Wednesday, July 29, 2020

उफ, ये देहरादून की बारिस !

वर्षा ऋतु में पच्चीस-तीस साल पहले के देहरादून की बारिस के कुछ किस्से भुलाये नहीं भूलते।


1.    विभागीय मुख्यालय- लखनऊ से रोकड़िया के. बी. श्रीवास्तव देहरादून आये थे। हमारा ऑफिस तब बसन्त विहार में था। के. बी. बाबू को शाम जनता एक्सप्रेस से लौटना था। दिन भर साथ ही ऑफिस में रहे, शाम को घर लौटते समय मैंने कहा मैं आपको स्टेशन छोड़ देता हूँ। सोचा अनुराग नर्सरी के आसपास चाय पीते हुये चलेंगे पर ऑफिस से निकले ही थे कि आशमान झमाझम बरसने लगा। इसलिए चाय का बिचार त्यागकर चलते रहे। कांवली रोड वाले बिन्दाल पुल पर पहुँचे तो पुल डूब चुका था (तब पुराना पुल संकरा और नीचे था)। गोबिन्दगढ़ से जाना चाहा पर वहाँ भी सड़कों पर पानी लबालब भरा था। वापस बल्लीवाला चौक, बल्लूपुर चौक, चकरॉता रोड, तिलक रोड, भण्डारी चौक होते हुये रेलवे स्टेशन पहुँचे तो ट्रेन प्लेटफार्म पर लग चुकी थी। बारिस में सड़क के अदृश्य गड्ढों से ही नहीं सामने वाले की रफ ड्राईविंग से भी स्कूटर चलाते हुये बचकर चलना होता है। बारिस इतनी तेज थी कि अण्डरगारमेण्ट्स तक में से भी पानी इतना बह रहा था जैसे नदी में डुबकी मारकर बाहर निकलने पर।

2.    एक बार मेरे दोनों बच्चों को बुखार आ गया। शायद छः-सात साल के रहे होंगे। दिन चढ़ने पर बुखार तेज होता गया था। मैंने श्रीमती जी को और बच्चों को स्कूटर पर बिठाया और डॉक्टर दिखाने को निकला। समय थोड़ा गलत चुन लिया था, दिन के डेढ़-पौने दो बजे होंगें। एक डॉक्टर के पास गया पर वे उठने की तैयारी में थे और ‘शाम को आना’ कहकर निकल गये। दूसरे और फिर तीसरे के पास, पर सभी ने शाम को दिखाने को कहा। मैंने श्रीमती जी को कहा ‘अब आ गये हैं तो फिर शाम को दिखाकर ही जायेंगे। लिहाजा समय काटने के लिए पिक्चर ही देख लेते हैं, दो से पाँच का शो।’ वह राजी हो गयी। हम चकरॉता रोड पर नटराज सिनेमा चले गये।
          पिक्चर खत्म होकर बाहर निकले तो बाहर आशमान झमाझम बरस रहा था। नटराज वाला चौकीदार शो शुरू होने पर चैनल बन्द कर देता है पर बारिस रुकने के इन्तजार में हमारे जैसे चार-छः और लोग भी चैनल के बाहर खड़े थे। हॉल के बरामदे का प्रोजक्शन मुश्किल से एक-डेढ़ फीट ही बाहर होगा जिससे हम उस तेज बारिस में कमर से नीचे भीग ही रहे थे। पौन घण्टा रुकने के बाद भी बारिस नहीं रुकी तो मैंने स्कूटर स्टार्ट किया, पर बुरी
तरह भीगने के कारण डॉक्टर के पास जाने की हमारी स्थिति नहीं थी इसलिए सीधे घर आ गये। यह सोचकर कि डॉक्टर को कल दिखा देंगे। रात खाना खाते समय देखा तो बच्चों का बुखार पूरी तरह गायब था।

 
3.    मेरे बच्चे तब डालनवाला के एक प्राईवेट स्कूल में पढ़ते थे और बस से आते-जाते थे। आशमान में बदरा घिर आये थे। बाजार से लौट रहा था तो सोचा बच्चे भीग न जायें क्यों न मैं ही उन्हें लेते चला जाऊं। पर तेज बारिस में मैं ही नहीं बच्चे भी बुरी तरह भीग गये। आराघर चौक पहुँचा तो देखा कि आठ-नौ साल के कुछ स्कूली बच्चे उस बारिस में नहर से लगी सड़क पर अपने बस्ते बहा रहे थे और नहीं बहने पर किक मार रहे थे।                                                                                            
(पुराने लोगों को पता है कि आराघर चौक में पहले एक बहुत बड़ा पिलखन का पेड़ था और सड़क दो हिस्सों में बंटी थी। पिलखन के पेड़ की सीध में धर्मपुर की ओर अर्थात आज की सड़क के बीचों-बीच दस-बारह दुकानों का एक छोटा सा बाजार भी था। जिसमें गढ़वाल ऑप्टिकल्स, शराब का ठेका और उसकी बगल में मच्छी की पकौड़ी बनाने वाले की व अन्य दुकानें थी। तब देहरादून की नहरें आज की तरह भूमिगत नहीं थी। ई. सी. रोड और बलवीर रोड का पानी जब बाजार के पीछे वाली पतली सड़क पर बहता था तो काफी बहाव हो जाता था। भारी बस्ते तो नहीं पर जूते-चप्पल आसानी से बह जाते थे।)    

Monday, May 18, 2020

हमारे मेले व त्यौहार

गल्ली थौळू पर विशेष
             मनुष्य जैसे-जैसे सभ्य होता गया उसके अन्दर असुरक्षा की भावना बढ़ने लगी, असुरक्षा से हवस और संग्रहण की प्रवृत्ति पुष्ट हुयी और धीरे-धीरे उसके चारों ओर एक ऐसा दायरा बन गया जिसमें हर कोई अधिकाधिक संग्रह करने की ओर उन्मुख होता है, एक नये समाज का निर्माण होने लगा। जो उनके जैसे नहीं हो सके वे ऐसे समाज से बाहर हो गये और इस तथाकथित सभ्य समाज ने अपने से कमतर समझे जाने वाले समाज को नाम दिया आदिवासी समाज। सच भी है आदिवासी समाज आज भी सभ्य समाज की चालाकियां कदाचित ही समझ पाया हो आदिवासी प्रकृति की गोद में उन्मुक्त व उल्लास से भरा जीवन जीते आये हैं। प्रकृति सानिध्य में वे प्रकृति के हर सुख-दुख में शरीक होते। प्रकृति की पीड़ा वे समझते। प्रायः आदिवासी समाज की पहचान क्षेत्रीय आधार पर होती। परन्तु अब धीरे-धीरे अधिकांश आदिवासी समाजों में भी जातिगत अवधारणा विकसित हुयी है और वे मुख्य समाज में जुड़ने लगे।
            आज उत्तराखण्डी समाज भी उसी प्रक्रिया से गुजर रहा है। मुख्य समाज में समाहित होने के प्रयास भले ही हों किन्तु सदैव वर्तमान में जीने वाले ऐसे समाज में उत्सवधर्मिता कम नहीं हुयी है। उतरायणी मेला, स्याल्दे बिखोती, पूर्णागिरी मेला, कण्डाळी मेला, नन्दा राजजात, कण्वाश्रम मेला, ज्वाल्पा मेला, काण्डा मेला आदि असंख्य मेले उत्तराखण्डी संस्कृति की अभिन्न पहचान है।
            उत्तराखण्ड ही क्या टिहरी गढ़वाल में भी कुछ ऐसे मेले हैं जो प्रतिवर्ष आयोजित होते हैं। धार्मिक श्रेणी के इन मेलों में जन-जन की आस्था है और इनके लिए जनसमुदाय पूरे वर्ष भर प्रतीक्षा करता है यथा; सुरकण्डा का गंगा दशहरा मेला, कुंजापुरी तथा चन्द्रबदनी के नवरात्र मेले, बूढ़ाकेदार का कैलापीर मेला, सेम-मुखेम मेला, सिद्धपीठ ओणेश्वर कोटेश्वर महादेव मेला, ज्वाला देवी-विनयखाल मेला, माणेकनाथ मेला, मकर संक्रान्ति व बसन्त पंचमी मेला, अलेरू-रथी देवता का मेला प्रमुख है।
            इसके अतिरिक्त कुछ ऐसे मेले भी हैं जो स्थान विशेष पर आयोजित होने के कारण जाने जाते हैं। यह अलग बात है कि इनका स्वरूप भी कहीं-कहीं धार्मिक है। यथा; छाम-कण्डीसौड़, नगुण, देवीसौड़, कमान्द, नैखरी(चन्द्रबदनी), चम्बा, पथल्डा(हिण्डोलाखाल), चम्बा(वीर गबर सिंह का मेला), रौड़धार, खण्डोगी, अंजनीसैण, डिबनू, बादशाही थौल, बग्वान, महड़, जामणीखाल, पौड़ीखाल आदि अनेक मेले।

             टिहरी गढ़वाल की चौवन पट्टियों में इक्कीस गांवों की एक पट्टी है धारमण्डल। प्रतापनगर तहसील के अन्तर्गत इस पट्टी में भी प्रतिवर्ष तीन मेले आयोजित होते हैं; मदननेगी(बीस गते बैसाख- जिसमें स्थानीय देवता मदननेगी की पूजा अर्चना की जाती है), गल्ली(पांच गते जेठ- जिसमें गल्ली अर्थात गलेश्वर महादेव की पूजा की जाती है) और दयारा(छः गते जेठ- जिसमें स्थानीय देवता नागर्जा की पूजा की जाती है, हालांकि कुछ लोग दयारा में सिलंग्वा देवता के पूजे जाने की बात करते है)। दयारा नाम की जगह टिहरी बांध में डूब जाने के कारण अब दयारा का मेला उनके पुनर्वास स्थल भानियावाला में ही हर वर्ष आयोजित किया जाता है।
मेला को गढ़वाली भाषा में थौळू या कौथिग भी कहा जाता है और मेले में प्रतिभाग करने वाले को थौळेर या कौथिगेर। ‘कौथिगेरू न थौळू भरीगे, स्याळी सुरमा...’  
              चालीस-बयालीस साल पहले गल्ली थौळू में एक-दो बार ही मेरा जाना हुआ परन्तु आज भी जब उसकी याद आती है तो आदिम युग के दृश्य आंखों के आगे तैरने लगते हैं। जब टेमरू, बांज, तुंगला आदि के डण्डों से खूंखार मर्द प्रतिशोध की भावना से एक-दूसरे पर टूट पड़ते थे और परिणाम औरतों व बच्चों का सहम जाना और फिर घायलों को चारपाई पर डालकर अस्पताल के लिए रवाना करना। यह मंजर तब हर वर्ष के मेले में होता था। न जाने क्यों गल्ली का थौळू खून-खराबे के लिए अभिशप्त था। तब शायद ही कभी सौहार्दपूर्ण ढंग से मेला निपटा हो। ऐसा भी नहीं कि झगड़ा अचानक जुट जाता हो। यह सब पूर्व नियोजित होता था। लड़ाई-झगड़े करने वाले इस तैयारी से जाते थे कि आज हमने उस गांव वालों को सबक सिखाना है। यह अलग बात है कि कभी-कभी वे खुद ही पिट जाते थे। बल्कि छ महीने, साल भर पहले ही धमकी दी जाती थी कि ‘मिलना बेटे गल्ली के थौळू में’। लड़ाई का उद्देश्य कोई किला फतह करना नहीं केवल नाक की लड़ाई होती थी। किसी ने किसी की बहू-बेटी छेड़ दी तो उसका बदला गल्ली के थौळू में उतारा जाता था। अपनी शूरवीरता दिखाने का यह अवसर आदिम खयालों वाले लोग चूकते नहीं थे। लड़ाई-झगड़ा, मारपीट कब से गल्ली में चला आ रहा था कह नहीं सकते किन्तु बीसवीं सदी के आठवें दशक तक यह जारी रहा।
            थौळू मेलो के पीछे की अवधारणा थी परस्पर मिलन और आवश्यक वस्तुओं की खरीददारी। बल्कि यह कहना ज्यादा प्रासंगिक होगा कि थौळू की परिकल्पना तब की गयी होगी जब बहू-बेटियां वर्षों तक आपस में नहीं मिल पाती होगी। तब वे अपने शुभचिन्तक द्वारा सूचना भेजती थी कि फलानी को कहना कि इस बार अमुक थौळू में जरूर आना। और सचमुच जब दो सहेलियां, या दो रिश्तेदार, या ननद-भावजें ऐसे मेलों में मिलती थी तो उनका गले लग-लगकर रोना धोना मैंने भी कई बार अपनी आँखों से देखा है। परन्तु गल्ली के थौळू में करुण रस और वियोग श्रंगार नहीं वीर रस की प्रधानता होती जब दो गुट आपस में टूट पड़ते थे। मेलास्थल की हालत तो ऐसी हो जाती थी जैसे साण्डों की लड़ाई में खड़ी फसल वाले खेत।

