Saturday, April 30, 2011

रोहिणी-गाथा


   (05 मई -गुरुवार को अक्षय तृतीया पर विशेष )                 
             सौर-मंडल का नाम है दक्ष और जो उसकी सत्ताईस कन्यायें कही जाती है - वे सत्ताईस नक्षत्र हैं. ये नक्षत्र सौर-मंडल के उस रास्ते में हैं, जहाँ से सातों ग्रह सूर्य के चारों ओर घूमते हैं. ब्रह्मांड एक गोलाई लिए हुए है, और वह गोलाई तीन सौ साठ अंश की होती है. इसी में एक निश्चित दूरी बनाये हुए सत्ताईस नक्षत्र हैं. हर नक्षत्र तेरह अंश बीस कला की दूरी पर है. यही राजा दक्ष की सत्ताईस कन्यायें हैं, जो चन्द्रमा की सत्ताईस पत्नियाँ भी कही जाती हैं.
                यह कहा जाता है की चन्द्रमा को सत्ताईस पत्नियों में से रोहिणी नाम की पत्नी सबसे अधिक प्रिय थी और बाकी पत्नियों ने उसी की शिकायत अपने पिता राजा दक्ष से की थी - इसका विज्ञान यह है कि जब चन्द्रमा सब नक्षत्रों से गुजरता हुआ रोहिणी नक्षत्र पर आता है, तो वह स्थिति चन्द्रमा की उच्च स्थिति मानी जाती है.
            बैशाख के शुक्ल-पक्ष की तृतीया को अक्षय तृतीया कहा जाता है, क्योंकि उस रात चन्द्रमा का सौन्दर्य देखने वाला होता है, तब वह रोहिणी नक्षत्र से गुज़रता है. अगर उस समय बुध ग्रह भी रोहिणी नक्षत्र से गुज़र रहा हो, तो यह वही क्षण होता है, इलाही-नूर का - जिसे ब्रह्म दर्शन भी कहा जाता है.
                कवि तुलसीदास ने उस क्षण के सौन्दर्य का चौपाई में वर्णन किया और हज़रत मुहम्मद ने उसी क्षण के दर्शन को उस झंडे पर उतारा, जो उन्होंने अपनी कौम को दिया. उस लहराते हुए झंडे पर तीज के चाँद की फांक होती है, और ऊपर बुध का सितारा. ग्रहों के इस मिलन का निश्चित बिंदु प्रकृति के सौन्दर्य की एक ऐसी घटना है - जिसका दर्शन इन्सान को विस्माद की अवस्था में ले जाता है.
                                                                                                                                  अमृता प्रीतम
                                                                                                                           ( 'अक्षरों की अंतर्ध्वनि ' से साभार )

Tuesday, April 19, 2011

जो शहीद हुए हैं उनकी जरा याद करो क़ुरबानी........

