ प्रतीक रूप में सामने दरवाजे खिड़कियां भी बना दी। दूसरी सुबह चैत की पहली तारीख को हम दोनों ने सुबह चुनकर लाये गये ताजे फ्यूंली, लैण्टाना, ग्वीर्याळ, डैंकण आदि के फूलों से उस घराैंदे को सजाया और अनाम देवी/देवता की पूजा कर व आषीर्वाद लेकर स्कूल चले गये। उस चैत महीने में कम से कम पाँच-छः बार मैं स्कूल से सीधे कठूली गया, केवल इसलिये कि उस घर की देखभाल कर फूल चढ़ा सकूं और आषीर्वाद ले सकंू। सच कहूँ तो मन में कहीं यह आषंका भी थी कि ऐसा न हो कि घरौन्दा बनाने और पूजा करने का सारा प्रतिफल अकेले बलवीर को ही मिल जाय और मैं रीता ही रह जाऊँ।
(आज बलवीर हिन्दुस्तान के सबसे खूबसूरत शहर चण्डीगढ़ में बस गया है और मैं देहरादून वाला हो गया।)

Wednesday, February 14, 2018

नौ बैणी आछरी बारा बैणी भराड़ी..(4)

पूजा-अर्चना के बाद मैं खैटपर्वत पर श्रीमद्भागवत कथा व शिवपुराण के आयोजक पण्डित प्रेमदत्त नौटियाल ‘कामिड’ जी से मिला। उन्हें अपना परिचय दिया और अपनी दो पुस्तकें भंेट की, वे बड़े गदगद हुये। बौंसेळ -पिलखी निवासी नौटियाल जी ने बताया कि ‘पहले खैट पर्वत एक निर्जन स्थान ही था। आम लोगों में यह धारणा थी कि इस पर्वत पर आने वाले को आछरी हर लेती है, इसलिये रुकना तो छोड़िये आम आदमी यहाँ आने से ही आदमी कतराता था। सन् 1983 में उनके द्वारा एक छोटा सा मन्दिर बनवाया गया, तब से प्रतिवर्ष भागवत कथा का आयोजन किया जा रहा है। फलस्वरूप आज लोगों की धारणा ही नहीं बदली बल्कि उनकी आस्था भी बढ़ी और आज इसी आस्था के कारण ही यहाँ पर दो मन्दिर, धर्मशाला, भोजनालय, भागवत कथा के लिये मंच और प्रवेशद्वार आदि का निर्माण हो चुका है। विद्युत लाईन बिछने से खैट मन्दिर जगमगाने लगा है। थाथ गांव से पैदल मार्ग तो बना ही है बल्कि भटवाड़ा से भी सड़क निर्माण का कार्य शुरू हो चुका है। पेयजल आदि अन्य आवश्यक सुविधाओं की मांग को लेकर भागवत कथा समाप्त होने के तुरन्त बाद वे यहीं आमरण अनशन पर बैठ  जायंेगे....।’  आछरियों का स्मरण कर मैंने मन ही मन अपने से पूछा कि यह कैसा परियों का देश है जहाँ पर लोग अपनी मांग मनवाने के लिये धरने पर बैठते हैं। स्वायत्त राज्य की मांग को लेकर उत्तराखण्ड क्रान्ति दल के नेता व पूर्व मंत्री दिवाकर भट्ट जी भी एक बार खैट पर आमरण अनशन पर बैठकर शासन-प्रशासन के पसीने छुड़वा चुके हैं और अब कामिड जी....।  हे भगवती, तू ही देखना!  

कामिड जी से बातचीत के बाद रसोईघर में गया। भोजन वहाँ पर तैयार था- दाल, सब्जी, रोटी व भात भी। इस ऊँचाई पर भरपेट स्वादिष्ठ भोजन मिल जाये तो और क्या चाहिये। उन्होंने ही बताया कि 'इस बार कथा सुनने कम लोग ही आ रहे हैं। थाथ, म्यूंडा, सारफूल, नन्वां, कोळ, भटवाड़ा, तुन्यार आदि गांवों से लोग आते हैं और शाम को वापिस लौट जाते हैं। हाँ, भण्डारे के दिन अवश्य डेढ़-दो सौ श्रद्धालु आने की उम्मीद है।' रसोईघर में काम करने वाले तीनो लोग स्थानीय ही थे, परन्तु भोजन के बाद बिना दूध की चाय देने पर मैंने पूछा कि ‘क्या कोई श्रद्ध ा लु दूध लेकर नहीं आता है?’ तो उनका कहना था कि ‘गांव में अब कितने लोग हैं जो भैंस पालते हैं और जिनकी भैंस है भी उनमंे इतनी श्रद्धा नहीं है कि दूध पहुँचा दें।’  मैंने उन्हें श्रीअमरनाथ यात्रा मार्ग पर चलने वाले लंगरों के बारे में अपने अनुभव बताये तो उन्होंने कहा कि ‘इस प्रकार की आस्था हमारे लोगों में नहीं है। यह तो पण्डित नौटियाल जी की ही साख है कि कुछ दानी लोग उनके कहने पर आटा, चावल, दाल, आदि राशन खच्चरों से यहाँ भिजवा देते हैं। अन्यथा यहाँ पर खाना क्या चाय भी शायद ही मिले। पानी भी थाथ गांव से खच्चरों से मंगाना पड़ता है। भण्डारा निपटने के बाद जो राशन बच जाती है हम उसे यहीं छोड़़ देते हैं, जिससे कभी भी कोई आना चाहें तो वे खाना बनाकर खा सकते हैं, धर्मशाला में ओढ़ने-बिछाने के लिये काफी कम्बल हैं
और लोग यदा-कदा आते भी हैं।’ बातें करते हुये रात काफी बीत चुकी थी। धर्मशाला जाने के लिये बाहर निकला तो एकाएक शीतलहर सी चलने का अहसास हुआ। मई की गर्मी में कहाँ मैदानों में पंखे का रेगुलेटर पूरा घुमाने के बाद भी बार-बार छत पर नजर जाती है कि पंखा चल भी रहा है या नहीं और कहाँ खैटपर्वत पर ऐसा प्रतीत हो रहा था कि मानों कई चलते कूलर एक साथ मेरी ओर घुमा दिये हों। धर्मशाला में कम्बल काफी थे, परन्तु मैं आदतन अपने साथ स्लीपिंग बैग व एक गरम शॉल जरूर रखता हूँ।

सुबह उठकर बाहर घूमने लगा। दुर्गा मन्दिर के पीछे एक समतल व खुली जगह है, जिसे ‘आछरी खल्याण’ (परियों का आंगन) कहा जाता है। वहाँ से नीचे भिलंगना घाटी का विहंगम व मनभावन दृश्य देखा। धारमण्डल, ढुंगमन्दार ही नहीं भिलंगना पार माता चन्द्रबदनी मन्दिर का कुछ हिस्सा और खासपट्टी व कोटी-फैगूल के अनेक गांवों का ‘बर्ड आई व्यू’ यहाँ से दिखाई देता है।

 मन्दिर परिसर में क्या किसने बनवाया और क्या किसने, सभी जगह संगमरमर पत्थरों पर नाम-पते लिखकर दानदाताओं ने चिपका रखे थे। जब मूल रूप से अपने गांव के और टिहरी के जाने-माने वकील स्वर्गीय वंशीलाल पुण्डीर जी की धर्मपत्नी श्रीमती रोशनी देवी पुण्डीर द्वारा कथामंच निर्माण में सहयोग करने के बावत लगाया गया मार्बल पत्थर पढ़ा तो अच्छा लगा। नीचे उतरकर पण्डित नौटियाल जी को खैटपर्वत के विकास जैसे पुनीत कार्य में भरपूर सहयोग देने का आश्वासन देकर मैंने विदा ली। 

खैट से वापस लौटते हुये मैंने अंकित को छेड़ा ‘यार, खैट पर्वत पर आछरियां तो आई ही नहीं।’  परन्तु उसका जवाब था कि ‘रात को ढोल बजने की आवाज आपने नहीं सुनी सर क्या?’  तो मैं अवाक रह गया, रात आछरियां खैट से गुजरी और मैं सुन नहीं पाया। ले बेटा, मैं इस बार फिर वंचित रह गया। वैसे मेरा मानना है कि लोगों में यह भ्रान्ति मनोवैज्ञानिक होती है। वृन्दावन(मथुरा) में एक छोटी सी बगिया है जिसे वहाँ के स्थानीय लोग वृन्दावन गार्डन कहते हैं। वहाँ घूमते हुये गाईड ने सरल व सपाट शब्दों में बताया कि ‘साहब, रात को यहाँ पर भगवान श्रीकृष्ण बांसुरी बजाते हैं। परन्तु जो सुनता है उसकी मौत हो जाती है।’  मैं मन ही मन हँसा कि इस तरह की आस्था को क्या कहें? अन्धविश्वास? बांसुरी तो बजती है परन्तु सुनने वाला कोई जीवित नहीं बचता। तो भाई, फिर यह किसने बताया होगा कि रात को बांसुरी बजती है? खैटपर्वत की आछरियों के बारे में क्या यह ऐसी ही आस्था नहीं है?

आखिर आछरी क्या है? कश्मीर, हिमाचल, उत्तराखण्ड, नेपाल आदि हिमालय क्षेत्र की आस्थाएं व मान्यताएं एक सी है। इनका कहीं न कहीं आपस में आध्यात्मिक संबन्ध है। जिन्हें हम आछरी कह रहे हैं हिमाचल में उन्हें जोगणियां और अनेक जगहों पर इन्हें यक्षणियां कहा जाता है। ‘आछरी’ शब्द वस्तुतः प्राचीन किराती बोली का शब्द माना  जाता है।  लाहोल स्पीति में इन दैवीय शक्तियों को खांडरूम कहते हैं। डॉ0 वीरेन्द्र सिंह बर्त्वाल की पुस्तक ‘गढ़वाली गाथाओं में लोेक और देवता’ में उल्लेख किया गया है कि ‘अधिकांशतः इन्हें अविवाहित युवतियों की अतृप्त आत्माएं माना जाता है। चटकीले रंग, श्रंगार, सुन्दर पुष्प और सुमधुर संगीत इन्हें बहुत प्रिय है। विशेषतः बसन्त )तु में, जब पर्वत की चोटियों में नाना प्रकार के पुष्प खिले हों, तब सुमधुर संगीत बजाया जाए तो माना जाता है कि उस संगीतज्ञ के प्राण हर लेती है।.’  