           पिछली सदी के आठवें दशक तक रजाखेत क्षेत्र में सड़क नहीं थी। हम भी जब अपने गांव से गल्ली जाते तो बेरगडी, नारगढ़, भौन्याड़ा, पाचरी, भाषली होते हुये गल्ली पहुंचते। पूर्व विधायक श्री बिक्रम सिंह नेगी द्वारा अपने ब्लॉक प्रमुख काल में क्षेत्र के प्रधानों के सहयोग से आज भले ही गल्ली में भव्य मन्दिर बनवाया गया है किन्तु तब केवल वहाँ पर एक मण्डला(मिट्टी-पत्थरों से तैयार एक प्रतीकात्मक मन्दिर) ही था। मन्दिर के पुजारी आस-पास के ही ब्राह्मण होते थे और मेले में कफलोग, नेल्डा, म्यूंडा, सिलोळी, तुन्यार, कोटचौरी-भाषली, कोळगाैं-भटवाड़ा, खाण्ड आदि गांवों के ढोल सम्मिलित होते थे। हालांकि दबदबा तब तुन्यार और सिलोळी वालों का ही रहता था। इतनी अधिक जोड़ी ढोलों की नाद से तब पूरी गल्ली गाड की घाटी गुंजायमान होती थी। रोमांच भर जाता था। पांव थिरकने लगते थे। स्वर लहरियंा गूंजने लग जाती थी। तब एकाएक कहीं से उन्मादित मर्द विघ्न डालते थे। सपना टूट जाने का सा अहसास होता था।
           संचार साधनों और यातायात की सुविधा होने के साथ-साथ जगह-जगह बाजार उपलब्ध है जिससे मेलों का स्वरूप बदल गया है। थौळू मेले अब औपचारिकता रह गये हैं। फिर भी यह अत्यन्त सौभाग्य की बात है कि आज की पीढ़ी शिक्षित व समझदार हैं। अब गल्ली के थौळू में पहले की भांति झगड़े-फसाद नहीं होते हैं।
गलेश्वर महादेव से प्रार्थना है कि इस साल का मेला कोरोना की भेंट अवश्य चढ़ गया है परन्तु जब भी मेला हो सुखमय हो, उल्लासपूर्ण हो और पारस्परिक सद्भाव बना रहे।

Saturday, May 09, 2020

580वीं जयन्ती पर विशेष

प्रातः स्मरणीय वीर शिरोमणी महाराणा प्रताप
(मई 09, 1540 - जनवरी 19, 1597)

        दो दिन उदयपुर के दर्शनीय स्थलों के दर्शन के बाद नाथद्वारा में कुछ समय बिताया। नाथद्वारा से हल्दीघाटी की दूरी मात्र 17 कि0मी0 है किन्तु सीधी बस सेवा नहीं है। यह बस स्टैण्ड पर देर तक खड़े रहने के बाद ही मालूम
हुयी। एक ऑटो किया ढाई सौ रुपये में, इस समझौते के साथ कि हम दोनों के अतिरिक्त जो भी सवारी मिलेगी उनका भाड़ा भी ऑटो वाला रख सकता है। तो ऑटो चालक बीच-बीच में मुख्य सड़क से हटकर गांवों के बीच से ऑटो चलाकर ले गया। गावों के बीच से गुजरते हुये लग रहा था जैसेे शिवालिक पहाड़ियों की तलहटी पर बसे गावों के बीच से ही गुजर रहे हों। बिल्कुल वही वनस्पति, वही भूगोल, वही पथरीली मिट्टी और वैसे ही घर। आगे बनास नदी दिखाई पड़ी तो रूककर बनास के साफ निर्मल पानी में हाथ मुंह धोया। पूरा मेवाड़ ही वैसे महाराणा प्रताप की धरती कहलाती है किंतु हल्दीघाटी के आस-पास आज भी चेतक के टापों की आवाज गूंजती सी लगती है। कुछ आगे चलकर ऑटो चालक बताता है कि बालची गांव में यह चेतक स्थल है। उसे रोका, सड़क के दांयी ओर एक छोटे से मैदान में चेतक की स्मृति में सीमेंट का चबूतरा बनवाया गया है। उस पर हल्दीघाटी युद्ध का संक्षिप्त विवरण तथा चेतक के विषय में लिखा गया है। इसी स्थल पर प्रताप को युद्ध भूमि से सुरक्षित निकालकर 18 जून 1576 को चेतक ने अंतिम सांस ली थी। संसार में शायद ही किसी पशु को उसकी स्वामीभक्ति व वीरता के लिए चेतक जैसा सम्मान मिला हो।
        मार्ग के चारों ओर हरा-भरा मिश्रित जंगल है, पूरा क्षेत्र रमणीकता लिये हुये। सड़क आगे पहाड़ी के बीचों-बीच है। सड़क के दोनों ओर नयी कटिंग की गयी लगी। मैंने ऑटो रोका, उतर कर नाखूनों द्वारा मिट्टी खुरची तो अन्दर मिट्टी पीलापन लिये हुये थी, हल्दी जैसी। दूसरी जगह पर भी खुरचा तो फिर वही रंग। ऑटो वाला मुझे देखकर बोला, ‘‘साहब, खमणौर गांव की पूरी मिट्टी का रंग ही हल्दी जैसा है तभी तो इसे हल्दीघाटी कहा जाता है। ऑटो हल्दीघाटी में महाराणा प्रताप संग्रहालय जाकर रुका। जहां पर पहले से दो बसें, कुछ छोटी गाड़ियां और तीन-चार ऑटो खड़े थे। एक छोटी पहाड़ी के ढलान के मध्य जमीन काटकर विशाल महाराणा प्रताप राष्ट्रीय संग्रहालय बनवाया गया है जो वर्ष 1997 में प्रारम्भ होकर वर्ष 2006 में सम्पन्न हुआ। संग्रहालय की बाहरी दीवार व प्रवेश द्वार वास्तुकला का अद्भुत नमूना है। दीवार पर एक ओर हल्दीघाटी युद्ध और दूसरी ओर चेतक व विलाप करते प्रताप का चित्र उकेरा गया है। प्रवेशद्वार के भीतर और संग्रहालय के बाहर महाराणा प्रताप की युद्ध भूमि के विभिन्न मुद्रायें और हकीम खान सूूर, झाला मान व राणा पुन्जा की विशाल आदमकद कांस्य प्रतिमायें है। संग्रहालय में प्रवेश करने के बाद भीतर हल्दीघाटी क्षेत्र का एक बड़ा मॉडल (भूस्थलाकृति) देखते हैं जिसे कांच के एक बड़े बक्से के अन्दर रखा गया है। दीवारों पर प्रताप की वीरता को बयां करती अनेक पोर्ट्रेट हैं।
संग्रहालय दर्शन के बाद हमें एक घुप्प अंधेरे कमरे में प्रवेश किया। यह ‘‘लाइट एण्ड साउण्ड’’ इफेक्ट देने का प्रयास था। शुरु में चेतक के दौड़ने की आवाजें सुनाई दी फिर युद्ध भूमि से दूर उसके गिरने की मुद्रा में वह दिखाई दिया और पास ही शोकमग्न महाराणा प्रताप। धीरे धीरे आंखें अंधेरे में देखने की अभ्यस्त हो गयी। पास ही पन्ना धाय को महाराणा उदय सिंह को बचाने और बदले में अपने पुत्र को बलिदान करते हुए दिखाया गया है। वास्तव में यह एक खुली जगह है जिसे चारों ओर से ढका गया था। दूसरी ओर से बाहर निकले तो यह द्वार एक तालाब के पास निकला। वहीं पर प्रताप व हल्दीघाटी से सम्बन्धित भिन्न-भिन्न प्रकार की सामग्री बिक्री केन्द्र है। लकड़ी व धातु का चेतक, राज चिह्न भाला, ढाल व तलवार आदि आदि, किन्तु सभी कुछ प्रतापमय। पास ही भील-भिलनियों की दिनचर्या दिखाने हेतु मिट्टी व प्लास्टर ऑफ पेरिस के हल, बैल, कृषक हथियार ढालते स्त्री पुरुष आदि-आदि। वहीं कैन्टीन से चाय पीने के बाद पास चल रहे कोल्हू तथा उस जुते बैल को गौर से देखा। जगह जगह बिजली पहुंचने व मशीनें लगने के कारण अब कोल्हू या रहट देखने को कम ही मिलते हैं। पर यहां पर अभी भी सरसों की पिराई कोल्हू से ही की जा रही थी।
        संग्रहालय से बाहर निकला तो जिस पहाड़ी पर यह संग्रहालय बना हुआ है उसकी पर्वत श्रेणियों को खमणौर की पहाड़ियां कहा जाता है। संग्रहालय का विस्तार निरन्तर चोटी की ओर किया जा रहा है। जिज्ञासावश उधर बढा। इस ऊंचाई से तो हल्दीघाटी का सौन्दर्य और भी मंत्रमुग्ध कर रहा था। चारों ओर हरियाली और मन्द-मन्द बासन्ती हवायें चल रही थी, मदहोशी का आलम था। प्रेम के बीज ऐसे ही मौसम में अंकुरित व प्रस्फुटित होते हैं। एक राजस्थानी लोकगीत याद आ गयाः
‘‘उड़ ज्या रे काग गिगन का वासी खबर तो ल्याव म्हारी गोरी की
नांव नहीं जांणू मै गावं नहीं जांणू सूरत न जांणू थारी गोरी की
नांव बतास्यां  गांव बतास्यां  सूरत बतास्यां  म्हारी गोरी की
लांबा लांबा केस मिरग का सा नेतर चाल चलै ठुकराण्यां की।’’  

लेकिन वीरों की धरती मेवाड़ में श्रृगांर रस के लिये स्थान कहाँ। यहां खड़े होकर हम मेवाड़ की तत्कालीन परिस्थितियों की कल्पना भली भांति कर सकते हैं। हल्दीघाटी का इतिहास बहुत विस्तार लिये हुए है। महाराणा प्रताप की वीरता ने ही हल्दीघाटी क्षेत्र को अमर कर दिया। 18 जून 1576 को अकबर की विशाल सेना और महाराणा की छोटी सेना के मध्य लड़ा गया युद्ध जिसमें प्रताप हारकर भी विजयी हुए, जिसने उनकी कीर्ति को सारे विश्व में फैला दिया, वह हल्दीघाटी और प्रताप इतिहास ही नहीं प्रत्येक हिन्दुस्तानी के सीने में अंकित है। आज चार सौ साल से ज्यादा समय हो गया है किंतु आज भी मेवाड़ में लोग प्रताप की सौगन्ध लेते हैं।
हल्दीघाटी युद्ध में सेनानियों की कुल संख्या के बारे में अलग-अलग आंकड़े हैं। किन्तु अकबर की सेना के साथ चल रहे इतिहासकार अल बदायुनी ने मुगलों की सेना की संख्या पांच हजार व महाराणा की सेना की संख्या तीन हजार बताई है। अकबर की सेना में जहां हल्का आधुनिक तोपखाना था वहीं राणा के सैनिकों के मुख्य हथियार भाले, छोटी तलवारें, धनुष वाण व गोफन (गुलेल) थे। यह अद्भुत संयोग था कि मान सिंह की सेना के अग्रिम दल में जगन्नाथ के नेतृत्व में राजपूत सैनिक थे तो वहीं महाराणा के अग्रिम दल में हकीम खां सूर के नेतृत्व में मुसलमान पठान सैनिक।
       हल्दीघाटी युद्ध में प्रताप को यद्यपि युद्ध का मैदान छोड़कर जाना पड़ा परन्तु विजय अकबर की भी नहीं हुयी। उसके बाद अकबर की सेना और प्रताप के बीच यु़द्ध अनवरत चलता रहा। ......
इतिहास जहां पर मौन हो जाता है वहां यह भी हकीकत है कि चारणों ने ही भूतकाल को जीवित रखा। चारण गीतों में राजाओं महाराजाओं के अनेक किस्से मिलते हैं। चारणों की वीरगाथाओं में ही यह भी मिलता है कि निरन्तर युद्ध पर युद्ध और हार पर हार से प्रताप तिलमिला गए। हर वक्त डर रहता था कि वे स्वयं या राजपरिवार का कोई सदस्य मुगलों के हाथ न पडे। वे कभी पर्वतों की गुफाओं में पत्थरों पर सोकर रातें गुजारते तो कभी पेड़ों पर बैठे-बैठे दिन काटते। जंगली फलों पर गुजारा करते। कई बार शत्रुओं से बचने के लिए उन्हें मामूली भोजन छोड़कर भी भागना पड़ता। केवल इस संकल्प के लिए कि तुर्कों के सामने सिर नहीं झुकायेंगे। किन्तु एक बार उनकी प्रतिज्ञा टूटने लगी, वे झुकने लगे। हुआ यह कि महारानी और युवरानी ने घास के बीज के आटे से रोटी बनाई थी। बच्चों को एक-एक रोटी दी गई कि वे आधी अभी खा लें और आधी बाद में। प्रताप किनारे बैठे किसी गहन सोच में थे कि उनकी पौत्री की दारुण पुकार उन्हें सुनाई दी। वास्तव में एक जंगली बिल्ली उसके हिस्से की रोटी झपट्टा मारकर ले गई थी। महाराणा तिलमिला गए। एक घास की रोटी के लिए राजपरिवार की कन्या की हृदयभेदी चीत्कार ! युद्ध भूमि में सगे क्या, पुत्र की वीरगति पर भी जो प्रताप कभी विचलित नहीं हुए, वह राजकुमारी की चीख से तिलमिला गए, आंखों में आँसू आ गये। युद्ध भूमि में सगे क्या, पुत्र की वीरगति पर भी जो प्रताप कभी विचलित नहीं हुए, वह राजकुमारी की चीख से तिलमिला गए, आंखों में आँसू आ गये। उन्होंने तुरंत अकबर को संधि पत्र लिखा।
          अकबर पत्र पाकर बहुत खुश हुआ। पत्र बीकानेर रियासत के राजा के भाई पृथ्वीराज को दिखाया जो अकबर के दरबार में राजकवि था। पृथ्वीराज राजपूतों की आखिरी आशा और वीर महाराणा की वह चिट्ठी देखकर अत्यन्त दुखी हुआ। किंतु प्रत्यक्ष में कहा कि ‘मुझे विश्वास नहीं है कि यह चिट्ठी प्रताप की है। मुगल साम्राज्य मिलने पर भी प्रताप कभी सिर नहीं झुकाएगा। मैं स्वयं ही पता कर लेता हूं।’ पृथ्वीराज महान कवि थे, अतः घुमा फिराकर यह पत्र लिखा-
‘अकबर समद अथाह, तिहं डूबा हिंदू तुरक,
मेवाड़ तिड़ मांह, पोयण फूल प्रताप सी। अकबरिये इकबार,......
(अर्थात अकबर रूपी समुद्र में हिन्दू तुर्क डूब गए हैं, परन्तु मेवाड़ के राणा प्रताप उसमें कमल की तरह खिले हुए हैं। अकबर ने सबको पराजित किया किन्तु चेतक घोड़े पर सवार प्रताप अभी अपराजित है। अकबर के अंधेरे में सब हिन्दू ढक गये हैं किन्तु दुनिया का दाता राणा अभी उजाले में खड़ा है। हे हिन्दुओं के राजा प्रताप, हिन्दुओं की लाज रख। अपनी प्रतिज्ञा के पूर्ण होने के लिए कष्ट सह। चित्तौड़ चंपा का फूल है और प्रताप उसकी सुगंध। अकबर उस पर बैठ नहीं सकता, यदि प्रताप अकबर को अपना बादशाह माने तो भगवान कश्यप का पुत्र सूरज पश्चिम में उदय होगा। हे एकलिंग महादेव के पुजारी प्रताप, वह लिख दो कि मैं वीर बनके रहूंगा या तलवार से अपने को काट डालूंगा)