{सम्पूर्ण उत्तराखंड में वीर सपूतों की याद में जगह-जगह बैसाख और जेठ माह में मेले लगते हैं. अप्रैल 1895में ग्राम मंज्यूड़,पट्टी बमुंड,टिहरी गढ़वाल में बद्री सिंह नेगी के घर जन्मे तथा प्रथम विश्वयुद्ध में शहीद हुए वीर गबर सिंह नेगी, विक्टोरिया क्रास की स्मृति में उनके गाँव के निकट चंबा में 15 दिसंबर 1945 को  वीर गबर सिंह स्मारक बनाया गया, जहाँ पर हर वर्ष बैसाख आठ गते (20 अप्रैल )को विशाल मेला लगता है. गढ़वाल रायफल्स  द्वारा मेला प्रारंभ से पूर्व सलामी दी जाती है. परन्तु 1982 में वीर गबर सिंह नेगी की पत्नी सतुरी देवी के निधन के बाद मेले की अब बस औपचारिकता मात्र रह गयी है.}  
प्रथम विश्वयुद्ध प्रारंभ हुआ उस समय भारतीय सेनाएं युद्ध के लिए पूर्णतः तैयार नहीं थी. मुख्य कारण यह कि उस समय तक भारतीय सेनाओं को मुख्यतः दो ही कार्य करने होते थे-
1.-देश के भीतर आन्तरिक शांति कायम करना.  और
2.- दूसरे देशों में जाकर ब्रिटेन की सेना को सहायता प्रदान करना. 
अगस्त 01, 1914 को भारतीय सेना युद्ध में भाग लेने के लिए निम्न प्रकार डिविजनों में विभाजित की गयी-
1-पेशावर, 2-रावलपिंडी, 3-लाहौर, 4- क्वेटा, 5-महू, 6 -पूना, 7-मेरठ, 8- लखनऊ, 9-सिकन्दराबाद, और 10-बर्मा 4 
इस महायुद्ध में भारत की रियासती सेनाओं के लगभग 20,000 सैनिकों ने शाही सेना की सेवा के लिए विश्व के विभिन्न रणक्षेत्रों में भाग लिया. भारतीय फौजी दस्तों ने फ़्रांस, बेल्जियम, तुर्की, मेसोपोटामिया (ईराक), फिलिस्तीन, ईरान, मिश्र और यूनान में हुए अनेक युद्धों में भाग लिया. इनमे यूरोप और अफ्रीका में स्थित वे रणक्षेत्र भी सम्मिलित हैं जहाँ खतरों से घिरे विकट दर्रों तथा गर्म जलवायु या अधिक शीत को झेलते हुए भारतीय सैनिकों को अपनी क्षमता का प्रयोग करना पड़ा, जिसके लिए भारतीय सेना के 11 सैनिकों को ब्रिटिश साम्राज्य के सर्वोच्च सैनिक सम्मान "विक्टोरिया क्रास" (Victoria Cross) से सम्मानित किया गया. इस सन्दर्भ में ब्रिगेडियर राजेंद्र सिंह ने कहा कि "प्रथम विश्वयुद्ध में भारतीय सपूतों की वीरता तथा धैर्य की अमर कहानी का मूल्य सम्पूर्ण विश्व की समस्त सम्पति से बढ़ कर है, यदि हमें वह उपहारस्वरुप दी जाय." 
गढ़वाल राइफल्स-हिमालय की गोद में बसे गढ़वाल के वीर सैनिक भारतीय सेना में विशिष्ट स्थान रखते हैं. उनका गौरवपूर्ण इतिहास रहा है. भारतीय सेना में इन्होने अपनी अपूर्व निष्ठा, साहस, लगन, निडरता, कठोर परिश्रम, भाग्य पर विश्वास एवं कर्तव्य पालन से विशिष्ट पहचान बनायी है. प्रथम महायुद्ध में 39वीं गढ़वाल राइफल्स की फर्स्ट व सेकंड बटालियने मेरठ डिविजन के अंतर्गत 11 अक्टूबर 1914 को मरसेल्स पहुँची. उस समय मेरठ डिविजन में तीन ब्रिगेड थे- (i) देहरादून ब्रिगेड  (ii) गढ़वाल ब्रिगेड व   (iii) बरेली ब्रिगेड.  गढ़वाल ब्रिगेड के कमांडर मेजर जनरल एच० डी0 युकेरी तथा ब्रिगेडिएर जनरल ब्लेकेडर के अधीन गढ़वाल रायफल्स ने फ़्रांस तथा बेल्जियम के युद्ध क्षेत्रों पर अपना मोर्चा सम्भाल लिया.
फेस्टुबर्ट का संग्राम (फ़्रांस)- 23, 24 नवम्बर 1914 को फेस्टुबर्ट के निकट जर्मनों के खिलाफ अति महत्वपूर्ण लडाई लड़ी गयी. जर्मन ने यहाँ मोर्चा बना कर खाईयां खोद रखी थी और वहां से जमकर गोलाबारी कर रहे थे. इस फ्रंट पर फिरोजपुर ब्रिगेड को पीछे हटना पड़ा था और उन खाईयों पर जर्मनों ने कब्ज़ा कर दिया था. इन परिस्थितियों में 39वीं गढ़वाल रायफल्स की फर्स्ट बटालियन को आदेश दिया गया की वे खाई पर आक्रमण करें. लक्ष्य प्राप्ति व परिस्थितियों को पक्ष में करने के लिए सर्वप्रथम बमवर्षा व गोलियों की बौछार की गयी. कमांडर का विचार था कि भयानक वमबर्षा व गोलीबारी से स्थिति पर नियंत्रण होगा, शत्रुओं का मनोबल टूटेगा तथा कवरिंग फायर की मदद से आगे बढ़ सकेंगे. गढ़भूमि का वीर सपूत नायक दरबान सिंह नेगी ही पहला व्यक्ति था जो दुश्मनों की गोलियों और बमों की परवाह न करते हुए कुछ फीट दूरी से ही मुकाबला कर रहा था. इस साहस व वीरतापूर्ण कार्य में दो बार घायल हुआ लेकिन वह सच्चे सैनिक की भांति दर्द की परवाह न करते हुए भी खाई में दुश्मनों से लड़ता रहा. कई बार दुश्मनों को पछाड़ कर पीछे किया और कई बार मौत के मुंह में जाते-जाते बचा और अंततः बुरी तरह घायल होते हुए भी खाईयों पर फतह पा ली. इस अदम्य साहस और शौर्य के लिए ब्रिटिश सरकार ने उन्हें सर्वोच्च सैनिक सम्मान "विक्टोरिया क्रास" से सम्मानित किया. इस वीरतापूर्ण मोर्चे पर जान की परवाह न करते हुए जिन्होंने डटकर साथ दिया वे थे- सूबेदार धन सिंह (मिलिटरी क्रास), सूबेदार जगतपाल सिंह रावत(आर्डर ऑफ़ ब्रिटिश इंडिया) तथा हवालदार आलम सिंह नेगी, लांसनायक शंकरू गुसाईं तथा रायफलमैन कलामू बिष्ट (इंडियन आर्डर ऑफ़ मेरिट). गढ़वाली जवानों ने दुश्मन की खाईयों में हजारों जर्मन सिपाहियों को मौत की नींद सुला दिया और हजारों को बंदी बना दिया. 24 नवम्बर सुबह तक खाईयों पर पूरी तरह 39वीं गढ़वाल रायफल्स की फर्स्ट बटालियन के जवानों ने कब्ज़ा कर लिया.
न्यूवे चैपेल का संग्राम (फ़्रांस) - यह सबसे बड़ी एकल लड़ाई थी जिसमे 10 से 12 मार्च 1915 तक चले इस संग्राम में 39वीं गढ़वाल रायफल्स की सेकंड बटालियन ने अपना जौहर दिखाया और इंडियन ट्रूप्स के लिए गौरव की प्राप्ति की. जर्मनों ने यहाँ पर चार मील लम्बा अभेद्नीय मोर्चा कायम कर रखा था. 600 गज का एक फ्रंट अटैक 10 मार्च 1915 की सुबह आर्टिलरी बैराज से शुरू हुआ. उस सुबह कड़ाके की ठण्ड, नमी और घना कोहरा था. इसके अतिरिक्त दलदली खेतों, टूटी झाड़ियों और कांटेदार तारों के कारण परिस्थितियां अत्यंत विकट थी. आमने सामने की भिडंत और भयंकर गोलीबारी और बमवर्षा के बाद रात 10 बजे समाप्त हुआ. इस फ्रंट पर रायफलमैन गबर सिंह नेगी ने दुश्मनों पर बड़े साहस के साथ गोलियां बरसाई जब तक कि वे आत्मसमर्पण के लिए तैयार नहीं हो गए. एक सच्चे सिपाही की भांति वे युद्ध भूमि में अंतिम क्षण तक डटे रहे और फर्ज के लिए अपने प्राण न्यौछावर कर दिए. इस अदम्य साहस और पराक्रम के लिए ब्रिटिश सरकार ने उन्हें मरणोपरांत सर्वोच्च सैनिक सम्मान "विक्टोरिया क्रास" से सम्मानित किया. इस युद्ध में 20 अफसर और 350 सैनिकों ने अपने प्राणों का उत्सर्ग किया उनमे 39वीं गढ़वाल रायफल्स की सेकंड बटालियन के सूबेदार मेजर नैन सिंह (मिलिटरी क्रास), हवालदार बूथा सिंह नेगी (इंडियन आर्डर ऑफ़ मेरिट), नायक जमन सिंह बिष्ट (इंडियन आर्डर ऑफ़ मेरिट) तथा सूबेदार केदार सिंह( इंडियन डिसटीन्गुअश सर्विस मेडल) हैं.
 39वीं गढ़वाल रायफल्स की वीरता और साहस से प्रभावित होकर फील्ड मार्शल फ्रेंच ने वायसराय को यह रिपोर्ट भेजी; " इंडियन कोर की सारी यूनिटें जो न्युवे चैपल की लड़ाई में लगी है उन्होंने अच्छा कार्य किया. जिन्होंने विशेष तौर पर प्रसिद्धि पाई उनमे 39वीं गढ़वाल रायफल्स की फर्स्ट और सेकंड बटालियने प्रमुख है."
          प्रथम विश्वयुद्ध (1914 -18) में 39वीं गढ़वाल रायफल्स दोनों बटालियनों ने विक्टोरिया क्रास सहित 25 मेडल्स प्राप्त किये, जो उन्हें विशिष्ट सैनिक सेवाओं और शौर्य के लिए प्रदान किये गए तथा गढ़वाल रायफल्स को रायल (Royal) की पदवी से भी सम्मानित किया गया. जो युद्ध भूमि में अपने प्राण न्यौछावर कर गए उन सबकी स्मृति में लैंसडौन-जो कि गढ़वाल रायफल्स का मुख्यालय है (पौड़ी. उत्तराखंड) में 1923 में युद्ध स्मारक का निर्माण किया गया. यह स्मारक तीर्थस्थल की भांति पवित्र और पूज्य है.
                                                                                                     
                                                                                                     डॉ० उदयवीर सिंह जैवार
                                                                                    "प्रथम  विश्वयुद्ध  में  गढ़वाल  राइफल्स की भूमिका  (1914-18)" के सम्पादित अंश            

Saturday, April 16, 2011

शिक्षक ! मेरे बच्चे को इस योग्य बनाना कि ........


शिक्षक ! 
मेरे बच्चे को रट्टू तोता मत बनाना 
उसे अक्षर बताना.

शिक्षक !
मेरे बच्चे को लूट की तरकीब मत बताना 
चारों तरफ फैला है लूट का साम्राज्य
इस शिक्षा में भरे हैं उसके अवगुण 
एक पाठ कम पढ़ाना. 

शिक्षक !
हो सके तो मेरे बच्चे को भला आदमी बनाना 
स्कूल भेजते वक्त 
मेरा बच्चा बहुत चंचल था
हमने उसका नाम भी यही रखा
तुम्हारी कक्षा में जरूर हो जाता होगा दायें-बाएं 
बच्चे की शरारत माफ़ करना.

शिक्षक !
मेरे बच्चे को गऊ मत बनाना  
प्यार बहुत बड़ी चीज है, लेकिन 
नफरत बहुत बुरी चीज नहीं 
जुल्म के बनैले पशुओं के खिलाफ 
उसे गुस्सा आना ही चाहिए.