‘.....एक जागर में इन्हें रावण द्वारा शिव को भंेट स्वरूप दी गई कन्या बताया गया है। इन्हें शिव की देवदासियां या लंका की लंक्वाली भी कहा गया है। एक अन्य जागर में इन्हंे रुक्मणियां कहा गया है। कहीं इन्हें सात और कहीं नौ बहने माना गया है।...’

‘.....चौंदाणा गांव में आशा रावत नामक व्यक्ति(राजा) था। उसकी छः पत्नियां थी, किन्तु उनसे उसकी कोई सन्तान नहीं हुयी। जब आयु बहुत हुयी तो आशा मन ही मन बहुत निराश-चिंतित हुआ। मन की व्यथा आँसुओं के रूप में फूट पड़ी। वह चिंतित हो उठा कि मेरा वंश कैसे आगे बढ़ेगा और मेरी जो इतनी बड़ी कृषि भूमि है, उसका उपभोग कौन करेगा? इस अन्न को कौन खायेगा?

एक दिन उसने अपनी सभी पत्नियों को बुलाकर मन की बात उन्हें बताई। इन पत्नियों में सबसे बड़ी रानी बुटोल्या बोली-‘हे स्वामी, पुरुषों के मुहँ से ऐसे निराशाजनक और हताशापूर्ण वचन शोभा नहीं देते हैं। आप चिंतित क्यों होते हो? सातवां विवाह कर लीजिये। आप पंवारों के गांव थाथ जाईए और वहाँ से विवाह करके आईए। आशा रावत थाथ में दीपा पंवार के घर गया। उसने दीपा पंवार को कहा कि मैं निपूता-निःसंतान रह गया हूँ। छः पत्नियों से एक भी संतान नहीं जन्मी, इसलिये मैं तुम्हारी जवान बहन का हाथ मांगने आया हूँ। दीपा पंवार ने आशा रावत को अपनी बहन देवा से विवाह करने का वचन दे दिया। उनका विवाह हो गया। देवा गर्भवती हुई। नौ महिने बाद उसकी नौ कन्याएं पैदा हो गई। इनके नाम कमला, देवा, आशा, बासादेई, इगुला रौतेली, बिगुला रौतेली, सदेई रौतेली, वरदेई रौतेली, गरदुआ रौतेली रखे गये।...’।
यही विलक्षण कन्यायें कुछ समय बाद आछरियां बनी, पुस्तक में आगे ऐसा ही वर्णित है। 

खैटपर्वत पर जाने से पहले कुछ लोगों ने बताया था कि वहाँ खड़ी दीवार पर छोटी-छोटी उरख्याळी (ओखलियां) बनी हुयी है और उनके सामने गिंजाळी (धान कूटने के लिए प्रयोग में आने वाला मूसल) रखी रहती है व रोज सुबह ओखलियों के सामने ताजा भूसा मिलता है। लोगों का मानना है कि रात को आछरियां वहाँ आकर धान कूटती है और चली जाती है। खैट से नीचे उतरने के बाद भटवाड़ा गांव में सड़क किनारे की एक दुकान पर फुरसत में बैठे हुये चौंड निवासी सत्तर वर्शीय श्री भोला राम सेमवाल जी सेे मैने इस बात का जिक्र किया कि ‘खैटपर्वत पर मैं काफी देर तक दीवार पर बनी '
उरख्याळी-गिंजाळी’ वाली जगह ढूंढता रहा परन्तु वह नहीं दिखी।’ तो उन्होंने बताया कि 'उरख्याळी-गिंजाळी जहाँ पर थी उस स्थान पर तो अब रक्षपाल का मन्दिर बन गया है। बचपन में हम घास काटने खैटखाल (खैटपर्वत) जाते थे तो वहाँ पर कई बार ताजा भूसा हमने भी देखा है। सन् 1983 से पहले खैट पर मात्र एक ‘मण्डला’ (पत्थरों से तैयार किया गया मन्दिरनुमा एक ढांचा मात्र) था, जिसके ऊपर एक झण्डी लगी रहती थी। इस कारण कुछ लोग खैटखाल को ‘झण्डीधार’ भी कहते थे।’  

सेमवाल जी से यह नई बात मालूम हुयी कि खैटपर्वत को स्थानीय लोग खैटखाल नाम से जानते हैं। तट, खाई, टीला, घाटी आदि का वर्णन हम जब करते हैं तो उस स्थान के भूगोल की कल्पना हम दिमाग मंे करने लगते हैं।  ठीक इसी प्रकार गढ़वाल में यदि किसी जगह के नाम में यदि ‘खाल’ शब्द जुड़ा हुआ है तो हम समझ जाते हैं कि खाल नाम के उस स्थान से पहाड़ी के दोनांे ओर का दृश्य दिखाई देता होगा। और खैटपर्वत से तो पूरी कायनात ही.....।

भूलवश कुछ लोग आज खैट को कोटी-फैगूल पट्टी के अन्तर्गत मानते हैं जबकि खैट प्रतापनगर तहसील की धारमण्डल पट्टी में स्थित है। कोटी-फैगूल पट्टी भिलगंना के बायीं ओर स्थित है जबकि खैट दायीं ओर। सेना से सेवानिवृत्त तुन्यार निवासी श्री सुरेन्द्र सिंह रौतेला जी खैटपर्वत तक रोप वे ले जाने के लिये काफी उत्साहित दिखे। इस सम्बन्ध में पर्यटन मंत्री श्री सतपाल महाराज जी से भी वे बात कर चुके हैं और शीघ्र ही इस पर कार्यवाही होनी है, उन्होंने बताया। खैटपर्वत भविष्य में सड़क, वायु व रज्जू मार्ग से जुड़ जायेगा तो निस्सन्देह टिहरी गढ़वाल ही नहीं पूरे उत्तराखण्ड का यह एक दर्शनीय व रमणीक स्थल बनेगा।

Tuesday, January 23, 2018

नौ बैणी आछरी बारा बैणी भराड़ी..(3)

थोड़ी देर रुककर फिर आगे बढ़े। कुछ दूरी तक पहाड़ी के पार्श्व भाग में बांज के जंगल के बीच चले, लगभग तीन-साढ़े तीन सौ मीटर तक खड़ी चढ़ाई और फिर समतल भूभाग पर पचास-साठ मीटर दूरी का तीन फीट चौड़ा रास्ता, बल्कि रास्ता क्या इसे बालकोनी कहना ज्यादा उपयुक्त होगा। क्योंकि रास्ते के नीचे भटवाड़ा-गडोलिया की ओर सैकड़ों फिट गहरी खाई थी। भगवान न करे इस जगह पर यदि कोई फिसल जाय तो जान बचने की बात तो दूर रही शरीर के टुकड़े ही ढूंढ़ते रह जायेंगे परिजन। बालकोनी पार कर जब रक्षपाल मन्दिर में पहुँचे तो ऊपर वाले का आभार जताये बिना न रह सका। 

रक्षपाल मन्दिर के सामने की चट्टान पर भटवाड़ा गांव के कुछ लोग सब्बल, गैंती से पत्थर निकाल रहे थे। पूछने पर उन्होंने बताया कि मन्दिर के सामने जो थोड़ी समतल व खुली जगह है उसे और चौड़ा कर हेलीपैड बनाया जा रहा है। आने वाले समय में श्र द्धालु वैष्णव देवी की भांति खैट मन्दिर दर्शन के लिये हेलीकॉप्टर से पहुँच सकेंगे।
यह‘रक्षपाल मन्दिर मूलतः मधु-कैटभ का मन्दिर है, इसी स्थान पर माँ दुर्गा ने मधु-कैटभ दैत्यों का वध किया था।’  पौराणिक कथा के अनुसार मधु और कैटभ नाम के दो दैत्यों का जन्म भगवान विष्णु के कान के मैल से हुआ माना जाता है। उत्तराखण्ड की लोकदेवी माँ नन्दा के राजजात मार्ग पर भी अनेक जगहों पर राक्षसों के साथ माँ नन्दा द्वारा यु( करने का वर्णन मिलता है। 2014 की राजजात में जब डोलियां नन्दकेशरी मन्दिर में रुकी थी तो वहाँ पर ही मुझे एक पुजारी ने बताया कि नन्दकेशरी नामक पड़ाव में माँ नन्दा देवी अष्टभुजा रूप में अवस्थित है और माँ नन्दा द्वारा मधु-कैटभ का वध इसी स्थान पर किया गया था। आलोचक मन फिर
कहने लगा कि यार यदि मधु-कैटभ का वध यदि नन्दकेशरी में किया जा चुका था तो फिर खैट के निकट इस स्थान पर मधु-कैटभ का पुनः वध कैसे किया गया? नकारा नहीं जा सकता है कि किसी देवस्थान की महत्ता बढाने के लिये उसे पौराणिक घटनाओं का जामा पहनाने की दुर्बलता सभी जगहों पर है। 

मधु-कैटभ के बारे में एक दंतकथा यह भी है कि भगवान विष्णु ने मधु-कैटभ से पाँच हजार साल तक यु( किया। माँ दुर्गा की माया से वे भगवान विष्णु को दैत्य इतना दीन समझने लगे कि उन्हें वर मंागने को कहा। भगवान ने दोनों दैत्यों को उनके द्वारा ही मारे जाने का वरदान मांगा, दैत्यों ने वरदान तो दिया किन्तु यह शर्त रख दी कि उन्हें ऐसी जगह मारा जाय जहाँ इससे पहले कोई न मरा हो। यह सोचकर कि ऐसी जगह तो ब्रह्माण्ड में होगी ही नहीं जहाँ कभी कोई न मरा हो। भगवान विष्णु ने अपनी जांघ को इतना फैला दिया कि वह मैदान के रूप में परिवर्तित हो गया। फिर यु( हुआ तो भगवान विष्णु के वार से मधु दैत्य का सिर कुमाऊं में गिरा और कैटभ का सिर एक निर्जन पर्वत पर। कैटभ के गिरने से वही निर्जन पर्वत ‘कैटेश्वरी’ कहलाने लगा जिसका अपभ्रंश कालान्तर में ‘खैट’ हो गया।