        पृथ्वीराज की इस कविता ने दस हजार सैनिकों का काम किया। प्रताप रोमांच से भर उठा और प्रताप ने उत्तर में लिख भेजा।
तुरुक कहां सो मुख पतों, इन तणसुं इकलिंग
उसै जासु ऊगसी, प्राची बीच पतंग,........
(अर्थात भगवान एकलिंग जी के नाम से सौगंध खाता हूं कि मैं हमेशा अकबर को तुर्क नाम से ही पुकारुंगा। जिस दिशा में सूरज हमेशा से उगता आया है वह उसी दिशा में उगता रहेगा। वीर पृथ्वीराज, सहर्ष मूंछों पर ताव दो, प्रताप की तलवार यवनों के सिरों पर ही होगी)
        मेवाड़ की धरती प्रताप के ऐसे वीरता पूर्ण किस्सों से भरी पड़ी है। खमणौर की पहाड़ियों की सोंधी खुशबू देर तक
अपने हृदय मे भरकर चाहते हुए भी वापसी के लिए निकल पड़ा। इस आशा के साथ कि अगली बार पर्याप्त समय लेकर आऊंगा और आहड़, गोगूंदा, मांडलगढ़, कुम्भलगढ़, भोमट आदि स्थानों को अवश्य देखूंगा। वापसी में एक बार फिर चेतक स्मारक पर उतरकर उस वीर पशु को श्रद्धांजलि दी।
                                                                                   (उदयपुर, हल्दीघाटी व चित्तौड़गढ यात्रा संस्मरण का एक अंश)

Sunday, May 03, 2020

सरल हृदय व विराट व्यक्तित्व का महापुरुष: कैप्टन शूरवीर सिंह पंवार

पुण्यतिथि पर विशेष

    अप्रैल 1992 में इलाहाबाद से आदरणीय मोहनलाल बाबुलकर जी का पत्र आया कि‘देहरादून टाउन हॉल, में
उन्नीस अप्रैल को डॉक्टर भक्तदर्शन और कैप्टन शूरवीर सिंह पंवार को श्रद्धांजलि स्वरुप वसुधारा का श्रद्धांजलि अंक के लोकार्पण के सिलसिले में देहरादून आ रहा हूँ, मिलना।’  डॉक्टर भक्तदर्शन और कैप्टन शूरवीर सिंह पंवार की यह पहली पुण्यतिथि वर्ष था। टाउन हॉल खचाखच भरा हुआ था, मंचासीन वक्ताओं श्रीमती सावित्री भक्तदर्शन, मेहरबान सिंह नेगी, कर्नल युद्धवीर सिंह परमार, श्रीमती सुमित्रा धूलिया, मोहनलाल बाबुलकर तथा मुख्य अथिति महन्त इन्द्रेश चरणदास जी के अतिरिक्त हॉल में उपस्थित राधाकृष्ण कुकरेती, कर्नल इन्दर सिंह रावत, बलवन्त सिंह नेगी, लेफ्टिनेंट जनरल महेन्द्र सिंह गुसाईं, चंद्र सिंह रावत आदि गणमान्य लोगों ने दिवंगत विद्वानों के जीवन के विभिन्न पहलुओं पर प्रकाश डाला।
   

 टिहरी का निवासी होने के कारण कैप्टन शूरवीर सिंह पंवार(18/5/1907 - 5/5/1991) के दर्शन दो-तीन बार अवश्य हुये थे। लगभग साढ़े पाँच फुट छरहरी काया, सुतवा नाक, सिर पर पहाड़ी टोपी, अचकन और चूड़ीदार सफेद पायजामा। आँखों में चमक और मुख पर छलकता आत्मविश्वास। बातों में माधुर्य तो नहीं किन्तु अकड़ भी नहीं। तनकर बात करने का अन्दाज। हमारा पुराना दरबार जाना कदाचित ही होता था। मेरा गांव टिहरी के पूरब में भिलंगना की उपत्यका में बसा हुआ है और पुराणा दरबार टिहरी नगर के पश्चिमी छोर पर। मेरे गांव, इलाके के लोग टिहरी की भादो की मगरी, चना खेत व सुमन चौक क्षेत्र तक ही बसे थे। पुराणा दरबार तब बसा था जब दिसम्बर 1815 में महाराजा सुदर्शन शाह ने टिहरी राजधानी के रूप में बसाया। पुराणा दरबार हम तीन कारणों से ही जाते थे; भारतीय स्टेट बैंक में, टिहरी प्रवास के दौरान बस अड्डे से घूमते हुये और कभी कॉलेज से बंक मारने पर।
    कैप्टन शूरवीर सिंह पंवार जी संयुक्त प्रान्त(अविभाजित उत्तर प्रदेश) सरकार में प्रशासनिक पदों पर रहे, किन्तु समाज में उनकी छवि प्रशासनिक अधिकारी के तौर पर नहीं विद्वान लेखक, इतिहास पुरुष व पुरातत्वविद के रूप में है। सौ से अधिक छात्रों को उनकी जाति, धर्म पूछे बिना पारिवारिक तथा निजी खर्चों में कटौती कर मेहनत से जुटाये गये धन से खरीदी गई हजारों पुस्तकें, दर-दर भटककर एकत्रित किये गये ताम्रपत्र व अन्य बेशकीमती पांडुलिपियां उपलब्ध करवाकर उन्हें शोध पूरा करवाया। सैकड़ों छात्रों को अपने व्यय से भोजन व आवास की सुविधाएं उपलब्ध करवाकर शिक्षित करवाया ताकि शिक्षा के क्षेत्र में प्रसार हो। अपनी भाषा व अपनी संस्कृति के प्रति इतना समर्पण कि ब्रिटिश काल में उच्च शिक्षा प्राप्त होने पर भी उन्होंने न मातृभाषा गढ़वाली बोलना छोड़ा और न अपने सिर पर पहाड़ी टोपी पहनना।
    

उच्च शिक्षा प्राप्त राजपरिवार का सदस्य, टिहरी राज्य में एस. डी. एम., डी. एम. व होम सेक्रेट्री, भारतीय सेना में कैप्टन और उत्तर प्रदेश प्रान्त में ए. डी. एम. जैसे महत्वपूर्ण पदों पर सेवा दे चुके ठाकुर पंवार के भीतर अहंकार लेशमात्र भी नहीं था। जिसके सैकड़ों शोधपत्र देश के विभिन्न प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके थें, अनेक विश्वविद्यालयों के विषय विशेषज्ञ भी जिनके ज्ञान का लोहा मानते थे ऐसा विद्वान ठाकुर शूरवीर सिंह पंवार दरबार से निकलकर साहित्य सेवा से जुड़े किसी भी व्यक्ति के दरवाजे पर जाने से नहीं हिचकते थ,े एडवोकेट महावीर प्रसाद गैरोला, साहित्यकार मोहनलाल नेगी, डॉ0 यशवन्त सिंह कटौच, डॉ राकेश चन्द्र नौटियाल, एडवोकेट वंशीलाल पुण्डीर, सरदार प्रेम सिंह आदि विद्वानों ने यह अपने संस्मरणों में लिखा। सरकारी सेवा मंे अधिकांश लोग जहाँ अपनी ऊर्जा धनोपार्जन पर लगाते हैं वहीं ठाकुर साहब ने अपनी ऊर्जा, समय और पैसा दुर्लभ पांडुलिपियों के संग्रहण और ताम्रपत्रों की खोज में लगाया। पुराणा दरबार पुस्तकालय के संरक्षण व संवर्द्धन में आजीवन लगे रहे, संत चन्ददास, संत लक्षदास, संत मीता साहिब, टीकाराम और गिरधारी दुबे आदि गुमनाम विद्वानों के साहित्य की खोज में लगे रहे।
    

ठाकुर शूरवीर सिंह पंवार पर निन्दक कट्टरता के आरोप लगाते रहे पर ठाकुर साहब नौटियाल, डंगवालों को अपना गुरु मानते थे और गुरू किसी भी उम्र का ही क्यों न रहा हो उसके सामने नतमस्तक होकर ही प्रणाम करते थे। पीपल-बरगद पेड़ या लोक देवता के रूप में स्थापित पत्थर की वह परिक्रमा करना कभी न भूलते। कोई स्थानीय हो या बाहर से आया हुआ यदि उन्हें मालूम हो जाता कि जिससे वह बात कर रहे हैं गढ़वाली है तो फिर उससे वह गढ़वाली में ही बात करते। सामने वाले को तब गढ़वाली में ही बात करनी पड़ती थी। गढ़वाली भाषा के प्रति इतनी चाहत, इतना लगाव व समर्पण शायद ही कहीं हो। 
ठाकुर साहब के बारे में विभिन्न विद्वानों के मत इस प्रकार हैं; ठकुरानी ठा0 शूरवीर सिंह ए0 के0 पंवार- ‘ठाकुर साहब को तरह-तरह के व्यंजन खाने और मित्रों को खिलाने का शौक रहा है।........ रामपुर में सेवाकाल के दौरान वहाँ के नवाब साहब से पारिवारिक सम्बन्ध जैसे बन गए थे, जिससे उनकी बहन नन्हीं बेगम ठाकुर साहब को राखी बान्धती थी। वहाँ से निकलने के बाद भी वह राखी पर आया करती थी और यह क्रम कई वर्षों तक चलता रहा।
कर्नल युद्धवीर सिंह पंवार- ‘....हमारे पिता राजकुंवर विचित्रशाह की भांति कैप्टन शूरवीर सिंह पंवार जी साहित्य प्रेमी व विद्या व्यसनी रहे। उन्हे देर रात तक पुस्तकें पढ़ने-लिखने की आदत थी और यह आदत उनकी अन्तिम समय तक बनी रही।.....’
डॉक्टर महावीर प्रसाद गैरोला- ‘फतेह प्रकाश’ एवं ‘अलंकार प्रकाश’ का सम्पादन एवं प्रकाशन करके भी कैप्टन साहब ने ख्याति अर्जित कर ली थी। ‘गढ़वाली एवं गढ़वाल के प्रमुख अभिलेख एवं शिलालेख’ को भी कैप्टन साहब ने पुस्तक रूप में प्रकाशित किया था।.... मेरेे अथक प्रयास के बाद भी गढ़वाल तथा कुमाऊं विश्वविद्यालय ने उन्हें डॉक्टरेट की मानद उपाधि से सम्मानित नहीं नहीं किया।......’
डॉक्टर गोविन्द चातक- ‘...वह एक लेखक ही नहीं एक सजग पाठक भी थे। ‘जीतू की गाथा’ को जब मैंने अपनी लोककथाओं की पुस्तक में शामिल किया तो ए.डी.एम. के रूप के अलीगढ़ में तैनाती के दौरान उनकी टिप्पणी मिली। भौतिक रूप से उनसे मिलने का सिलसिला तदोपरान्त ही प्रारम्भ हुआ। पुराणा दरबार की टूटी-फूटी विशाल इमारत में अकेले रहने वाला व्यक्ति, जो यहाँ धूल-गर्द से भरी चारों तरफ बिखरी किताबों व पांडुलिपियों के बीच स्वयं अतीत या अतीतातीत बनकर बैठा है। उन्हें देखकर कभी लगता जैसे कोई योगी भैरवी की साधना में जुटा हो। वैसे ही उजाड़ पुराना दरबार का झांकता अतीत, वैसे ही जीवन की सांझ, किताबें पांडुलिपियां और नीचे टिहरी का उजड़ता हुआ शहर।......’
मोहनलाल बाबुलकर- ‘....ठाकुर साहब ‘शोध का पितामह’ है। ...गढ़वाल के इतिहास के बारे में इस समय जो भी ज्ञातव्य है वह उनकी साधना का ही परिणाम है। वह गढ़वाल के इतिहास के सबसे बड़े अन्वेषक और जानकार जाने जाते रहे हैं। उनकी अपनी एक मौलिक दृष्टि थी, एक नया दृष्टिकोण था।....’
सत्य प्रसाद रतूड़ी- ‘....ठाकुर साहब को अपने संग्रहित पुस्तकों से अथाह प्रेम था वह पुस्तकांे को अलमारी में नहीं बक्सों में छुपाकर रखते थे। अपने विशाल अनन्य पुस्तकालय को आग से बचाए रखने के लिए पूरे भवन पर बिजली फिटिंग नहीं करवाई और ना पुस्तकालय भवन के लिए कोई कनेक्शन ही था।......’
मोहनलाल नेगी- ‘....ठाकुर साहब अपने पुस्तकालय की ओर देखने तक नहीं देते थे और किसी का पुस्तकालय में जाने का प्रश्न ही नहीं था। पुस्तकों के प्रति उन्हें अथाह प्रेम था जिससे वह बड़े शंकालु प्रकृति के हो गये थे। उन्हें शक रहता था कि लोगों की नजर उनकी किताबों पर है।.... ठाकुर साहब राजपूतों के बड़े हिमायती माने जाते रहे हैं। उनका तर्क था राजपूत क्योंकि बुद्धि और विद्या में ब्राह्मणों से पीछे थे इसलिए वे जोर-शोर से राजपूतों के उत्थान की बात करते थे।....’
डॉक्टर कुसुम डोभाल- ‘...प्राचीन टिहरी गढ़वाल की परंपरा के संदर्भ में कैप्टन शूरवीर सिंह पंवार के लेख पढ़ने को मिले। इन लेखों में इतिहास साहित्य एवं पुरातत्व का समावेश पाकर लगा कि सत्य, शिव एवं सुन्दरता मानो एक साथ ही प्रतिष्ठित हो गए हैं। उनके लेख अपनी व्यापकता में शोध एवं वोध की सम्भावना को आबद्ध किए हुए हैं। उनके साहित्यिक जीवन के उन्मेष का श्रेय उनकी दादी स्वर्गीय राजमाता महारानी गुलेरिया एवं उनकी माता को है।..... कैप्टन साहब का गढ़वाल की संस्कृति एवं भाषा के प्रति रागात्मक सम्बन्ध है। इसका प्रमाण उनकी महत्वपूर्ण पुस्तक ‘गढ़वाली के प्रमुख अभिलेख एवं दस्तावेज’ है। इस पुस्तक की भूमिका में गढ़वाली भाषा को वैदिक भाषा की ज्येष्ठ पुत्री कहा गया है।....(‘हिमालय के बहुआयामी व्यंितव का कृतित्व)
    