शिक्षक !
मेरे बच्चे को इतनी आग देना 
कि वह इस जंगल-तंत्र को जलाने का हौसला रखे
तुम्हारे ही हुनर से बनना है बालक मन को, भविष्य को 
पेशे की गरिमा बचाए रखना
शिक्षक ! मेरे बच्चे को इस योग्य बनाना 
कि वह तुम्हे इज्ज़त बख्शे.
                                                                                                                                   राजेश्वरी
                                                                                                                    ('दस्तक' अंक 41 जुलाई-अगस्त 2009 से साभार )  
 

Sunday, April 03, 2011

सामाजिक जागरूकता व व्यापक चिंतन की अभिव्यक्ति है नेगी जी के कोलाज


नेगी जी का विस्तृत परिचय आपने 28 मार्च 2011 की पोस्ट में पढ़ा;
प्रस्तुत है नेगी जी के शिल्प से परिचय का चौथा व आखिरी पड़ाव -
4- कोलाज - इस विधा के अंतर्गत नेगी जी ने अपने रेखाचित्रों के साथ लोकप्रिय गढ़वाली, कुमाउनी व हिंदी कवियों की उत्कृष्ट कविताओं को उकेरा है. कविता पोस्टर ही उन्हें  प्रसिदधी के उच्च शिखर पर ले गया है. कविता पोस्टर के माध्यम से ही उनके बहुआयामी व्यक्तित्व की झलक मिलती है.  

Saturday, April 02, 2011

अद्भुत व अप्रतिम सौन्दर्य झलकता है नेगी जी के कविता पोस्टरों में

नेगी जी का विस्तृत परिचय आपने 28 मार्च 2011 की पोस्ट में पढ़ा;

प्रस्तुत है नेगी जी के शिल्प से परिचय का तीसरा पड़ाव -
2- कविता पोस्टर - इस विधा के अंतर्गत नेगी जी ने अपने रेखाचित्रों के साथ लोकप्रिय गढ़वाली, कुमाउनी व हिंदी कवियों की उत्कृष्ट कविताओं को उकेरा है. कविता पोस्टर ही उन्हें  प्रसिदधी के उच्च शिखर पर ले गया है. कविता पोस्टर के माध्यम से ही उनके बहुआयामी व्यक्तित्व की झलक मिलती है. 






                                                                                              जारी है अगले अंक में .......           

Thursday, March 31, 2011

लोक संस्कृति व लोकपरम्परा के सजग प्रहरी हैं बी० मोहन नेगी

नेगी जी का विस्तृत परिचय आपने 28 मार्च व 30 मार्च 2011 की पोस्ट में पढ़ा;
प्रस्तुत है नेगी जी के शिल्प से परिचय का अगला पड़ाव -
2- बिन्दुओं (dots) द्वारा रेखाचित्र- यह विधा मूल रूप से यद्यपि रेखांकन ही है किन्तु इसमें बीच के स्थान को बिन्दुओं द्वारा भर कर नेगी जी ने अभिनव प्रयोग किया है. जिससे इस श्रेणी के रेखांकन सम्मोहित करते से प्रतीत होंते हैं. इन चित्रों के माध्यम से उन्होंने लोकपरम्पराओं व लोकसंस्कृति के विभिन्न रंग उकेरे हैं.          

Tuesday, March 29, 2011

बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी है बी0 मोहन नेगी

नेगी जी का विस्तृत परिचय आपने पिछले अंक में पढ़ा;
प्रस्तुत है नेगी जी के शिल्प से परिचय  -
1-रेखाचित्र- इस विधा के माध्यम से उन्होंने हिमालयी सौन्दर्य, लोकजीवन, लोकपरम्परा व श्रृंगार के संयोग व वियोग पक्ष को अभिव्यक्त किया है.                                    




                                           जारी है अगले अंक में ......     

Monday, March 28, 2011

बी0 मोहन नेगी - जिनके आराध्य है रेखा और बिंदु -1

           उत्तराखंड हिमालय ही नहीं अपितु हिंदी की साहित्यिक व सामाजिक सरोकारों वाली पत्र पत्रिकाओं से वास्ता रखने वाले ऐसे विरले ही होंगे जो बी0 मोहन नेगी जी की कला से वाकिफ न हो. सीधी व आड़ी - तिरछी रेखाओं और बिन्दुओं को अभिव्यक्ति का माध्यम बनाकर लगभग पिछले चार दशक से साधनारत है. प्राकृतिक सुषमा से परिवर्धित हिमालय का सम्मोहित करने वाला सौन्दर्य वर्णन हो या हिमालय वासियों की प्रकृति प्रदत्त सहजता, सरलता व निश्चलता हो या फिर अल्हड चंचल बालाओं का स्वाभाविक नख सिख वर्णन अथवा अभावग्रस्त नारी की पीड़ा हो सभी कुछ अभिव्यक्त हुआ है उनके चित्रशिल्प में.
  जो कुछ सीखा प्रकृति के सानिद्ध्य में सीखा. स्कूल कालेज में इस तरह के प्रशिक्षण का सौभाग्य ही नहीं मिल पाया. नेगी जी वार्ता के दौरान कहते हैं "......... अभिभूत करने वाला हिमालय का यह सौन्दर्य स्वयं ही शिक्षक है और  यही सौन्दर्य मेरी प्रेरणा को स्फुरित व अनुप्राणित करता है. हिमालय के पास हमें देने के लिए अपार सम्पदा है...."    
और सच भी है हिमालय के सौन्दर्य पर मर मिटे थे प्रकृति के चितेरे कवि सुमित्रानंदन पन्त; " 
छोड़ द्रुमों की मृदु छाया, 
तोड़ प्रकृति से भी माया, 
                                         बाले ! तेरे बाल जाल में कैसे उलझा दूं लोचन, ......"  
और अपने काफलपाकू कवि चन्द्र कुंवर बर्त्वाल ने लिखा है; "  
   जाने  कितने प्रिय जीवन, 
    किये मैंने तुझको अर्पण, 
           माधुरी मेरे हिमगिरी की. ...."  
यह नेगी जी का हिमालय प्रेम ही है कि देहरादून जन्मस्थली होने के बावजूद वे पौड़ी जाकर बस गए. रेखाओं द्वारा देवी, देवताओं के चित्र उकेरने का सिलसिला किशोरावस्था में शुरू हुआ जो शौक बन गया और फिर साधना. वे कब प्रकृति के मोहपाश में बन्ध गए समझ ही नहीं पाए. जब भान हुआ तो प्रकृति उनकी सहचरी बन चुकी थी. अपने मित्रों के सहयोग से सन 1984 में गोपेश्वर में जब पहली कविता पोस्टर की प्रदर्शनी लगाई तो दर्शक दंग रह गए. सब वाह-वाह कह उठे. तब से उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा. देश के विभिन्न नगरों, महानगरों में अपनी चित्रकला की प्रदर्शनी लगा ख्याति अर्जित कर चुके हैं 
परन्तु आज भी चरैवैती, चरैवैती उनका मूल मंत्र है. 
         ऐसा भी नहीं कि नेगी जी ने चित्रकला को धनोपार्जन का साधन बनाया हो. कहते हैं, " जिसमे लालच हो, स्वार्थ हो वह कला कैसी ? कला तो ईश्वर को समर्पित की जानी चाहिए. आजीविका के लिए नौकरी ही काफी है. ......" सच भी है उनसे पत्र या फोन द्वारा निवेदन किया जाय कि इस प्रयोजन हेतु कुछ चित्रों की आवश्यकता है तो मैं समझता हूँ उन्होंने 'ना' कदाचित ही किसी को किया हो. 
         नेगी जी जितने बड़े चित्रशिल्पी हैं उतने ही सरल, मृदुभाषी व व्यवहार कुशल. उनकी स्निग्ध मुस्कान बरबस आकर्षित करती है. आत्मीयता इतनी कि पौड़ी जाना हो तो उनसे मिले बिना नहीं रहा जाता. और संभवतः इसीलिये उनके चाहने वालों की कतार बहुत लम्बी है.
बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी भाई नेगी जी की कला को शिल्प की दृष्टि से चार भागों में विभक्त किया जा सकता है, 1 - रेखाचित्र   2 - बिंदुओं (dots) द्वारा रेखाचित्र   3 - कविता पोस्टर और   4 - कोलाज
                                                                                              नेगी जी के शिल्प से परिचय अगले अंक से......
                                                                                                                                    