 रक्षपाल मन्दिर से दक्षिण-पूरब की ओर हल्की चढ़ाई वाली लगभग सौ मीटर दूरी तय कर अपनी मंजिल खैट पर्वत पर पहुँचा तो मन अत्यन्त रोमांचित हुआ। लगा जैसे जीते जी ही स्वर्ग मिल गया हो। सामने खैट मन्दिर का प्रवेश द्वार और पीछे डूबती शाम की लालिमा में भिलगंना घाटी व सुदूर पश्चिम में नई टिहरी नगर का विहंगम दृश्य। चारों ओर गहरी घाटियां देखकर आशमान छू लेने की सी प्रतीति हो रही थी और फिर इतनी ऊँचाई पर पहुँचकर तो शरीर वैसे ही रुई जैसा लगने लगता है, मन निर्मल हो जाता है। तेज हवाएं संग उड़ाने पर आमादा थी। भटवाड़ा से खैट भले ही कुल पाँच किलोमीटर की दूरी पर है परन्तु ऊँचाई का फासला लगभग एक हजार मीटर है। देहरादून में मेरे घर से रेलवे स्टेशन भी लगभग पाँच किलोमीटर की दूरी पर है लेकिन ऊँचाई का अन्तर है मात्र छब्बीस मीटर। गणित का सवाल है यह। यदि मैं पाँच मीटर प्रति किलोमीटर ऊँचाई के अन्तर वाले रास्ते को पैदल चलकर पैंतालीस-पचास मिनट में तय करता हँू तो औसतन दो सौ मीटर प्रति किलोमीटर ऊँचाई के अन्तर वाले खैट के इस ऊबड़-खाबड़ व पथरीले रास्ते को तय करने में कितना समय लगेगा? अरे चालीस गुना नहीं, कुल चार गुना समय ही लगा मुझे खैट पहुँचने में। 

पाँच-छः सीढ़ियां चढ़कर प्रवेश द्वार पर सिर नवाया और ऊपर लटकी घण्टी बजाई। फिर अपनी मूर्खता पर हँसा कि क्या मैं देवी को अपने आगमन की सूचना दे रहा हूँ? छि, मैं कैसा भक्त हूँ, देवी तो अन्तर्यामी हैं! मन्दिर स्थल वाला यह सम्पूर्ण भू-भाग अलग-अलग ऊँचाई पर छोटे-छोटे टेरैस के आकार में बने हुए हैं। प्रवेश द्वार से नीचे अलग टेरेस, आगे कुछ सीढ़ियां चढ़कर दूसरा टेरेस जिस पर अथिति गृह/धर्मशाला आदि बने हैं, फिर आठ दस सीढ़ियां चढ़कर तीसरा टेरेस, जिस पर पाण्डाल, भागवत कथा के लिये वेदी, वेदी से कुछ दूरी पर पीछे बरसाती जल संग्रह के लिये बावड़ी व भगवान शिव की मूर्ति बनी है तथा चौथे व अन्तिम सबसे ऊँचे टेरेस पर दुर्गा मन्दिर व पीछे काफी खुली जगह है। अर्थात खैट पर्वत की आकृति कुछ-कुछ उल्टे कटोरे जैसी है। भूविज्ञान के अनुसार ऐसे स्थान को अवनति आकार (Anticlinal Sturcture)  कहा जाता है। 

सूर्यास्त का समय था, आरती हो चुकी थी। मन्दिर में भागवत कथा जैसी चहल-पहल नहीं दिखी। यात्री के नाम पर अंकित, मैं और एक तीसरा व्यक्ति मात्र। कथावाचक सहित चार-पाँच पण्डित लोग थे और खाना बनाने वाले तीन-चार लोग। नीचे रक्षपाल मन्दिर के सामने पत्थर निकालने वाले लड़कों के लिये रहने की व्यवस्था वहीं पास में ही थी, परन्तु मन्दिर परिसर में उनकी आवाजाही निरन्तर बनी हुयी थी, खाना वे मन्दिर के भोजनालय में ही खाते थे। मैंने पण्डित जी से अनुरोध किया कि मैं दर्शन व पूजा कर अपनी भेंट मन्दिर में अभी चढ़ाना चाहता हूँ जिससे सुबह जल्दी निकल सकूं, पण्डित विनोद डिमरी जी मान गये। मन्दिर के भीतर प्रवेश कर पण्डित जी ने विधि-विधान से पूजा करवायी, नाला;रक्षासूत्रद्ध मेरे हाथ पर बाँधा, टीका लगाया और मैंने पुष्प, पत्र देवी माँ के चरणों में चढ़ाकर देवी के साथ-साथ पण्डित जी से भी आशीर्वाद लिया। मन्दिर में प्रवेश करने से पहले मेरा अनुमान था कि भीतर आछरी-भराड़ी की पूजा होती होगी। परन्तु भीतर माँ दुर्गा की मूर्ति देखकर थोड़ी हैरानी हुयी। पण्डित जी से पूछा तो उन्होंने बताया कि आछरी का मन्दिर नीचे प्रवेशद्वार के पास बना हुआ है। (मन ही मन सोचा कि खैटपर्वत पर आछरियों का मन्दिर होना चाहियेे था किन्तु यहाँ तो...। तो क्या आछरी को दुर्गा रूप मान लिया गया है? वैसे इसी मन्दिर के प्रांगण में एक ओर भगवान शंकर की मूर्ति भी स्थापित है। बाजारीकरण के इस दौर में वह दिन दूर नहीं जब कुंजापुरी, सुरकण्डा आदि मन्दिरों की भांति खैटपर्वत पर भी भगवान गणेश, माँ काली, मर्यादा पुरुषोत्तम राम, भगवान श्रीकृष्ण, वीर हनुमान, शनिदेव आदि अनेक देवताओं की मूर्तियां स्थापित होगी।)

Sunday, November 26, 2017

नौ बैणी आछरी बारा बैणी भराड़ी..(2)


 खैट जाने के लिये उनके यहाँ से निकले तो थोड़ी चढ़ाई के बाद रास्ते में लगभग तीन सौ मीटर दूरी तक सिंचाई नहर की पटरी पर साथ चले। सिंचाई नहर पक्की थी, परन्तु उस पर रुके हुये पानी में गांव वालों ने भीमल की टहनियों को मुठ्ठियां बनाकर भिगोने डाल रखी थी जो पत्थरों से दबा रखी थी, ताकि पानी में डूबी रहे। पुरानी सेळू  (सन) नहर के बाहर फेंकी हुयी थी, जिससे यह तो स्पष्ठ था कि सन का उपयोग अब गांव के लोग नहीं करते हैं। भीमल की टहनियों से पूरी नहर भरी हुयी थी, मैने ऐसा पहली बार देखा। हमारे गांव में तो पास की गाड में ही भीमल की मुठ्ठियां भिगोने डाली जाती थी। कुछ समय तक पानी में रहने के बाद भीमल की छाल आसानी से उतर जाती है और उसे कूट कर सफेद सन तैयार हो जाती है। इस सन से कृषि व घरेलू उपयोग में आने वाली रस्सियां आदि बनायी जाती थी। 
 

छाल उतर जाने के बाद भीमल की सूखी लकड़ी चूल्हे में खाना पकाते समय गीली व कच्ची जलावन लकड़ी सुलगाने के काम आती। इस तरह चारे के रूप में भीमल के पत्तियों के अतिरिक्त उसकी टहनियों की छाल व लकड़ी भी बहुत उपयोगी होती है। साथ चल रहे अंकित को मैंने पूछा कि ‘तुम्हारे गांव वाले सन को इस प्रकार क्यों फेंक देते हैं?’ तो उसका जवाब था कि ‘अब गांव में कोई खेती करने को राजी नहीं है इसलिये रस्सी, दौंळी  , दांऊं, मुशके, चारपाई की रस्सियां आदि की जरूरत ही नहीं पड़ती है और बुनने वाले भी तो अब रहे कहाँ.....।’  यह कहते वक्त पलायन के कारण बंजर खेतों और उजाड़ गांवों को देखकर उपजी पीड़ा अंकित के चेहरे पर स्पष्ठ झलक रही थी। 

नहर पार करते ही रास्ता तीखी चढ़ाई वाला था। पहाड़ों में हर मौसम में दिन के दो बजे बाद से ही हवा चलनी शुरू हो जाती है और हम लोग तो भटवाड़ा से ही चार बजे के बाद निकले थे। ज्यों-ज्यों ऊपर चढ़ते गये पसीना खूब बहने लगा, भीतर बनियान गीली हो गयी यहाँ तक कि बाहर पहनी हुयी टी शर्ट भी। परन्तु माथे पर चू रही पसीना गालों तक आने से पहले ही सूख जाता, मानो हवा ने कसम ली हो कि मैं गालों को नहीं भीगने दूंगी। 

लगभग डेढ़ किलोमीटर निरन्तर चढ़ने के बाद एक जगह पर हम थोड़ा सुस्ताने बैठ गये तो मैंने अंकित से पूछा कि ‘क्या यही एक दुर्गम रास्ता है इस गांव से खैट जाने के लिये ?’  तो उसने जवाब दिया कि ‘नहीं, यह खैट
जाने का रास्ता नहीं बल्कि मवेशियों के चलने का रास्ता है। सही रास्ता तो गांव के पूर्वी किनारे से है और हम गांव के पश्चिमी छोर से चढ़ रहे हैं। आप सड़क से आधा किलोमीटर ऊपर प्रधान जी के घर तक पहले ही चढ़ चुके थे, ऐसे में नीचे उतरते और फिर उस पार जाकर चढ़ते तो बुद्धिमता नहीं होती। हाँ, वापसी में जरूर हम उसी रास्ते से आयेंगे। अब तो हम उस रास्ते के मिलान पर पहुँचने ही वाले हैं।’ तीव्र ढलान के साथ-साथ रास्ता पथरीला व संकरा भी था जिससे शरीर का सन्तुलन बनाने के साथ-साथ सारा ध्यान अपने पैरों की तरफ ही रखना पड़ रहा था। चलते-चलते अचानक जब कपड़े कभी कंटीली झाड़ियांे में उलझ जाते तो लगता जैसे कोई पीछे खींच रहा है, कोई मुझे रोकना चाह रहा है। भटवाड़ा के आसपास भीमल, डैंकण, तुंगला आदि पेड़ों के साथ-साथ आड़ू, चुलू आदि अनेक फलदार पेड़ दिखाई दिये वहीं इस ऊँचाई पर चीड़ के पेड़ ही बहुतायत में हैं। एक जगह थोड़ा रुका तो सामने चट्टान पर दौड़ते हुये दो हिरण दिखे। भोजन की तलाश में थे या खतरे की आशंका से भाग रहे थे, कह नहीं सकता। मन ही मन सोचा, इस जंगल में यदि हिरण हैं तो बाघ भी अवश्य होंगे। अतः अकेले यात्री के लिये यह मार्ग सुरक्षित नहीं है। 