ठाकुर साहब के शोध कार्यों का यदि विधिवत अध्ययन किया जाय तो यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि उपरोक्त विद्वानों के वक्तव्यों से तो ठाकुर शूरवीर सिंह पंवार जी के व्यक्तित्व व कृतित्व की एक झलक मात्र ही परिलक्षित होती है। उनके लेख ‘केदारखण्ड गढ़वाल में नागवंश’, ‘वाल्हीक जनपद कहाँ था’ ‘उत्तराखंड के इतिहास में मौखरी काल’ ‘आदिमानव की जन्मभूमि उत्तराखण्ड’ ‘शिवाजी का प्रभाव उत्तराखण्ड तक था’ आदि अनेक महत्वपूर्ण लेख उनकी इतिहास एवं ऐतिहासिक खोजों के प्रति प्रतिबद्धता व्यक्त करती है। वहीं ‘मेहरौली (दिल्ली) के लौह स्तंभ का ऐतिहासिक महत्व’ ‘उत्तरकाशी के शक्ति स्तम्भ का अभिलेख’ आदि लेख उनकी पुरातत्विक जिज्ञासा की अभिव्यक्ति है। फतेह प्रकाश, अलंकार प्रकाश व गढ़वाली एवं गढ़वाल के प्रमुख अभिलेख एवं शिलालेख आदि उनके प्रकाशित ग्रंथ हैं। उनके संग्रहालय में उपलब्ध हस्तलिखित ग्रंथों की सूची, जो कि ठाकुर साहब द्वारा स्वयं प्रेषित की गई थी, इस प्रकार है;
1.    ‘वास्तु शिरोमणि’- संस्कृत ग्रंथ, शंकर गुरु कृत श्रीनगर गढ़वाल में। (सत्रहवीं शती पूर्वार्ध की रचना)
2.    ‘गढ़वाल राज वंशावली’ संस्कृत ग्रंथ, कवि देवराज कृत टिहरी गढ़वाल की उन्नीसवीं शती की रचना। (छोटे आकार का ग्रंथ)
3.    ‘श्री दत्तात्रेय तंत्र’ संस्कृत ग्रंथ, हिंदी भाषानुवाद सहित।
4.    ‘वृत कौमिदी ग्रन्थ’(छन्द सार पिंगल)- हिंदी भाषा, कवि मतिराम त्रिपाठी कृत संवत् 1758 वि0 की रचना।
5.    ‘रसरंग’ हिंदी भाषा, कवि टीकाराम त्रिपाठी कृत संवत् 1841 वि0 की उत्कृष्ट रचना।
6.    ‘सुदामा चरित्र’ हिंदी भाषा, कवि गिरधारी, सातनपुर-रायबरेली, बांसवाड़ा निवासी कृत। संवत् 1905 वि0 की रचना।
7.    ‘भागवत दशम स्कन्द’ कृष्णलीला- हिंदी भाषा, कवि गिरधारी कृत संवत् 1894 वि0 की उत्कृष्ट रचना।
8.    ‘रसमसाल’ हिंदी भाषा, कवि गिरधारी कृत संवत् 1950 वि0।
9.    ‘कृष्ण चरित्र’(12 सर्ग) कविवर चिंतामणि त्रिपाठी कृत हिंदी ग्रंथ।

10.    चन्ददास कृत ‘चन्द काव्य कौमुदी’ (विशाल आकार) हिंदी भाषा, अठाहरवीं शती की रचना।
11.    ‘अमृतराव प्रकाश’ हिन्दी भाषा में ऐतिहासिक महत्व का ग्रंथ, कवि ईश्वरी प्रसाद संवत् 1874 वि0।
12.    ‘विद्वन्मोद तरंगिणी’ हिंदी भाषा में अनेक श्रेष्ठ कवियों की उत्कृष्ट रचनाओं का विशाल संग्रह, जो राजा सुव्वा  सिंह एवं सुवंस शुक्ल द्वारा संग्रहित किया गया। इसी ग्रंथ से हिंदी भाषा के प्रसिद्ध इतिहासकार शिवसिंह सेंगर ने ‘शिवसिंह-सरोज’ ग्रंथ लिखने में विशेष सहायता ली थी।
13.    मेरे संग्रह में अठाहरवीं एवं उन्नीसवीं शती के अन्य श्रेष्ठ साहित्यकारों कवि मून, उदयनाथ, नेवाज, मीता साहब, भवानी प्रसाद द्विजराज, राव भूपाल सिंह, नन्द कुमार दत्त, समनेश, देव, भूधर आदि की रचनाओं के उत्कृष्ट संग्रह है।
14.    ‘सभासार’ हिंदी भाषा में, महाराजा सुदर्शन शाह, टिहरी गढ़वाल नरेश कृत सन् 1828 ई0 की रचना।
15.    ‘गढ़वाल का पुरातत्व’ फोटो चित्रों सहित- हिंदी भाषा में, कैप्टन शूरवीर सिंह पंवार कृत।
      

 विडम्बना ही है कि जहाँ सौ से अधिक विद्वानों ने उनके मार्गदर्शन में उनके द्वारा संग्रहित ग्रन्थों, शोधपत्रों, पाण्डुलिपियों और ताम्रपत्रों को आधार बनाकर एम. फिल. और पी. एच. डी. की उपाधियां प्राप्त कर देश के प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों के विशेषज्ञों के रूप में ख्याति अर्जित की उन्हीं ठाकुर साहब को किसी भी विश्वविद्यालय द्वारा डॉक्टरेट की उपाधि से सम्मानित तक नहीं किया गया। उनके शोध व उनके लेखों का समग्र मूल्यांकन आज तक भी नहीं हो पाया है।

Friday, May 01, 2020

जन जन के ईष्ट देवता मदननेगी

(मदननेगी मेले पर विशेष)

चन्द्रभाट चाँदनी का नाती बघेरा बाघनी का नाती
सोन का कलश लोहा का दरवाजा
पापा पुमराज का नाती गज गंभीर का नाती
पाट को पटुड़ी नीती भोज का राजा
गंगा को बग्यूं राजौं लगे दोष
पैलु थौळू देला राज का रौतेला
तब थौळू देला धारकोटा नेगी..............।
इन्हीं शब्दों के साथ नेल्डा (धारमंडल) के आवजी एलमदास मदननेगी लोकदेवता का द्यौ सिंगार (महिमा मण्डन/आह्वाहन) करते थे।

देवभूमि उत्तराखंड में प्रायः प्रत्येक धार प्रत्येक खाल में एक लोक देवता है। आस्था इतनी कि कहीं पर मन्दिर और कहीं प्रतीक रूप में पत्थरों का ढेर और उस पर झण्डा गड़ा हुआ। लोकदेवता की प्रसिद्धि समय के अन्तराल व भक्तों की संख्या पर निर्भर करती है। श्री मदननेगी का मन्दिर उन्हीं के नाम से चल रहे मदननेगी कस्बे में स्थापित है।

 टिहरी-प्रतापनगर पैदल मार्ग पर टिहरी शहर से छः मील दूरी पर भिलंगना की उपत्यका में बसा हुआ है मदननेगी।(टिहरी शहर जो अब विशाल झील में जलमग्न हो गया है) उत्तर में सात हजार फीट से अधिक ऊंचाई वाला खैट-पीढ़ी-प्रतापनगर पर्वत पूरब पश्चिम फैला हुआ है और उसी के लम्बवत छोटी पहाड़ी के मध्य स्थित है मदननेगी। (गढवाली लोकगीतों व जागरों में खैट को आछरियों का निवास माना जाता है तो पीढ़ी को भराड़ियों का) इस पहाड़ी के बिल्कुल समानान्तर पूरब में एक गाड(पहाड़ी नदी) है। लगभग दस कि0मी0 लम्बाई वाली यह गाड भिलंगना नदी में समाहित होने से पूर्व पूरे दस गांवों को धन-धान्य से पूर्ण करता है।


मदननेगी का कहीं लिखित इतिहास नहीं मिलता परन्तु लोकधारणा है कि मदननेगी जीतू बगड़वाल के मामा थे।(यह अलग बात है कि कहीं जीतू बगड़वाल को ही मदननेगी का मामा माना जाता है) जीतू अपने मामा मदननेगी के साथ बैलों की जोड़ी खरीदने माळ (बैलों की मण्डी) गये और वापसी में दुर्भाग्यवश दोबाटा पडियारगावं व रामपुर गांव के बीच की भागीरथी नदी पार करते हुये पांव फिसला और वहीं जलसमाधि ले ली। तब वे मात्र 30 वर्ष के एक अविवाहित युवक थे। कहीं यह गाथा भी प्रचलित है कि धुनारों ने कह दिया था हम आप लोगों को नदी पार करा देते हैं पर शुल्क देना पड़ेगा। तो मदन नेगी ने मना कर दिया कि हम स्वयं ही पार कर लेंगे, पर होनी को कुछ और ही मंजूर था। कहा जाता है कि धुनार पेशेवर तैराक होते थे और वे किसी व्यक्ति या सामान को नदी पार कराने के एवज में शुल्क लेते थे। यही उनका आजीविका का साधन था। (मदन नेगी के बहने की तिथि संभवतः बैशाख महीने की बीस गते रही होगी क्योंकि मदननेगी का मेला प्रतिवर्ष उनकी याद में इस तिथि को ही लगता है)

गढ़वाली लोक गाथाओं के युगपुरुष जीतू मूलतः भागीरथी नदी के बायें तट पर स्थित बगूड़ी गांव के निवासी थे। जीतू गढ़वाल राजा मानशाह के सामन्त थे, जिनका शासनकाल सन् 1547-1608 ई0 रहा। लोकगाथाओं व लोकगीतों में जीतू का वर्णन है कि खैट की आछरियों (अपसराओं) द्वारा जीतू का अपहरण छः गते आषाढ़ को
किया गया जब वे अपने खेतों को रोपाई के लिये तैयार कर रहे थे। खेत के मध्य ही धरती फटी और जीतू बैलों सहित धरती की गोद में समा गया। यह विडम्बना ही कही जायेगी कि मामा मदननेगी व भांजे जीतू की मृत्यु जल में डूबकर ही हुयी।

कुछ लोग श्री मदननेगी का पैतृक गांव धारमण्डल के पटूड़ी मानते हैं किन्तु सान्दणा के स्व. जितार सिंह रावत जोर देकर कहते थे कि मदननेगी मूलतः सान्दणा के निवासी थे, उनकी अगली पीढ़ी पटूड़ी बस गयी और फिर कालान्तर में उनके वंशज धारकोट और कफलोग चले गये। बहरहाल, सान्दणा व धारकोट गांव के पुराने संबन्ध आज भी है। वर्षों से पुरोहिताई कार्य कर रहे जलवाल गांव के स्व. भोलादत्त जुयाल का कहते थे कि पहले सान्दणा गांव के निवासियों द्वारा मदननेगी में त्रिशाली (प्रत्येक तीसरे वर्ष) जात्रा दी जाती थी। सान्दणा, खोला व जलवाल गांव के बाशिन्दे कोई भी शुभकार्य प्रारम्भ करने से पूर्व आज भी मदननेगी के नाम रोट-भेंट अवश्य करते हैं। लेकिन वास्तविकता यह भी है कि मदननेगी धारमण्डल पट्टी के बीस-पच्चीस गांवों में ही नहीं टिहरी नगर वासियों, रैका, अठूर, सारज्यूला व खासपट्टी के अनेक गांवों में श्रृद्धा भाव से पूजे जाते हैं। श्री मदननेगी मेले में प्रतिवर्ष अपार भीड़ का उमड़ना भी इसकी पुष्टि करता है।