Thursday, March 24, 2011

शून्य क्षितिज के पार

मन उदास होता है बहुत
जब आती है याद तुम्हारी.
चाहत की आस लिए 
सपनों के पंख लगाकर 
उड़ता है यह मन 
शून्य क्षितिज के उस पार.
और शाम की लालिमा 
उतर आयी है धरा पर .
पक्षियों का कोलाहल 
निश्छल, शांत वातावरण में 
छेड़ जाता है मधुर संगीत 
चुराकर जैसे तुम्हारी आवाज !

आलिंगन में लेने आकाश को
शिखरों सी ऊंची बाहें फैलाये 
आतुर बनी यह धरती,
और जाने क्यों
याद आने लगता है फिर से -  
उन संगमरमरी बाँहों का बंधन,
गंध तुम्हारी देह की 
बसी जो है साँसों में 
असह्य पीड़ा, अपार दुःख लिए यह मन 
लौट आना चाहता है फिर से
तुम्हारे गेसुओं की छांव में !!

Friday, March 18, 2011

हो ली है !!!

  मत जा रे पिया होली आयी रही 
 जिनके पिया परदेश भयो है           
 उनकी नारी रोई रही, मत जा रे पिया.............  
                उत्तराखंड में होली मनाने की कई पद्धतियाँ प्रचलित है. कुमाऊ में होलिका दहन के काफी पहले से बैठ होली मनाई जाती है .इसमें बड़े बुजुर्ग होरी के गीतों को एक स्थान पर बैठ कर गाते हैं और एकादशी से छरड़ी तक गाँव, गाँव घर-घर जाकर यह गीत गाये जाते हैं. गढ़वाल में एकादशी को मेहल की टहनी को होलिका का प्रतीक मानकर पंचायती चौक में गाड़कर पूजा जाता है, उस पर रंगीन कपड़ों के टुकड़े व पैसे बांधकर सजावट की जाती है और उसके चारों ओर घूम-घूम कर होरी गीत गाये जाते हैं............. 
            शहरी क्षेत्रों में गुझिया व अन्य पकवान बनते हैं तो गढ़वाल में भूड़ी-पकोड़ी बनाकर खुशियां मनाई जाती है. होलिका दहन के बाद तो समूचा पहाड़ रंगों से नहा उठता है............ 
                                                                 प्रीतम अपछ्यांण के लेख "  उत्तराखंड के होरी गीत से "  साभार     
        

                   !!!  इब्लॉ हुँने  वाले  !!!









भी लिखाड़ीयों को होली की रं बिरंगी शुकानायें 

Saturday, March 12, 2011

नरेन्द्र सिंह नेगी के गीतों में बसंत वर्णन - 2


बसंत को ऋतुराज कहा जाता है. बसंत पंचमी से बसंत का आगमन माना जाता है. किन्तु पहाड़ों में शीत अधिक होने के कारण बसंत का चरम चैत्र मास ही माना जाता है. (चैत्र की शुरुआत तो फाल्गुन पूर्णिमा (होली) के बाद  मानी जाती है. किन्तु नेपाल व पंजाब आदि की भांति उत्तराखंड हिमालय में चन्द्र मास नहीं अपितु सूर्य मास के आधार पर तिथि की गणना होती है और सूर्य मास के अनुसार चैत्र प्रायः 14 या 15 मार्च से प्रारंभ होता है.) बसंत उन्माद का महीना है, रंग विरंगा बसंत जीवन की विविधता को दर्शाता है किन्तु यह भी सत्य है कि बसंत में विरह की तड़प और भी बढ़ जाती है. गढ़ शिरोमणि, गढ़ रत्न आदि अनेकानेक सम्मान व पुरस्कारों से सम्मानित जनता के सरताज और गढ़वाली भाषा के सशक्त हस्ताक्षर भाई नरेन्द्र सिंह नेगी की अनेक कविताओं में बसंत ऋतु और विरह का वर्णन मिलता है. नेगी जी की रचनाओं में बसंती बयार में नायक नायिका का मन मयूर नाच उठता है तो कहीं यही बसंत व्याकुल हृदयों के लिए कसक का कारण बन जाता है. बसंत ऋतु को माध्यम बनाकर गढ़ हिमालय का सौन्दर्य वर्णन उनकी काव्य कला का उत्कर्ष है.    
बसंतऋतु पर नेगी जी की ये कवितायेँ उत्कृष्ट रचनाओं में रखी जा सकती है;
1 . ऋतु चैत की......  2. बसंत ऋतु मा जैई........ 3 . कै बाटा ऐली......... और 4 . हे जी सार्यूं मा बौड़ीगे.......
२. - बसंत ऋतु मा जैई
मेरा डांडी कान्ठ्यूं का मुलुक जैल्यु बसंत ऋतु मा जैई, 
बसंत ऋतु मा जैई.......... 
हैरा बणु मा बुरांशी का फूल जब बणाग लगाणा  होला,
भीटा पाखों थैं फ्यूंली का फूल पिंगल़ा रंग मा रंगाणा होला,
लय्या पय्यां ग्वीर्याळ फुलू न होली धरती सजीं देखि ऐई. बसंत ऋतु मा जैई.......... 
{ भावार्थ:  नेगी जी ने वर्णन किया है कि मेरे पहाड़ों में जब भी जाना चाहोगे तो बसंत ऋतु में जाना. जब हरे भरे जंगलों में सुर्ख लाल रंगों में खिले बुरांश के फूल धधकती हुयी अग्नि का आभास करायेंगे, घाटियों को फ्योंली के फूल बासंती रंग में रंग रही होगी और शेष धरती लाई (सरसों), पय्यां और ग्वीराळ (कचनार) के फूलों से रंगी  अपनी सुन्दरता का बयां कर रही होगी. }
नेगी की गीतों में प्रकृति चित्रण हो या विरह की पीड़ा, विशेषता यह है कि सारे उपमान स्थानीयता से लिए गए हैं. उन्होंने अपने गीतों में पतंग, मोर, कमल पुष्प आदि शब्दों का प्रयोग नहीं किया है. वे अपने गीतों के माध्यम से गढ़वाली के विस्मृत शब्दों को भी सामने लाये हैं. अपने गीतों में जो बिम्ब उन्होंने उभारे हैं  यह उनकी अद्भुत कल्पना शक्ति से ही संभव हुआ है.
इसी गीत की  दूसरी अंतरा में उन्होंने हिमालय की अद्भुत छटा के साथ गढ़वाल की लोकरीति और लोक परंपराओं का वर्णन किया है.
बिन्सिरी देळयूं मा खिल्दा फूल  राति गौं गौं गितान्गु का गीत,
चैती का बोल औज्युं का ढोल  मेरा रौन्तेळl मुल्कै की रीत,
मस्त बिगरैला बैखु का ठुमका बांदू का लसका देखि ऐई.  बसंत ऋतु मा जैई..........    
{भावार्थ : वर्णन है कि मेरे पहाड़ों में बसंत ऋतु में जब जाओगे तो वहां परम्परानुसार मुंह अँधेरे ही देहरी पर फूल डले हुए दिख जायेंगे, तो  गाँव गाँव में लोक कलाकारों द्वारा पूरी-पूरी रात गीत सुनने को मिलेंगे. नयनाभिराम दृश्य समेटे मेरे पहाड़ की लोकरीति के अनुसार पूरे साल नहीं केवल चैत के महीने ही मांग कर गुजारा करने वाले 'चैती' के भावपूर्ण बोल और ढोल वादकों के ढोल पर मंत्रमुग्ध ताल भी आपको सुनने को मिलेगी, वहीं इतराते इठलाते मस्त युवाओं के ठुमके भी देख सकोगे तो चित्ताकर्षक अभिनय करती सुंदरियों का नृत्य भी.}
दूरदर्शन द्वारा कुछ वर्ष पूर्व एक प्रोग्राम आया था " नोस्टाल्जिया ऑफ़ मुकेश ". जिसमे मुकेश की जादू भरी आवाज में ' मेरा जूता है जापानी ......'  ' हम उस देश के वासी हैं ........'  आदि गीतों का प्रसारण किया गया. मुकेश के इन गीतों को किसने लिखा, किसने संगीत दिया नहीं जानता हूँ. किन्तु नेगी ने प्रकृति के सानिदध्य में रहकर सारे गीत स्वयं लिखे हैं,  संगीत भी स्वयं दिया और प्रत्येक गीत को उसके भावानुसार प्रभावी स्तर पर टिकाये रखकर स्वयं गाया है. गीत, संगीत और स्वर, पूरे माद्यम पर उनकी अद्भुत पकड़ है.
इसी गीत की एक और अंतरा में देखिये ;
 सैणा दमाला अर चैते बयार  घस्यारी गीतुन गुन्ज्दी डांडी 
खेल्युं मा रंगमत ग्वैर छोरा  अटगदा गोर घमणान्दी घांडी 
उखी फुंडै होलू खत्युं मेरु बि बचपन उक्रि सकिलि त उक्री क लैयी. बसंत ऋतु मा जैई..........
{भावार्थ : वर्णन है कि दूर- दूर तक फैले हुए समतल बुग्यालों के मेरे पर्वतीय प्रदेश में आपको चैत में मकरंद लिए मदहोश करती मंद-मंद बहती बसंती बयार का अहसास होगा और पहाड़ियों पर विरहा भोगती या अपना दर्द बयां करती कारुणिक आवाज में घसियारिनों के गीत गूंजते सुनोगे. एक ओर जहाँ पालतू पशु जंगल में खा पीकर मस्ती में उछलते कूदते गले में बंधी घंटियों से वातावरण को संगीतमय बना रही होंगी. वहीं ग्वाले खेल में सब कुछ भुलाये बैठे होंगे. और , हाँ ! वहीं आस पास ही कहीं मेरा बचपन बीता है, जिसे याद कर मै भावुक हो जाता हूँ , उन यादों को, उन स्मृतियों को यदि तुम उठाकर ला सकोगे तो अवश्य ले आना.}   
                                                                                            अगले अंक में -  हे जी सार्यूं मा बौड़ीगे.............