खैट जाने वाले मुख्य मार्ग पर पहुँचे तो मन को सकून मिला। घने पेड़ों के बीच एक सीमेण्ट की बेंच लगी थी। अंकित ने बताया कि ‘मुख्य मार्ग पर इस प्रकार की पूरी सात बेंच है। जो कि लगभग पच्चीस साल पहले ग्राम प्रधान भटवाड़ा के सहयोग से वन विभाग द्वारा बनवायी गयी थी।’  मैंने उसे छेड़ने के अन्दाज में कहा कि ‘तब तो तुम पैदा भी नहीं होंगे फिर तब तुम यह सब कैसे जानते हो?’ ‘गांव के बड़े-बूढ़ों से यह बात सुनी है’, उसका जवाब था। इस जगह से बांज, मोरू, बुरांस, तूण, ग्वीर्याळ आदि के पेड़ मिलने शुरू हो गये थे। 

आगे चढ़ते हुये हम पहाड़ी की गर्दननुमा उस जगह पर पहुँचे जिसे स्थानीय लोग ‘रागस खाल’ नाम से जानते हैं। रागस खाल की आकृति कुछ-कुछ ऊंट की गर्दन जैसी है। भूविज्ञान में इस प्रकार की जगह को अभिनति आकार (Synclinal Structure) कहते हैं। इसके दक्षिण-पूरब में पहाड़ी पर सिर की ओर खैट पर्वत स्थित है और उत्तर-पश्चिम अर्थात पूंछ की ओर पीड़ी-प्रतापनगर की पहाड़ी है। इस जगह से पश्चिम में भटवाड़ा आदि गांवों का ही नहीं बल्कि पूरब में ढुंगमन्दार के अनेक गांवों का विहगंम दृश्य दिखायी दे रहा था। बीचों-बीच बह रही सुनेरी गाड के दोनो ओर हरी-भरी खेती व बड़े-बड़े गांव मन मोह रहे थे। जब सड़कें व संचार साधन नहीं थे तब ऐसे ही दूर किसी पहाड़ी के पीछे बसे गांव में ब्याही गयी बेटी मायके में रह रहे माँ-बाप, भाई-बहिनों की याद में व्याकुल होकर गाती होगी;

‘उड़ी जा कागा बादळू  बीच, मेरू रैबार ली जा मेरी माँजी मां....
 
सामने झाड़ियों पर रंगीन कपडो के टुकड़े बँधे दिखे और पास ही कुछ चूड़ियां भी। अंकित ने बताया कि इस मार्ग पर यह पहला थान (देवस्थल) है आछरी का। यहां पर पीढ़ी से खैट के लिये प्रस्तावित पाईप लाईन बिछी देखी, परन्तु योजना अभी अधूरी पड़ी है।

Tuesday, November 21, 2017

नौ बैणी आछरी बारा बैणी भराड़ी (1)....

        भावविभोर करती पंक्तियां  नौ बैणी आछरी बारा बैणी भराड़ी...... ‘ उत्तराखण्ड युवा सिने अवार्ड-2013’, दिल्ली में पाण्डवा ग्रुप की ओर से ‘पम्मी नवल’ द्वारा गाये गये सुमधुर गीत की है। गीत में नौ बैणी (बहिनेंद्) आछरियों और बारह बैणी भराड़ियों से उत्तराखण्डी जनता की कुशलता की कामना की गयी है। आछरी, भराड़ियों, मांतरियों के बारे में हम बचपन से ही सुनते आ रहे थे। कोई बन-ठन कर कहीं जा रहा हो तो लोग मजाक में कह देते थे ‘ध्यान से जाना, कहीं आछरी न हर लें...’ । सुनते थे कि आछरी, भराड़ी सम्मोहित कर प्राण हरती है परन्तु प्रसन्न होने पर वरदान भी देती है। गढ़वाली लोकगाथाओं के नायक जीतू बगड़वाल और लाल सिंह कैन्तुरा पर आछरियां आसक्त हुयी और  सशरीर हर ले गई। आछरी अर्थात अप्सरा, परी, divine girl आदि। जौनसार-बावर, रवांई-बंगाण व फूलों की घाटी आदि अनेक निर्जन व रमणीक जगहों पर आछरी, भराड़ियों का निवास माना जाता है। टिहरी में आज भी मुखेम आदि अनेकांे धार पर आछरियों का निवास है माना जाता है, जिसमें खैटपर्वत प्रमुख है। इसीलिये ऊँचाई व निर्जन स्थान पर स्थित खैटपर्वत को नाम दिया गया है ‘परियों का देश’।
            भूत, हन्त्या और देवता तथा जादू-टोने का असर साक्षात देखने की मेरी बड़ी प्रबल इच्छा हमेशा रही है। परन्तु इस मामले में मैं भाग्यशाली नहीं हूँ। दो बार ऐसा भी हुआ कि मेरे साथ चलने वाले व्यक्ति को भूत ने दर्शन दिये और मुझे ठंेगा दिखा दिया। काला जादू के लिये विख्यात बंगाल के लोगों के साथ मैं युवावस्था में पूरे आठ-नौ साल रहा, परन्तु काले जादू का करिश्मा कभी नहीं देख पाया। देहरादून के जौनसार में ही चार साल तक सीजनल कैम्प करते आये हैं, परन्तु जादू-टोने से भेड़ बनाये जाने के लिये खामखाह बदनाम जौनसार में किसी ने भी मुझे भेड़ नहीं बनाया। भूत-प्रेत, जादू-टोना, आछरी-मांतरी न देख पाने की कसक कहीं मेरे साथ ही न खत्म हो, इसलिये मैंने एक उम्मीद के साथ आछरियों के देश जाने का फैसला लिया।
‘परियों के देश’ खैटपर्वत पर श्रीमद्भागवत कथा व शिवपुराण के आयोजन की सूचना मिली तो मैं आदतन अकेले ही चल पड़ा। देहरादून से ऋषिकेश, टिहरी होते हुये पीपलडाली तक बस से। पीपलडाली में सयोंगवश अपने पुरोहित पं0 परमानन्द भट्ट जी मिल गये जो मुझे अपनी मोटर साईकिल से पन्द्रह किलोमीटर दूर धारमण्डल पट्टी के भटवाड़ा गांव तक छोड़ आये। खैट जाने के लिये भले ही अन्य गांवों से भी रास्ते हैं परन्तु मैं भटवाड़ा से ही खैटपर्वत पर चढ़ने की योजना बना चुका था। भटवाड़ा के पूर्व प्रधान श्री शान्ति प्रसाद डंगवाल जी से फोन पर दो दिन पहले ही भतीजे बलवन्त ने बात करवा दी थी। भटवाड़ा पहुँचने पर जब डंगवाल जी ने फोन नहीं उठाया तो शंका हुयी कि वे कहीं चले न गये हांे। हमारे पुरोहित भट्ट जी ने सड़क पर जहाँ छोड़ा था वहाँ सड़क किनारे दो दुकानंे थी। एक पर सिलाई मशीन रखी हुयी थी, परन्तु वहाँ पर कोई था नहीं। मशीन पर फंसे कपड़े को देखकर स्पष्ठ था कि अभी-अभी ही कोई काम अधूरा छोड़कर कहीं गया होगा। बगल की दुकान में एक महिला बैठकर मैगी खा रही थी, लंच के रूप में या भूख लगने पर, कह नहीं सकता। वैसे भी गावों में अधिकांश लोग अब भूड़ी-पकोड़ी बनाने के झंझट में नहीं पड़ते, झट से मैगी का पैकेट मंगाया, खोला और गैस के चूल्हे पर दो मिनट में मैगी तैयार। न ज्यादा खटराग, न मेहनत और न धुआं ही। हमारी चाची-ताई, माँ-दादी का जमाना कितना मुश्किल भरा था कि दोपहर/अपरान्ह में भूख लगने पर आस-पास के खेतों, सग्वाड़े से राई, मूली, अरबी, चौलाई आदि के पत्ते नोचते या घर में रखे चार आलू-प्याज काटते और लकड़ी के चूल्हे पर जतन से पकाकर भूख शान्त करते। हालांकि घर से उठा कमबख्त धुआं गांव भर में ढिण्डोरा पीट देता कि देखो फलां के यहाँ भरी दोपहर खाना पक रहा है। कैसी आग लगी इनके पेट को। और धुएं को देखकर तो कोई न कोई चटोरा खाने के लालच में ऐन वक्त पर पहुँच भी जाता।          
             मैगी खाने वाली इस महिला से पूछा तो उसने मैगी का कौर मुहँ में रखते हुये बैठे-बैठे वहीं से डंगवाल जी के घर का रास्ता समझा दिया। कुछ चढा़ई चढ़ने के बाद मैं एक बड़े से पेड़ के नीचे स्थित पनधारे पर पहुँचा तो वहाँ सुस्ता रही व गप्पें लड़ा रही महिलाओं, जो शायद मनरेगा में कार्य करती होंगी से मैंने डंगवाल जी के घर का रास्ता फिर पूछा क्योंकि उस जगह से दो रास्ते अलग-अलग दिशाओं को जा रहे थे। रास्ता उन्होंने बता दिया परन्तु साथ ही जोड़ दिया कि उनके घर में एक कुत्ता भी है। कहावत है कि ‘अपने यहाँ के भूत और परायी जगह के कुत्तों से आदमी डरता ही है।’ कुत्ते से मुझे डर लगता है कहने पर उनमें से एक औरत ने डंगवाल जी की पत्नी को नाम लेकर पुकारा, जब उस ओर से कोई जवाब नहीं आया तो एक अधेड़ उम्र की औरत ने पुकारने वाली को ही निर्देश दिया कि ‘तू ही जा, इनको वहाँ तक छोड़ आ।’  मैंने उनका धन्यवाद किया। परन्तु मैंने गौर किया कि उन्होंने मेरा परिचय तक नहीं पूछा। तो क्या मेरा गढ़वाली बोलना ही पर्याप्त था या टी. वी., मोबाईल फोन व सोशल मीडिया वाले इस जमाने में किसी से जुड़ने और हालचाल जानने की आत्मीयता ही खत्म हो गयी? डंगवाल जी घर पर ही मिले, उन्होंने बताया कि बिजली न होने के कारण मोबाईल चार्ज नहीं हो पाया इसलिये फोन बन्द है। पूरी आत्मीयता के साथ उन्होंने अपने घर पर बिठाया और चाय-पानी पिलाकर वायदे के अनुसार विशेष हिदायत के साथ एक लड़का मेरे साथ भेज दिया। अंकित नाम के इस लड़के ने गाईड तथा पोर्टर ही नहीं सुरक्षाकर्मी की भूमिका भी निभाई। 
                                                                                                       क्रमशः अगले अंक में.............