मंदिर की स्थापना के विषय में लोगों का मानना यह है कि अकाल मृत्यु के पश्चात् मदननेगी ने गढ़वाल के राजा  को सपने में दर्शन दिये और कहा कि ’’मेरा स्मारक ऐसे स्थान पर बनाया जाय जहां से मैं अपना गांव और पतित पावनी मां भागीरथी के दर्शन कर सकूँ।’(भागीरथी व भिलंगना के तट पर टिहरी तो सन् 1815 के बाद बसना शुरु हुआ) महाराजा द्वारा मन्दिर निर्माण के आदेश दे दिये गये। गढ़वाल के महाराजा पर मदननेगी के प्रभाव से सन्देह होता है कि संभवतः मदननेगी राजदरबार में किसी महत्वपूर्ण पद पर आसीन रहे हों। परन्तु लोकगाथाओं
में जीतू के समान  मदननेगी को स्थान नहीं मिला है। मदननेगी लोकदेवता के रुप में स्थापित हो चुके थे, जन आस्था को देखते हुये और मदननेगी के आकर्षण के कारण उन्होंने मन्दिर बनवाने व प्रतिवर्ष मेले की व्यवस्था के लिये राजकोष से धन मुहैया कराना स्वीकार किया होगा। तब मेला 20 से 25 गते बैशाख तक चलता था। धीरे धीरे राजदरबार की ओर से मेले के लिए सहायता मिलनी बन्द हुयी तो मेला बन्द हो गया।

महाराजा कीर्तिशाह (शासनकाल सन् 1886-1913)द्वारा रैका की कोलगढ़ व बनाली गावं की भूमि पर अपने पिता महाराजा प्रतापशाह की याद में जब प्रतापनगर बसाया गया तो मदननेगी का महत्व और भी बढ गया। लगभग 2000 मीटर ऊँचाई पर स्थित होने के कारण प्रतापनगर को रियासत की ग्रीष्मकालीन राजधानी के रुप में विकसित किया गया। साथ ही टिहरी से प्रतापनगर तक लगभग बारह मील लम्बा और दस-बारह फिट चौड़ा सम्पर्क मार्ग भी बना। प्रत्येक वर्ष मई माह में राजा व राजपरिवार, मंत्रीगण तथा मुख्य कारिन्दों सहित प्रतापनगर चले जाते थे। बड़े बुजुर्ग बताते हैं कि राजा, राजपरिवार के सदस्य व दासियों को भी पालकियों पर ढोया जाता था। जिसके लिये तब बेगार प्रथा प्रचलन में थी। यह हो सकता है कि टिहरी के बाद पहला पड़ाव पांच मील दूरी पर मदननेगी में पड़ता होगा, सभी लोग यहां पर कुछ देर सुस्ताकर टिहरी का विहगंम दृश्य देखकर ही आगे बढते होंगे।

Monday, April 13, 2020

कहानी - 'द क्वारनटाईन डेज'

              कशरी को सूचना मिली कि उसका बेटा किड़ू शहर में महामारी की चपेट में आ गया। सूचना गांव के लड़के भगत ने ही भेजी थी। कशरी ने किड़ू से बात करने के लिए बड़े बेटे हरि को कहा। हरि ने फोन मिलाया तो किड़ू का मोबाइल बंद पड़ा था। हरि ने फिर भगत को फोन मिलाना चाहा तो उसका मोबाइल भी अब बन्द मिला। शायद फोन चार्ज नहीं कर पाया होगा, उसने सोचा। कई बार फोन लगाया तो स्विच ऑफ। कहीं ऐसा तो नहीं कि भगत ने सवाल-जवाब से बचने के लिए ही मोबाइल ऑफ कर दिया हो। ऐसी आशंका होनी भी लाजिमी थी, क्योंकि इस वैश्विक महामारी के दौर में हर कोई अपने को ही बचाने में लगा था।
             किड़ू को शहर गए हुए अभी साल भर ही हुआ था, उस शहर में भगत ही उसका सहारा था। हालांकि वह उनकी बिरादरी का नहीं था परन्तु परदेश में तो लोग ढूंढते हैं कि कोई अपना हो। फिर भगत तो गांव का ही था। भगत कई सालों से वहाँ पर था और उसके बच्चे भी साथ थे। किड़ू ने फोन पर बताया था कि होटल की नौकरी से फुर्सत कम ही मिलती है, रात ग्यारह-साढ़े ग्यारह बजे तक काम निबटा पाते हैं और फिर बिस्तर में जाने तक रात के बारह बज ही जाते हैं। फिर भी वह भगत भाई के यहां दो बार हो आया है।
             किड़ू बीच-बीच में भाई और माँ से फोन पर बात कर लेता था। एक दिन फोन पर रुआंसा होकर कह रहा था माँ, गांव में तो हम लोग अन्धेरा होने तक खाना पका लेते हैं और फिर जल्दी खा भी लेते हैं। परन्तु इस नामुराद शहर में लोग रात दस-ग्यारह बजे तक सड़कों पर घूमते रहते हैं। देर में सोते हैं तो सुबह देर से उठते हैं। हमारी दिनचर्या भी वही हो गयी है। उठने के साथ ही हमारा काम शुरू हो जाता है। दोपहर भोजन के बाद तीन घंटे की छुट्टी मिलती है, बस।
               भगत ने ही एक दिन फोन पर सूचना दी कि 'महामारी में संक्रमण से बचने के लिए लॉकडॉउन किया गया है जिसके चलते शहर के सभी होटल बन्द हो चुके हैं। किड़ू जिस होटल में काम करता है वह भी बन्द हो गया है। होटल का मालिक जो स्वयं मैनेजर भी है, माली, धोबी, स्वीपर व नौकरों का हिसाब करके और ताला लगाकर चला गया है। होटल कर्मचारी जिनके घर आसपास थे वे भी किसी प्रकार चले गए हैं। परन्तु किड़ू के साथ उसके दो साथी हैं जो नहीं जा पाए। होटल के सबसे नीचे की कोठरी में उनके रहने खाने की व्यवस्था तो है पर किड़ू गांव लौटने के लिए बेचैन है।' सुनकर माँ कशरी मायूस हो गई। कहने लगी, हमारी भगवती किड़ू को जरूर घर लाएगी।
                 चार दिन बाद भगत का फिर फोन आया कि ‘किड़ू संक्रामक बीमारी की चपेट में आ गया है। उसके दोस्तों ने ही बताया कि उसे होटल के ही पुराने गैराज में रखा गया है। दोस्त बांस की लंबी सीढ़ी के छोर पर सुबह शाम खाने का पैकेट और पानी की बोतल बांधकर सीढ़ी उसकी ओर खिसका देते हैं और किड़ू खाकर वहीं पड़ा रहता है। उसके पास कोई नहीं जा रहा है क्योंकि यह बीमारी ही ऐसी है। उसके साथियों ने एक भले आदमी के माध्यम से सरकार को सूचना भिजवा दी है, सरकारी लोग आते ही होंगे और उसे अस्पताल ले जाएंगे।’ उसके बाद भगत से भी बात नहीं हो पाई।
                   कशरी ने अपने बेटे हरि ही नहीं भतीजे और गांव के कई लोगों से विनती की, हाथ जोड़े कि कोई तो उसके बेटे किड़ू की खोज-खबर करे, उसकी जिन्दगी बचाए। परन्तु लॉक डाउन के चलते सबने हाथ खड़े कर दिए थे तो कशरी आवेश में आ गयी और गुस्से में बोली; ‘हरि, मैं जानती हूँ कि तेरे मन में क्या है, किड़ू की जैदाद(जायदाद) पर तेरी नजर है। जा ला कागज और बुला पंचों को मैं अंगूठा लगा लेती हूँ। यदि तू नहीं जाता  तो मैं ही शहर चली जाती हूँ और अपने किड़ू को घर ले आऊंगी। देखती हूँ कैसे रोकेगी सरकार एक माँ को उसके बेटे से मिलने से।’ इतना कहकर वह फूट-फूटकर रो पड़ी। हरि माँ की पीड़ा समझ रहा था पर यह भी जान रहा था कि इस लॉक डाउन में कोई कैसे कहीं जा सकता है। सभी विवश हैं। पूरा जिला, पूरा राज्य क्या, पूरा देश ही नहीं बल्कि पूरा संसार ही।
                    दो हफ्ते से अधिक समय गुजर गया था परन्तु लॉक डाउन अभी भी जारी था। किड़ू की कहीं से भी कोई सूचना नहीं मिली, गांव में सबकी जुबान पर यही चर्चा थी। सूचना प्रसार के प्रचुर साधन होने के कारण सभी लोग इस बीमारी की भयावहता से भली-भांति परिचित हो चुके थे। किड़ू के बहाने लोग अपनों को भी याद करने लगे जो दूसरे शहरों में रह रहे थे। एक दिन गांव के बहुत से लोग मन्दिर प्रांगण में इकट्ठा हुए और महामारी तथा गांव से बाहर रहने वाले लोगों के बारे में चर्चा करने लगे। बचनू दा, जिनके बेटे-बेटियां संयोग से परदेश में नहीं थे, गांव व आसपास के कस्बों में ही रहकर गुजारा कर लेते थे, ने कहा कि ‘ऐसी स्थिति में शहर गए हुए अपने लोगों को गांव नहीं लौटना चाहिए। जैसे भी है हम लोग रूखा-सुखा खाकर, अभाव में रहकर गांव में सुख चैन से तो हैं। अब शहर गये लोग गांव लौटेंगे तो क्या भरोसा कि वह खतरनाक बीमारी भी साथ लेकर न आये। वे वहीं पर रहे। ईश्वर करे वे राजी-खुशी से रहें और खुदा न खास्ता कुछ बात हो भी जाती है तो शहरों में अस्पतााल वगैरा तो हैं ही। कम से कम हमारे पुरखों द्वारा बसाया यह यह गांव तो बचा रहेगा।’ गांव के तीन-चार बदनाम लड़कांे ने अति उत्साह दिखाते हुये बचनू दा की बात का समर्थन करते हुये आगे जोड़ दिया कि ‘शहरों से गांव लौट रहे लोगों को वे आने नहीं देंगे। वे संकल्प लेते हैं कि नीचे सड़क से जैसे ही कोई भी गांव की चढ़ाई चढ़ना शुरू करेगा हम लोग ऊपर से पथराव कर देंगे। चाहे अपना भाई ही क्यों न हो। (यह अलग बात थी कि उनमें से किसी का भी कोई भाई-बहन परदेश में नहीं था) हमें तो जिन्दा रहना है भाई। ऐसा थोड़ी होता है कि जब तुम शहरों में पैंसे कमा रहे थे, मजे उड़ा रहे थे तब तुमने हमें मरने के लिए गांव में छोड़ दिया, कभी पलटकर भी नहीं देखा और अब संकट आया है तो गांव याद आने लगा। सामान्य बात होती तो ठीक था पर इस संक्रमण के दौर में? नहीं, नहीं। अरे भाई, तुम लोग तो सारे सुख भोग चुके हो, मर भी जाओगे तो क्या फर्क पड़ता है। परन्तु हमें तो कम से कम लम्बी उमर जीने का सुख भोगने दो।’
                        बदनाम युवकों की बात सुनकर गांव के आठ-दस मर्द औरतें निकलकर आगे आए और उनके सुर में सुर मिलाने लगे, जबकि भले लोग बैठक छोड़कर चले गए। बेटे किड़ू के गम में डूबी कशरी के कानों में यह बात पड़ी तो वह गाली देने लगी। ‘तुम्हारे बाप-दादाओं का ही तो है यह गांव, जो तुम बाहर से आने वालों पर पथराव करोगे। तुमने ही तो इन खेतों, धारे-मंगरों के पुश्तांे की चिनाई की है सालों? खुद किसी काबिल नहीं हुए और परदेश जाकर कमाने वालों से ईर्ष्या करते हो।’ थोड़ी देर गहरी-गहरी सांसे लेने के बाद माथे पर दुहत्थी मारकर कशरी विलाप करने लगी ‘अरे, तुम ही अगर बाहर चले जाते तो हमारे खेतों से काखड़ी, मुंगरी, लौकी, कद्द,ू मटर, टमाटर कौन चुराता। गरीबों के छौने ही नहीं आये दिन पूरे के पूरे बकरे गायब कैसे हो जाते। गांव की बहू-बेटियों पर बुरी नजर कौन डालता। डूब मरो स्सालों....।’
                     कुछ दिनों बाद की बात है। अन्धेरा अभी ज्यादा नहीं हुआ था कि एक रोज एक साया गांव के नीचे सड़क पर रेंगता हुआ दिखाई दिया, जो शहर से आने वाली पगडण्डी से चलकर आया था और थोड़ी देर के लिए सड़क पर रुक गया था। शायद मंजिल पर पहुंचने की भावना से खड़े-खड़े सुस्ता रहा था। धीरे-धीरे वह गांव की पगडण्डी पर चढ़ने लगा। वह नशे में था या फिर बहुत थका हुआ, उसके पैर लड़खड़ा रहे थे।
                       संयोग कहें या दुर्योग कि बदनाम और उग्रवादी विचार रखने वाले उन चार लड़कों की नजर उस साये पर पड़ी तो उन्हें वह महामारी का साक्षात दूत दिखाई दिया। वे चारों एक साथ चिल्लाए ; ‘अरे, आ गया रे शहर से बीमारी की पुड़िया। भगाओ इसे।’’ वह कुछ कदम ही चढ़ पाया था कि लड़कों ने उस पर पत्थर बरसाने शुरू कर दिये। वह गिड़गिड़ाया,‘रुको, पागल हो गए हो क्या? अरे, मैं इसी गांव का हूँ भाई, किड़ू। इसी गांव का खाद-पानी मेरी रगों में भी है। पाँच दिन से लगातार भूखा-प्यासा चलकर आज अपनी धरती पर पहुँचा तो तुम लोग मुझे भगा रहे हो। मेरी पीड़ा तुम क्या जानो नामुरादों? जंगली जानवरों की परवाह किये बिना मैं रात में चलता था और दिन में पुलिस की डर से झाड़ियों में छिपा रहता। लॉक डाउन के चलते कहीं एक बिस्कुट का पैकेट तक नहीं मिला। नदी नालों के पानी से प्यास बुझाता रहा। सोचा माँ, भाई-भाभी के दर्शन करूंगा और गांव के अपने बड़े-छोटों के बीच कुछ दिन रहूंगा। परन्तु तुम लोग तो रिश्ते ही भूल गए हो। इंसानियत ही भूल गए। जाने किस आदिम युग में जी रहे हो। मेरे भाई, मेरा कसूर तो बताओ।’ परन्तु कुत्तों को जैसे कमजोर पशु का शिकार करने में आनन्द मिलता है ठीक उसी प्रकार बिना कुछ कहे-सुने वे पत्थर बरसाते रहे। इस अप्रत्याशित हमले से किड़ू लहूलुहान हो गया, कपड़े खून से लथपथ हो गये थे और अब अधिक देर तक खड़े रहने की ताकत उसके अन्दर नहीं बची थी। चुपचाप वापस मुड़ा और थोड़ी दूर जाकर झाड़ियों में कटे पेड़ सा गिर पड़ा। 
                    होश आया तो देखा रात आधी से अधिक बीत चुकी थी। किड़ू ने उठने की कोशिश की तो उठ नहीं पाया। शरीर असमर्थ हो गया था पर मन में अनेक खयाल आते रहे। सोचता किसी ऊंची चट्टान से कूदकर आत्महत्या कर लेता हूँ। फिर सोचा जब इतनी दूर से आ गया हूँ तो माँ से तो मिलना जरूरी है।
                   पूरा गांव सुनसान था, किड़ू कुहनियों और घुटनों के बल रेंगता हुआ एक मील की चढ़ाई चढ़कर अपने घर के आंगन तक पहुंच गया। चारों ओर घनघोर अन्धेरा था। सभी दरवाजे खिड़कियां बन्द थी। भूख, थकान और चोटों से उसकी आवाज भर्रा गयी थी। उसने दरवाजे पर पहुंचकर माँ को पुकारा, तो भीतर माँ कशरी बेचैन हो उठी। उसने हरि से कहा, ‘देख, किड़ू की आवाज सी सुनी मैंने।’ परन्तु माँ को हरि ने यह कहकर रोक दिया कि ‘माँ तुम्हारा भ्रम है। जब लॉक डाउन में चिड़िया तक नहीं उड़ रही है तो सौ मील दूर से बीमार किड़ू कैसे आ सकता है। लॉक डाउन जैसे ही खुलेगा मैं खुद ही चला जाऊंगा उसे लेने।’ जबकि सच्चाई यह थी कि हरि ने रात में ही उड़ते-उड़ते सुन लिया था कि किड़ू गांव पहुँच चुका है और हरि तब से ही भयभीत था, वह किसी भी कीमत पर नहीं चाहता था कि किड़़ू के कारण वह अपना परिवार खो बैठे। यह बीमारी है ही ऐसी। देर तक किड़ू पुकारता रहा पर किसी ने नहीं सुना। कुदरत को कुछ और ही जो मंजूर था।
    सुबह हरि ने दरवाजा खोला तो देखा कि किड़ू हाथों में एक छोटा सा बैग पकड़े हुए आंगन में औंधा लेटा हुआ था। हरि ने दरवाजे पर ही खड़े होकर गौर से देखा तो किड़ू की सांसे नहीं चल रही थी तो उसकी रुलाई फूट पड़ी। सुनकर माँ भी दरवाजे पर आ गयी और बाहर का नजारा देखकर वह दहाड़ मारकर किड़ू की ओर लपकने लगी। पर हरि ने अपने मजबूत हाथों से माँ को दरवाजे पर ही रोक दिया। अब हरि व उसकी पत्नी असमंजस में थे कि किड़ू के पास कौन जाएगा। संयोग से ठीक उसी समय वहाँ पर गांव के बुजुर्ग मकान सिंह आ धमके, वे शायद गांव में किसी को मिलने जा रहे थे। उन्होंने कुछ देर जमीन पर पड़े किड़ू को देखा, सामने माँ को जबरन द्वार पर रोके हरि की ओर देखा तो माजरा समझ गया।
    मकान सिंह ने दुनिया देखी थी और कई नामी सन्तों के सम्पर्क में आश्रमों में रह चुका था। मकान सिंह ने ‘मृत्यु तो निश्चित् है और दिन भी पहले से ही तय है तो फिर मौत से क्या घबराना’ कहते-कहते किड़ू को पलटकर सीधा किया तो देखा उसके प्राण पखेरू उड़ चुके थे। दुखी होकर उन्होंने उसका बैग टटोला, बैग में एक जोड़ी कपड़े थे, पचास-साठ हजार की नकदी थी- जो किड़ू ने पाई-पाई कर जोड़ी होगी और बैग में सरकारी अस्पताल द्वारा जारी एक प्रमाणपत्र भी था, जिसमें ‘‘पन्द्रह दिन तक क्वारनटाईन में रखकर किशोर सिंह (अर्थात किड़ू) की जांच निरन्तर की गई परन्तु जांच में कुछ नहीं पाया गया। अतः उन्हें अस्पताल से मुक्त कर दिया गया है।’’ स्पष्ठ लिखा हुआ था। मकान सिंह ने हरि को धिक्कारते हुये वह प्रमाणपत्र और बैग उसकी ओर फेंका और स्वयं आगे बढ़ गया।
    हरि की पकड़ कुछ ढीली हुयी तो कशरी दौड़ते हुये दहाड़ मारकर बेटे किड़ू के शरीर के ऊपर गिर पड़ी। हरि ने सुबकते हुये नगदी वाला बैग पास खड़ी पत्नी को पकड़ाया और माँ को किड़ू के मृत शरीर से अलग करने लगा। परन्तु माँ तो किड़ू के साथ ही परलोक सिधार चुकी थी।
    श्मसान घाट पर दो चितायें सजायी गयी और दोनो शव चिता पर रखे गये तो गांव के लोग एक-दूसरे से पूछने लगे यार, कशरी तो बेटे के गम में मरी, साफ है। पर, किड़ू इतनी बड़ी जंग जीतने के बाद घर पहुँच गया था। तो फिर उसकी मौत थकान के कारण हुयी या भूख के कारण या गांव के लड़कों द्वारा लहूलुहान करने से या फिर बार-बार पुकारने पर भी भाई और माँ द्वारा दरवाजा न खोलने के सदमें से?