Thursday, March 10, 2011

नरेन्द्र सिंह नेगी के गीतों में बसंत वर्णन


       चैत्र मास शुरू होने में अब एक सप्ताह से भी कम का समय शेष है. वैसे चैत्र की शुरुआत तो फाल्गुन पूर्णिमा (होली) के बाद ही होगी. किन्तु नेपाल देश व पंजाब आदि राज्यों की भांति उत्तराखंड हिमालय में चन्द्र मास नहीं अपितु सूर्य मास के आधार पर तिथि की गणना होती है. और सूर्य मास के अनुसार चैत्र 14 या 15 मार्च से प्रारंभ होता है. बसंत को ऋतुराज कहा जाता है. बसंत पंचमी से बसंत का आगमन माना जाता है किन्तु पहाड़ों में शीत अधिक होने के कारण बसंत का चरम चैत्र मास ही माना जाता है. बसंत उन्माद का महीना है, रंग विरंगा बसंत जीवन की विविधता को दर्शाता है किन्तु पहाड़ की विषमताओं व अभाव के कारण यहाँ का जीवन विरह प्रधान है और बसंत में विरह की तड़प और भी बढ़ जाती है. गढ़ शिरोमणि, गढ़ रत्न आदि अनेकानेक सम्मान और पुरस्कारों से सम्मानित जनता के सरताज और गढ़वाली के सशक्त हस्ताक्षर भाई नरेन्द्र सिंह नेगी की अनेक कविताओं में बसंत ऋतु और विरह का वर्णन मिलता है. नेगी जी की रचनाओं में बसंती बयार में नायक नायिका का मन मयूर नाच उठता है तो कहीं यही बसंत व्याकुल हृदयों के लिए कसक का कारण बन जाता है. बसंत ऋतु को माध्यम बनाकर गढ़ हिमालय का सौन्दर्य वर्णन उनकी काव्य कला का उत्कर्ष है.    
  बसंत ऋतु पर नरेन्द्र सिंह नेगी जी की ये चार कविताएं उत्कृष्ट रचनाओं में रखी जा सकती है;
1 . ऋतु चैत की...  2. बसंत ऋतु मा जैई.... 3 . कै बाटा ऐली.... और 4 . हे जी सार्यूं मा बौड़ीगे.......
 ऋतु चैत की...
 डांडी कांठी को ह्यूं गौळीगी होलू, मेरा मैत कु बोण मौळीगी होलू 
चखुला घोलू छोड़ी उडणा होला, बेटुला मैतुड़ा को पैटणा होला.
घुघूती घुरौंण लगीं मेरा मैत की, बौड़ी बौड़ी ऐगे ऋतु ऋतु चैत की............
(भावार्थ: मायके की याद में दिन गिन रही बेटी बसंत आते ही तड़प उठती है और उसके मुंह से बोल फूट पड़ते हैं कि - पहाड़ों की बर्फ अब पिघल चुकी है, चारागाहों में नयी नयी कोपलें फूट आयी होगी, चिड़ियाएँ भी घोसले से बाहर निकलकर खुली हवा में उड़ रही होगी और बेटियां मायके की तैयारी कर रही होगी. क्योंकि चैत्र मास लौट आया है और घुघूती (फाख्ता )अब अपनी मधुर आवाज में तड़प को और बढ़ा रहा है.)
  इसी गीत की दूसरी अंतरा में गढ़वाल हिमालय का सौन्दर्य वर्णन यहाँ की लोकपरम्परा और लोक जीवन के साथ मिश्रित होकर अनुपम छटा बिखेरता है.
डांडयूं खिलणा होला बुरांशी का फूल, पाख्युं हैंसणी होली फ्योंली मुलमुल.
फुलारी फूलपाती लेकी देळयूं देळयूं जाला, दगडया भाग्यन थड्या चौंफल़ा लगाला.  
घुघूती घुरौंण लगीं मेरा मैत की, बौड़ी बौड़ी ऐगे ऋतु ऋतु चैत की...........
 (भावार्थ: ऊंचे पहाड़ों में जहाँ बुरांश के फूल खिले होंगे वहीं घाटियों में फ्योंली के फूल मंद मंद मुस्करा रही होंगी . बसंत ऋतू के आगमन पर देहरी देहरी पर फूल डालने वाले बच्चे घर घर जायेंगे और भाग्यशाली सहेलियां  थड्या और चौंफल़ा नृत्य पर थिरकंगी. क्योंकि चैत्र मास लौट आया है......... )
                                                                                                           अगले अंक में -  बसंत ऋतु मा जैई....