Tuesday, August 29, 2017

पलायन की पीड़ा

आज सुबह रेडियो पर एक गीत सुन रहा था। गीत का मुखड़ा है;
   ‘‘बूझ मेरा क्या नांम रे, नदी किनारे गांव रे।
  पीपल झूमे मोरे आंगना, ठण्डी-ठण्डी छांव रे।.........’’

     गीत गुरूदत्त के प्रोडक्शन में बनी, राजखोसला द्वारा निर्देशित और देव साहब, वहीदा रहमान व शकीला द्वारा अभिनीत फिल्म ‘सी आई डी’ का है। यह गीत मजरूह सुल्तानपुरी द्वारा लिखा गया, ओ. पी. नैयर साहब केे संगीत निर्देशन में तैयार किया गया है और सुरीली आवाज है शमशाद बेगम की। गीत भीतर तक झकझोर गया। हर शब्द मन में गहरे उतर गये। तपती दोपहरी में जैसे भटकती हुयी बदलियां बरस जाये। मन के किसी कोने फिर तो मिट्टी की सोंधी गंध, पीपल की ठण्डी बयार और नदी की कलकल ध्वनि का प्रभाव छाने लगा।     महानगरों में पली-बढ़ी युवा पीढ़ी इस गीत के मायने शायद ही जान पाये। युवा पीढ़ी ही क्यों   वे भी तो कहाँ जान पाते हैं जोे गांव के होते हुये भी गांव का सुख नहीं उठा पाये। और जो हम इस गीत का अर्थ जान पा रहे हैं, समझ रहे हैं वे भी तो मन मसोस कर रह रहे हैं। जी चाहता है सारे बन्धन तोड़कर लौट जायें अपने गांव। शहर की छाया से दूर, शहरी व्याधियों से मुक्त अपने गांव। वहाँ जहाँ बस गांव हो, खेत-खलिहान हो, पानी से भरी नहरें हों, चारों ओर हरियाली हो, खेतों में खुशहाली हो, पक्षियों का कोलाहल हो, बहते झरने हों और अपने लोग हों। बस।
    परन्तु दूसरे ही पल सोचता हूँ क्या सचमुच हम गांव में रह सकेेंगे। गांव में रहने लायक साहस जुटा सकेंगे कभी। नहीं शायद। सच! सुविधाओं के किस कदर दास बन गये हम। कितने लाचार हैं हम। कितने बेवश। बहुत सुविधाभोगी भी तो जो हो गये हैं हम। काश !!...........

Friday, August 18, 2017

अद्भुत-अनोखी है अनुगूंज हमारे ढोल की

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ढोल पूड़ बैठ्यां तेरा सुर्ज चन्दरमा। कुण्डली मां नागदेव, कन्दोटी ब्रह्मा।
कन्दोटी ब्रह्मा, डोरी गणेश कु वास।। चार दिना कि चान्दना ....       भाई नरेन्द्र सिंह नेगी जी की आवाज में ‘सुरमा सरेला’ का यह गीत तो सबने सुना होगा। ढोल दमाऊं गढ़वाल, कुमाऊँ ही नहीं अपितु जौनसार, हिमाचल व जम्मू आदि हिमालयी क्षेत्रों का प्रमुख वाद्ययंत्र है। ढोल क्या है, इसकी उत्पति कैसे हुयी इसका विषद वर्णन ‘ढोलसागर’ में वर्णित है। 
 ढोलसागर शिव-पार्वती संवाद के रूप में लिखा गया ग्रन्थ है। माना जाता है कि ढोलसागर ग्रन्थ ‘शंकर वेदान्त’ अर्थात ‘शब्द सागर’ का छोटा रूप है। ढोलसागर के प्रथम भाग को ‘जोगेश्वरी ढोलसागर’ कहा जाता है जिसमें सृष्टि की उत्पति के बारे में है। नाथपन्थ का इस भाग पर पूरा प्रभाव माना जाता है। ग्रन्थ के दूसरे भाग में ढोल का वर्णन, उसकी उत्पति तथा उसके बजाने की कला का सुन्दर वर्णन है। इसे ‘चिष्टकला ढोलसागर’ कहा जाता है। ढोलसागर ताल संबन्धी ग्रन्थ भी है और ताल का प्रणेता शिव को माना गया है। ताल का अर्थ शिवशक्ति (ता-शिव तथा ल-शक्ति) माना जाता है, इसलिये शिव-शक्ति को ढोल की आत्मा स्वीकारा गया है। आदि ढोल का नाम इसलिये ‘शिवजन्ती’ भी कहा गया है।
Image may contain: 2 people, people standing देवताओं का आह्वाहन और उन्हें अवतरित करने मंे सिद्धहस्त होने के कारण ही आवजियों को ‘देवदास’ कहा जाता है और ढोलसागर का ज्ञाता होने के कारण ‘सरस्वति पुत्र’ भी। .... जीवनस्तर सुधारने व विकास के नाम पर आज पलायन पूरे देश ही नहीं अपितु पूरे विश्व के सभी समाजों में व सभी स्तर पर हो रहा है। ऐसे में संक्रमण के इस दौर में आवजियों/बाजगियों द्वारा भी उन्नत जीवनयापन के लिये या अन्य कारणो से अपने पेशे से मुहँ मोड़ लेने के कारण पर्वतीय समाज में एक प्रकार की सांस्कृतिक शून्यता सी आ गयी है।
भारतीय संगीत शास्त्र में समय व मौसम के अनुसार रागों का वर्णन है। उसी प्रकार ढोलसागर में भी समय, मौसम तथा परिस्थितियों के लिये अलग-अलग तालों का वर्णन है। आवजियों द्वारा मुख्यतः बढ़ै या बढ़ई, धुयेंळ या धुयांळ, शब्द या शबद, रहमानी अर्थात अभियान और नौबत ताल ही बजाये जाते हैं। परन्तु परिस्थिति विशेष के अनुसार वे अन्य ताल भी उतनी ही शिद्दत से बजा सकते हैं। आवजी/बाजगी के पास ज्ञान का अनन्त भण्डार माना जाता है, उनको सरस्वति पुत्र कहने के पीछे भी तर्क यही है। क्योंकि लौकिक अलौकिक ही नहीं उससे परे भी जो है, उन पर आवजी की पकड़ मानी जाती है।
दो वर्ष पहले माननीय हरीश रावत जी की सरकार में संस्कृति विभाग के सौजन्य से देहरादून में आयोजित ‘झुमैलो’ कार्यक्रम यादगार बन गया था और आज माननीय सतपाल महाराज जी के प्रयास से संस्कृति विभाग द्वारा ही गंगाद्वार अर्थात हरद्वार में ‘उत्तराखण्ड की लोक परम्परा में आदि नाद ढोल-दमाउं’ अर्थात ‘नमोनाद’ का आयोजन किया गया। इसके लिये महाराज जी व संस्कृति निदेशालय, उत्तराखण्ड को कोटि-कोटि धन्यवाद दिया ही जाना चाहिये। महाराज जी के प्रेमनगर आश्रम के ‘गोवर्धन हॉल’ में उत्तराखण्ड के विभिन्न जनपदों से आये हुये एक साथ बारह सौ से अधिक ढोलियों को देखना और सुनना अविस्मरणीय अनुभव है। इसकी अनुगूंज उत्तराखण्ड के वायुमण्डल में लम्बे समय तक रहेगी। उनका यह प्रयास निस्सन्देह ढोलियों के बीच सामुहिकता व सामुदायिकता की भावना को अंकुरित करेगा ही साथ ही उन्हें इस आयोजन द्वारा अपने को आंकने/परखने का मौका मिला है जिससे वे अपनी इस कला को और भी निखारेंगे। सोने को निरन्तर तपाकर निखारने की कला में सिद्धहस्त भाई प्रीतम भरतवाण और सबसे संवाद व इतनी अधिक लोगों के लिये व्यवस्था बनाये रखने के लिये हमें भाई बलराज नेगी जी का भी आभार करना नहीं भूलना चाहिये।

Friday, July 14, 2017

बहारों फूल बरसाओ मेरा महबूब आया है....