Tuesday, November 19, 2019

जी.टी.एस.(Great Trigonometrical Survey) बंेच मार्क

            हैदराबाद में ‘‘सर्र्वेइंग इंस्टीट्यूट’’ में प्रशिक्षण के दौरान एक दिन हॉस्टल में बैठे थे, जी.टी.एस.(Great Trigonometrical Survey) पर चर्चा हुयी तो एक मित्र ने बताया कि ‘उच्च हिमालय में एक क्षेत्र विशेष के सर्वेक्षण के लिए एक बार हम पर्मानेण्ट बेंच मार्क ढूंढ रहे थे। मैप हमारे हाथ मे था और गणना की तो देखा कि जहाँ पर जी.टी.एस. बंेच मार्क था उसके ऊपर तो एक स्थाई पुलिस चेक पोस्ट स्थापित हो चुकी है। चौकी प्रभारी को यह बात बतायी गयी तो वह आपे से बाहर हो गया कि ‘यह नहीं हो सकता, हमारी पोस्ट कई सालों से यहाँ पर है, आप कन्फ्ूयज है, कहीं और ढूंढ लीजिए।’ अब क्या करें। अगला जी.टी.एस. बंेच मार्क मीलों दूर और सड़क मार्ग से परे था। चौकी प्रभारी नहीं माना तो हमारे सर्वे ऑफीसर भी फैल गये। फील्ड कार्य का लम्बा तजुर्बा होने के कारण उन्हें अपने पर पूरा विश्वास था। उन्होंने चौकी प्रभारी को जी.टी.एस. बंेच मार्क संरचना विस्तार से समझाया और कहा कि ‘यदि यहाँ प्रयुक्त पीतल की प्लेट, जिस पर संख्या अंकित है, नहीं मिलती है तो आप हमारे विरुद्ध कार्यवाही कर सकते हैं।’ चौकी हटाई गयी और अंकित पीतल की प्लेट देखकर चौकी प्रभारी को अपनी गलती का अहसास हुआ और शायद उस दिन ही वह सर्वे ऑव इण्डिया विभाग की महत्ता समझा होगा।

            
          प्रसंग इसलिए कि इसी माह शुरूआत में जनकवि व पर्यावरणविद चन्दन नेगी जी के साथ मसूरी घूम रहा था तो सन् 1885 में निर्मित कुलड़ी स्थित ‘सेण्ट्रल मेथोडिस्ट चर्च’ देखने भीतर गये। चर्च के आंगन में उत्तरी दिशा में एक जी.टी.एस. बंेच मार्क -1908 पर नजर पड़ी, जिस पर समुद्र तल से ऊंचाई 8570.028 फीट अंकित है। (गौरतलब है कि ब्रिटिश सिस्टम- एफ. पी. एस. में लम्बाई के माप फीट में है जबकि अमेरिकन सिस्टम एम. के. एस. में माप मीटर में लिखे जा रहे हैं।)
           
          जी.टी.एस. सर्वेक्षण की वह विधा है जिसमें उच्च वैज्ञानिक परिशुद्धता के साथ माप लिए जाते हैं। भारतीय सर्वेक्षण विभाग के स्थापना के लगभग सैंतीस वर्ष बाद एक इन्फेण्ट्री ऑफीसर विलियम लैम्बटन द्वारा यह त्रिकोणमितीय विधा सर्वप्रथम सन् 1802 में प्रारम्भ की गयी थी। आज भले ही उच्च तकनीकी के उपकरण आ गये हैं किन्तु लगभग दो सौ साल पहले इस विधा द्वारा ही माउण्ट एवरेस्ट, के-2 आदि हिमालयी पर्वत श्रेणियों की ऊंचाई की वास्तविक गणना की जा सकी है। भारत की आजादी तक सर्वेक्षण विभाग में गोरे लोग ही मुख्य पदों पर रहे है किन्तु यह गौरव की बात है कि नैन सिंह रावत और कृष्णा सिंह रावत जैसे भारतीय सर्वेक्षकों का ल्हासा-तिब्बत की ऊंचाई और ब्रह्मपुत्र नदी की लम्बाई नापना जैसे महत्वपूर्ण कार्यों में प्रमुख योगदान रहा है।

Wednesday, October 30, 2019

तुम छली निकले सुरेन्द्र भाई!