Thursday, March 03, 2011

दास्तान मेरे सुल्तान की

बच्चों की जिद और कुछ आस पड़ोस की देखा-देखी,
माँ और पत्नी की लाख मनाही के बावजूद,
पाई, पाई जोड़ कर संकट के लिए रखे पैंसों से
खरीद लाया मै विदेशी नस्ल का एक कुत्ता.
मैथ्स, फिजिक्स के फार्मूलों से कहीं अधिक 
कुत्ते की प्रजातियाँ है याद मेरे होनहार बच्चों को, 
इसलिए पूँछ कटे इस कुत्ते को उन्होंने 'डोबरमैन' बताया.  

इस विदेशी पूँछ कटे कुत्ते की पीठ सहलाते जाने क्यों 
बाबा भारती सा आनन्दित हो जाता हूँ मै,
और भावनाओं के अतिरेक में बह मैंने भी 
नाम 'सुल्तान' रखा है इस पूंछ कटे कुत्ते का.
गाँव में कभी गाय, बैल, भैंसों के सींगों को बार-त्यौहार 
तेल लगा चमकाते जो खुशी होती थी मेरे बड़े- बूढों को
उससे कहीं अधिक पुलकित होता हूँ जब
नहलाता हूँ शैम्पू से सुल्तान को हर इतवार मल-मल कर.

गर्दन पर बंधी मोटी चमकीली सांखल पकड़े
तमगे लटकाए फौजी अफसर सा अकड़ कर मै
कुत्ता घुमाने (नहीं, नहीं , कुत्ता हगाने) के बहाने रोज 
सुबह-सवेरे निकलता हूँ मोहल्ले की सड़कों पर.
मेरी भी थोड़ी इज्ज़त बढ़ गयी है मोहल्ले में 
कल तक वर्मा जी ! वर्मा जी ! कहने वाले पडोसी 
वर्मा साहब कह कर अब पुकारने लगे हैं. 
सड़कों पर अक्सर फब्तियां कसते आवारा लड़के भी
अंकल जी !अंकल ! जी कह अब मान देने लगे हैं.

किताबों से दूर भागने वाला मै पढता हूँ गीता, रामायण की तरह 
अब  'फूडिंग एंड हैबिट्स ऑफ़ डॉग' जैसी किताबें.
वक्त बेवक्त धमक कर चाय सुड़कने वाले पडोसी,या
अख़बार के नाम पर सुबह वक्त ख़राब करने वाले पडोसी 
अब आते हैं सोच-समझ कर ही, क्योंकि अपने गेट के बाहर
मैंने भी लटका दी  है  'यहाँ कुत्ते रहते हैं ' की एक सुन्दर सी तख्ती. 

हर आगुन्तक को शक की नज़र से देखता या 
"  कुत्ता भय से भौंकता है "  की कहावत चरितार्थ करता 
जोर-जोर से भौंकता जब भी , तो न जाने क्यों 
मंत्रोच्चार कर स्वागत करता सा लगता मुझे कुत्ता .
ऊंचा कद, ऊंचे ओहदे वाला ही क्यों न हो आगुन्तक 
सोफे पर शान से उनके बराबर में जा बैठता है कुत्ता. 

पर हकीकत, साल भर बाद सुना रहा हूँ तुम्हे दोस्तों !
कुत्ते की सेहत मेंटेन रखने को हमारी वैष्णवी रसोई में पकने लगा मांस 
हंसी ख़ुशी गुजारा हो जाता था वेतन से, अब एडवांस, लोन लेकर भी 
नहीं बचता पैसा एक भी अपने पास. पहले 
तुलसी, गोमूत्र से गमकता था घर, अब टट्टी,पेशाब से गंधीयाता है घर. 
झूठी शान बखारता मै, मुटिया रहा खूब यह पूंछ कटा कुत्ता .
बीबी के ताने सुनता मै, खाली जेब भटकता, बन गया मै गली का कुत्ता. 
रोज हाथ जोड़ फरियाद करता हूँ खुदा से -कोई खडग सिंह आये और 
इस कलयुगी सुल्तान को धोखे से नहीं, खुशी खुशी लूट ले जाए. 



 

Monday, February 28, 2011

कण्व ऋषि की प्रतीक्षा में है कण्वाश्रम -3

अंतिम किश्त. ( क्रमशः अंक 2 से आगे  ............)
कण्वाश्रम                                                                 साभार गूगल
युधिष्टर के शाशनकाल तक कण्वाश्रम लोकप्रियता के चरम पर था. महारिशी वेदव्यास कुलपति तो रहे ही बल्कि उनके द्वारा अनेक ग्रंथों की सृजन स्थली भी यह आश्रम व मालिनी तट ही रहा. चाणक्य काल में यद्यपि तक्षशिला व मगध विश्वविध्यालय भी अस्तित्व में आ गए थे, किन्तु कण्वाश्रम महत्वहीन नहीं हुआ था. महाकवि के 'रघुवंशम' के अनुसार उनके समय में यह मथुरा के नीप वंशीय राजा सुवर्ण के अधीन था.  विदेशी आक्रमणों, छोटे-छोटे रजवाड़े बन जाने और संभवतः आश्रम को योग्य कुलपति न मिलने के कारण शनैः शनैः कण्वाश्रम अपना महत्व खोता गया और यह राहगीरों, यात्रियों, फकीरों का अड्डा बन कर ही रह गया.  
घाटी में सैकड़ों गुफाएं व समय समय पर उत्खनन के उपरांत प्राप्त भग्नावशेषों से यहाँ पर आश्रम होने की पुष्टि होती है. आश्रम के मानदंडो के अनुरूप यहाँ पर विद्यालय,छात्रावास, सम्मलेन स्थल आदि व कृषि योग्य प्रचुर भूमि भी आज भी है. कण्वाश्रम के छः-सात मील उत्तर में कौशिकी नदी किनारे विश्वामित्र की गुफा है जिसे स्थानीय लोग विस्तरकाटल कहते हैं, जो कि संभवतः विश्वामित्र काटल का अपभ्रंश है. आस पास सिद्धे  की धार, सिद्धे की गाजी आदि अनेक स्थल है. मालिनी उपत्यका के सौंदर्य ने "अभिज्ञानशाकुंतलम" जैसी अमर कृति के लिए भावभूमि का काम किया है. संभव है महाकवि कालिदास को मालविकाग्निमित्रं, रघुवंशम, कुमारसम्भवम आदि ग्रथों की सामग्री भी यहीं कहीं मिल गयी हो. 
वर्तमान परिप्रेक्ष्य में देखें तो समुद्र तल से लगभग साढ़े पांच सौ मीटर की ऊंचाई पर स्थित कण्वाश्रम विकास समिति, कोटद्वार  द्वारा विकसित स्थल के उत्तर में मध्य हिमालय है व दक्षिण में भावर (हल्की ढलान लिए मैदानी) क्षेत्र.  मालिनी के बाएं तट पर कोटला, गोरखपुर, नंदपुर, पदमपुर, शिवराजपुर, दुर्गापुर, मावाकोट, लिम्बूचौड़, घमंडपुर आदि गाँव  तो दायें तट पर उदैरामपुर, कमालगंज, भीमसिंग पुर, मानपुर, त्रिलोकपुर, गीतापुर, हल्दूखाता, किशनपुरी आदि गाँव है. मालिनी को मालन या मालिन नदी कह कर संबोधित किया जाने लगा है. वर्षा का औसत वर्ष दर वर्ष कम होने से मालिनी में पानी बहुत कम रह गया है. बल्कि यह कहना ज्यादा प्रासंगिक होगा की मालिनी वर्तमान में बरसाती नदी बन कर रह गयी है.  गढ़वाल मंडल विकास निगम द्वारा "कण्वाश्रम विश्राम गृह" बना तो दिया गया है किन्तु कोटद्वार से पांच छः मील दूर होने व सुविधाएँ न होने के कारण शायद ही कोई यहाँ रुकता हो. मुज़फ्फरनगर निवासी व्यक्ति द्वारा यहाँ पर एक गुरुकुल की स्थापना की गयी है किन्तु अभी गुरुकुल जैसा कुछ भी नहीं दिखाई दिया. कण्वाश्रम विकास समिति द्वारा प्रतिवर्ष बसंत पंचमी पर दो तीन दिन का मेला आयोजित करवा इति समझी जाती है. चिंता का विषय है कि हमें अपनी थाती, अपनी विरासत को सहेजने का सलीका कब आएगा ?  
       कोटद्वार उत्तराखंड राज्य के गढ़वाल संभाग के अंतर्गत पौड़ी गढ़वाल जनपद का तहसील मुख्यालय है. यहाँ पर हनुमान जी के सिद्धबली मंदिर में दूर-दूर से भक्त दर्शनार्थ आते हैं, जो कि खोह नदी के बाएं तट पर एक ऊंची चट्टान पर स्थित है. राज्य सरकार के अनेक विभागों के अतिरिक्त भारत सरकार का उपक्रम 'भारत इलेक्ट्रिकल लिमिटेड ' भी यहाँ पर है. ठहरने हेतु कण्वाश्रम विश्राम गृह के अतिरिक्त गढ़वाल मंडल विकास निगम का 'पनियाली विश्राम गृह ' भी है. वन विभाग का भी पनियाली में विश्राम गृह है. इसके अतिरिक्त पी० डब्लू० डी० का व पेय जल निगम का भी गेस्ट हॉउस है तथा देवयानी, पैराडाईज व राज आदि होटल में ठहरा जा सकता है. दिल्ली से लगभग 250 किलोमीटर व हरिद्वार से 75 किलोमीटर दूरी पर कोटद्वार सड़क व रेल मार्ग से भली भांति जुड़ा हुआ है.  
 