रफी साहब की मखमली आवाज में ‘सूरज’ फिल्म का यह गाना आज भी जब कहीं गूंजता है तो दिल अद्भुत रोमांच से भर उठता है, मन हिलोरें लेते हुये खयालों में खो जाता है, आँखे ख्वाब देखने लगती हैं, अतीत याद आने लगता है और, और.....। हाँ सचमुच, कुदरत ने गढ़वाल में एक घाटी ऐसी बनायी है जहाँ बहार सैकड़ों प्रजातियों के फूल बरसाती है मीलों तक, फूल ही फूल। बस, महबूब को थोड़ी सी तकलीफ जरूर उठानी पड़ेगी वहाँ तक पहुँचने में। और वह घाटी है चमोली जिले की तहसील जोशीमठ के अन्तर्गत विश्व प्रसिद्ध धरोहर- फूलों की घाटी।देश दुनिया देखने की तमन्ना किसे नहीं होती है? ऐसे लोग विरले ही होंगे जिन्हंे प्रकृति न लुभाती हो। मुझे तो अपने पहाड़ ही प्यारे लगते हैं। मेरा तो मन करता है कि पहाड़ी ढलान पर पसरे गांवों, सर्पीली पगडण्डियों, कल-कल निनाद करती नदियों, हरे-भरे बुग्यालों, बर्फीली चोटियों के सौन्दर्य को अपने भीतर अधिकाधिक भर लूं। कि न जाने कब शरीर ही इन पहाड़ों की यात्रा करने से मनाही कर दे। न जाने कब आँखे सुन्दर दृश्यों को अपने कैमरे में कैद करना ही छोड़ दे। इसलिये इस बार कार्यक्रम बना फूलों की घाटी का।     
बद्रीनाथ मार्ग पर बद्रीनाथ से लगभग पच्चीस किलोमीटर पहले गुरू गोविन्द सिंह जी के नाम से अलकनन्दा नदी के दायें तट पर स्थित ‘गोविन्दघाट’ बसा हुआ है। यहीं से नदी पार कर पूरब दिशा में चौदह किलोमीटर पैदल चलकर पहुँचा जाता है घांघरिया। दूरी मात्र चौदह किलोमीटर परन्तु गोविन्दघाट से लगभग चौदह सौ मीटर ऊँचाई पर। अर्थात औसतन 1ः10 का ढलान (Gradient)। पुलना गांव तक अब पाँच किलोमीटर लम्बा हल्का वाहन मार्ग अवष्य बन गया है किन्तु पैदल दूरी तीन किलोमीटर ही कम हुयी। पुलना गांव लक्ष्मणगंगा के दायें तट पर बसा हुआ है और 2013 की प्रलयंकारी बाढ़ में नदी में पानी के साथ इतना मलबा आया कि पुलना के काफी मकान जमींदोज हो गये हैं।
संकरी व गहरी घाटी में पूरे वेग के साथ बह रही नदी के दोनो ओर घने जंगलों से युक्त पहाड़ ऊँचे उठे हुये हैं। इस मषीनी युग मे समय की बड़ी महत्ता है। इसलिये समय को सम्मान देते हुये हमने गोविन्दघाट से पुलना तक जीप द्वारा और पुलना से घांघरिया तक ग्यारह किलोमीटर का सफर खच्चरों से तय किया। समतल व कच्चे रास्ते पर खच्चर की सवारी करना आनन्द देता है, परन्तु चढ़ाई-उतराई भरे पहाड़ी रास्तों पर घोड़े/खच्चरों की सवारी केवल मजबूरी होती है। खड़न्जे बिछे रास्ते पर बार-बार सन्तुलन बनाना पड़ता है क्योंकि घोड़े/खच्चरों के खुरों पर लोहे की नाल लगी होती है जिससे खड़न्जे वाले रास्ते उनके खुर फिसलते हैं। इसलिये कितना भी हांक लिया जाय घोड़े/खच्चर हमेषा कच्चे भाग का में चलते हैं और ऐसे रास्तों पर कच्चा हिस्सा केवल किनारों पर मिलता है। पहाड़ी की ओर चलने पर सवारी के हाथ-पांव छिलते हैं और घाटी की ओर चलने पर नीचे गहरी खाई में गिरने की आषंका बनी रहती है। दूसरे पल सोचता हूँ कि हमारे ऐतिहासिक नायक महाराणा प्रताप रहे हों या वीर छत्रपति षिवाजी, या महाराजा रणजीत सिंह या फिर महारानी लक्ष्मीबाई जी, ढाल, तलवार व भाले के साथ घोड़े की वल्गा थामे हुये किस तरह अपनी षूरवीरता दिखाते होंगे। झाड़ियों में, जंगलों में, घाटियों मंे, मैदानो में और पहाड़ों में अपने को बचाते हुये किस प्रकार षत्रुओं से लोहा लेते होंगे। कितने महान थे वे और एक हम है कि घोडे़/खच्चर मालिक द्वारा हंकाये जाने व बिल्कुल खाली हाथ होते हुये भी घोड़े/खच्चर की पीठ पर बैठ रहने तक डर से माथे पर पसीना टपकता रहता है।   
लगभग छः किलोमीटर दूरी के बाद भ्यंूडार गांव पहुँचे तो थोड़ा रुककर मैगी के साथ चाय ली। दस रुपये कीमत वाला मैगी का पैकेट जब दुकानदार दो मिनट उबाल कर सर्व करता है तो उसकी कीमत इस मार्ग पर चालीस रुपये हो जाती है और चाय बीस रुपये की। सन्तोश यह था कि खच्चर हांकने वाले हो या छोटे-छोटे ढाबे खोले दुकानदार, प्रायः सभी स्थानीय निवासी थे। फूलों की घाटी और हेमकुण्ड के दर्षनार्थ जो भी यात्री आता है कुछ न कुछ खर्च अवष्य करता है जिससे इस घाटी के निवासियों की आर्थिक स्थिति कमोबेष ठीक है। यह अलग बात है कि पूरा सीजन ही मात्र चार-साढ़े चार माह का है। भ्यूंडार गांव लक्ष्मणगंगा और काकभुसुण्डी नदी के संगम तट पर दायें किनारे बसा हुआ है। 2013 की बाढ़ में गांव के अनेक मकानों का नामोनिशान ही मिट गया था परन्तु अब लोगो ने कुछ पुराने मकान ठीक कर दिये हैं और कुछ नये बना दिये हैं। जहाँ पर आज लक्ष्मणगंगा बह रही है वहाँ कभी आबादी थी और नदी तब एकदम बायें किनारे से सटकर बहती थी। एक सज्जन ने बताया कि भ्यूंडार वस्तुतः पुलना गांव वालों की छानियां थी न कि गांव। भ्यूंडार से लक्ष्मणगंगा पार कर रास्ता उत्तर दिशा में मुड़ जाता है और ढलान अपेक्षाकृत बढ़ जाती है। लगभग आठ फुट चौड़े सीढ़ीदार व खड़ंजे बिछे इस रास्ते पर हेमकुण्ड के प्रति आस्था रखने वाले सैकड़ों श्रद्धालुओं की आवाजाही निरन्तर बनी रहती है। लोक निर्माण विभाग, उत्तराखण्ड द्वारा बनाये गये इस रास्ते पर सफाई का जिम्मेदारी एक गैर सरकारी संगठन ‘ईको विकास समिति, भ्यूंडार’ ने उठा रखी है। जिसके एवज में वे बोझा ढोने वाले कुली और प्रत्येक खच्चर स्वामी से न्यूनतम राशि सफाई के एवज में लेते हैं। परन्तु प्रसन्नता इस बात की है कि स्थानीय यात्री को भुगतान करने से मुक्त हैं।
लगभग साढ़े तीन हजार मीटर की ऊँचाई पर घने देवदारों और दो ऊँची पहाड़ियों के बीच घाटी में बसे घांघरिया पहुँचे तो इस कस्बे को देखकर आश्चर्य हुआ। आते हुये रास्ते में मन में सवाल उठ रहे थे कि वहाँ ठिकाना मिले न मिले परन्तु घांघरिया में बड़े आलीशान होटल, दुकानें और गुरूद्वारा देखकर दंग रह गया। खच्चरों और आदमियों की पीठ पर लादकर कैसे सीमेण्ट, सरिया, रोड़ी, फर्नीचर आदि सामान यहाँ पर लाया गया होगा? रात्रि विश्राम के लिये ठिकाना मिल गया था गढ़वाल मण्डल विकास निगम का विश्राम गृह। सामान वहाँ रखने के बाद फ्रेष होकर लंज लिया और कमर सीधी करने के लिये थोड़ी देर सुस्ता लिये। सहयात्री जोषी जी से बात की कि समय काफी है क्यों न घांघरिया का ही एक चक्कर मार लें। यह जानकर खुषी हुयी कि घांघरिया में बी.एस.एन.एल. का टॉवर लगने के कारण कनेक्टिविटी थी। अन्यथा प्रत्येक दुकान के बाहर दुकानदारों ने
सेटेलाईट फोन रखकर पी.सी.ओ. बूथ खोले हुये थे। सबसे पहले ईको विकास समिति के कार्यालय गये तो वहाँ पर कार्यरत लड़की ने फूलों की घाटी के बारे में संक्षिप्त जानकारी दी और भी विस्तार में जानने के लिये प्रोजेक्टर चलकार एक डॉक्यूमेण्टरी फिल्म चलवा दी, प्रति व्यक्ति तीस रुपये वसूली के बाद। आधे घण्टे की इस रंगीन फिल्म में फूलों की घाटी का इतिहास, भूगोल और घाटी में पाये जाने वाले पषु-पक्षियों और खिलने वाले फूलों के बारे में विस्तार से वर्णन किया गया है। वहाँ से निकलकर घांघरिया के एक होटल में चाय जलेबी लेने के बाद कस्बे के मुख्य रास्ते पर बढ़े। पूरे कस्बे में चार-पाँच हजार लोगों से अधिक लोग रहे होंगे जिनमें नब्बे प्रतिशत सरदार व पंजाबी भाषी लोग और षेश दस प्रतिषत हमारे जैसे स्थानीय यात्री, होटलों के कर्मचारी, घोड़े/खच्चर चलाने वाले और पालकी/पिठ्ठू ढोने वाले। वातावरण में गूंज रहे पंजाबी संवादों व जोर-जोर बोलने की आवाजों से ऐसा लग रहा था मानों हम पंजाब के ही किसी कस्बे में आ गये हैं। शायद यही कारण है कि कुछ लोग इस कस्बे को ‘घांघरिया’ के स्थान पर ‘गोविन्दधाम’ लिख रहे हैं, जो कि अप्रत्यक्ष तौर पर स्थानीयता पर हमला है। घांघरिया के उत्तर-पश्चिम में हेमकुण्ड से आने वाली लक्ष्मण गंगा और फूलों की घाटी से आने वाली भ्यूंडार गाड का संगम है। 
घांघरिया से पैदल उत्तर दिशा की ओर छः-सात सौ मीटर चलने के बाद दायीं ओर सात-आठ फीट चौड़ व पक्का रास्ता हेमकुण्ड साहिब को चला जाता है और सीधा कच्चा रास्ता फूलों की घाटी के लिये। थोड़ी दूर चलने के बाद ही रास्ते के दायीं ओर फॉरेस्ट चौकी बनी हुयी मिली और बायीं ओर कार्यरत कर्मचारियों के आवासीय भवन। चौकी में फूलों की घाटी जाने वाले से 150 रुपये प्रति व्यक्ति शुल्क तथा 500 रुपये सेकुरिटी फी ली जाती है कि यात्री जो भी नमकीन, बिस्कुट आदि के पैकेट लेकर जा रहा है वह उनकी रद्दी वहाँ न फेंके, वापस ले आये। इसके लिये बाकायदा बैग चेक किये जाते हैं। फॉरेस्ट चौकी पर औपचारिकता निभाने के बाद कुछ आगे बढ़ने पर एक नाला पड़ा घुसाधार गाड। पच्चीस-तीस मीटर चौड़ाई वाली गाड के ऊपर काफी बर्फ जमी हुई थी और पानी बर्फ के नीचे से बह रहा था। मुख्य रास्ता बरसात में बह गया होगा इसलिये बर्फ के ऊपर चलकर इसे पार किया। मुझे अमरनाथ यात्रा के दौरान अमरावती नदी के ऊपर चलने की याद आ गई। घुसाधार गाड पार करने के बाद से ही ब्रह्यकमल और फन फैलाये नाग के आकार के फूल दिखने शुरू हो गये थे। आगे उफान मारती भ्यूंडार गाड पर बने पुल से गाड के दायीं तट पर पहुँचे। गाड पार से एक किलोमीटर का जिग-जैग रास्ते पर चलते हुये हम निरन्तर ऊँचाई पर बढ़ते गए। रास्ते में भोजपत्र के पेड़ प्रचुर मात्रा में मिले। संयोग से रास्ते में कुछ लोग मिले तो सोचा शैक्षणिक भ्रमण पर होंगे। परन्तु यह जानकर अच्छा लगा कि वे सूरत (गुजरात) से तीन परिवारों के सदस्यों का दल था और घाटी का आकर्षण उन्हें भी यहाँ खींच लाया था। रुकते और चलते हुये इस चढ़ाई पर एक जगह खड़े होकर गुजराती दल में से चौबीस-पच्चीस साल की हँसमुख लड़की से मैंने पूछा क्या तुमने फिल्ब ‘बाहुबली-1’ देखी है? उसने हाँ बोला तो मैंने भ्यूंडार गाड के बायीं ओर खड़ी चट्टान दिखाकर कहा कि ‘वह देखो, इस चट्टान के ऊपर विषाल माहिश्मति साम्राज्य है।’ वह मुस्कराई और कहा ‘वर्णन तो अच्छा किया सर आपने। दो सौ मीटर से अधिक इस खड़ी चट्टान को देखकर तो सचमुच ही लग रहा है कि इसके ऊपर अवष्य कोई नगर होगा।’ चढ़ाई खत्म होने के बाद कुछ आगे चलकर वक्राकार रास्ता पूरब दिशा की ओर मुड़ जाता है। यहीं से पूरब दिशा में मीलों तक फैली घाटी के अनुपम सौन्दर्य का प्रथम दर्षन हुये। बुग्याल के दोनों ओर कुछ गहराई पर और बीचों-बीच भ्यूंडार गाड धीर-मन्थर गति से बह रही थी, उसका वह रौद्र रूप यहाँ नहीं दिखाई दिया जो घांघरिया से घाटी में प्रवेश करने तक है। भ्यूंडार गाड के दोनो ओर फैली चौड़ी घाटी में खिले थे सैकड़ों प्रजातियों के फूल, दूर-दूर तक। जिस गदेरे से फूलों की घाटी शुरू मानी जाती है वहाँ से ही लगभग छः-सात किलोमीटर दूर तक फेली हुयी है। संकरी घाटियों में प्रायः एक अदृश्य भय सा व्याप्त हो जाता है, परन्तु यह घाटी इतनी चौड़ाई लिये हुये है कि इसमें आगे बढ़ते हुये न भूस्खलन का खतरा मण्डराता है और न ही संकरी घाटियों वाला वह अदृश्य भय। डर है तो यह कि जंगली जानवरों से कहीं सामना न हो जाये। थोड़ी-थोड़ी दूरी पर पहाड़ी की उत्तरी ढलान से बर्फ पिघलकर छोटे-छोटे नालों के रूप में बहकर भ्यूंडार गाड की जल सम्पदा में वृद्धि कर रहे थे। सुदूर पूरब में बर्फ से ढकी गौरी पर्वत घाटी को आशीर्वाद देता सा प्रतीत हो रहा था। उसके ऊपर झक सफेद बादल अठखेलियां कर रहे थे, कभी वह चाँदी की चमक वाले उस पर्वत को अपने आगोश में समेट लेते और कभी चुपचाप उसके पीछे छुप जाते। सचमुच प्रकृति ने अपने दोनों हाथों से गढ़ा है इस घाटी को। मनुष्य क्या देवता भी यहाँ स्वयं वास करने का मोह षायद ही संवरण कर पाये।    1982 में नन्दा देवी राष्ट्रीय पार्क घोषित हो जाने के बाद घाटी में पशुओं की आवाजाही बन्द है और दर्शनार्थियों द्वारा कैम्प डालकर रात को ठहरने पर भी पाबन्दी है। फूलों से लकदक इस घाटी की ओर निरन्तर बढ़ने पर मेरी पत्नी काफी उत्साहित थी और इस यात्रा में सहयात्री महेश चन्द्र जोशी जी भी खूब प्रफुल्लित दिखे। श्रीमती जोशी जी रात बुखार होने के कारण कुछ सुस्त अवश्य रही परन्तु प्रकृति के इस नैसर्गिक सौन्दर्य को देखकर वे भी अभिभूत थी। 
 सभी प्रकार के फूल अभी नहीं खिले थे तथापि कम मात्रा में खिले रंग-बिरंगे फूलों से सजे बुग्याल देखकर मेरा मन हो रहा था कि यहीं बस जाऊं, एडनबरा निवासी मिस जॉन मारग्रेट लीग(1885-1939) की तरह मैं भी यहीं समाधिस्थ हो जाऊं। फूलों की इस सुन्दर घाटी को सन् 1931 में जनता के सामने लाने वाले फ्रैंक स्माइथ को सैल्यूट कर हम वापस घांघरिया लौट आये ताकि अगले दिन हेमकुण्ड साहिब की यात्रा के लिये तरो-ताजा रह सकें।