Me & Surendra Pundir
       सुरेन्द्र भाई ने मुझे आश्वासन दिया था कि ‘तुम्हें ‘जॉर्ज एवरेस्ट’ घुमाने की जिम्मेदारी मेरी है।’’ यह आश्वासन महीने-दो महीने पहले नहीं बल्कि तीन-चार साल पहले दिया था। जब भी मिलते, कहते-‘बस गुरूजी, अगले हफ्ते चलेंगे।’ और उनका वह अगला हफ्ता आया भी नहीं कि वे हमसे बहुत दूर चल दिये।
         सोमवार इक्कीस अक्टूबर सुबह प्रवीण भट्ट जी का फोन आया कि ‘‘सुरेन्द्र पुण्डीर हमें छोड़कर चले गये हैं’’ तो कानों पर विश्वास ही नहीं हुआ। एक बार फिर पूछा तो प्रवीण भट्ट जी ने बताया कि ‘मसूरी में घटना घटी और बारह बजे लगभग हरिद्वार के लिए अन्तिम यात्रा निकलेगी।’ फिर भी पुष्टि करने के लिए रमाकान्त बेंजवाल जी और शशी भूषण बडोनी जी को फोन मिलाया। सोशल मीडिया पर भी यह खबर फ्लैश हो गयी तो दिल पर पत्थर रखकर मानना पड़ा कि सुरेन्द्र भाई अब हमारे बीच नहीं है। हरिद्वार खड़कड़ी घाट पर अन्तिम संस्कार में शामिल होने के लिए रमाकान्त बंेजवाल जी और मैं समय पर पहुँच गये थे। मसूरी से उनके परिजन उनका शव लेकर पहुँचे और अन्तिम स्नान के लिए नीचे रखा तो देखा कि सुरेन्द्र भाई अर्थी पर शान्त लेटे थे। सोचने लगा कि काश! कोई चमत्कर होता और सुरेन्द्र भाई उठकर अपने चिरपरिचित अन्दाज में कह उठते ‘और गुरूजी, आ गये?’ परन्तु वे तो अनन्त यात्रा पर जा चुके थे। 
Hand Writing of Surendra Pundir
         सुरेन्द्र भाई से परिचय लगभग ढाई दशक पुराना है, जब मैं रचनाकारों से ‘बारामासा’ के लिए रचना भेजने का आग्रह करता था। तब मोबाइल क्या लैण्ड लाईन फोन ही कम लोगों के पास थे। पूरा संवाद चिट्ठी से ही चलता था। सन् 1996 के आसपास उनकी पहली किताब आयी ‘जौनपुर के लोकदेवता’। पुस्तक पढ़कर जौनपुर के स्थानीय देवताओं के बारे में कितना जाना कह नहीं सकते किन्तु क्लीन सेव्ड गोरा चौड़ा मुखड़ा, माथे से पीछे की ओर सीधे संवारे गये काले घने लम्बे बाल और कभी सिर पर जौनपुरी टोपी, चेहरे पर हर समय निश्चल हंसी, कन्धे पर खादी का झोला, एक आम पहाड़ी कद और व्यवहार में बिल्कुल सरलता देखकर हमारे मन में सुरेन्द्र भाई की छवि ही एक लोकदेवता की बन गयी। सन् 1997 की ही बात होगी जब पर्वतीय ईप्टा के मसूरी प्रभारी सतीश कुमार जी के बुलावे पर एक दिन हम चार लोग- निरंजन सुयाल, जगदम्बा प्रसाद मैठाणी, मोहन बंगाणी और मैं मसूरी पहुंचे तो वहाँ अपनी सदाबहार मुस्कान के साथ उपस्थित सुरेन्द्र भाई के गले लगते हुये निरंजन सुयाल कह ही बैठे ‘मसूरी के लोकदेवता जी’! कैसे हैं आप? तो मैं मुस्कराए बिना न रह सका। पर्वतीय ईप्टा के कार्यक्रम के बीच वहीं गढ़वाल टेरेस में उस दिन सुरेन्द्र भाई की एक मार्मिक कविता ‘किड़ू’ सुनने का सौभाग्य भी मिला।
Jaunpuri Lady : Photo by - Surendra Pundir
          श्रीमती तारा देवी और श्री महेन्द्र सिंह पुण्डीर के घर जुलाई 04, 1956 को जन्मे सुरेन्द्र पुण्डीर जौनपुरी भाषा, जौनपुरी संस्कृति और जौनपुरी साहित्य के एक सच्चे प्रतिनिधि थे। ‘वे जौनपुर के थे’ कहने से अधिक प्रासंगिक होगा यह कहना कि जौनपुर उनके भीतर बसता था। एक दिन रौ में बहते हुये उन्होंने बताया कि वे मूलतः जौनपुर के नहीं बल्कि टिहरी गढ़वाल, कीर्तिनगर विकासखण्ड के अन्तर्गत लोस्तू बडियारगढ़ पट्टी में तल्ली रिंगोली गांव के हैं। उनके पिताजी रोजगार के सिलसिले में मसूरी आये, रोजगार मिला और जौनपुर के लगड़ासू गांव में शादी कर हमेशा के लिए मसूरी के होकर ही रह गये।
         मसूरी में लण्ढ़ौर कैण्ट के मलिंगार लॉज में रहकर सुरेन्द्र भाई की परवरिश व शिक्षा-दीक्षा हुयी। परिवार के भरण पोषण के लिए कुछ रोजगार जरूरी था। पिताजी के गुजर जाने के बाद परिवार की आर्थिक स्थिति कमजोर होने के कारण चार भाईयों में सबसे बड़े सुरेन्द्र भाई ने पढ़ाई के साथ-साथ पहाड़, विशेषकर जौनपुर के हस्तशिल्प, यथा टोपी, मफलर, स्वैटर आदि की दुकान खोली। मसूरी पर्यटक केन्द्र होने के कारण ही नहीं अपितु सुरेन्द्र भाई के व्यवहार कुशल होने के कारण दुकान खूब चल पड़ी। शिक्षा के प्रति समर्पित थे ही इसलिए संघर्ष के साथ-साथ उन्होंने एम. ए.(हिन्दी) की डिग्री भी ली। लेखन का शौक उन्हें पत्रकारिता की ओर ले आया जबकि साहित्य के प्रति रुचि होने के कारण लेख, फीचर, कविता आदि भी निरन्तर लिखते रहे। गढ़वाल के बावन गढ़ों में से एक ‘विराल्टा गढ़’ जैसे अनेक जगहों के बारे में मैं सुरेन्द्र भाई के लेखों से ही जान पाया। प्रवक्ता पद पर तैनाती के दौरान वे राजकीय इण्टर कॉलेज, घोड़ाखुरी (जौनपुर) में तैनात रहे किन्तु दुर्भाग्य से वर्ष अक्टूबर 2004 के शासनादेश के दायरे में आने और नौकरी की अवधि कम होने के कारण पेन्शन से वंचित रह गये। नौकरी पर रहे तो अपने तैनाती स्थल घोड़ाखुरी के इतिहास, भूगोल की रोचक, सुन्दर व प्रभावशाली जानकारी अपनी लेखनी द्वारा उन्होंने ही दी, इतनी कि हर पाठक के मन में घोड़ाखुरी देखने की इच्छा जाग गयी।
L to R : Surendra Pundir, N.K.Hatwal, Me & S.N.Badoni
       अमर उजाला व मसूरी टाईम्स जैसे समाचार पत्रों से ही नहीं अपितु अलीक, सिद्ध, पहाड़ आदि अनेक संस्थाओं से वे सीधे जुड़े हुये थे। उनका किसी पत्र या संस्था से जुड़ना नाममात्र जुड़ना नहीं होता था बल्कि अपने कन्धो पर वे पूरी जिम्मेदारी लेते थे। मासिक पत्रिका ‘लोकगंगा’ के प्रकाशक/सम्पादक श्री योगेश चन्द्र बहुगुणा जी के अस्वस्थ होने के कारण आजकल वे लोकगंगा के नये अंक के प्रकाशन के लिए दिन रात एक किये हुये थे। दायां हाथ कुहनी से नीचे पोलियों ग्रस्त होने के साथ-साथ परिवार की आर्थिक तंगी भी उनकी रचनाशीलता में कभी बाधा नहीं बनी और न उन्होंने कभी यह कमियां उजागर होने दी। वे निरन्तर सृजनरत रहे।
           साहित्यिक कार्यक्रम कहीं पर भी हो अपनी जौनपुरी टोपी और मनमोहक मुस्कान के साथ सुरेन्द्र भाई वहाँ उपस्थित मिलते। सोशल मीडिया और इधर-उधर प्रकाशित होती उनकी कविता की गहराई से मैं बहुत प्रभावित था। एक दिन बातों-बातों में मैने जिक्र किया ‘भाई, आपकी कविताएं जगह-जगह प्रकाशित भी खूब होती रहती है इसलिए कि उनमें दम है। सभी रचनाएं एक संग्रह में आ जायेगी तो अच्छा ही होगा?’ कहने लगे ‘गुरूजी, मेरे पास पाँच सौ से अधिक कविताएं है, एक संग्रह जरूर प्रकाशित करूंगा। परन्तु इतनी जल्दी क्या है?’ और आज अचानक जब वे चले गये तो तब लगा कि जल्दी थी सुरेन्द्र भाई।
Surendra Pundir, Me & Yogesh Ch. Bahuguna
         सृजन-साहित्य से जुड़ा उत्तराखण्ड का हर शख्स सुरेन्द्र भाई से परिचित है और उनके निर्विवाद व्यक्तित्व से प्रभावित भी। उनकी स्निग्ध हंसी ही ऐसी थी कि हर कोई उनसे जुड़ना चाहता। मसूरी तो उनका घर ही था। सत्य प्रसाद रतूड़ी, रामस्वरूप सिंह रौंछेला, रस्किन बॉण्ड, स्टीव आल्टर, हरिदत्त भट्ट ‘शैलेश’, गणेश शैली आदि सभी से उनकी घनिष्ठता रही। उत्तराखण्ड में लोकप्रियता के मामले में कह सकते हैं कि वे बी. मोहन नेगी जी के समान ही सबके चहेते रहे हैं।
       ‘जौनपुर के लोक देवता’, ‘जौनपुर के तीज त्यौहार’ ‘मसूरी के शहीद’, ‘जौनपुर: सांस्कृतिक एवं राजनीतिक इतिहास’ तथा ‘जौनपुर की लोक कथाएं’ उनकी प्रकाशित रचनाएं हैं। रचनाओं के कई-कई संस्करण प्रकाशित होना सुरेन्द्र भाई की लेखकीय क्षमता के परिचायक है। ‘मसूरी के शहीद’ के बारे में एक दिन बता रहे थे कि लगभग हर साल इस पुस्तक का एक संस्करण खप जाता है। ‘जौनपुर के लोक देवता’ का अंग्रेजी अनुवाद ‘गॉड्स ऑव जौनपुर’ अलग से प्रकाशित हुआ है। ‘यमुना घाटी के लोकगीत’ और ‘उत्तराखण्ड जन आंदोलन के नायक’ पुस्तकें उनकी प्रकाशनाधीन हैं।
         सुरेन्द्र भाई, विश्वास नहीं हो रहा है कि आज तुम हमारे बीच नहीं हो। सदमे से उबरने में समय लगेगा। किन्तु हर सभा समारोहों में, साहित्यिक हलचलों में तुम्हारी कमी बहुत खलेगी भाई। तुम हमेशा याद आओगे भाई।

मेरे मुल्क की लोककथाएं



         क्या आपने ये किस्सा सुना है कि एक शादी में लड़की वालों ने लड़के वालों के सामने शर्त रखी हो कि बाराती सभी जवान आने चाहिए, बूढ़ा कोई न हो। लेकिन बाराती बरडाली के बक्से में छुपाकर एक सयाना व्यक्ति को ले गए। बारात पहुंची तो लड़की के पिता ने शर्त रखी कि सभी मेहमानों के लिए हमने एक-एक बकरे की व्यवस्था कर रखी है। हर एक बाराती को एक-एक बकरा खाकर खत्म करना होगा तभी अगले दिन दुल्हन विदा होगी। यह शर्त सुन कर सभी बाराती सन्न रह गए।
         एक बाराती ने बरडाली के बक्से के पास जाकर सारी बातें बुजुर्ग से कही तो बुजुर्ग ने उपाय बताया कि एक-एक करके बकरा मारो और मिल बांट कर खाओ। फिर तो सारी रात ऐसा ही किया और बाराती शर्त जीत गए।

         अगर आपने यह किस्सा सुना है और अपनी यादों को ताजा करना चाहते हैं तो आप ‘शूरवीर रावत’ द्वारा संग्रहित, लिप्यांकित लोककथा संग्रह ‘‘मेरे मुल्क की लोककथाएं’’ जरूर पढ़ें। अगर नहीं सुना है तो तब तो जरूर पढ़ें। समझ लीजिए आपने अपने समय और समाज की नब्ज पढ़ ली।
       शूरवीर रावत द्वारा संग्रहीत इस लोककथा संग्रह की लोककथाएं अपने दौर की सामाजिक सोच और मनोदशाओं को प्रकट कर रही है। ये लोककथाएं बता रही हैं कि हमारे समाज की क्या मान्यताएं और मूल्य हैं, क्या पूज्य, क्या सम्मानजनक और क्या अपमानजनक है। हमारे समाज में किस प्रकार की सोच, विश्वास, अंधविश्वास प्रचलित हैं। ये कथाएं समाजिक सच को पूरी ईमानदारी के साथ बयां कर रही हैं।

        संग्रह में 42 कथाएं संग्रहीत हैं। ये कथाएं लेखक ने किसी क्षेत्र विशेष में जाकर संग्रहीत नहीं की बल्कि बचपन से लेकर अब तक अपनी स्मृतियों में संचित कथाओं को लिख लिया है। यूं भी लोककथाएं स्मृतियों का आख्यान होती हैं। लेखक के अनुसार, ‘‘ह्यूंद की सर्द रातों में भट्ट, बौंर या भुने हुए आलू खाते हुए और कभी किसी के घर में शादी ब्याह होने पर पड़ाव किसी दोस्त के घर पर होता तो वहां उसकी दादी या घर की ही किसी बुजुर्ग महिला या पुरूष से अनेक कथाएं मैंने सुनी हैं।’’ इन कथाओं का फलक विस्तृत है। इन कथाओं को आप सिर्फ गढ़वाल या उत्तराखण्ड की न कह कर भारत की लोककथाएं भी कह सकते हैं। लेखक के अनुसार, ‘‘इस संग्रह की कथाएं किसी समाज विशेष का प्रतिबिम्ब नहीं हैं बल्कि पूरे जनपद, पूरे राज्य या पूरे मुल्क के किसी भी कोने की कथा हो सकती है।’’
Image may contain: 1 person, outdoor
डॉ0 नन्द किशोर हटवाल
        जिन्होंने पहाड़ों और गांवों में जीवन का अधिकांश हिस्सा बिताया उन्हांने इस संग्रह में संकलित कुछ किस्से-कहानियों को हो सकता है पहले भी सुना हो या पूर्व प्रकाशित संकलनो में पढ़ा हो। संग्रह में संकलित कतिपय कहानियां मैंने पहले भी सुनी-पढ़ी थी तो कतिपय मेरे लिए एकदम नयी थी। असल में लोकसाहित्य अधिकांश विधाएं समाज में एकाधिक रूपों में प्रचलित रहती हैं। लोककथाओं के मामले में यह अधिक है। एक ही कथा के कई वर्जन प्रचलित रहते हैं। जितनी बार आप पढ़ेंगे सुनेंगे उतनी ही बार आपको एक नए रूप से परिचित होने का मौका मिलेगा।
        अपने सधे हुए लेखन से इन लोककथाओं को लेखक ने पठनीय बनाया है। शूरवीर रावत निरन्तर रचना करने वाले लेखक हैं। पूर्व में वे बारामासा पत्रिका का सम्पादन व प्रकाशन करते रहे। यात्राओं पर केन्द्रित उनकी पुस्तक ‘आवारा कदमों की बातें’, कविता संग्रह ‘कितने कितने अतीत’ अपने गांव पर केन्द्रित किताब ‘मेरे गांव के लोग’ और सोशल मीडिया में लिखे गए उनके लेखों का संकलन ‘चबूतरे से चौराहे तक’ उनके लेखन की निरन्तरता को बयां कर रहा है। वे फेसबुक और ब्लॉग के माध्यम से भी निरन्तर सक्रिय हैं।  लोककथा संग्रह ‘मेरे मुल्क की लोककथाएं’ के लिए रावत जी बधाई के पात्र हैं।

 पुस्तक का नाम -  मेरे मुल्क की लोककथाएं        प्रकाशक -  विनसर पब्लिशिंग कं0  देहरादून,  उत्तराखण्ड
मूल्य - रू. 195 कुल पृष्ठ सं.-144      समीक्षक :  डॉ0 नन्द किशोर हटवाल

Sunday, April 28, 2019

दो कौड़ी का मोल

गुस्से में आदमी पता नहीं क्या-क्या गालियां देता है। गालियों के अलग-अलग रूप है, अलग-अलग स्तर है। देश, काल, परिस्थितियों के अनुसार गालियों का रूप बदल जाता है। गालियां सुनना कोई भी पसन्द नहीं करता है, किन्तु यदि कोई तीसरा व्यक्ति गालियों में आपके दुश्मन की सात पीढ़ियां नाप रहा हो तो वह सुनना कर्णप्रिय हो सकता है। खैर!!