  

Monday, February 21, 2011

कण्व ऋषि की प्रतीक्षा में है कण्वाश्रम -2

(पिछले अंक में आपने पढ़ा कि ऋषि विश्वामित्र किस तरह मालिनी तट स्थित आश्रम में आ गए. यहीं विश्वामित्र और मेनका के संयोग से शकुंतला का जन्म हुआ. मेनका ऋषि विश्वामित्र को पथभ्रष्ट करने के बाद पुत्री व ऋषि को छोड़कर चली गयी. और ऋषि विश्वामित्र भी कुछ समय पश्चात् आश्रम और पुत्री शकुंतला को अपने निकटस्थ महर्षी कण्व को सौंपकर अज्ञात स्थान की ओर प्रस्थान कर गए. )
           संभवतः महर्षि विश्वामित्र के पश्चात् महर्षि कण्व ही आश्रम के कुलपति नियुक्त हुए. शकुंतला का लालन पालन, दुष्यंत-शकुन्तला का प्रेम प्रसंग, भरत का जन्म तथा भरत का बाल्यकाल भी इसी आश्रम में महर्षि कण्व के काल में हुआ. अतः सभी पौराणिक ग्रंथों में यह कण्वाश्रम के रूप में लोकप्रिय हुआ. दुष्यंत शकुन्तला का पुत्र भरत ही चक्रवर्ती सम्राट बना और उनके नाम से ही हमारे देश का नाम भारतवर्ष पड़ा. भरत के पुत्र शांतनु हुए और शांतनु के पुत्र देवब्रत, अर्थात भीष्म पितामह हुए. भरत से ही कौरव, पांडवों को भरतवंशी कहा जाता हैं. 
          विद्वानों की राय में भगवान श्रीकृष्ण के देह परित्याग के पश्चात ही कलयुग प्रारंभ हुआ. कलयुग की गणना को कलिसम्वत कहते हैं. कलिसम्वत को युधिष्टर संवत भी कहा जाता है. कलयुग का प्रारंभ अर्थात द्वापर की समाप्ति. कलिसम्वत के 3044 वर्ष बाद बिक्रमी संवत का प्रारंभ माना जाता है. इस प्रकार भगवान श्रीकृष्ण को इहलोक गए 5100 साल से अधिक हो गए. राजा दुष्यंत युधिष्ठर से छः पीढ़ी पहले हुए अर्थात लगभग 300 बर्ष पूर्व. अतः महर्षि कण्व के समय को लगभग 5400 वर्ष पूर्व माना जा सकता है. महाभारत के आदिपर्व में कण्वाश्रम का वर्णन मिलता है, विद्वानों का मत है कि महर्षि वेदव्यास इसी आश्रम के स्नातक थे और बाद में इसी आश्रम के कुलपति भी नियुक्त हुए. महाकवि कालिदास व उनके दो साथी निचुल और दिगनणाचार्य ने इसी आश्रम में शिक्षा पाई. महाकवि की कालजयी रचना 'अभिज्ञानशाकुंतलम 'में ही नहीं अपितु 'रघुवंशम' के छटे सर्ग में भी कण्वाश्रम का विषद वर्णन मिलता है.          
        महाभारत एवं अभिज्ञानशाकुंतलम के आधार पर यह तो स्पष्ट है कि कण्वाश्रम मालिनी तट पर स्थित था. किन्तु वर्णित मालिनी नदी के विषय में जो भ्रम है वह भी स्पष्ट हो. महर्षि बाल्मीकि ने शोणभद्रा  को मगध मालिनी तथा गढ़वाल मालिनी को उत्तर मालिनी नाम दिया है. बाल्मीकि रामायण में वर्णन है कि राम वनवास के समय भरत को बुलाने जो दूत कैकेय भेजा गया था उसने मालिनी को वहां पर पार किया जहाँ पर कण्वाश्रम था, तत्पश्चात गंगा नदी को. अयोध्या-कैकेय मार्ग आज भी है जो कंडी रोड के नाम से जाना जाता है.(कंडी से अभिप्राय बांस व रिंगाल से बनी टोकरी से है) संभवतः राजाओं, साधुओं, तीर्थयात्रियों व ऋषि मुनियों द्वारा सुदूर क्षेत्रों की यात्रायें इस मार्ग से की जाती रही हो, जिससे यह मार्ग प्रचलन में रहा हो. कंडी रोड चौघाट (चौकी घाट) से होकर गुजरने का वर्णन ग्रंथों में मिलता है. पूरब-पश्चिम दिशा को जाने वाला यह मार्ग कोटद्वार के समीप गढ़वाल व बिजनौर जिले (वर्तमान उत्तराखंड व उत्तर प्रदेश) की सीमा भी है. मालिनी के पृष्ठ भाग में हिमवंत प्रदेश है इसका वर्णन महाभारत में मिलता है.  
प्रस्ते हिमवते रम्ये मालिनीम भितो नदीम.
कालिदास ने मालिनी स्थित कण्वाश्रम को मैदानी व पर्वतीय भूभाग का मिलन माना है.
कार्यसैकतलीनं हंसमिथुना स्रोतोबहामालिनी , यदास्तामाभितो निष्न्नाहरिणा गौरी गुरो पावनः      
मालिनी चरकारण्य पर्वत से प्रवाहित होकर चौघाट तक अल्हड बाला की भांति उछलती कूदती आती है और फिर समतल भूभाग में बहती हुयी रावली (बिजनोर )में गंगा में प्रवाहित हो जाती है.           
                                                                                                                  अगले अंक में जारी ..............