Wednesday, January 04, 2017

मनुस्मृति में क्या है ?

       चौबीस दिसम्बर को प्रतिवर्श ‘उत्तराखण्ड के गांधी’ नाम से विख्यात इन्द्रमणी बडोनी जी और पच्चीस दिसम्बर को पेषावर काण्ड के नायक चन्द्र सिंह गढ़वाली जी का जन्मदिवस पूरे उत्तराखण्ड में मनाया जाता है। पच्चीस दिसम्बर को ही क्रिसमस की धूम-धाम पूरे विष्व में रहती है। परन्तु इस वर्श चौबीस व पच्चीस दिसम्बर देहरादून वासियों के लिये खास रहा। क्योंकि चौबीस व पच्चीस दिसम्बर को ही(पूरे दो दिन) ‘समय साक्ष्य’ के तत्वाधान में देहरादून के राजपुर में ‘लिट्रेचर फेस्टिवल’ भी मनाया गया। इधर पच्चीस दिसम्बर को ही सोषल मीडिया ‘वर्डसऐप’ पर ‘लोक का बाना’ ग्रुप से इन्द्रेष आईसा (इन्द्रेष मैखुरी)जी का लेख पढ़ा कि ‘‘1927 में पच्चीस दिसम्बर को ही भीम राव अम्बेडकर की नेतृत्व में ‘मनुस्मृति’ को जलाया गया ।‘‘           वामपंथी नेता इन्द्रेष मैखुरी जितने प्रखर वक्ता हैं उतने ही वे ऊर्जावान लेखक भी। वे लिखते हैं कि ‘‘....जातीय श्रेश्ठता के नकली बोध से ग्रसित हमारे समाज के लिये वह घटना एक बड़ी चुनौती थी। मनु स्मृति ही वो संहिता है जो हिन्दू समाज के श्रमषील हिस्से को अछूत मानकर उसके साथ भेदभावपूर्ण व्यवहार को जायज ठहराने का अधार प्रदान करती है। महिलाओं के प्रति भी यह संहिता काफी क्रूर दृश्टिकोण लिये हुये है।.......’’
       मनुस्मृति क्या है- हिन्दू धर्मशास्त्रों में मनुस्मृति एक प्रमाणिक ग्रन्थ माना जाता है। सम्भवतः यह पहला संस्कृत ग्रन्थ है जिसका अनुवाद ब्रिटिश शासनकाल सन् 1794 में ‘सर विलियम जॉन्स’ द्वारा किया गया है। आज मनुस्मृति के पचास से अधिक हस्तलिखित ग्रन्थ उपलब्ध हैं परन्तु सबसे पहले प्रचलन में आया व सर्वाधिक बार अनुवादित हुआ संस्करण ही अठारहवीं सदी से प्रमाणिक माना जाता है। मनुस्मृति के रचनाकाल के सम्बन्ध में भिन्न-भिन्न मत हैं। परन्तु अधिकांश विद्वानों का मानना है कि इस ग्रन्थ की रचना ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी और ईसा की तीसरी शताब्दी के मध्य हुयी। ऐसा माना जाता है कि ‘मनु’ और ‘भृगु’ ऋषि के मध्य धर्म सम्बन्धी हुयी वार्ता इसका आधार है।
         संस्कृति संस्थान, ख्वाजा कुतुब(वेद नगर), बरेली से प्रकाषित एवं डॉ0 चमनलाल गौतम द्वारा सम्पादित ‘मनुस्मृति’ के 2004 संस्करण में सम्पादक/प्रकाषक ने दो षब्द षीर्शक में लिखा है कि ‘....यह ग्रन्थ निरा धर्मग्रन्थ ही नहीं है वरन विषेश रूप से नीतिगत भी है। आज भी इसकी मान्यता और उपयोगिता उतनी ही है जितनी कि पुरातन युग में थी। हिन्दू धर्म सम्बन्धी विवादों में अब भी विधि ग्रन्थ के रूप में इसके प्रमाण न्यायालयों में मान्य किये जाते हैं। .....राजा के लिये आवष्यक है कि वह योग्य दण्डधर होकर न्यायपूर्वक राज्य का पालन करे। उसे देष, काल, षक्ति, विद्या और वित्त के अनुसार अपराधियों को दण्ड देना चाहिये। ‘स राजा पुरुशो दण्डः स नेता षासिता च स’ के अनुसार दण्ड ही राजा है, वही नेता, षासक और रक्षक है तथा ‘दण्डं धर्मं विदुर्बुधाः’ पण्डितजन दण्ड को ही धर्म कहते हैं।..... ’
             इस मनुस्मृति में बारह अध्याय हैं। जगदुत्पतिकथन, ब्रह्मोत्पति, स्त्री पुरुश की सृश्टि, मनु एवं मरीच्यादि की उत्पति, ब्राह्मण-क्षत्रिय-वैष्य-षूद्र के कर्म, ब्राह्मण का श्रेश्ठतव, धर्म के सामान्य लक्षण, धर्म की वेदमूलता, ब्रह्मवर्तदेषीय सदाचार, द्विजातियों का वैदिक मंत्र से गर्भाधानदि कर्तव्य, जातकर्म, नामकरण, अन्नप्राषन, चूड़ाकरण, ब्रह्मचारी के कर्तव्य, गुरुकुल-वास के नियम, ब्रह्मचर्य विधि, असपिण्ड कन्या से विवाह, चारों वर्णों का भार्या-परिग्रह, विवाह के आठ प्रकार, ब्राह्मादि विवाह फल, सवर्णाविवाह विधि, युग्म तिथि में पुत्रोत्पति, कन्या विक्रय दोश, पिण्डदानादि विधि, तर्पण फल, ब्रह्मचर्य गार्हस्थ्य काल इन्द्रियार्थ आसक्ति निशेध, वय-कुल के अनुरूप आचरण, रजस्वला गमनादि निशेध, नग्न स्नानादि निशेध, रात्रि में तिल भोजन और नग्न षयन निशेध, षूद्र से व्रत कथनादि निशेध, आचार प्रषंसा, यम नियम श्रद्धा-दान का फल, असत्य कथन निन्दा, मृत्यु विषयक प्रश्न, वृथा मांसादि निषेध, आचमन विधि, स्त्री धर्म कथन,
पर-पुरुष गमन निन्दा, वानप्रस्थाश्रम, अथितिचर्या, महाप्रस्थान, राजधर्म, प्रजारक्षण, न्यायवर्ती राजा की प्रंशसा, प्रजारक्षण, काम-क्रोधादि त्याग, सन्धि विग्रह काल, सैन्य प्रशिक्षण, उदासीन गुण, न्यायालय प्रवेश, असत्य कथन दोष, सीमा विवाद स्थल, स्त्री-पुरुष पशु आदि का हरण, दासों के सत्रह प्रकार, स्त्री रक्षा, व्यभिचार प्रायश्चित, कुपुत्र निन्दा, द्विजाति के श्रेष्ठ कर्म, परधर्म जीवन निन्दा, द्विज वर्ण कथन, राज्याधिकार, पंचमहापातक, प्रायश्चित, पापानुताप, निन्दा, तप, वेदाभ्यास, त्रिदण्डी परिचय, पाप से कुत्सिता गति, धर्मज्ञ लक्षण आदि अनेक विषयों पर प्रकाश डाला गया है। ‘लोकानां तु निवृद्ध्यर्थं मुखबाहूरूपाधतः। ब्राह्मणं क्षत्रियं वैष्यं षूद्रं च निरवर्तयेत्।।’ (31/अध्याय- एक) अर्थात लोकों की वृद्धि के लिये प्रभु ने मुख से ब्राह्मण, भुजा से क्षत्रिय, जंघा से वैष्य एवं चरण से षूद्र उत्पन्न किये। ‘एकमेव तु षूद्रस्य प्रभुः कर्म समादिषत्। एतेशामेव वर्णानां सुश्रुशामनसूयया।।’ (91/अध्याय- एक) 
अर्थात षूद्र के लिये प्रभु ने एक ही कर्म का आदेष दिया कि वह उक्त तीनों वर्णों की सेवा ईर्श्या छोड़ कर करें।