एक गाली नहीं उलाहना है ‘दो कौड़ी की औकात नहीं और......।’ आखिर ये कौड़ी है क्या? यह प्रश्न सालों से दिमाग को मथ रहा था। उत्तर मिला भी तो सुदूर अण्डमान भ्रमण के दौरान पोर्टब्लेयर के ‘‘नैवल मैरीन म्यूजियम समुद्रिका’’ में।
प्रागैतिहासिक काल में कब्रिस्तानों से प्राप्त प्रमाण इस ओर इशारा करते हैं कि कौड़ियां (सीपियां) मुद्रा का प्रारम्भिक रूप है। इसका छोटा, चमकीला व आकार में एक समान होना, कम बजन, प्रचुर मात्रा में आसानी से उपलब्धता आदि गुणों के कारण कौड़ी को मुद्रा रूप में प्रयोग के लिए उचित माना गया। मुद्रा रूप में कौड़ियों का उपयोग अफ्रीका, दक्षिण भारत, फिलीपींस व मलाया में अधिक हुआ माना जाता है। 

प्राचीन चीन में तो बिक्रमीसंवत के दो हजार साल पहले से ही कौड़ियों का उपयोग हुआ माना जाता है।
सिकन्दर महान से पूर्व भारत में कौड़ियों का प्रचलन व्यापक रूप में था। - - - - - - एक खोज के अनुसार सन् 1740 में एक भारतीय रुपये का मूल्य 2400 कौड़ियां थी और सन् 1845 में 6500, जबकि सन् 1920 में शाहपुर सरगोदया में एक रुपये के बदले कुल 960 कौड़ी बदली गयी। 

कौड़ियों को धन का प्रतीक भी माना जाता है। शायद इसीलिए माँ लक्ष्मी की फोटो में कौड़ियों को उनके पैरों पर दिखाने की परम्परा है।

Sunday, March 17, 2019

तुम्हारे जाने के बाद



हमारे खेत बंजर हैं
गावं के दर्जनों खेतों के बीच।
उनमें अब हल नहीं चलते,
उनमें नहीं रेंगती बैलों की जोड़ियां।

जबकि
जन्में थे कितने ही बैल हमारी गोठ में।
वो गायें भी आज नहीं रही,
जिनके बच्चे हुआ करते थे बैल।
 
गोठ में आज सन्नाटा है
सुनी जा सकती है वहाँ केवल
मकड़ियों की पदचाप और
दीमकों की सरसराहट।

और माँ !
यह सब हुआ है
तुम्हारे गुजर जाने के बाद। 

 


Sunday, January 27, 2019

‘सुख’ - कीर्ती चौधरी

आज अल्बम में अपनी लगभग तैंतीस बरस पुरानी फोटो देखी और उसी दौरान लेखकद्वय (मन्नू भण्डारी और राजेन्द्र यादव) के उपन्यास ‘शह और मात’ पढ़ने का मौका मिला। उपन्यास में कीर्ती चौधरी की ‘‘सुख’’ कविता याद आ गयी, जो तब अपने बैचलर जीवन में मैंने न जाने कितनी बार दोहराई होगी। -------------- 
आज अर्थ ढूंढ रहा हूँ!

रहता तो सब कुछ वही हैये पर्दे, यह खिड़की, ये गमले...
 बदलता तो कुछ भी नहीं है ।
लेकिन क्या होता है
कभी-कभी
फूलों में रंग उभर आते हैं
मेज़पोश-कुशनों पर कढ़े हुए
चित्र सभी बरबस मुस्काते हैं,
दीवारें : जैसे अब बोलेंगी
आसपास बिखरी क़िताबें सब
शब्द-शब्द
भेद सभी खोलेंगी ।
अनजाने होठों पर गीत आ जाता है ।

सुख क्या यही है ?
बदलता तो किंचित् नहीं है,
ये पर्दे--यह खिड़की--ये गमले...

Monday, December 24, 2018

व्हाई डिड नॉट यू सिंग कमली ‘सतपुली का सैण मा...’

बचपन में एक कारुणिक गीत अक्सर सुनते थे;
द्वी हजार आठ भादौं का मास, सतपुली मोटर बगीन खास।
शिवानन्द को छयो गोवरधन दास, छै हजार रुप्या थै वैका पास।

जिया ब्वै कू बोलणू रोणू नी मैकु .....। 

 (दुःख है कि आज पूरा गीत याद नहीं है। संवत 2008 के भादौं/सन् 1951 सितम्बर माह की घटना है जब सतपुली में पूर्वी नयार नदी की बाढ़ में जन-धन व मवेशियों की भारी हानि हुयी। बाढ़ की विकरालता की कल्पना इसी से की जा सकती है कि नयार नदी पर बना पुल भी बाढ़ की भेंट चढ़ गया। उसी त्रासदी में जीवन खो देने वाले एक शिवानन्द के पुत्र गोवरधन भी थे जिन पर आशु कवियों द्वारा उपरोक्त गीत रचा गया था।)
 सतपुली की बात आते ही इस मार्मिक गीत की पंक्तियां जेहन में गूंजने लगती और ऐसा लगता कि सतपुली आज भी उस घटना से उबर नहीं पाया होगा। सच कहूँ तो सतपुली के प्रति संवेदना का कुहासा वर्षों बाद तब छंटा जब प्रख्यात गीतकार चन्द्र सिंह राही जी ने 1983 में फिल्म ‘‘जग्वाळ’’ के लिए गीत गाया था।
‘नि जाणू नि जाणू कतई नि जाणू सतपुळी का मेळा मेरी बऊ सुरेला।
नि जाणू नि जाणू जमई नि जाणू पंचमी का मेळा मेरी बऊ सुरेला।
सतपुळी का सैण मेरी बऊ सुरेला।..................’
सतपुली का दूसरा रोमाण्टिक पहलू भी है, दिल ने तब माना।
सतपुली मैंने सन् 1990 में पहली बार देखा, जब इलाहाबाद से लौटते हुये कोटद्वार से श्रीनगर जाना हुआ। सन् 1951, 1983 और 1990 के बाद जमाना बहुत बदल चुका है। तीस हजार से अधिक आबादी वाले पूर्वी नयार नदी के बायें तट पर बसा सतपुली आज नगर पंचायत क्षेत्र है। पौड़ी जिले के पन्द्रह विकास खण्डों में से एक सतपुली, दो सौ तिरेसठ गांव वाला विकासखण्ड सतपुली अब एक पृथक तहसील भी है। 105 किलोमीटर लम्बे पौड़ी-कोटद्वार मार्ग के लगभग मध्य में स्थित और समुद्रतल से मात्र साढ़े छः सौ मीटर ऊंचाई पर बसा सतपुली समशीतोष्ण जलवायु वाला नगर है। सतपुली नगर से एक किलोमीटर पश्चिम में पूर्वी व पश्चिमी नयार नदी का संगम है और निरन्तर पश्चिम वाहिनी होते हुये नेगी जी की ‘‘रुकदी छै ना सुख्दी छै, नयार जनी बग्दी छै.......’’ के यथार्त के साथ लगभग पच्चीस किलोमीटर दूरी तय कर ब्यासघाट के पास गंगा नदी की बाहों में समाकर अपना अस्तित्व खो बैठती है। 

आज सतपुली नगर में अनेक कार्यालयों के अतिरिक्त राष्ट्रीयकृत बैंकों की शाखाएं, इण्टर कॉलेज, आई0 टी0 आई0, पोलीटेक्निक, नवोदय विद्यालय, राजकीय महाविद्यालय आदि शैक्षणिक संस्थान ही नहीं ‘द हँस फाउण्डेशन’ का सभी सुविधाओं से युक्त 150 बेड का अस्पताल भी है। पौड़ी, कोटद्वार ही नहीं सतपुली नगर देवप्रयाग, थलीसैण आदि महत्वपूर्ण स्थलों से भी सीधा जुड़ा हुआ है। 
माना जाता है कि कोटद्वार से इस मार्ग पर सातवें पुल के पास बसे होने के कारण इसका नाम सात पुल और ‘सतपुली’ पड़ा। उत्तराखण्ड के वर्तमान मुख्यमंत्री श्री त्रिवेन्द्र सिंह रावत जी के मौसेरे भाई डेरयाली(गुमखाल) निवासी अड़सठ वर्षीय श्री बीरेन्द्र सिंह बिष्ट जी बताते हैं कि उनके दादा स्व0 चन्द्र सिंह बिष्ट आजादी से पहले सतपुली में बस गये थे और सन् पचास के दशक में वे सतपुली के मालदार लोगों में से थे क्योंकि उनका व्यवसाय ठीक-ठाक चलता था। छहत्तर वर्ष की आयु में उनका देहान्त सन् 1972 में हो गया। श्री बीरेन्द्र सिंह बिष्ट जी का कहना था कि उसी दौर में राजस्थान मारवाड़ से रोजगार की तलाश में जोधराज नाम का एक व्यक्ति आया और दूसरों की मजदूरी करते-करते सतपुली में बस गया और कुछ साल सतपुली का बड़ा व्यापारी बन गया। आज राजस्थान निवासी जोधराज जी के वंशज सतपुली मंे है या नहीं कहा नहीं जा सकता।
डामटा व छाम की ही भांति ‘‘माछा-भात’’ के लिए विख्यात सतपुली को साहित्यकार अशोक कण्डवाल जी के कविता संग्रह ‘‘गौंदार की रात’’ में जगह नहीं मिल पायी। (मुझे यकीन है/ तुम कभी/ डामटा नहीं गये/तुमने/छाम भी नहीं देखा/फिर तुम्हें क्या पता/ जमुना या/ भागीरथी की/ मछलियों की/ पाँखें ओर आँखंे/ कैसी होती है।..........) 

पाँच-छ दशक पहले तक सतपुली में होटल व्यवसायियों की अपेक्षा स्थानीय निवासी कम थे। सड़क मार्ग से जुड़े होने के कारण सुबह जल्दी बस पकड़ने या देर शाम को पहुँचने पर परदेश से आने-जाने वाले लोग प्रायः सतपुली में रुक जाते थे और पौड़ी, कोटद्वार जाने वाली बसें यहाँ पर कुछ देर के लिए अवश्य रुकती थी। फिर जी. एम. ओ. यू. कार्यालय भी सतपुली में था। सतपुली में अक्सर फौजियों की गहमा-गहमी रहती थी। वक्त बदला, फौजियों का आना-जाना कम हुआ क्योंकि ज्यादातर फौजी सुविधाजनक स्थानों पर बस गये हैं। सतपुली में आज आस-पास के गांवों के लोग ही नहीं नौकरी-पेशा बाहरी व्यवसायी लोग भी बस गये हैं।  नयार नदी की उपजाऊ घाटी में बसे खैरासैण, राज सेरा, चमशु, बड़खोलू, रौतेला, बूंगा, बांघाट, बिलखेत, दैसण, मरोड़ा आदि गांवों की भूमि कभी सोना उगलती थी। बल्कि यह कहना ज्यादा प्रासंगिक होगा कि कुछ दशक पहले तक ही सतपुली गढ़वाल का एक सम्पन्न अन्न भण्डार क्षेत्र था। परन्तु आज पलायन के कारण अधिकांश गांवों की भूमि बंजर पड़ी हुयी है। 
उत्तराखण्ड राज्य की इस अठारहवीं वर्षगांठ पर एक प्रश्न मन में अवश्य उठता है कि मुख्यमंत्री त्रिवेन्द्र सिंह रावत जी की इस नयार घाटी में क्या कभी फसलंे फिर से लहलहायेगी, दूध-घी की नदियां फिर से बहेगी, वह बहार फिर से लौट सकेगी, खण्डहर हो चुके घरों में क्या कभी फिर से दीया जल सकेगा?