Wednesday, February 09, 2011

कण्व ऋषि की प्रतीक्षा में है कण्वाश्रम -1

कोटद्वार नगर का विहंगम दृश्य                फोटो- गूगल से साभार
                केदारखंड, मध्य हिमालय, खसदेश या उत्तराखंड आदि अनेक नामों से विख्यात यह तपोभूमि सदियों से ऋषि  मुनियों, श्रृद्धालुओं, प्रकृति प्रेमियों व सैलानियों को आकर्षित करती रही है. हिन्दू धर्म शास्त्रों में वर्णित वशिष्ट आश्रम हिन्दावं (टिहरी गढ़वाल) में, अगत्स्य ऋषि का आश्रम अगत्स्यमुनी में होना माना जाता है. तो ब्यासी, ब्यासघाट, ब्यास् गुफा आदि महामुनि ब्यास का इस क्षेत्र से जुड़े होने का पुष्ट प्रमाण है. अत्री, अंगीरा, भृगु, मार्कंडेय, जमदग्नि, मनु, भरद्वाज, दत्तात्रेय आदि अनेक ऋषियों का कर्म क्षेत्र यह पावन भूमि रही है. पौराणिक ग्रंथों में इस क्षेत्र का उल्लेख ब्रह्मऋषि प्रदेश. ब्रह्मावत प्रदेश या ब्रह्मऋषि मंडल आदि के नाम से भी किया गया है. महाभारत कालीन भीम पुल (माणा, निकट बद्रीनाथ),लाक्षागृह (लाखामंडल,जौनसार-देहरादून), युधिष्टर की चौपड़ (गोविन्दघाट ), किरातार्जुन युद्ध स्थल श्रीपुर (श्रीनगर) आदि अनेक घटनाएँ व स्थल उत्तराखण्ड हिमालय की महत्ता को रेखांकित करते हैं. गत चार पांच दशकों से अनेक विद्वान लेखकों के सद्प्रयास से थापली, डूंगरी, रानीहाट, मलारी, मोरध्वज व पुरोला आदि स्थानों पर हुए उत्खनन एवं प्राप्त अवशेषों से उपरोक्त अवधारनाओं को बल ही मिला है बल्कि पुष्ट प्रमाण भी मिले हैं. यह स्पष्ट हो गया है कि भारत की उत्तराखण्ड भूमि भी पिछले पांच हज़ार सालों से सांस्कृतिक रूप से समृद्ध रही है.
                   पुरापाषाणकाल के उपरांत ऐतिहासिक काल के धुंधलके में यदि हम झांके तो किरात, खस, तंगण, नाग, पौरव आदि अनेक राजाओं का उल्लेख हमारे ग्रंथों में है. सम्राट अशोक द्वारा कालसी का शिलालेख, पांचवीं शताब्दी में चीनी यात्री ह्वैनसांग  द्वारा भारत भ्रमण, बौद्धों के बढ़ते प्रभाव को रोकने के लिए आठवीं शताब्दी में आदि शंकराचार्य द्वारा ज्योतिर्मठ की स्थापना व बद्री-केदार मंदिरों का जीर्णोद्धार, कत्यूरी, पंवार व चन्द शासकों का उदय व अस्त की कहानी प्राप्त ताम्रपत्र, सिक्के, पांडुलिपियाँ व अभिलेख भली-भांति बयां करते हैं. भजन सिंह 'सिंह' जी ने अपनी पुस्तक "आर्यों का आदि निवास मध्य हिमालय" में वर्णन किया है कि आर्य मध्य हिमालय के मूल निवासी थे और यहीं से शेष भारत व विश्व में जाकर बसे. किन्तु यह विडम्बना ही है कि पुष्ट प्रमाण होने के बावजूद भी उत्तराखण्ड के अधिकांश पौराणिक स्थलों को वैश्विक स्तर पर पहचान नहीं मिल पाई है. ऐसा ही एक पौराणिक स्थल कोटद्वार से पांच छः मील पश्चिम में उत्तर दक्षिण बहने वाली मालिनी नदी के तट पर स्थित है कण्व का आश्रम- कण्वाश्रम.
                       कथा है, त्रेता युग में अत्यंत ओजस्वी, वीर व धर्म के नियामक हुए महर्षि विश्वामित्र. वह मूलतः एक क्षत्रिय सम्राट थे और किसी घटना से क्षुब्ध होकर वे पद, वैभव, सम्मान, भोग, लालसा त्याग कर वीतरागी हो गए और हट के चलते अपनी दीर्घ जिजीविषा से महर्षि पद को प्राप्त हुए. यह उनकी कठिन साधना का ही परिणाम था कि राजा त्रिशंकु को अपनी साधना बल से स्वर्ग भेजा और इंद्र द्वारा त्रिशंकु को स्वर्ग पहुँचने पर रोके जाने से त्रिशंकु के लिए एक पृथक स्वर्ग का निर्माण किया. (वर्तमान परिपेक्ष्य में देखें तो कई राजनितिक, सामाजिक या सरकारी/गैरसरकारी संघटनों में ऐसी घटनाएँ देखी जा सकती है.)
                   बाल्मीकि कृत रामायण (बालकाण्ड) के अनुसार मगध में शोणभद्रा के निकट माना गया है महर्षि विश्वामित्र का आश्रम-सिद्धाश्रम. प्रत्येक आश्रम का नाम तब सम्मानपूर्वक लिया जाता था, आश्रम को ही ऋषिकुल या गुरुकुल भी कहा जाता था. आश्रम में दस हज़ार मुनियों (विद्यार्थियों) के लिए आवास, भोजन व  विद्यार्जन हेतु भवन आदि के अतिरिक्त शिक्षकों, प्राचार्यों के लिए भी आवास आदि की उचित व्यवस्था होती थी. साथ ही समय-समय पर होने वाले अधिवेशनों, धर्म सम्मेलनों के लिए पर्याप्त स्थान होता था. इसके अतिरिक्त फल, फूल व अन्नोत्पादन हेतु प्रचुर कृषि भूमि का होना भी आवश्यक होता था. 
"मुनीनां दस सहस्त्रं यो अन्न पाकादि पोषणात, अध्यापयति ब्रह्मषीरसौ कुलपति रमतः."   
अर्थात जिस आश्रम में इस तरह की व्यवस्था हो उस आश्रम के महर्षि को कुलपति कहा जाता था.  महर्षि विश्वामित्र द्वारा अवध नरेश दशरथ पुत्र राम व लक्ष्मण को आश्रम की सुरक्षा व राक्षसों के संहार के लिए सिद्धाश्रम ही लाया गया था. सिद्धाश्रम में रहकर ही श्रीराम ने धर्म व नीति के व्यावहारिक पक्ष को जाना तथा अनेक युद्धाश्त्रों का चालन व सञ्चालन सीखा. यहीं पर ही उन्होंने ताड़का व सुबाहु का वध किया था.श्रीराम के वन गमन के बाद राक्षसों के बढ़ते आतंक से खिन्न होकर वे इस हिमवंत प्रदेश आ गए जहाँ पर उन्होंने पुनः सिद्धाश्रम की स्थापना की . 
  "   उत्तरे जान्हवी तीरे हिमवत शिलोच्च्यम."    बाल्मीकि रामायण(बाल कांड ) 
          यह भी संभव है कि मालिनी तट स्थित आश्रम पहले से ही स्थापित हो और विश्वामित्र की महिमा को देखते हुए आश्रम ने उन्हें कुलपति नियुक्त किया हो. यहीं घोर तपस्या में लीन होने पर स्वर्ग के राजा इंद्र ने उनको मार्ग से हटाने के लिए स्वर्ग की अप्सरा मेनका का सहारा लिया. तदोपरांत महर्षि विश्वामित्र और मेनका के संयोग से शकुन्तला का जन्म हुआ.
                                                                                                             अगले अंक में जारी ..............