‘स्वभाव एश नारीणां नराणामिह दूशणम्। अतोर्थान्न प्रमाद्यन्ति प्रमदासु विपष्चितः।।’ (213/अध्याय- दो) अर्थात स्त्रियों का स्वभाव पुरुशों को दूशित करने वाला होने के कारण युवतियों के प्रति ज्ञानी पुरुश असावधान नहीं रहते।
‘षूद्रैव भार्या षूद्रस्य स च स्वा च विषः स्मृते। ते च स्वा चैव राजष्च ताष्च स्वा चाग्रजन्मनः।।’ (13/अध्याय- तीन) अर्थात षूद्र की भार्या षूद्र होती है, वैष्य अपनी सवर्णा और षूद्रा से, क्षत्रिय अपनी सवर्णा, वैष्य और षूद्रा से तथा ब्राह्मण चारों वर्ण की कन्याओं से विवाह कर सकता है। ‘वृशलीफेनपीतस्य निःष्वासोपहतस्य च। तस्यां चैव प्रसूतस्य निश्कृतिर्न विधीयते।।’ (19/अध्याय- तीन) अर्थात षूद्रा के अधर का थूक चाटने वाला ब्राह्मण उसके साथ षयन करके उसके निःष्वास से अपने प्राणों को दूशित करता हुआ सन्तानोत्पादन करता है, उसके उद्धार का कोई प्रतिकार नहीं।
       इस प्रकार के अनेक उदाहरण हैं इस मनुस्मृति में। अतः बाबा साहेब अम्बेडकर साहेब ही क्या एक सामान्य व्यक्ति को भी मनुस्मृति में वर्णित कुछ बातों पर आपत्ति होना स्वाभाविक है। परन्तु यह भी सम्भव है कि मूल ग्रन्थ में ऐसा कुछ न रहा हो जो आज आपत्तिजनक माना जाता है।

Saturday, December 10, 2016

वीर सैनिकों की स्मृति में आयोजित खलंगा मेला

                    देहरादून में एक लम्बा अरसा बीत गया। परन्तु हर वर्ष आयोजित होने वाले खलंगा मेले में जा ही नहीं पाया। कई बार सोचता परन्तु....। इस बार ‘बलभद्र खलंगा विकास समिति, नालापानी, देहरादून’ द्वारा आयोजित मेले के लिये समय निकाल ही लिया। कई मित्रों को फोन किया परन्तु सब कहीं न कहीं व्यस्त थे। वरिष्ठ पत्रकार व कवि चेतन खड़का जी ही साथ दे पाये। हमेशा सोचता कैसा है वह नालागढ़ जिसे दो सौ वर्ष पूर्व ईस्ट इण्डिया कम्पनी की फौज हजारों सैनिकों की कुर्बानी के बाद भी लम्बे समय तक नहीं भेद पायी। हजारों पैदल, सैकड़ों घुड़सवार सैनिक तथा प्रचुर मात्रा में बन्दूक, गोला-बारूद, तोप से लैस अंग्रेज सेना की क्या परेशानी रही कि मुठ्ठी भर गोरखा सैनिकों को एक ही बार के आक्रमण में नहीं जीत पाये, जैसे कि उन्हें आशा थी। गोरख्याणी(गोरखा शासन) से त्रस्त गढ़वाल की प्रजा व राजा के साथ देने पर भी गोरखा सैनिकों के अन्दर
इतना आत्मबल कहाँ से आया कि उन्होंने ईस्ट इण्डिया कम्पनी की सेना के नाकों चने चबवा दिये।
                देहरादून शहर के उत्तर-पूरब में लगभग आठ किलोमीटर दूरी पर और ननूरखेड़ा, मंगलूवाला, बझेत, अस्थल व किरसाली गांव के मध्य साल के घने जंगल के बीच लगभग 850 मीटर पर स्थित यह दुर्ग नुमा क्षेत्र वास्तव में बहुत दुर्गम है। आज भले ही वहाँ तक सड़क बन गयी है परन्तु दो सौ साल पूर्व की स्थिति की कल्पना की जा सकती है। वीर गाथा प्रकाशन, विद्याभवन-दोगड़ा-गढ़वाल द्वारा प्रकाशित डॉ0 शिवप्रसाद डबराल की पुस्तक ‘गोरख्याणी’ में ‘खलंगा’ का अभिप्राय ‘सैन्य शिविर’ है। इतिहासकारों के अनुसार गोरखा शासन गढ़वाल, कुमाऊँ व सिरमौर राज्यों के लिये एक काला अध्याय है। गोरखा शासन के  मात्र बारह साल के अल्पकाल में जो अत्याचार हुए वह सैकड़ों वर्ष के शासनकाल में मुगलों ने भी नहीं किया और न ही अंग्रेजों ने। प्रजा की दुर्दशा पर मोलाराम की कविता उस काल की साक्षी है।
‘मालक रहा न गढ़ मैं मुल्क षुवार हो गया।
साहेब गुलाम पाजी सब इकसार हो गया।
काजी करै न काज सित्मगार हो गया।
रैयत पै जुल्म जोर बिसियार हो गया।
क्या षूब श्रीनग्र था उजार हो गया।...........’

बहरहाल! इतिहास में इतना कुछ अंकित है कि पढकर रांेगटे खड़े हो जाते हैं।
                         खलंगा मेले में भ्रमण के दौरान एक मित्र का फोन आया। कहने लगे ‘यह तो गढ़वालियों के लिये गुलामी का प्रतीक है और गढ़वालियों को इसमें शामिल ही नहीं होना चाहिये।’ मैंने कहा कि ‘लाल किला, ताजमहल आदि ही नहीं संसद भवन, गेटवे ऑव इण्डिया आदि भी तो गुलामी के प्रतीक हैं। देहरादून में एफ. आर. आई. के भवन, सर्वे ऑव इण्डिया की व्यवस्था आदि भी तो गुलामी की प्रतीक है। तो क्या हमें उनसे भी
दूर रहना चाहिये?.......’ खैर।
                        शहर से दूर होने के कारण मेले में ज्यादा भीड़ नहीं थी। मंच पर सांस्कृतिक कार्यक्रम सुबह ग्यारह बजे से देर तक चलते रहे। परन्तु दिन में ध्यान अक्सर भटक जाता है जिससे लोग इतना लुत्फ नहीं
उठा पाये। मेले में सेलु रोटी, भुटवा, चना छोला, चोमिन, मोमो आदि खूब बिक रहा था। पहली बार मैंने भी लहसुन प्याज की चटनी के साथ सेलु रोटी खायी। मेला स्थल से लगभग तीन सौ मीटर ऊपर पहाड़ी पर बलभद्र खलंगा युद्ध स्मारक (1814) देखने भी गये। इतनी ऊँचाई से देहरादून का विंहगम दृश्य देखकर बहुत अच्छा लगा। सोचा यदि यह मेला तीन-चार दिन चलता तो परिवार सहित अवश्य आता। वायु ध्वनि प्रदूषण आदि से मुक्त इस घने जंगल के बीच में कुछ पल गुजारना किसे अच्छा नहीं लगेगा।